इस वर्ष का ‘प्रभाष प्रसंग’ एक यादगार होगा। यह निरंतरता में चौदहवां है। प्रभाष जी अपने जीवन के 72वें साल में दृष्य जगत से चले गए थे। हर वर्ष उनकी स्मृति में यह आयोजन होता है। उनका जन्मदिन है, 1937 में 15 जुलाई। उनकी पत्रकारिता का प्रारंभ एक बड़ी घटना से हुआ। उससे परिचित हर कोई इतनी बात तो जानता ही है कि उन्होंने विनोबा भावे की इंदौर यात्रा की नई दुनिया दैनिक के लिए रिपोर्टिंग की थी। रिपोर्टिंग से अर्थ है, समाचार लिखना। यह आम अर्थ है। क्या प्रभाष जी ने भी यही किया था? इसी प्रश्न का उत्तर है, ‘विनोबा-दर्शन।’ इस किताब में समाचार-विचार जहां है, वहां भाषा की ऐसी मनमोहक शैली है कि जिसे पढ़कर कोई भी आज चकित हुए बिना नहीं रहेगा। जो पढ़ेगा वह पाएगा कि यह किताब अद्भुत है। इससे भिन्न कोई दूसरा शब्द नहीं है जिससे इस किताब की परिभाषा की जा सके। इसकी हर परिभाषा छोटी पड़ेगी।
महात्मा गांधी के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी विनोबा भावे थे। उस मिशन के लिए उन्होंने भारत भर में पदयात्रा की। पदयात्रा का रिकार्ड बनाया। उस दौरान वे ‘बाबा’ कहलाए। वे समाज की सोई हुई शक्ति को जगाने निकले थे। उनकी यात्रा ने देश और दुनिया में हलचल मचा दी थी। ऐसी उत्सुकता पैदा हुई थी कि लोग उसमें शामिल होने के लिए सहज ही प्रतीक्षा करते थे। उनकी पदयात्रा में प्राण तत्व की प्रेरणा थी। मध्यप्रदेश में बागियों का समर्पण कराकर विनोबा ने इंदौर की ओर रूख किया। वे भूदान के लिए गांव-गांव घूम रहे थे। उनके मन में अर्से से यह बात थी कि शहरों में भी काम होना चाहिए। इसके लिए उन्होंने इंदौर को चुना। प्रभाष जी ने लिखा है कि विनोबा ने अपनी पदयात्रा में तीन नगरों को चुना। श्रीनगर, काशी और इंदौर। ‘विनोबा-दर्शन’ में इंदौर की उनकी पदयात्रा की रिपोर्टिंग है।
यह परिचय अधूरा है। एक संकेत भर है। 24 जुलाई से 1 सितंबर, 1960 की अवधि में विनोबा जी ने इंदौर में 39 दिन बिताए। छुट्टियों के कारण दो दिन नई दुनिया दैनिक नहीं छपा। इसलिए ‘विनोबा-दर्शन’ में 37 रिपोर्ट है। उस दौरान विनोबा के 150 भाषण हुए। उन भाषणों की जैसी रिपोर्टिंग प्रभाष जी ने की, उसका संकलन ‘विनोबा-दर्शन’ में है। यह पहली बार किताब बन सकी है। याद करिए कि एक छोटी सी किताब ‘चंबल की बंदूकें गांधी के चरणों में’ 1973 में छपी थी। वह चर्चित है। लेकिन उससे 13 साल पहले अपनी युवा अवस्था के 23वें साल में प्रभाष जी ने जो रिपोर्टिंग की थी, वह किताब क्यों नहीं बन सकी? कोई भी यह पूछ सकता है। इसके उत्तर में एक तथ्य बता देना जरूरी है। अपने लिखे को छपवाने में प्रभाष जी की कभी दिलचस्पी नहीं थी। यह भी एक कारण है।
अपनी पदयात्रा के दौरान एक बार विनोबा ने कहा थाः ‘इंदौर के लिए कुछ दिलचस्पी मेरे मन में है। उसके कुछ कारण हैं। इंदौर, धार और निमाड़-ये ऐसे जिले हैं जिनमें वाइटेलिटी बहुत है। खासकर इंदौर शहर सर्वोदय-शहर बने या इनमें से एक जिला सर्वोदय-जिला बने, यह मैं चाहता हूं।’…‘इंदौर शहर सर्वोदय नगर बना तो दिल्ली तक उसका असर हो सकता है। आपकी इस काम में पूरी षक्ति लगे-इंदौर शहर सर्वोदय-शहर बनाने या कोई जिला सर्वोदय जिला बनाने में-तो मैं भी अपनी पूरी ताकत लगाने को तैयार हूं। जितना समय देना पड़ेगा वह मैं दूंगा।’
किसी ने पूछा, इंदौर ही क्यों? उनका जवाब थाः ‘इंदौर भारत के बीच, मध्यस्थान में है। एक पवित्र रमणीय स्मरण इसके साथ जुड़ा हुआ है-महारानी अहिल्यादेवी का। मैंने बुद्धि से सोचा नहीं, लेकिन मुझे प्रेरणा हुई कि क्या इंदौर में भारतीय सभ्यता का सर्वोत्तम अंश प्रकट हो सकता है?’ ‘यह देश के बीच का स्थान है। आप जानते हैं कि बीमार मरने की तैयारी में होता है, तो उसका शरीर ठंडा हो जाता है, हाथ-पांव और आखिर के हिस्से ठंडे पड़ते हैं, फिर भी बीच में हृदयस्थान में गरमी रहती है। तो मैंने सोचा कि भारतीय संस्कृति का सर्वोत्तम दर्शन यहां हो सकता है।’ अपने विचार को कार्यरूप देने के लिए विनोबा ने सर्वोदय के एक प्रमुख कार्यकर्त्ता दादा भाई नाईक को इंदौर में सर्वोदय पात्र रखवाने की जिम्मेदारी सौंपी। दादा भाई मार्च महीने में इंदौर पहुंचे। उन्होंने विनोबा की पदयात्रा के लिए तैयारियां शुरू की।
उस पदयात्रा की आहट नई दुनिया दैनिक में भी पहुंची। प्रश्न था कि कौन है, जो विनोबा की इंदौर यात्रा को संपूर्णता में नई दुनिया के पाठकों को उपलब्ध करा सकेगा? यह उस समय अखबार के लिए बड़ा प्रश्न था। खोज शुरू हुई। उसी खोज में प्रभाष जोशी पर नजर गई। उन्हें नई दुनिया ने आग्रहपूर्वक बुलवाया। वे अपनी पढ़ाई बीच में छोड़कर सुनवानी महाकाल गांव में रहने लगे थे। पांच साल हो गए थे। वहां वे गांधी जी के प्रयोग में पूरे मन से रमे हुए थे। नई दुनिया अखबार के नेतृत्वद्वय नरेंद्र तिवारी और राहुल बारपुते ने उनसे बात की। यह प्रस्ताव दिया कि वे विनोबा जी की पदयात्रा को कवर करें। प्रभाष जी को भी यह नया काम अपने अनुकूल लगा। वे जो चाह रहे थे वह उन्हें दूसरी बार मिला। पहली बार तब ऐसा हुआ जब उन्होंने गांधी और विनोबा को पढ़ना शुरू किया। उन्होंने यह लिखा है कि ‘जब गांधी और विनोबा को पढ़ने लगा तो यह समझकर मुझे अपार संतुष्टि मिलती कि उन्होंने वही लिखा है जो मैं चाह रहा था।’
उसी रिपोर्टिंग से यह किताब ‘विनोबा-दर्शन’ बनी है। आठवें प्रभाष प्रसंग पर ‘लोक का प्रभाष’ शीर्षक से प्रभाष जी जीवनी का लोकार्पण हुआ था। जिन दिनों रामाशंकर कुशवाहा जीवनी पर काम कर रहे थे, तब ‘विनोबा-दर्शन’ के बारे में पता चला कि नई दुनिया के रिकार्ड में वे अंक उपलब्ध हैं। इंदौर में दिलीप चिंचालकर ने इसकी जानकारी दी। वे नई दुनिया में थे। जब उन्होंने छोड़ा, तो लाईब्रेरियन कमलेश सेन को हिदायत दी थी कि प्रभाष जी की रिपोर्टिंग को संभालकर रखना। इस तरह कमलेश सेन से उन दिनों के अखबार की फोटो कापी मिल सकी। जिसे एक फाइल में रख छोड़ा था। उससे मनोज मिश्र ने यह किताब बनाई। इसे बहुत पहले छपना चाहिए था। इसका अफसोस करने की जरूरत नहीं है। अब बहुत देर से ही सही, लेकिन सही समय पर यह किताब छप गई है। इसे सही समय इसलिए मानता हूं क्योंकि ‘विनोबा-दर्शन’ में जो है उसकी आवश्यकता बढ़ गई है। विशेषकर उनके लिए इसकी आवश्यकता है जो उस पथ के राही हैं, लेकिन भटके हुए हैं।
नई दुनिया का दिया हुआ शीर्षक ‘विनोबा-दर्शन’ को किताब का नाम दिया गया है। सचमुच इसमें वह दर्शन है जो भारत की सभ्यता, संस्कृति और समाज के उन्नत पथ से अपने पाठक को परिचित कराता है। इस प्रकार विनोबा के बहाने यह एक कालजयी रचना है। उसके रचनाकार दो हैं। व्यास पीठ पर विनोबा हैं और गणेश की भूमिका में पत्रकार प्रभाष जोशी हैं। उनकी आरंभिक पत्रकारिता का यह ऐसा साक्ष्य है जो हमेशा अमिट बना रहेगा। यह किताब याद दिलाती है कि उस समय विनोबा ने एक अहिंसक क्रांति का ज्वार पैदा किया था। यह बात अलग है कि आज उसके नामो-निशान नहीं हैं। कुछ खंडहर जरूर हैं।
विनोबा की पूरी पदयात्रा की स्मृतियों को सजोने का एक प्रयास गुजरात विद्या पीठ ने किया है। वहां से ‘सबै भूमि गोपाल की’ शीर्षक से ‘भूदान-ग्रामदान आंदोलन की कहानी’ छपी है। जो चार खंडों में है। यह कार्य पराग चोलकर ने किया है। पराग चोलकर ने इसके दूसरे खंड में एक अध्याय ‘मध्यप्रदेश की यात्रा’ दिया है। इस अध्याय का उपशीर्षक है-‘चंबल का चमत्कार और सर्वोदय नगर की कोशिश।’ जिस दिन विनोबा जी इंदौर पहुंचे उसका वर्णन पराग चोलकर ने इस तरह किया है, ‘24 जुलाई (1960) को सुबह भारी भीड़ ने विनोबा का इंदौर में स्वागत किया। एक प्रत्यक्षदर्शी के अनुसार, ‘‘नगर-सीमा से पड़ाव तक के लंबे रास्ते में जिधर नजर जाती, उधर अपार जनसमूह सड़कों, मकान की छतों और पेड़ों की शाखाओं पर परिलक्षित होता था।’’ उसी दिन मौसम की पहली बारिश हुई और विनोबा के इंदौर-निवास के दौरान प्रायः हर दिन दिन होती रही। बारिश में ही कार्यक्रम होते रहे। शाम की प्रार्थना-सभा में 50 हजार से ज्यादा लोग उपस्थित थे।’
उस यात्रा की रोज रिपोर्टिंग जिस तत्परता और कुषलता से प्रभाष जी ने की, यह किताब उसका प्रमाण है। इतना ही नहीं है, बल्कि उस यात्रा को आज भी पाठक पढ़ते समय अनुभव कर सकते हैं इसलिए यह किताब उसका परिणाम भी है। हिन्दी पत्रकारिता के आकाश में प्रभाष जोशी चमकते सितारे हैं। उसकी पहली झलक इस किताब में है। इस लिहाज से यह किताब पत्रकारिता की पाठशाला की अनिवार्य पाठ सामग्री बन गई है। यह प्रभाष जी के निर्माण-काल की बानगी है। इसमें एक बनते हुए पत्रकार को देखा जा सकता है। उसके परिश्रम और समर्पण को समझा जा सकता है। जिन लोगों ने ‘कागद कारे’ की बुलंदी को पढ़ा है उन्हें यह बुनियाद भी पढ़नी चाहिए। ‘जनसत्ता’ प्रभाष जी के पत्रकारिता जीवन की बुलंदी है तो ‘विनोबा-दर्शन’ उनकी बुनियाद है।
यह किताब बताती है कि रिपोर्टिंग कैसे करनी चाहिए। रिपोर्ट में किन बातों को दर्ज करना आवश्यक होता है। किसी पत्रकार के लेखन में कौन से तत्व हैं जो उसकी रिपोर्टिंग को दीर्घजीवी बनाने में सक्षम है। इस किताब से यह बात भी अपने आप निकलती है कि प्रभाष जी गांधी-विनोबा-दर्शन में पूरा रचे-बसे थे। इसलिए उन रिपोर्टों से यात्रा से संबंधित सूचनाओं के साथ इसकी वैचारिकता को वे समझा सके हैं। उसमें ही यात्रा का मर्म समाया हुआ है। बिनोवा के भाषणों में 21वीं सदी के लिए संदेश है। उस समय की सभ्यता-समीक्षा के आधार पर भविश्य की एक रूपरेखा उन्होंने दी है। इस प्रकार की वैचारिक यात्रा की रिपोर्टिंग विचार के स्तर पर समर्थ पत्रकार ही कर सकता है। इस किताब को पढ़ते हुए यह बात बार-बार दिमाग में दर्ज होती है। पाठक प्रभाष जी के गहन अध्ययन और उसे लिख सकने की क्षमता का साक्षी बनता है। इस किताब के कारण ही इस बार का ‘प्रभाष प्रसंग’ सचमुच एक यादगार बना रहेगा।