भारतीय इतिहास लेखन की समस्याएं

 

बनवारी

भारत में यूरोप जैसा μयूडलिजम दिखाना उसके प्रति अन्याय ही नहीं अपराध है। यह सब समझे बिना आप उस स्वराज्य की अवधारणा को समझ ही नहीं सकते, जो हमारे स्वतंत्रता संग्राम का मूल मंत्र थी। महात्मा गांधी को छोड़कर न उस समय कोई इन बातों को समझता था न आज समझता है।

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में स्कंद गुप्त पर आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय गोष्ठी में गृहमंत्री अमित शाह ने कहा कि हमें भारतीय दृष्टि से अपने इतिहास का पुनर्लेखन करना चाहिए। उन्होंने कहा कि हम भारतीय इतिहास के गलत चित्रण के लिए अंग्रेजों को कब तक कोसते रहेंगे। हमें सही तथ्यों पर आधारित अपना इतिहास लिखना चाहिए। उन्होंने इतिहासकारों का आह्वान करते हुए कहा कि उन्हें अतीत के दो सौ महान भारतीयों और 25 साम्राज्यों का गौरवशाली इतिहास लिखना चाहिए। भारतीय इतिहास के गलत प्रस्तुतीकरण को लेकर उनकी शिकायत अनुचित नहीं है। पहले अंग्रेजों ने और फिर उनके अनुकरण पर हमारे मार्क्सवादी इतिहासकारों ने भारतीय इतिहास का एक ऐसा वृत्तांत प्रस्तुत किया है, जिसमें पूरा भारतीय इतिहास पराजय का इतिहास ही लगता है।

इन सबके अनुसार भारत पर निरंतर आक्रमण होते रहे और भारतीय राजा अधिकांशत: पराजित होते रहे। मार्क्सवादी इतिहासकारों ने उसमें सामंती उत्पीड़न का कल्पित व्याख्यान और जोड़ दिया। लेकिन इस इतिहास की उपेक्षा करके नए सिरे से भारतीय इतिहास का पुनर्लेखन उतना आसान नहीं है, जितना उन्होंने सोचा है। यह सारा इतिहास लिखते हुए पहले अंग्रेजों ने फिर मार्क्सवादियों ने हमारे कालबोध को धुंधला कर दिया है, जातीय स्मृति का निषेध कर दिया है और ज्ञान के स्वरूप के बारे में ऐसी भ्रांतियां पैदा कर दी हैं, जिन्हें दूर करना बड़े पुरुषार्थ का काम है। निश्चय ही अमित शाह में भारतीय इतिहास के सही चित्रण के लिए काफी विकलता दिखती है।

पर उनसे पहले भी यह इच्छा निरंतर दोहराई जाती रही है। बहुत से लोग इस महत्वपूर्ण कार्य को करने के लिए आगे भी आए। अगर भारतीय इतिहास के पुनर्लेखन का कार्य केवल अब तक के इतिहास का अधिक तथ्यपूर्ण और भारतीय गौरव को सामने लाने की दृष्टि से प्रस्तुतिकरण रहा होता तो यह कठिन नहीं था। पर समस्या यह है कि अंग्रेजों ने भारतीय इतिहास को लेकर कुछ ऐसी भ्रामक धारणाएं प्रचलित कर दी हैं कि उन्हें समझना और दूर करना उतना आसान नहीं है। अब तक भारतीय इतिहास के पुनर्लेखन को लेकर जो गंभीर प्रयत्न हुए हैं, उनमें सबसे महत्वपूर्ण कन्हैया लाल मणिक लाल मुंशी का है। वे स्वयं भारतीय इतिहास और संस्कृति के एक गंभीर अध्येता थे। उन्होंने इस उद्देश्य से 1938 में भारतीय विद्या भवन की स्थापना की है। उन्होंने इस उद्देश्य के लिए भारतीय विद्या भवन के अंतर्गत भारतीय इतिहास समिति का गठन किया था।

इस समिति ने उस समय के सबसे प्रतिष्ठित इतिहासकार रमेश चंद्र मजूमदार के नेतृत्व में यह कार्य अपने हाथ में लिया। भारतीय विद्या भवन के एक युवा अध्येता ए. डी. पुसालकर को इस योजना का सहायक संपादक बनाया गया था। इस योजना के अंतर्गत ‘द हिस्ट्री एंड कल्चर आॅफ इंडियन पीपुल’ नाम से एक पूरी श्रृंखला तैयार की गई थी। उसमें उस समय के राष्ट्रवादी कहे जाने वाले मूर्धन्य इतिहासकारों का सहयोग था। भारतीय विद्या भवन ने 11 खंडों की यह श्रृंखला प्रकाशित की थी। उसके पहले खंड के आमुख में कन्हैया लाल मणिक लाल मुंशी के यह वाक्य महत्वपूर्ण हैं- ‘अपने अध्ययन के दौरान मैं लंबे समय से तथाकथित भारतीय इतिहास की अपर्याप्तता का अनुभव करता रहा हूं। इसलिए अनेक वर्षों से मैं भारत के एक विस्तृत इतिहास के लिखे जाने की योजना बना रहा था।

इसका केवल यह उद्देश्य नहीं था कि भारत का इतिहास भारत माता के पुत्रों द्वारा लिखा जाए, उसका उद्देश्य यह भी था कि उस इतिहास में भारत की आत्मा की झलक हो, वैसी ही जैसी भारतीय सदा से उसमें देखते रहे हैं।’ यह श्रृंखला पूरी होने से पहले ही उनका निधन हो गया था। उनके जीवनकाल में छपे खंडों में उनके उस काल खंड पर विहंगम दृष्टि डालते हुए आमुख हैं और वे काफी महत्वपूर्ण हैं। इस श्रृंखला ने अंग्रेजों द्वारा लिखे इतिहास की कुछ विसंगतियों को दूर किया, लेकिन उसमें भारतीय आत्मा की झलक नहीं है, क्योंकि अंग्रेजी इतिहास लेखन ने उस पर ऐसा पर्दा डाल दिया है कि उसे देखना काफी कठिन हो गया है। फिर भी यह खंड महत्वपूर्ण है और भारत सरकार को उनके सस्ते पुनर्मुद्रण की कुछ व्यवस्था करनी चाहिए।

भारत की आत्मा को समझने के लिए सबसे पहले ज्ञान के स्वरूप को समझना आवश्यक है। भारत में ज्ञान का प्रधान उद्देश्य नि:श्रेयस की प्राप्ति है। जो विद्या आत्मसिद्धि की ओर न ले जाए, उसे हम ज्ञान की शाखा के रूप में अनुग्रहित नहीं करते। यही इतिहास और हिस्ट्री का प्रधान अंतर है। इसी दृष्टि से हमारे यहां उच्च शिक्षा में सदा ब्रह्मज्ञान को वरीयता प्राप्त रही। उसके बावजूद भौतिक जीवन के सभी क्षेत्रों में बिल्कुल आरंभिक काल से विस्तृत शास्त्रनिर्माण होता रहा। जिन क्षेत्रों में यूरोपीय जाति ने आधुनिक काल में विशेष पुरुषार्थ दिखाया है ऐसे खगोल विद्या, गणित और रसायन आदि के क्षेत्र में भी कुछ सदी पहले तक भारत विश्वभर में अग्रणी था। इसके अलावा वास्तु, चिकित्सा, नाट्य और भाषा के क्षेत्र में हमने उस समय में कीर्तिमान स्थापित कर लिया था, जब पश्चिमी जगत भौतिक जीवन संबंधी आरंभिक ज्ञान ही विकसित कर पाया था। लेकिन अभ्युदय संबंधी सभी विद्याएं नि:श्रेयस की अनुगामी है यह धारणा हमने कभी नहीं छोड़ी। अब हमारे विश्वविद्यालयों में जो कुछ पढ़ाया जाता है, उसमें नि:श्रेयस का अभाव ही नहीं, निषेध है। ऐसा केवल आधुनिक विद्याओं को लेकर ही नहीं है।

हमारे विश्वविद्यालयों के संस्कृत विभाग भी उससे भिन्न नहीं है। इस दुर्दशा का वर्णन पहले संस्कृत आयोग की रिपोर्ट में है। रिपोर्ट में कुछ चिंता के साथ इस बात का उल्लेख किया गया है कि संस्कृत के शिक्षण में भी अब सत्य अन्वेषण पर उतना ध्यान नहीं है, जितना उस विषय के इतिहास पर है। हमारा जोर उनके मूल ग्रंथों के अध्ययन मनन पर नहीं रहता। हम अधिकांशत: वैशेषिक का इतिहास या व्याकरण का इतिहास समझ और पढ़ रहे होते हैं। इस इतिहास की पहले कुछ उपेक्षा हुई होगी, लेकिन हमारे आचार्यों को सत्य के अन्वेषण के सामने इतिहास का विवरण कम महत्व का लगा, यह बात सदा हमारे सामने रहनी चाहिए। हमारे इतिहास लेखन की समस्या भी इससे मिलती-जुलती है। उसमें हमारी ऐतिहासिक उपलब्धियों के साथ जो अन्याय हुआ है, उसकी तरफ तो ध्यान दिया ही जाना चाहिए, पर अब तक के इतिहास लेखन में सबसे बड़ा अपराध तो भारतीय समाज और उसकी दृष्टि की उपेक्षा है।

अंग्रेजों ने भारतीय समाज और इतिहास को अपने जातीय अनुभव के आधार पर ही चित्रित किया। इस चित्रण में अज्ञान भी है और दुष्टता भी है। यह कहना कठिन है कि उसमें अज्ञान अधिक है या दुष्टता। उदाहरण के लिए राज्य की जो भूमिका भारत में रही है, उसकी जो भूमिका यूरोप में रही है, उससे बिल्कुल उलट है। भारतीय राजाओं ने उनसे कम युद्ध नहीं लड़े होंगे लेकिन फिर भी वे अपने यहां सैनिक शासक नहीं हैं। वे न समाज की सभी संपत्तियों के स्वामी हैं, न विधि प्रदाता हैं। भारत में विधि निर्माण का दायित्य समाज का है। आचार्यों और गुणीजनों के मार्गदर्शन में विधि के निर्माण का दायित्व समाज की पंचायतों के कार्य क्षेत्र में आता है। भारत के लोग सदा से स्वतंत्र रहे हैं। राज्य को समाज के अधीनस्थ एक संस्थान की तरह देखा गया। वह समाज के शौर्य को प्रकट करता है, उसकी रक्षा करता है और उसके प्रतिनिधि के रूप में अन्य राज्यों पर विजय भी प्राप्त करता है।

भारत की आत्मा को समझने के लिए सबसे पहले ज्ञान के स्वरूप को समझना आवश्यक है। भारत में ज्ञान का प्रधान उद्देश्य नि:श्रेयस की प्राप्ति है। जो विद्या आत्मसिद्धि की ओर न ले जाए, उसे हम ज्ञान की शाखा के रूप में अनुग्रहित नहीं करते। यही इतिहास और हिस्ट्री का प्रधान अंतर है।

लेकिन विजय के आधार पर वह अन्य राजाओं का उच्छेद नहीं करता। न ही वह उनकी प्रजा का अतिक्रमण करता है। इसलिए भारत में यूरोप जैसा μयूडलिजम दिखाना उसके प्रति अन्याय ही नहीं अपराध है। यह सब समझे बिना आप उस स्वराज्य की अवधारणा को समझ ही नहीं सकते, जो हमारे स्वतंत्रता संग्राम का मूल मंत्र थी। महात्मा गांधी को छोड़कर न उस समय कोई इन बातों को समझता था न आज समझता है। भारत में राज्य और साम्राज्यों के उदय और अस्त की कहानी ऊपरी तौर पर वैसी ही है जैसी अन्य जातियों के इतिहास में रही है। लेकिन एक आधुनिक विधा के रूप में इतिहास लेखन बीसवीं सदी के आरंभ में ही आरंभ हुआ था। वह औपनिवेशिक काल का चरम था। इसलिए इस इतिहास लेखन में औपनिवेशिक काल के सभी दुराग्रह आ गए। यूरोपीय जाति ने दुनियाभर का इतिहास लिख दिया है और उसमें यूरोपीय जाति को अन्य सभी जातियों पर जबर्दस्ती वरीयता दे दी गई है।

भारत के साथ विशेष रूप से अन्याय हुआ है, क्योंकि उन्नीसवीं सदी में ब्रिटिश भारत के एक बड़े भाग को विजित करने में सफल हो गए थे। इसे भारतीयों की हीनता और यूरोपीय जाति की श्रेष्ठता माना गया और फिर यह दुराग्रह भारतीय इतिहास के समूचे चित्रण में आ गया। इससे हमें केवल इतिहास लेखन को ही नहीं उबारना, ज्ञान के सभी क्षेत्रों को उबारना है। इतिहास में यह काम शायद कुछ आसान है। लेकिन तभी जब हम यूरोपीय पूर्वग्रहों से पार झांककर भारतीय दृष्टि को समझ लें और उसके अनुरूप भारतीय इतिहास लिखें। इसके लिए हमें अपने कुछ अत्यंत प्रतिभा संपन्न युवाओं को प्रभूत साधन देकर इस काम में लगाना होगा। तभी यह बड़ा काम सिद्ध हो सकता है।

 

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