हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि यह बुनियादी तालीम देश के वातावरण में से पैदा हुई है और देश की जरूरतों को पूरा कर सकती है । यह वातावरण हिंदुस्तान के सात लाख गाँवों में और उनमें रहनेवाले करोड़ों लोगों में छाया हुआ है । उनको भुलाकर आप हिंदुस्तान को भी भूल जाएँगे। सच्चा हिंदुस्तान शहरों में नहीं, बल्कि इन सात लाख गाँवों में बसा हुआ है।
यहाँ हम बुनियादी तालीम के मुख्य सिद्धांतों पर विचार करें :
- पूरी शिक्षा स्वावलंबी होनी चाहिए। यानी आखिर में पूँजी को छोड़कर अपना सारा खर्च उसे खुद निकालना चाहिए ।
- इसमें आखिरी दरजे तक हाथ का पूरा-पूरा उपयोग किया जाए। यानी विद्यार्थी अपने हाथों से कोई-न-कोई उद्योग-धंधा आखिरी दर्जे तक करें ।
- सारी तालीम विद्यार्थियों की प्रांतीय भाषा में दी जानी चाहिए ।
- इसमें सांप्रदायिक धार्मिक शिक्षा के लिए कोई जगह नहीं होगी। लेकिन बुनियादी नैतिक तालीम के लिए काफी गुंजाइश होगी।
- यह तालीम, फिर उसे बच्चे लें या बड़े, स्त्रियाँ लें या पुरुष, विद्यार्थियों के घरों में पहुँचेगी।
- चूँकि इस तालीम को पानेवाले लाखों-करोड़ों विद्यार्थी अपने आपको सारे हिंदुस्तान के नागरिक समझेंगे, इसलिए उन्हें एक आंतर- प्रांतीय भाषा सीखनी होगी। सारे देश की यह एक भाषा नागरी या उर्दू में लिखी जानेवाली हिंदुस्तानी ही हो सकती है, इसलिए विद्यार्थियों को दोनों लिपियाँ अच्छी तरह सीखनी होंगी।
सारी शिक्षा का किसी भी बुनियादी उद्योग के साथ संबंध जोड़ना चाहिए। आप जब किसी उद्योग के द्वारा ७ या १० वर्ष के बालक को ज्ञान देते हों, तब शुरुआत में इस विषय के साथ जिनका मेल नहीं बैठाया जा सके, ऐसे सब विषय आपको छोड़ देने चाहिए। रोज-रोज ऐसा करने से शुरुआत में छोड़ी हुई ऐसी बहुत सी वस्तुओं का अनुसंधान उद्योग के साथ जोड़ने के रास्ते आप ढूँढ़ निकालेंगे। इस तरह आप शुरू में काम लेंगे तो अपनी खुद की और विद्यार्थियों की शक्ति बचा सकेंगे। आज तो हमारे पास आधार लेने लायक कोई पुस्तक नहीं है, न हमें रास्ता दिखाने वाले पहले के दृष्टांत ही मौजूद हैं। इसलिए हमें धीरे-धीरे चलना है। मुख्य बात यह है कि शिक्षक को अपने मन की ताजगी बनाए रखनी चाहिए। जिसका उद्योग के साथ मेल न बैठाया जा सके, ऐसा कोई विषय आने पर आप निराश न हों, खीज न उठें, बल्कि उसे छोड़ दें और जिसका मेल बैठा सकें, उसे आगे चलाएँ । संभव है कि कोई दूसरा शिक्षक सही रास्ता ढूँढ़ निकाले और उस विषय का उद्योग के साथ कैसे मेल बैठ सकता है, यह बता सके। और जब आप बहुतों के अनुभव का संग्रह करेंगे, तो बाद में आपको रास्ता बतानेवाली पुस्तकें भी मिल जाएँगी, जिससे आपके पीछे आनेवालों का काम अधिक सरल बन जाएगा।
क्या आप पूछेंगे कि जिन विषयों का उद्योग के साथ मेल न बैठाया जा सके, उनको टालने की क्रिया कितने समय तक की जाए ? तो मैं कहूँगा कि जिंदगी भर । आखिर में आप देखेंगे कि बहुत सी चीजें, जिन्हें आप पहले शिक्षा – क्रम में से छोड़ चुके थे, उनका आपने उसमें समावेश कर लिया है; जितनी चीजों का समावेश करने लायक था, उन सबका समावेश हो चुका है और आपने आखिर तक जिनको निकम्मी समझकर छोड़ दिया था, वे बहुत निर्जीव और छोड़ने लायक ही थीं। यह मेरा जीवन का अनुभव है। मैंने यदि बहुत सी चीजें छोड़ न दी होतीं तो मैं जो बहुत सी चीजें कर सका हूँ, वह नहीं कर सका होता ।
हमारी शिक्षा में जड़-मूल से परिवर्तन होना ही चाहिए । दिमाग को हाथ द्वारा शिक्षा मिलनी चाहिए। मैं कवि होता तो हाथ की पाँच अंगुलियों में रही हुई अद्भुत शक्ति के बारे में कविता लिख सकता। दिमाग ही सबकुछ है और हाथ-पैर कुछ नहीं, ऐसा आप क्यों मानते हैं ! जो अपने हाथों को शिक्षा नहीं देते, जो शिक्षा की सामान्य ‘प्रणाली या रूढ़ि’ में से होकर निकलते हैं, उनका जीवन ‘संगीत मूल्य’ रह जाता है । उनकी सारी शक्तियों का विकास नहीं होता । केवल पुस्तकीय ज्ञान में बालक को इतना रस नहीं आता कि उसका सारा ध्यान उसी में लगा रहे । दिमाग खाली शब्दों से थक जाता है और बच्चे का मन दूसरी जगह भटकने लगता है। हाथ न करने के काम करते हैं, आँखें न देखने की चीजें देखती हैं, कान न सुनने की बातें सुनते हैं और उनको क्रमशः जो कुछ करना, देखना और सुनना चाहिए, उसे वे करते, देखते और सुनते नहीं हैं। उन्हें सही चुनाव करना नहीं सिखाया जाता, इससे उनकी शिक्षा कई बार उनका विनाश करने वाली सिद्ध होती है । जो शिक्षा हमें अच्छे-बुरे का भेद करना और अच्छे को ग्रहण करना तथा बुरे को त्यागना नहीं सिखाती, वह शिक्षा सच्ची शिक्षा ही नहीं है ।
स्कूल में चलने वाले सामान्य पाठ्यक्रम में एकाध उद्योग जोड़ देना, यह पुरानी कल्पना थी। अर्थात् उसमें हस्त- उद्योग को शिक्षा से बिलकुल अलग रखकर सिखलाने की बात थी। मुझे यह एक गंभीर भूल लगती है। शिक्षक को उद्योग सीख लेना चाहिए और अपने ज्ञान का अनुसंधान उस उद्योग के साथ करना चाहिए, जिससे वह अपने ‘पसंद किए हुए उद्योग द्वारा यह सारा ज्ञान विद्यार्थियों को दे सके।
कताई का उदाहरण लीजिए। जब तक मुझे गणित नहीं आएगा तब तक मैंने तकली पर कितने गज सूत काता या उसके कितने तार हुए या मेरे काते हुए सूत का अंक कितना है, यह मैं नहीं कह सकूँगा । इसे करने के लिए मुझे आँकड़े सीखने चाहिए और जोड़, बाकी, गुणा व भाग भी सीखने चाहिए । अटपटे हिसाब गिनने में मुझे अक्षरों का इस्तेमाल करना पड़ेगा । अतः इसमें से मैं अक्षर – गणित सीखूंगा। इसमें भी मैं रोमन अक्षरों के बजाय हिंदुस्तानी अक्षरों के उपयोग का आग्रह रखूँगा।
फिर ज्यामिति लीजिए। तकली की चकती से अधिक अच्छा गोलाई का प्रदर्शन और क्या हो सकता है ? इस प्रकार मैं युक्लिड का नाम लिये बिना ही विद्यार्थी को वर्तुल या गोलाई के बारे में सबकुछ सिखा सकता हैं ।
फिर आप शायद पूछेंगे कि कताई द्वारा बालक को इतिहास – भूगोल किस तरह सिखाए जा सकते हैं ? थोड़े समय पहले ‘कपास – मनुष्य का इतिहास’ (Cotton- The Story of Mankind ) नामक पुस्तक मेरे देखने में आई थी। उसे पढ़ने में मुझे बहुत आनंद आया। वह एक उपन्यास जैसी लगी। उसके शुरू में प्राचीन काल का इतिहास दिया गया था। फिर कपास पहले-पहल किस प्रकार और कब बोई गई, उसका विकास किस तरह हुआ, अलग-अलग देशों के बीच रुई का व्यापार कैसे चलता है, आदि वस्तुओं का वर्णन था ।
अलग-अलग देशों के नाम मैं बालक को सुनाऊँगा, साथ ही स्वाभाविक रीति से उन देशों में बाहर से रुई मँगानी पड़ती है और कुछ में कपड़ा बाहर से मँगाना पड़ता है, उसका क्या कारण है ! हर एक देश अपनी-अपनी जरूरत के मुताबिक रुई क्यों नहीं उगा सकता ? यह चर्चा मुझे अर्थशास्त्र और कृषिशास्त्र के मूल तत्त्वों पर ले जाएगी। कपास की अलग-अलग जातियाँ कौन सी हैं, वे किस तरह की जमीन में उगती हैं, उनकी जानकारी मैं विद्यार्थी को दूँगा । इस तरह तकली चलाने की बात पर से मैं ईस्ट इंडिया कंपनी के सारे इतिहास पर आऊँगा । वह कंपनी यहाँ कैसे आई, उसने हमारे कताई – उद्योग को किस तरह नष्ट किया; अंग्रेज आर्थिक उद्देश्य से हमारे यहाँ आए और उसमें से राजनीतिक सत्ता जमाने की आकांक्षा वे क्यों रखने लगे; यह वस्तु मुगल और मराठों के पतन का, अंग्रेजी राज्य की स्थापना का और फिर वापस
हमारे जमाने में जन-समूह के उत्थान का कारण कैसे हुई, यह सब भी मुझे वर्णन करके बताना पड़ेगा। इस तरह इस नई योजना में शिक्षा देने की अपार गुंजाइश है । और बालक यह सब उसके दिमाग और स्मरण शक्ति पर अनावश्यक बोझ पड़े बिना ही कितना अधिक जल्दी सीखेगा ।
इस कल्पना को मैं अधिक विस्तार से समझा दूँ । जैसे किसी प्राणिशास्त्री को अच्छा प्राणिशास्त्री बनने के लिए प्राणिशास्त्र के अलावा दूसरे बहुत से शास्त्र सीखने चाहिए, उसी प्रकार बुनियादी तालीम को यदि एक शास्त्र माना जाए तो वह हमें ज्ञान की अनंत शाखाओं में ले जाता है। तकली का ही विस्तृत उदाहरण लिया जाए तो जो शिक्षक- विद्यार्थी केवल कातने की यांत्रिक क्रिया पर ही अपना लक्ष्य एकाग्र नहीं करेगा (इस क्रिया में तो बेशक वह निष्णात होगी ही), बल्कि इस वस्तु का तत्त्व ग्रहण करने की कोशिश करेगा, वह तकली और उसके अंग- उपांगों का अभ्यास करेगा। तकली की चकती पीतल की और सींक लोहे की क्यों होती है, यह प्रश्न वह अपने मन से पूछेगा। जो असली तकली थी, उसकी चकती चाहे जैसी बनाई जाती थी।
इससे भी पहले की प्राचीन तकली में बाँस की सींक और स्लेट या मिट्टी की चकती उपयोग में ली जाती थी। अब तकली का शास्त्रीय ढंग से विकास हुआ है और जो चकती पीतल की और सींक लोहे की बनाई जाती है वह सकारण है। यह कारण विद्यार्थी को ढूँढ़ निकालना चाहिए। उसके बाद विद्यार्थी को यह भी जाँचना चाहिए कि इस चकती का व्यास इतना ही क्यों रखा जाता है, कम-ज्यादा क्यों नहीं रखा जाता ? इन प्रश्नों के संतोषजनक हल ढूँढ़ने के बाद इस वस्तु का गणित ज्ञान लिया कि आपका विद्यार्थी अच्छा इंजीनियर बन जाता है। तकली उसकी कामधेनु बनती है । इसके द्वारा अपार ज्ञान दिया जा सकता है। आप जितनी शक्ति और श्रद्धा से काम करेंगे उतना ज्ञान इसके द्वारा दे सकेंगे। आप यहाँ तीन सप्ताह रहे हैं। इतने समय में इस योजना के पीछे मर-मिटने तक को तैयार होने की श्रद्धा आप लोगों में आ गई हो, तो आपका यहाँ रहना सफल माना जाएगा।
मैंने कताई का उदाहरण विस्तार से बतलाया है, इसका कारण यह है कि मुझे उसका ज्ञान है। मैं बढ़ई होता तो मेरे बालक को ये सब बातें मैं बढ़ईगिरी के मार्फत सिखाता अथवा कॉर्डबोर्ड का काम करने वाला होता तो उस काम के मार्फत सिखाता।
हमें सच्ची जरूरत तो ऐसे शिक्षकों की है, जिनमें नया नया सर्जन करने की और विचार करने की शक्ति हो, सच्चा उत्साह और जोश हो और रोज-रोज विद्यार्थी को क्या सिखाएँगे, यह सोचने की शक्ति हो । शिक्षक को यह ज्ञान पुराने पोथों में से नहीं मिलेगा। उसे अपनी निरीक्षण और विचार करने की शक्ति का उपयोग करना है और हस्त- उद्योग की मदद से वाणी द्वारा बालक को ज्ञान देना है। इसका अर्थ यह है कि शिक्षा-पद्धति में क्रांति होनी चाहिए। शिक्षक की दृष्टि में क्रांति होनी चाहिए। आज तक आप निरीक्षकों (इंस्पेक्टरों) की रिपोर्टों से मार्गदर्शन पाते रहे हैं । आपने निरीक्षक को पसंद आए, वैसा करने की इच्छा रखी है, ताकि आपकी संस्था के लिए अधिक पैसे मिलें अथवा आपकी अपनी तनख्वाह में बढ़ती हो; पर नया शिक्षक इस सबकी परवाह नहीं करेगा। वह तो कहेगा, ‘मैं यदि अपने विद्यार्थी को अधिक अच्छा मनुष्य बनाऊँ और वैसा करने में मेरी सब शक्ति लगा दूँ तो कहा जाएगा कि मैंने अपना कर्तव्य पूरा किया। मेरे लिए इतना ही काफी है।’
इस तालीम की मंशा यह है कि गाँव के बच्चों को सुधार – सँवारकर उन्हें गाँव का आदर्श निवासी बनाया जाए। इसकी योजना खासकर उन्हीं को ध्यान में रखकर तैयार की गई है। इस योजना की असल प्रेरणा भी गाँवों से ही मिली है। जो कांग्रेसजन स्वराज्य की इमारत को बिलकुल उसकी नींव या बुनियाद से चुनना चाहते हैं, वे देश के बच्चों की उपेक्षा कर ही नहीं सकते। परदेशी हुकूमत चलानेवालों ने अनजाने ही क्यों न हो, शिक्षा के क्षेत्र में अपने काम की शुरुआत बिना चूके बिलकुल छोटे बच्चों से की है। हमारे यहाँ जिसे प्राथमिक शिक्षा कहा जाता है, वह तो एक मजाक है; उसमें गाँवों में बसनेवाले हिंदुस्तान की जरूरतों और माँगों का जरा भी विचार नहीं किया गया है; और वैसे देखा जाए तो उसमें शहरों का भी कोई विचार नहीं हुआ है। बुनियादी तालीम हिंदुस्तान के तमाम बच्चों को, फिर वे गाँवों के रहनेवाले हों या शहरों के, हिंदुस्तान के सभी श्रेष्ठ और स्थायी तत्त्वों के साथ जोड़ देती है। यह तालीम बालक के मन और शरीर दोनों का विकास करती है; बालक को अपने वतन के साथ जोड़ रखती है; उसे अपने और देश के भविष्य का गौरवपूर्ण चित्र दिखाती है; और उस चित्र में देखें हुए भविष्य के हिंदुस्तान का निर्माण करने में बालक या बालिका अपने स्कूल जाने के दिन से ही हाथ बँटाने लगे, इसका प्रबंध करती है ।