इलाहाबाद…. माफ कीजिएगा जुबान पर पुराना नाम आ ही जाता है… अब प्रयागराज हो गया शहर । इस शहर से कुछ एक 100 किलोमीटर की दूरी पर प्रतापगढ़ जिले में पिछले दिनों जाना हुआ। कुंभ का समय चल रहा था तो ट्रेनें भी कोचमकोच भरी हुई जा रही थी, लेकिन मन में गंगा जी में डुबकी लगाने की इच्छा इतनी प्रबल थी की भीड़ को चकमा देने के लिए प्रतापगढ़ रेलवे स्टेशन पर ही उतर लिए। अच्छा ही हुआ संगम से पहले इस हिस्से की सबसे महत्वपूर्ण नदी सई नदी के भी दर्शन हो गए। स्टेशन से बरियासमुद्र गांव की ओर जाना हुआ। मां गंगा नदी में डुबकी लगाने से पहले गांव के हरे भरे आंगन में ठहरने और बाग बगीचों से बतियाने का भी समय मिला। इस गांव में आंवले के बाग बहुत हैं। शहर के गगनचुंबी इमारतों की भीड़ से दूर गेहूं के लहलाहते खेतों के बीच टहलने, सरसों के खेतों के बीच शाहरूख खान की फिल्मों की सिमरन की तरह सेल्फी लेना भी भा रहा था। इसी मौके पर वहां चर रही बकरियों को चैन से घास खाते हुए देख सकून मिल रहा था। बकरियां घास चर रही थी और उन्हें चाराने लाईं औरतें गप्पियां रहीं थी।
दुपहरी में भी पेड़ों की छांव में गांव की कहानियां मीठे शरबत की तरह जान पड़ रही थी। कई सवाल भी बादलों की तरह मन में उमड़ने लगते थे, जैसे बरियासमुद्र का नाम कैसे रखा गया। भई जब यहां कोई ताल तलियां तक नही तो गांव समुद्र कैसे बना। सवाल भी वाजिब था। हमें घुमाने वाली दो छोटी लड़किया मनु और तनु ने बताया कि पहले यहां कोई बड़ा तालाब हुआ करता था जिससे समुद्र का नाम दे दिया गया। यह कहानी सौभाविक ही लगती है क्योंकि समुद्र,नदी, ताल तलियां क्यों नही। खैर, गांव के सफर में मौजूदा खूबसूरती के साथ यहां के ऐतिहासिक पहलुओं के बारे में भी जानकारी मिली। प्रतापगढ़ जिले में देखने के लिए पुराना एक किला जो राजा प्रताप सिंह ने बनवाया था, सई नदी के किनारे बेलहा देवी का मंदिर जिसका इतिहास रामायण काल से जोड़ कर देखा जाता है। मंदिर के पुजारी ने बताया था कि यहां भगवान राम ने बनवास के दौरान बेला देवी की पूजा की थी। इस मंदिर के बारे में यह भी माना जाता है कि शिव भगवान की पत्नि सति का कमर यानि बेला यहा गिरा था। इसलिए यह एक सिद्धपीठ भी है। मंदिर की बनावट लेकिन नया सा है क्योंकि इसकी पौराणिक महत्व को देखते हुए स्थानीय नेताओं ने इसका भव्य निर्माण कराया गया। इसी के पास बहने वाली सई नदी तो नाले में तब्दील हो गई है सो इस पर भी सरकार की कृपा दृष्टि पड़ने की जरूरत है क्योंकि गंगा नदी को जीवन देने वाली उनकी सहायक नदी को जीवित किए बगैर मां गंगा को जीवन देना मेरे हिसाब से अधूरा काम है।
पत्रकार हूं तो बीच बीच में सरकारी कमियों को देख, मार्ग से भटक जाती हूं। तो हम गांव के बारे में बातें कर रहे थे, यहां मुझे सबसे ज्यादा चौकाने वाला स्थान लगा सराई नाहर गांव जो यहां से कुछ ही दूरी पर है। गांव का इतिहास सैंकड़ो नहीं, बल्कि लाखों साल पुराना है। यहां कुछ 40 साल पहले हुई खुदाई में लाखों साल पहले के मानव कंकाल और पत्थर के औजार मिले। इसमें महादाहा, काकोरिया गांव में भी पाषण युग के प्रमाण मिले हैं। चूंकि यह स्थान नदी के किनारे बसा हुआ है तो सौभाविक है यहां प्राचीन संस्कृतियों की बसावट हुई होगी। महादाहा, काकोरिया और सराई नाहर गांव में अलग अलग स्थानों पर की गई खुदाई का अध्ययन अभी भी अधूरा है। विशालकाय मानव हड्डियां और औजारों से उनके रहन सहन के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं मिल पाई है। खुदाई के आधार पर यहां अभी और खुदाई कराने की जरूरत भी है। चूंकि यहां रामायण औऱ महाभारत काल से जुड़ी कई किंवदंतियां है और कुछ एक साक्ष्य भी मिले हैं तो यहां और ज्यादा खुदाई कराने की जरूरत है। बहरहाल इन स्थानों पर मिली चीजें भारतीय पुरात्तव सर्वेक्षण के संग्रहालय में मौजूद है और देखे जा सकते हैं। इन गांवों में खुदाई स्थलों को पर्यटन स्थलों के रूप में विकसित करने की भी आवश्यकता है क्योकि यहां हर एक काल की कहानियों के साथ ग्रामीण अंचल की ठंडी छांव भी है जो हम जैसे शहरियों को बहुत भांति है।
यहां पहुंचने के लिए सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन है —-प्रतापगढ़।
सुझाव घुमने निकले हैं, तो गांव की मिट्टी की गंध से दूरी न बनाएं….बस सेवा या फिर निजी वाहन से यहां पहुंचा जा सकता है।