राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ 2025 में अपने 100 वर्ष पूरे कर रहा है संघ भारतीय ही नहीं दुनिया का सबसे बड़ा गैर राजनैतिक संगठन है आज भारत के 901 जिलों में 6663 खंडों में 26498 मंडल में 42613 स्थान पर संघ की 68651 शाखाएं लग रही हैं ,2017 से 2022 तक संघ से ऑनलाइन जुड़ने वाले लोगों की संख्या भी 725000 है जो रा. स्व. संघ के प्रति लोगों के आकर्षण को दर्शाता है ।
रा.स्व.संघ का नाम आते ही लोगों के दिमाग में देश के लिये समर्पित, राष्ट्रभक्त उद्दात्त चरित्र वाले असंख्य लोगों के चेहरे ध्यान में आते हैं जिनके जीवन का एक ही ध्येय है भारत माता की जय और जो केवल एक ही धुन में मगन रहते हैं “मन मस्त फकीरी धारी है अब एक ही धुन जय जय भारत” इस जय जय भारत की धुन को लेकर काम करने वाले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संस्थापक डॉ केशव बलिराम हेडगेवार की आज वर्ष प्रतिपदा के दिन जयंती है ।
डॉ केशव बलिराम हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना उस समय की जब सदियों की दासता के कारण देश के अंदर स्वाभिमान शून्यता की स्थिति थी. लोग कहते थे गधा कह लो पर हिंदू मत कहो. हिंदुओं का संगठन यह कदापि नहीं हो सकता. लोगों के मन में यह भी भ्रांति थी कि मेढ़कों को तो तौला जा सकता है पर हिंदुओं को संगठित नहीं किया जा सकता. चार हिंदू एक साथ तब चलते हैं जब पांचवा उनके कंधे पर। हो ऐसे नैराश्य के वातावरण जब लोग यह कहते थे भारत हिंदू राष्ट्र हो ही नहीं सकता, हिंदू राष्ट्र की कल्पना बेमानी है, तब डॉक्टर हेडगेवार ने दृढ़तापूर्वक कहा “मैं केशव राव बलिराम पंत हेडगेवार यह घोषणा करता हूं कि भारत हिंदू राष्ट्र है”।
1897 में स्वामी विवेकानंद ने भारतवासियों को तीन बातें कहीं थी. पहली पश्चिम देशों से संगठन करना सीखना चाहिए. दूसरी, हमें मनुष्य निर्माण करने की कोई पद्धति तंत्र विकसित करना चाहिए. तीसरे, सभी भारतवासियों को आने वाले कुछ वर्षों के लिए अपने अपने देवी-देवताओं को एक ओर रखकर केवल एक ही देवता की आराधना करनी चाहिए और वह है अपनी भारत माता संघ कार्य और संघ शाखा इन तीनों बातों का ही मूर्त रूप है. इस श्रेष्ठ कार्य का बीजारोपण करने वाले थे, डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार. डॉक्टर हेडगेवार को जाने बिना संघ को समझना लगभग असंभव है।
डॉ हेडगेवार का जन्म एक अप्रैल अट्ठारह सौ नवासी, वर्ष प्रतिपदा के दिन महाराष्ट्र के नागपुर जिले में पंडित बलिराम हेडगेवार के घर हुआ था. इनकी माता का नाम रेवतीबाई था. माता-पिता ने पुत्र का नाम केशव रखा. केशव का बड़े प्यार से लालन-पालन होता रहा. उनके दो बड़े भाई भी थे, जिनका नाम महादेव और सीताराम था. पिता बलिराम हेडगेवार वेद शास्त्र के विद्वान थे एवं वैदिक कर्मकांड से परिवार का भरण पोषण चलाते थे।
जन्मजात देशभक्त-
परिवार के वातावरण तथा देश की परिस्थितियों का प्रभाव बालक केशव के मन पर अत्यधिक पड़ा वह जन्मजात देश भक्त थे जब वह केवल 8 साल की उम्र के थे तब उन्होंने विक्टोरिया रानी के ध्वजारोहण के हीरक महोत्सव के निमित्त विद्यालय में बांटी गई मिठाई को कूड़े में फेंक दिया उसके पश्चात जॉर्ज पंचम के भारत आगमन पर सरकारी भवनों पर की गई रोशनी और आतिशबाजी देखने के लिए बालक केशव ने स्पष्ट तौर पर मना कर दिया उस समय उनकी उम्र केवल 8 और 9 साल थी. यह दोनों घटनाएं डॉ हेडगेवार के जन्मजात देशभक्त होने का परिचय देतीं हैं।
बंग भंग विरोधी आंदोलन का दमन करने के लिए अंग्रेजों ने भारत में वंदे मातरम के उद्घोष पर पाबंदी लगा दी थी 1907 में इस पाबंदी की धज्जियां उड़ाने के लिए केशव ने प्रत्येक कक्षा में वंदे मातरम का उद्घोष करवा कर विद्यालय निरीक्षक का स्वागत करने की योजना बनाई थी जैसे ही शिक्षा विभाग के निरीक्षक और स्कूल के मुख्य अध्यापक निरीक्षण करने दसवीं कक्षा में गए सभी छात्रों ने ऊंची आवाज में आत्मविश्वास के साथ वंदे मातरम का उद्घोष किया यही उद्घोष प्रत्येक कक्षा में लगे सारा विद्यालय वंदे मातरम से गूंज उठा ,कौन नेता है ?कहां योजना ?? बनी ऐसा कैसे हो गया??? निरीक्षक महोदय मुख्य अध्यापक तथा सरकारी गुप्तचर सर पटक कर रह गये किसी को कुछ पता नहीं चला जब सरकारी अधिकारी सभी छात्रों को शख्त से सख्त सजा देने की बात सोचने लगे तो केशवराव ने सब को बचाने के लिए अपना नाम प्रकट कर दिया “यह मैंने करवाया है वंदे मातरम गाना हमारा अधिकार है क्षमा नहीं मांगूंगा ” यह कहने पर केशव राव को विद्यालय से निकाल दिया इसके माध्यम से उन्होंने सबको अपनी निर्भरता देश भक्ति तथा संगठन कुशलता से परिचित कराया।
जैसे-जैसे समय बीतता गया बालक केशव के मन में जागृत हो रही स्वाधीनता की उत्कट भावनाएं भी प्रचंड गति से आगे बढ़ने लगे नागपुर से थोड़ी दूर किला सीताबर्डी है बाल केशव ने अपनी माता से सुना था कि यह किला कभी हिंदू राजाओं के अधिकार में था पर आज उस पर अंग्रेजों का झंडा यूनियन जैक क्यों है वहां तो हमारा भगवा ध्वज ही होना चाहिए बाल केशव की मंडली ने किले को फतह करके यूनियन जैक को उखाड़ फेंकने की योजना बना डाली किले तक सुरंग खोदकर वहां पहुंचना और किले के पहरेदारों के साथ युद्ध करके भगवा ध्वज फहराना। केशव और उनके साथी अपने अध्यापक बझे गुरु के घर में रहकर अध्ययन कार्य करते थे सात आठ बालकों के नेता केशव ने बझे गुरु के घर के एक कमरे से सुरंग खोदना शुरू कर दिया एक रात फ़ावड़ा कुदाली बेलचा इत्यादि से खुदाई करने की आवाज गुरुजी ने सुन ली अंदर से बंद दरवाजे को धक्का देकर गुरुजी अंदर आये तो आश्चर्यचकित हो गये बाल सेना किले पर चढ़ाई करने की तैयारी कर रही थी गुरुजी ने सबको समझा कर शांत कर दिया पर उपरोक्त घटना से बाल केशव के संगठन कौशल टोली तैयार करने की क्षमता गुप्त रूप से कार्य करने का तरीका और देश के लिए कुछ कर गुजरने की निष्ठा का परिचय मिलता है कुछ दिन के बाद बझे गुरु ने अपने एक साथी से कहा” यह बालक बड़ा होकर किसी शक्तिशाली हिंदू संगठन को जन्म देगा और ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध चल रही स्वाधीनता की मशाल को शतगुणित कर देगा I”
मुंबई में चिकित्सा शिक्षा की सुविधा होते हुए भी उन्होंने कोलकाता में यह शिक्षा प्राप्त करने का निर्णय लिया इसका कारण था कोलकाता उन दिनों क्रांतिकारी आंदोलन का प्रमुख केंद्र था उन्होंने शीघ्र ही क्रांतिकारी आंदोलन की शीर्ष संस्था अनुशीलन समिति में अपना स्थान बना दिया था । नेशनल मेडिकल कॉलेज कोलकाता से डॉक्टरेट डिग्री और क्रांतिकारी संगठन अनुशीलन समिति में सक्रिय रहकर क्रांति का विधिवत प्रशिक्षण लेकर डॉ हेडगेवार 1916 में नागपुर लौटे स्थान स्थान से नौकरी की पेशकश और विवाह के लिये आने वाले प्रस्तावों का तांता लग गया डॉक्टर साहब ने बेबाक अपने परिवार वालों एवं मित्रों से कह दिया मैंने अविवाहित रहकर जन्म भर राष्ट्र कार्य करने का फैसला कर लिया है इसके बाद विवाह और नौकरी का प्रस्ताव आना बंद हो गए और डॉक्टर साहब अपनी स्व निर्धारित अंतिम मंजिल तक पहुंचने के लिए पूर्ण स्वतंत्र हो गए उनकी यही पूर्ण स्वतंत्रता उन्हें देश की पूर्ण स्वतंत्रता के लिए संघर्ष के राष्ट्रीय पर ले आई I
● देशव्यापी महासमर की योजना कोलकाता में अनुशीलन समिति के कई साथियों के साथ विस्तृत चर्चा करके डॉ हेडगेवार ने अट्ठारह सौ सत्तावन के स्वतंत्रता संग्राम से भी भयंकर महासमर की योजना पर विचार किया था यह भी गंभीरता से चर्चा हुई थी किन कारणों से प्रथम स्वतंत्रता संग्राम विफल हुआ उन विफलताओं को ना दोहराया जाये नागपुर पहुंचने के कुछ दिन बाद इस योजना को कार्यान्वित करने के उद्देश्य से डॉक्टर हेडगेवार शस्त्र और व्यक्तियों को जुटाने में लग गए डॉक्टर साहब की क्रांतिकारी मंडली ने यह विचार भी किया कि सेना में युवकों को भर्ती करवाकर सैनिक प्रशिक्षण प्राप्त करके अंग्रेजो के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह कर दिया जाए इसी समय विश्व युद्ध के बादल भी बरसने प्रारंभ हो गए अंग्रेजों के समक्ष अपने विश्वस्तरीय साम्राज्य को बचाने का संकट खड़ा हो गया भारत में भी अंग्रेजों की हालत दयनीय हो गई देश के कोने कोने तक फैल रही सशस्त्र क्रांति की चिंगारी कांग्रेस के भीतर गर्म दल के राष्ट्रीय नेताओं द्वारा किया जा रहा स्वदेशी आंदोलन और आम भारतीयों के मन में विदेशी सत्ता को उखाड़ फेंकने के जज्बे में हो रही वृद्धि इत्यादि कुछ ऐसे कारण थे जिनसे अंग्रेज शासक भयभीत होने लगे अतः इस अवसर पर उन्हें भारतीयों की मदद की जरूरत महसूस हुई स्वार्थी अंग्रेजों को सशस्त्र क्रांति के संचालकों से मदद की कोई उम्मीद नहीं थी व्यापारी बुद्धि वाले अंग्रेज शासक इस सच्चाई को भलीभांति जानते थे इसलिए उन्होंने अपने कर्मचारी एवं ए ओ ह्यूम (ए ओ ह्यूम 1857 में इटावा जिले के कलेक्टर थे क्रांतिकारियों के डर से वह महिला बेष बनाकर इटावा छोड़कर भागे थे 1857 की क्रांति विफल हो जाने एवम सेवा निवृति के बाद एक सेफ्टी वाल्व के रूप में उन्होंने 1885 में काँग्रेस की स्थापना की थी) द्वारा गठित की गई काँग्रेस से सहायता की उम्मीद बांधी ,अंग्रेज शासकों द्वारा यह भ्रम फैला दिया गया कि विश्व युद्ध में अंग्रेजों की जीत के बाद भारत को उपनिवेश राज्य का दर्जा दे दिया जायेगा कांग्रेस के दोनों ही धड़े इस भ्रमजाल में फंस गये।
डॉक्टर हेडगेवार का विचार था कि ब्रिटेन की उस समय कमजोर सैन्यशक्ति का फायदा उठाना चाहिये और देशव्यापी सशस्त्र क्रांति का एक संगठित प्रयास करना चाहिए डॉ हेडगेवार ने कई दिनों तक चर्चा करके कांग्रेस के दोनों धड़ों के नेताओं को सहमत करने की कोशिश की परंतु इन पर ना जाने क्यों काँग्रेस नेताओं के मन में इस मौके पर अंग्रेजों की सहायता करके कुछ ना कुछ तो प्राप्त ही कर लेंगे का भूत सवार हो गया जो उस समय उतरा जब अंग्रेजों ने अपनी विजय के बाद भारतीयों को कुछ देने के बजाय अपने शिकंजे को और ज्यादा कस दिया।
संगठित सशस्त्र क्रांति का निर्णय-
डॉ हेडगेवार कांग्रेस के उदारवादी एवं राष्ट्रीय नेताओं के इस व्यवहार से नाराज तो हुए परंतु निराश नहीं हुए उन्होंने देशव्यापी संगठित सशस्त्र विद्रोह का निर्णय किया और उसकी तैयारियों में जुट गए विप्लवकारी क्रांतिकारी डॉक्टर हेडगेवार द्वारा शुरू होने वाले भावी विप्लव में इनके एक बालपन के साथी भाऊजी कांवरे ने कंधे से कंधे मिलाकर साथ दिया और उधर विदेशों में क्रांति की अलख जगा रहे रासबिहारी बोस भी इस महा विप्लव की सफलता के लिए काम में जुट गए डॉक्टर साहब और उनके साथियों ने 1916 के प्रारंभिक दिनों में ही सशस्त्र क्रांति को सफल करने हेतु सभी प्रकार के साधन जुटाने के लिये मध्य प्रदेश और अन्य प्रांतों का प्रवास शुरू कर दिया डॉक्टर जी के मध्य प्रांत बंगाल और पंजाब के क्रांतिकारी नेताओं के साथ घनिष्ठ संबंध पहले से ही थे कई लोगों को सशस्त्र कांति के लिए तैयार करने हेतु अनेक प्रकार के प्रयास किए गये कई स्थानों पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों के मंचन प्रारंभ किए गए इसी तरह व्यायामशाला तथा वाचनालय की स्थापना करके युवकों को सशस्त्र क्रांति का प्रशिक्षण दिया जाने लगा । जाहिर है इस तरह के प्रयासों का एक उद्देश्य प्रशासन और पुलिस को भ्रमित करना भी था इन केंद्रों में युवकों को साहस त्याग और क्षमता के आधार पर भर्ती किया जाता था युवा क्रांतिकारियों को 18 57 के स्वतंत्रता संग्राम के समय की वीरतापूर्ण कथायें शिवाजी महाराज के जीवन चरित्र तथा अनुशीलन समिति के क्रांतिकारियों की साहसिक कार्यों की जानकारी दी जाती थी प्रखर राष्ट्रभक्ति की घुट्टी पिलाकर डॉक्टर साहब ने बहुत थोड़े समय में ही लगभग 200 क्रांतिकारियों को अपने साथ जोड़ लिया इन युवकों को बाहर के प्रांतों में क्रांतिकारी दलों के गठन का काम सौंपा गया डॉ हेडगेवार ने करीब 25 लोगों को वर्धा के अपने एक पुराने सहयोगी गंगा प्रसाद के नेतृत्व में उत्तर भारत के प्रांतों में सशस्त्र क्रांति की गतिविधियों के संचालन हेतु भेजा डॉ हेडगेवार जीवन भर अंग्रेजों की वफादारी करने वाले नेताओं की समझौतावादी नीतियों को अस्वीकार करते रहे डॉ हेडगेवार का यह प्रयास अंग्रेजी शासन के विरुद्ध लड़ा जाने वाला दूसरा स्वतंत्र संग्राम था अट्ठारह सत्तावन का स्वतंत्रता संग्राम बहादुर शाह जफर जैसे कमजोर नेतृत्व तथा अंग्रेजों की दमनकारी नीति की वजह से विफल हो गया परंतु उन्नीस सौ सत्रह अट्ठारह का यह स्वतंत्रता आंदोलन कांग्रेस के बड़े-बड़े नेताओं द्वारा बिना सोचे विचारे अंग्रेजों का साथ देने से बिना लड़े विफल हो गया कांग्रेस के इस व्यवहार से भारत में अंग्रेजों के उखड़े हुये साम्राज्य के पाँव पुनः जम गये जिन्हें उखाड़ने के लिए 30 वर्ष और लग गये।
किशोर युवकों से संघ कार्य का प्रारंभ-
1925 में जब संघ का कार्य प्रारंभ हुआ, तब डॉक्टरजी की आयु ३५ वर्ष की थी । तब तक उन्होने तत्कालीन स्वातंत्र्य प्राप्ति हेतु चल रहे सभी आंदोलनों और कार्यों में जिम्मेदारी की भावना से कार्य किया। संघ का कार्य प्रारंभ करने के लिये उन्होंने 12-14 वर्षों की आयुवाले कुछ किशोर स्वयंसेवकों को साथ में लेकर नागपुर के साळूबाई मोहिते के जर्जर बाडे का मैदान साफ करके, कबड्डी जैसे भारतीय खेल खेलना आरंभ किया। ऊपरी तौर पर देखा जाये तो यह एक प्रकार का विरोधाभास ही प्रतीत होता है। उनके अनेक मित्रों ने इस पर आश्चर्य व्यक्त करते हुये कहा भी था “डॉक्टर हेडगेवार ने आसेतु हिमाचल फैले इस विशाल हिन्दुसमाज को राष्ट्रीयता के रंग में रंगकर सुसंगठित करने का प्रयास सफल सिद्ध करके दिखाने के उदात्त और भव्य कार्य का आरंभ माध्यमिक और उच्च माध्यमिक शालेय छात्रों के साथ कबड्डी खेल कर किया। “
डॉक्टरजी का मित्र परिवार काफी बड़ा था। फिर भी उन्होंने इन मित्रों को एकत्र कर कोई सभा-सम्मेलनों का आयोजन नहीं किया । सार्वजनिक अथवा किसी निजी स्थान पर अपने चहेतों की सभा लेकर, भाषण आदि देकर कोई प्रस्ताव आदि पारित करने के चक्कर में भी वे नहीं पडे । अंग्रेजों के विरूद्ध असंतोष भडकाने वाला भाषण देकर लोगों का उद्बोधन नहीं किया। ‘भारत के उत्थान हेतु मैं एक नये कार्य का श्रीगणेश कर रहा हूं’ – ऐसी कोई घोषणा भी नहीं की। समाचार पत्रों में लेख आदि लिखकर अथवा जाहिर भाषण में संघ कार्य के विचार और कार्य-शैली की कोई संकल्पना (Blue-print) भी प्रकट नहीं की। ये सारी बातें तत्कालीन प्रचलित पद्धति के अनुसार न करते हुए केवल 20-25 किशोर स्वयंसेवकों को साथ लेकर कबड्डी जैसे देशी खेल खेलने का कार्यक्रम शुरू किया। प्रारंभिक दिनों में इन स्वयंसेवकों के समक्ष भी भाषण आदि देकर संघ – विचारों का प्रतिपादन नहीं कियां । खेल समाप्त होने के बाद संघ स्थान पर अथवा अन्य समय में अनौपचारिक रूप से इन किशोर स्वयंसेवकों के साथ वार्तालाप हुआ करता । कबड्डी जैसे खेलों से शाखा का कार्य प्रारंभ होने पर डॉक्टरजी के अनेक मित्रों ने उनसे पूछा कि आप सारे कामों से मुक्त होकर इन छोटे बच्चों के साथ कबड्डी खेलने में क्यों लगे हैं? डॉक्टरजी ने उनके साथ कभी वाद विवाद या बहस नहीं की। तर्क और बुद्धि का सहारा लेकर उन्हें संघ कार्य का महत्व समझाने का प्रयास भी नहीं किया। तब तक किये गये सारे सामाजिक कार्यों से मुक्त होकर वे मोहिते बाड़े में लगने वाली सायं शाखा में किशोर स्वयंसेवकों के साथ तन्मय होकर खेलकूद में शामिल होने लगे। शाखा के कार्यक्रमों का ठीक ढंग से आयोजन करने, सारे कार्यक्रम अच्छे ढंग से बिना किसी भूल के सम्पन्न हों, इसके लिये एकाग्र चित्त से वे संघ कार्य में जुट गये। नये शुरू किये गये इस कार्य का नाम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है, यह बात भी प्रारंभिक दिनों में उन्होंने स्वयंसेवकों से नहीं कही। केवल तन्मयता से विविध खेलों के कार्यक्रमों में वे रम जाते और अपने साथ किशोर स्वयंसेवकों को भी रमाने का प्रयास करते और इस प्रकार संघ की शाखा शुरू हुई।
शाखा के साथ ही कार्यपद्धति का विकास भी प्रारंभ हुआ। स्वयंसेवकों के साथ परिचय होने के साथ ही अनौपचारिक वार्तालाप शुरू हो गया था। स्वयंसेवकों का नाम, शिक्षा, घर की स्थिति आदि के बारे में जानकारी प्राप्त कर लेने के बाद, यदि कोई स्वयंसेवक किसी दिन शाखा में नहीं आया तो अन्य किशोर स्वयंसेवकों को साथ लेकर डॉक्टरजी उसके घर जाते थे। इस प्रकार धीरे धीरे स्वयंसेवकों के माता-पिता और परिवारजनों के साथ भी परिचय होने लगा। डॉक्टरजी जैसा ज्येष्ट चरित्रवान कार्यकर्ता अपने बच्चे की पूछताछ करने, स्वास्थ्य संबंधी जानकारी प्राप्त करने बडी आस्था से अपने घर आता है, यह देखकर स्वयंसेवकों के घर के लोग भी प्रभावित होते। डॉक्टरजी के अपने घर आने से उन्हें बड़ी खुशी होती। कोई स्वयंसेवक यदि गंभीर रूप से बीमार होता तो डॉक्टरजी बड़े चिन्तित रहते – उस बीमार स्वयंसेवक के लिये अस्पताल से दवाई लाने, इलाज करने वाले डॉक्टरों से आस्था पूर्वक पूछताछ और विचार-विनिमय करने तथा आवश्यक हुआ तो बीमार स्वयंसेवक की सेवासुश्रुषा के लिये रात भर जागरण करने के लिये स्वयंसेवकों को उसके पास भेजने की व्यवस्था की जाती । इस प्रकार के व्यवहार से स्वयंसेवकों में परस्पर मैत्री पूर्ण संम्बन्ध अधिक मजबूत होने लगे। साथ ही प्रत्येक स्वयंसेवक के विचारों और भावनाओं का भी डॉक्टरजी को परिचय होने लगा। स्वयंसेवकों के सुख दुःखों में समरस होने की प्रवृत्ति बढने लगी | स्वयंसेवकों में सगे भाई से भी अधिक आत्मीयता के परस्पर सम्बन्ध बनने लगे। परस्पर हृदयस्थ विचारों से परिचित होकर निरपेक्ष स्नेह से मित्रता कैसी प्रस्थापित की जाए, नये नये विश्वास पात्र मित्र कैसे बनाये जांय आदि बातों के सम्बन्ध में डॉक्टरजी ने अपने प्रत्यक्ष व्यवहार से स्वयंसेवकों को संस्कारित किया । स्वयंसेवकों के घनिष्ठ मित्रों का यह परिवार धीरे धीरे बढ़ने लगा। एक दूसरे के साथ आत्मीयता से जुड़े स्वयंसेवकों का यह परिवार और उस परिवार के मुखिया के रूप में डॉक्टरजी, इस तरह संघ का स्वरूप धीरे धीरे विकसित होने लगा। सार्वजनिक क्षेत्र में कार्य करने का व्यापक अनुभव डॉक्टरजी को प्राप्त था। इसलिये डॉक्टरजी का स्वयंसेवकों के साथ हंसना-खेलना-बोलना आदि सभी बड़े अनौचारिक ढंग से चलता। ये अनौपचारिक बैठकें उनके घर में ही होती। इन बैठकों में होनेवाले वार्तालापों में डॉक्टरजी अनेक घटनाओं के सन्दर्भ में, बड़ी सहजता से अपने अनुभवों को सुनाते, ये अनुभव बडे बोधप्रद होते। साथ में हंसी-मजाक और दिल्लगी का दौर भी चलता। इसलिये ये बैठकें कभी कभी घंटों चलती रहती- सभी स्वयंसेवक उसमें इतने रम जाते कि समय का किसी को ध्यान नहीं रहता।
संघके कार्य में बैठक शब्द एक नये अर्थ में स्वयंसेवकों में प्रचलित हुआ । अनौपचारिक वार्तालाप और हास्य-विनोद से परस्पर मनों को जोडनेवाली एक नयी कार्यशैली विकसित हुई । इन बैठकों में डॉक्टरजी अनेक घटनाओं के सन्दर्भ में अपने अनुभवों के साथ बडे रोचक ढंग से जानकारी प्रस्तुत करते – इसमें विनोद के साथ ही अत्यंत सरल शब्दों में राष्ट्रीय भावना के लिये पोषक मार्गदर्शन भी होता| तरह तरह के मानवी स्वभावों, अंतर्मन की भावना को प्रकट करने वाले रोचक उद्गारों, शब्दप्रयोगों को लेकर प्रचलित समाज की स्थिती को समझाने का प्रयास भी होता। यह सब हंसी-विनोद के साथ चलता और इसलिये इन बैठकों के प्रति स्वयंसेवकों का आकर्षण बढने लगा। डॉक्टरजी के निवासस्थान पर नित्य अधिकाधिक संख्या में ये बैठकें रात्रिके ९ से १२ बजे तक चलती रहती।
डॉक्टरजी ने इन बैठकों में स्वयंसेवकों को खुले दिल से अपनी बातें कहने की आदत भी डाली । वार्तालाप का सूत्र टूटने न पाये, स्वयंसेवक अपना विचार व्यक्त करते समय भटकने न लगे- विचार प्रकटन में सुसंगति बनी रहे इसकी चिंता डॉक्टरजी बडी कुशलता से करते । इन बैठकों में स्वयंसेवकों के गुण-अवगुणों का निरीक्षण भी होता। बैठक में कौन कौन उपस्थित थे- किसने कौनसी शंका व्यक्त की- उसपर कौन क्या क्या बोले आदि सारे वार्तालाप की बारीकियों को ध्यान में रखा जाता – इससे हरेक के स्वभाव, बोलने की शैली, विषय प्रतिपादन करने की कुशलता, उसके कर्तृत्व और उसकी गुणसंपदा बढाने के लिये क्या क्या आवश्यक है – आदि बातों का निदान भी होने लगा ।
स्वयंसेवकों और समाज के अन्य बांधवों के साथ प्रेम से, सीधे सरल शब्दों में किस तरह बातचीत की जाए, अपने कार्य के प्रति उसकी सहानुभूति और अनुकूलता अर्जित करने के लिये मित्रता कैसे सुदृढ की जाए, सामूहिक चिंतन और विचारविनिमय में अपने विचार किस तरह व्यक्त किये जांय- ऐसी अनेक छोटी-छोटी प्रतीत होनेवाली किंतु संघ कार्य को मजबूती से खड़ा करने के लिये अत्यावश्यक बातों का डॉक्टरजी बडा ध्यान रखते । जहां आवश्यक हो, वहीं वे मार्गदर्शन करते। अपने मित्रों और सहयोगियों को परस्पर अनुकूल बनाने में उपयोगी सिद्ध हो सके ऐसी पद्धतिसे बैठकों में अथवा परस्पर वार्तालाप में बोलने की आदत डॉक्टरजी ने स्वयंसेवकों में डाली । प्रत्येक स्वयंसेवक के मन में आस्थापूर्वक अपने राष्ट्र की उन्नति के लिये संघकार्य करने की इच्छा होती है। हरेक की बोल-चाल की शैली में भिन्नता स्वाभाविक है – यह जानते हुए प्रत्येक स्वयंसेवक के विचारों का यथोचित आदर करते हुए, उनके विचारों को सुनने के बाद सम्पूर्ण समाज और देश के हित में वस्तुनिष्ठ विचारों का प्रतिपादन और अंत में निष्कर्ष के रूप में सर्वानुमति से सबके सामने उल्लेख करना और जो दोष दिखाई दें उनका उल्लेख सबके सामने न करते हुए संम्बन्धित व्यक्ति से अकेले में बातचीत कर उस दोष को दूर करने का प्रयास करना – धीरे धीरे यह आदत सभी स्वयंसेवकों को हो गई। हरेक स्वयंसेवक का, स्वभाव वैचित्र्य के कारण अभिव्यक्ति का ढंग भी अलग होता है – यह होते हुए भी उन सभी में वैचारिक और व्यावहारिक सामंजस्य प्रस्थापित करने की पद्धति से डॉक्टरजी ने हरेक स्वयंसेवक के जीवन को एक नयी दिशा दी । स्वयंसेवकों में भी सामंजस्य की यह आदत विकसित होती गयी । परिणाम स्वरूप नये नये मित्रों से पहिचान, उनके साथ घनिष्ठता में वृद्धि, उनके साथ सम्पर्क से संघ के विचारों और कार्य के प्रति सहानुभूति और निकटता बढाकर उन्हे संघ की शाखा में लाने का प्रयास होने लगा । प्रारंभ में, प्रत्येक स्वयंसेवक के साथ डॉक्टरजी का सम्पर्क बना रहा । किन्तु जैसे जैसे कार्य बढ़ता गया वैसे वैसे केवल प्रमुख कार्यकर्ताओं से नित्य का संबंध और व्यक्तिगत बातचीत में मार्गदर्शन करना ही डॉक्टरजी के लिये संभव हो पाया ।
संघ कार्य प्रारंभ होने पर, हरेक बैठक में डॉक्टरजी स्वयं सभी कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर संघ कार्य से सम्बन्धित सभी विषयों का चिंतन और विचार-विनिमय किया करते । उनके मन में संघ कार्य की पूर्ण रूपरेखा और कार्य विस्तार की पूर्ण संकल्पना स्पष्ट रूप में थी। किंतु सारे कार्यकर्ता स्वयंसेवक तो किशोर-युवक थे । उनकी उम्र भी उस समय 12-14 वर्षों की रही होगी। फिर भी कार्य के सम्बन्ध में विचार-विनिमय व सामूहिक चिंतन से सर्वसम्मत निर्णय लेने की कार्य पद्धति इन कार्यकर्ताओं के बैठक में ही विकसित और रूढ हुई। संबंधित सभी कार्यकर्ताओं के साथ वार्तालाप होने के बाद ही सर्वसम्मत निर्णय लेना यह संघ की कार्य पद्धति का अंग बना । आदेश देनेवाला नेता एक और बाकी सारे अनुयायी अथवा विचार – चिंतननिर्णय करने वाला केवल एक नेता और बाकी सारे उसकी आज्ञा का पालन करनेवाले – इस प्रकार की कार्य पद्धति डॉक्टरजी त्याज्य मानते थे। सबके साथ खुले वातावरण में मुक्त विचार-विमर्श कर, सबके विचारों का यथोचित आदर करते हुए वस्तुनिष्ठ और कार्य को प्रमुखता देकर ‘पंच परमेश्वर’ की भावना से बैठक में लिये गये निर्णय को शिरोधार्य मानकर सभी ने मनःपूर्वक कार्य करने की पद्धति संघ में विकसित हुई। इसी में से, हरेक की थोडी बहुत वैचारिक मत- भिन्नता के बावजूद, सबके हृदयों को एक साथ जोडने – एक दिल से कार्य करने की तथा राष्ट्रीयता की भावना से ओतप्रोत संघशक्ति निर्माण करने वाला राजमार्ग प्रशस्त होता गया
डॉक्टर हेडगेवार का सार्वजनिक जीवन राजनीतिक दृष्टिकोण दर्शन नीतियां तिलक-गांधी हिंसा-अहिंसा कांग्रेस- क्रांतिकारी आदि के आधार पर निर्धारित न होकर नेता व्यक्तित्व समाज से कहीं बड़ा महत्वपूर्ण स्वतंत्र प्राप्ति का मूल्य था इसलिए 1921 में प्रांतीय कांग्रेस की बैठक में लोकनायक आने की अध्यक्षता में क्रांतिकारियों की निंदा का प्रस्ताव लेने का प्रयास हुआ तब डॉक्टर जी ने इसका विरोध करते हुए कहा “आपको उनका मार्ग पसंद ना हो पर उनकी देशभक्ति पर संदेह नहीं करना चाहिए’ यह कहकर उस प्रस्ताव को नहीं आने दिया और राजनीति की तस्वीर बदल दी। डॉ हेडगेवार कहते थे व्यक्तिगत मत भिन्नता होने पर भी साम्राज्य विरोधी आंदोलन में सभी को साथ रहना चाहिए और इस आंदोलन को कमजोर नहीं होने देना चाहिए।
!! डॉ हेडगेवार का जंगल सत्याग्रह मार्च-1930!!
संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार द्वारा मार्च 1930 में अंग्रजों के नमक कानून के विरुद्ध 9 माह का सत्याग्रह किया गया था जिसे जंगल सत्याग्रह के नाम से जाना जाता है। 12 मार्च, 1930 भारत के इतिहास में स्वतंत्रता संग्राम के लिए बहुत अहम तिथि है। अंग्रेजों द्वारा बनाए नमक कानून को तोड़ने के लिए महात्मा गांधी जी ने इसी दिन दांडी यात्रा शुरू की थी। गुजरात के अहमदाबाद के साबरमती आश्रम से प्रारंभ हुई डांडी यात्रा का उद्देश्य नमक कानून को तोड़ना था जो अंग्रेजों के खिलाफ देश भर में विरोध का एक बड़ा संकेत था। इसी आंदोलन के निमित्त राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार जी ने जंगल सत्याग्रह किया था,जिसके चलते उन्हें 9 माह का सश्रम कारावास हुआ।
संघ संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने स्वतंत्रता के साथ ही सतत् जागरूक,एकजुट, शक्तिशाली,साधन संपन्न समाज के निर्माण के उद्देश्य से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की,ताकि विदेशियों के बार-बार भारत पर आक्रमण करने और भारतीयों द्वारा बार-बार स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने का सिलसिला समाप्त हो सके। वे समस्या का स्थाई समाधान चाहते थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विरोधियों को जब विरोधियों को कोई दूसरा आधार नहीं मिलता तो वे अक्सर स्वतंत्रता संग्राम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका को लेकर प्रश्न उठाते रहते हैं। हालांकि, स्वतंत्रता संग्राम में विरोधियों द्वारा प्रश्न खड़े करना ये विरोधियों की अज्ञानता व खीज को ही दर्शाता है।
महात्मा गांधी ने अंग्रेजों द्वारा बनाए गए अन्यायपूर्ण नमक कानून को अंग्रेजों के विरोध के लिए एक मजबूत हथियार बनाया। इस आंदोलन को लेकर पूरी योजना बनाई गई थी। इसमें कांग्रेस के सभी नेताओं की भूमिकाएं पहले से ही तय थीं। यह भी तय किया गया था कि अगर अंग्रेजों ने गिरफ्तारी की तो कौन-कौन-से नेता यात्रा को संभालेंगे। इस यात्रा को भारी जनसमर्थन मिला और जैसे-जैसे यात्रा आगे बढ़ती गई। बहुत सारे लोग जुड़ते चले गए।
अंग्रेज सरकार के विरुद्ध सविनय कानून भंग कार्यक्रम दांडी मार्च के इस मूवमेंट को लेकर गांधी जी ने अपने 79 साथियों के साथ 240 मील यानि 386 किलोमीटर की लंबी यात्रा कर नवसारी के एक छोटे से गांव दांडी पहुंचे,जहां समुद्री तट पर उन्होंने सार्वजनिक रूप से नमक बनाकर नमक कानून तोड़ा। 25 दिन तक चली इस यात्रा में महात्मा गांधी रोज 16 किलोमीटर की यात्रा करते थे। वे 06 अप्रैल को दांडी पहुंचे थे और अंग्रेजों के विरुद्ध नमक कानून का बहिष्कार किया गया था।
दांडी मार्च खत्म होने के बाद देशभर में अंग्रजों के विरुद्ध चले असहयोग आंदोलन के तहत बड़े पैमाने पर पूरे देश में बड़ी संख्या में गिरफ्तारियां हुईं। कांग्रेस के प्रथम पंक्ति के सभी नेता गिरफ्तार होते रहे,लेकिन आंदोलनकारियों और उनके समर्थकों ने किसी तरह से हिंसा का सहारा नहीं लिया। यहां तक कि अमेरिकी पत्रकार वेब मिलर ने अंग्रेजों के सत्याग्रहियों पर हुए अत्याचार की कहानी दुनिया के सामने रखी तो पूरी दुनिया में ब्रिटिश साम्राज्य को बहुत अपमानित होना पड़ा।
संघ का कार्य अभी मध्य प्रान्त में ही प्रभावी हो पाया था। यहां नमक कानून के स्थान पर जंगल कानून तोड़कर सत्याग्रह करने का निश्चय हुआ. डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार संघ के सरसंघचालक का दायित्व डॉ.लक्ष्मण वासुदेव परांजपे को सौंप स्वयं अन्य स्वयंसेवकों,समाजजनों के साथ सत्याग्रह करने चले गए।सत्याग्रह हेतु यवतमाल जाते समय पुसद नामक स्थान पर आयोजित जनसभा में डॉ. हेडगेवार जी के सम्बोधन से स्वतंत्रता संग्राम में संघ का दृष्टिकोण स्पष्ट होता है।
पुसद नामक स्थान पर सत्याग्रहियों को सम्बोधित करते हुए डाक्टर हेडगेवार ने कहा था कि स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए अंग्रेजों के बूट की पॉलिश करने से लेकर उनके बूट को पैर से निकालकर उनके ही सिर को लहुलुहान करने तक के सब मार्ग मेरे स्वतंत्रता प्राप्ति के साधन हो सकते हैं. मैं तो इतना ही जानता हूं कि देश को स्वतंत्र कराना है। इस जनसभा के बाद डाक्टर हेडगेवार सहित 12 स्वयंसेवकों को 9 माह का सश्रम कारावास दिया गया।
इसके बाद प्रतिदिन लगने वाली शाखाओं के स्वयंसेवकों के जत्थों ने भी सत्याग्रहियों की सुरक्षा के लिए 100 स्वयंसेवकों की टोली बनाई, जिसके सदस्य सत्याग्रह के समय उपस्थित रहते थे। 08 अगस्त को गढ़वाल दिवस पर धारा 144 तोड़कर जुलूस निकालने पर पुलिस की मार से अनेक स्वयंसेवक घायल हुए. विजयादशमी, 1931 को डॉक्टर जी जेल में थे, उनकी अनुपस्थिति में गांव-गांव में संघ की शाखाओं पर एक संदेश पढ़ा गया, जिसमें कहा गया था – देश की परतंत्रता नष्ट होकर जब तक सारा समाज बलशाली और आत्मनिर्भर नहीं होता,तब तक रे मना ! तुझे निजी सुख की अभिलाषा का अधिकार नहीं।
इस आंदोलन की समाप्ति गांधी जी के इरविन समझौते के साथ हुई। इसके बाद अंग्रेजों ने भारत को स्वायत्तता देने के बारे में विचार करना शुरू कर दिया था। 1935 के कानून में इसकी झलक भी देखने को मिली और सविनय अवज्ञा की सफलता के विश्वास को लेकर गांधी जी ने 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन शुरू किया। जिससे अंग्रेजों को भारत छोड़ने को मजबूर होना पड़ा. 06 अप्रैल, 1930 को दांडी में समुद्र तट पर गांधी जी ने नमक कानून तोड़ा और लगभग 8 वर्ष बाद कांग्रेस ने दूसरा जनान्दोलन प्रारम्भ किया.
स्वाभाविक है कि देश को स्वतंत्रता किसी एक दल,एक परिवार,एक व्यक्ति,एक समुदाय विशेष के प्रयासों से नहीं,बल्कि समूचे देशवासियों के संयुक्त प्रयासों से मिली है। यह बात दीगर है कि एक दल इसका विशेष श्रेय लेता रहा और स्वतंत्रता संग्राम को राजनीतिक लाभ लेने का माध्यम भी बन चुका है। चाहे इन कदमों को उस दल के विवेक पर छोड़ सकते हैं,परंतु स्वतंत्रता संग्राम में दूसरों पर, विशेषकर संघ जैसे देशभक्त व राष्ट्रनिष्ठ संगठन पर प्रश्न खड़े किए जाए,इसका किसी को अधिकार नहीं दिया जा सकता।
आलोचकों की जानकारी के लिए राष्ट्रीय अभिलेखागार में गुप्तचर विभाग की वह रिपोर्ट सुरक्षित रखी हुई है जिसमें बड़ी संख्या में उन कार्यकर्ताओं के नाम भी मिलते हैं जो 1942 में आंदोलन भागीदारी करने कारण विभिन्न स्थानों पर हिरासत में लिए गए और जेलों में सजा सजा भुगत रहे फोटो से यह भी पता चलता है कि विदर्भ के चीकू राष्ट्रीय नाम के स्थान पर तो संघ के कार्यकर्ताओं ने स्वतंत्र सरकार की स्थापना भी कर ली थी इन्होंने अंग्रेजों की पुलिस द्वारा किए गए अत्याचारों का सामना किया अपनी सरकार स्थापित करने के बाद सरकारी आदेशों से हुए लाठीचार्ज गोली वर्षा में एक दर्जन से ज्यादा शहीद हुए थे नागपुर के निकट रामटेक के संधि के नगर कार्यवाह रमाकांत केशव देशपांडे “बाला साहब देशपांडे’ को 1942 के अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने पर मृत्युदंड की सजा सुनाई गई थी परंतु बाद में उन्हें सजा से मुक्त कर दिया गया यह वही सज्जन हैं जिन्होंने स्वतंत्र प्राप्ति के बाद भारत में बनवासी कल्याण आश्रम की स्थापना की थी यह तो एक छोटा सा उदाहरण मात्र है ऐसे सैकड़ों उदाहरण है जब संघ के स्वयंसेवकों ने अपने नाम संगठन दायित्व की प्रसिद्धि की परवाह न करते हुए तेरा वैभव अमर रहे मां हम दिन चार रहे ना रहे की भावना से स्वतंत्रता के आंदोलन में हिस्सा लिया।
महात्मा गाँधी एवं डॉक्टर हेडगेवार-
1934 में वर्धा का शीत शिविर गांधी जी के आगमन के कारण काफी चर्चा का विषय बन गया डॉक्टर के छात्र जीवन के साथी और उनके साथ संघ कार्य के प्रत्यक्षदर्शी नारायण हरि पालकर ने 1960 में प्रकाशित अपनी पुस्तक “डॉक्टर हेडगेवार चरित्र” में गांधीजी और डॉक्टर हेडगेवार की मुलाकात का वर्णन किया है उनके अनुसार 1934 में वर्धा में आयोजित शीत शिविर के स्थान के पास महात्मा गांधी का सत्याग्रह आश्रम था शिविर में चल रही गतिविधियों को देखकर उनके मन में उत्सुकता हुई यहां कौन सा कार्यक्रम या परिषद का सम्मेलन होने वाला है। उन्हो संबंधित कार्यकर्ताओं से चर्चा करके शिविर देखने का निश्चय किया I
22 दिसंबर को शिविर का उद्घाटन हुआ था शिविर में गणवेशधारी स्वयंसेवक, शिविर के कार्यक्रम,अनुशासन देखने के बाद महात्मा गांधी ने कहा में बहुत प्रसन्न हूँ संपूर्ण देश में इतना प्रभावी संगठन मैंने अभी तक नहीं देखा। जब उन्हें मालूम चला कि संघ के शिविर में किसान मजदूर सभी हैं सभी जातियों के लोग हैं एक साथ मिलकर रहते हैं और एक साथ भोजन करते है। पूछने पर किसी ने गांधी जी से कहा संघ में हमें पता भी नहीं चलता तथा हमारी यह जानने की इच्छा भी नहीं होती कि कौन किस जाति का है हम सब हिंदू हैं यह भाव सदैव रहता है।
वर्धा शिविर के दर्शन के बाद गांधी जी ने कहा क्या मैं संघ के संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार से मिल सकता हूं तब उन्हे कहा गया कि वह कल आने वाले हैं कल हम उनको लेकर आपके आश्रम में आप से भेंट करने आयेंगे अगले दिन गांधीजी और डॉक्टर हेडगेवार की मुलाकात हुई आधे घंटे की मुलाकात में संघ की कार्यपद्धती देश की वर्तमान परिस्थितियों सहित विभिन्न विषयों पर चर्चा हुई महात्मा गाँधी ने डॉक्टर हेडगेवार से कहा आपके शिविर में संख्या, अनुशासन ,स्वयंसेवकों की वृत्ति और स्वच्छता आदि बातों को देख कर बहुत संतोष हुआ ।
महात्मा गाँधी ने कहा डॉक्टर साहब आपका संगठन बहुत अच्छा है गांधी जी ने उत्सुकता बस यह भी कहा मुझे पता चला है कि आप बहुत दिनों तक कांग्रेस में काम करते थे फिर कांग्रेस जैसी लोकप्रिय संस्था के अंदर इस प्रकार का स्वयंसेवी संगठन क्यों नहीं चलाया बिना कारण ही अलग संगठन क्यों बनाया डॉ हेडगेवार ने उत्तर देते हुए का मैंने पहले कांग्रेसमें ही यह कार्य प्रारंभ किया था 1920 की नागपुर कांग्रेसमें मैं स्वयंसेवक विभाग का संचालक था परंतु सफलता नहीं मिली तब यह स्वतंत्र किया है गांधी जी ने कहा कांग्रेसमें आपके प्रयत्न सफल क्यों नहीं हुए क्या पर्याप्त आर्थिक सहायता नहीं मिली डॉ हेडगेवार ने कहा नहीं पैसे की कोई बात नहीं थी पैसे से अनेक बातें सफल हो सकते हैं किंतु पैसे के भरोसे ही संसार में सभी योजना सफल नहीं हो सकती । यहां प्रश्न पैसे का नहीं अंतःकरण का है महात्मा गांधी जी ने प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुये कहा आपका यह कहना है उद्दात्त चरित्र के व्यक्ति कांग्रेसमें नहीं थे? डॉक्टर हेडगेवार ने कहा मेरे कहने का यह तात्पर्य नहीं है कांग्रेसमें अनेक अच्छे व्यक्ति हैं परंतु सवाल मनोवृति का है काँग्रेस की स्थापना एक राजनीतिक कार्य को सफल करने की दृष्टि से हुई है कांग्रेस के कार्यक्रम इस बात को ध्यान में रखकर बनाए जाते हैं तथा उन कार्यक्रमों की पूर्ति के लिए उसे स्वयंसेवकों वॉलिंटियर्स की आवश्यकता होती है। कांग्रेस के लोगों की धारणा स्वयंसेवक के संदर्भ में सेवा परिषद में बिना पैसे लिये दरी उठाने वाले मजदूर की है स्वाभाविक है से इस धारणा से राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति करने वाले स्वयं सेवी कार्यकर्ता कैसे उत्पन्न हो सकेंगे इसलिए कांग्रेसमें कार्य नहीं हो सकता ।
महात्मा गांधी ने कहा फिर स्वयंसेवक की आपकी क्या कल्पना है डॉक्टर जी ने कहा देश देश की सर्वांगीण उन्नति के लिए प्राथमिकता से अपना सर्वस्व अर्पण करने के लिए तत्पर शुद्ध नेता को हम अपना स्वयंसेवक समझते हैं तथा संघ का लक्ष्य इसी प्रकार के स्वयंसेवक का निर्माण करना है । हम एक दूसरे को समान समझते हैं तथा एक दूसरे को समान रूप से प्रेम करते हैं हम किसी प्रकार के भेदभाव को प्रश्रय नहीं देते हैं इतने थोड़े समय मैं धन तथा साधनों का आधार ना होते हुए भी संघ की वृद्धि का यही रहस्य हैI
नेताजी सुभाष चंद्र बोस , विनायक दामोदर सावरकर और डॉ. हेडगेवार-
वीर सावरकर, सुभाष चंद्र बोस और त्रलोक्यनाथ चक्रवर्ती जैसे स्वतंत्रता सेनानी भी अंग्रेजों के विरुद्ध पूरे देश में एक न थमने वाली सशस्त्र क्रांति की योजना बनाने में व्यस्त थे. यहां यह जानना भी जरूरी है कि डॉक्टर जी और सुभाष चंद्र बोस के विचार लगभग एक जैसे ही थे. यह दोनों महापुरुष उपनिवेश दर्जे के सख्त विरोधी थे. अखंड भारत की पूर्ण स्वतंत्रता से कम पर कोई भी तैयार नहीं था. अपने इस ध्येय की प्राप्ति के लिए हिंसा अथवा अहिंसा किसी भी समयोचित तथा यथासम्भव मार्ग को वे तुरंत अख्तियार करने के पक्ष में थे. दोनों ही नेता भारत के विभाजन के सख्त खिलाफ थे. अतः डॉक्टर हेडगेवार तथा सुभाष चंद्र बोस दोनों ही विश्वयुद्ध के समय पर अंग्रेजों को उखाड़ फैंकने के अवसर की प्रतीक्षा में थे. आखिर वह अवसर सामने दिखाई देने लगा.
डॉक्टर जी ने तो प्रथम विश्वयुद्ध के समय ही द्वितीय विश्वयुद्ध की भविष्यवाणी कर दी थी. प्रथम विश्वयुद्ध में भी कांग्रेस ने ब्रिटिश साम्राज्य का साथ देकर एक भारी भूल कर डाली थी. उस समय डॉक्टर जी द्वारा निर्देशित ‘महाविप्लव’ भी इसी कारण से विफल हुआ था. अतः इस बार डॉक्टर जी सोच समझकर कदम रखने के पक्षधर थे. उधर जनवरी 1938 में सुभाष चंद्र बोस को भी इंग्लैंड और आस्ट्रेलिया के प्रवास के समय यूरोप के राजनीतिक माहौल में भावी युद्ध का आभास हो गया था. वे द्विमुखी रणनीति को अख्तियार करने के पक्ष में थे.
एक ओर तो देश के भीतर एक उग्र आंदोलन प्रारम्भ हो और दूसरी ओर अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में ब्रिटेन के शत्रु राष्ट्रों का समर्थन प्राप्त कर लिया जाए. डॉक्टर हेडगेवार तथा वीर सावरकर भी इस रणनीति से सहमत थे. परन्तु इस विषय को लेकर गांधीवादी नेतृत्व और सुभाष चंद्र के बीच खाई गहरी हो गई. गांधी जी केवल अहिंसा के रास्ते पर चलना चाहते थे. परन्तु सुभाष चंद्र बोस का मानना था कि इसी समय प्रत्येक मार्ग (हिंसा अथवा अहिंसा) पर चलकर अंग्रेजों को एक संयुक्त प्रतिकार से ही परास्त किया जा सकता है.
29 अप्रैल 1939 को सुभाष चंद्र बोस को गांधीवादी नेताओं ने कांग्रेस का अध्यक्ष पद छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया. अतः सुभाष चंद्र बोस ने 3 मई 1939 को कांग्रेस के भीतर अपने सहयोगियों की सहायता से ‘फारवर्ड ब्लॉक’ एक स्वतंत्र संगठन की स्थापना कर दी और कांग्रेस तथा कांग्रेस के बाहर सभी राष्ट्रीय शक्तियों को एकत्र करने की मुहिम छेड़ दी. इसी उद्देश्य की प्राप्ति हेतु वह मुम्बई गए और हिन्दू महासभा के नेता तथा सशस्त्र क्रांति के अग्रणी विनायक दामोदर सावरकर से भेंट करके आगे की रणनीति पर विचार किया. सारी योजना बनाने के बाद उन्होंने दो प्रसिद्ध राष्ट्रीय नेता डॉक्टर सांझागिरी और बालाजी हुद्दार को डॉक्टर हेडगेवार से सलाह मशवरा करने नागपुर भेजा. इन दोनों नेताओं ने डॉक्टर जी से कहा कि ‘सुभाष चंद्र बोस और वीर सावरकर वर्तमान वैश्विक परिस्थितियों का लाभ उठाकर ब्रिटिश राज्य के खिलाफ विद्रोह की तैयारी करना चाहते हैं’. डॉक्टर जी ने सहमति जताते हुए कहा ‘इस सम्भावित क्रांति के लिए देशव्यापी संगठित प्रयास प्रारम्भ कर देना चाहिए’।
जिस अवसर का इंतजार डॉक्टर जी गत 20 वर्षों से करते आ रहे थे, वह तो सम्मुख आकर खड़ा हो गया. परन्तु शरीर साथ नहीं दे रहा था. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य जिस तेज गति के साथ बढ़ रहा था, उससे भी कहीं ज्यादा गति के साथ डॉक्टर जी का स्वास्थ्य गिरता जा रहा था. मानो बढ़ते कार्य और गिरते स्वास्थ्य में प्रतिस्पर्धा चल रही हो. 31 जनवरी 1940 को संघ के वरिष्ठ अधिकारियों के आग्रह पर डॉक्टर जी बिहार प्रांत के राजगीर में उपचार हेतु गए. परन्तु वहां भी वे विचारों के झंझावत से निकल नहीं सके. एक दिन भोजन के पश्चात् जब उनकी आंख लगी तो वह सोते-सोते ही बड़बड़ा उठे ‘यह देखो 1941 भी आ रहा है, आज भी हम परतंत्र हैं, परन्तु हम स्वतंत्र होकर रहेंगे’. नींद में भी वे भारत को स्वतंत्र करने के विचारों में ही उलझे रहते थे. डॉक्टर साहब के अनुसार 1942 का वर्ष ही स्वतंत्रता प्राप्ति का वर्ष सिद्ध होने वाला है. उनकी यह भविष्यवाणी भी सत्य साबित हो गई. सन् 1942 के सितम्बर मास में आजाद हिंद फौज का गठन हो गया. गांधी जी ने ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ के देशव्यापी आंदोलन का बिगुल बजा दिया. सेना में भारतीय सैनिकों ने विद्रोह का बीजारोपण कर दिया और संघ के स्वयंसेवक पूरी शक्ति के साथ भारत छोड़ो आंदोलन में कूद पड़े. इन स्वयंसेवकों ने अपनी संघ पहचान को सामने न लाकर स्वतंत्रता आंदोलन में सभी भारतीयों के साथ एकजुटता का परिचय दिया.
इतिहासकार देवेन्द्र स्वरूप के अनुसार, यूरोप में युद्ध का पासा मित्र राष्ट्रों के प्रतिकूल जा रहा था, 13 जून 1940 को हिटलर ने फ्रांस को पूरी तरह रौंद डाला, 16 जून को इटली का अधिनायक मुसोलिनी युद्ध में कूद पड़ा, ब्रिटिश फौजें बड़ी कठिनता से फ्रांस से अपनी जान बचाकर स्वदेश भागीं. सुभाष बाबू और डॉक्टर जी दोनों ही इस स्वर्ण अवसर का लाभ उठाने के लिए व्याकुल हो गए. सुभाष बाबू को गांधीवादी नेतृत्व और ब्रिटिश सरकार दोनों से जूझना पड़ रहा था. डॉक्टर हेडगेवार संघ कार्य की वृद्धि और सामने खड़ी मृत्यु के बीच गहरी चिंता में थे.
डॉक्टर हेडगेवार का आत्मनियंत्रण, मनोबल तथा संयम तो बहुत ही आश्चर्यजनक था. देहावसान से कुछ ही दिन पूर्व डॉक्टर श्यामाप्रसाद मुखर्जी डॉक्टर जी से मिलने नागपुर आए थे. उन्हीं दिनों नागपुर में एक संघ शिक्षा वर्ग चल रहा था, उसे देखने पहुंचे डॉक्टर मुखर्जी को जानकारी मिली कि डॉक्टर हेडगेवार बहुत अस्वस्थ चल रहे हैं. वह उनका हालचाल पूछने तथा बंगाल में हिन्दुओं पर हो रहे मुस्लिम हमलों पर चर्चा करने के लिए डॉक्टर जी के निवास पर पहुंचे. शिथिलता की हालत में भी उठकर डॉक्टर जी ने उनका गर्मजोशी के साथ स्वागत किया. इस समय डॉक्टर जी को 104 डिग्री बुखार था, फिर भी उन्होंने लगभग आधे घंटे तक सभी विषयों पर विस्तृत बातचीत की, इसमें सुभाष चंद्र बोस और वीर सावरकर द्वारा सशस्त्र क्रांति की योजना पर भी डॉक्टर जी ने अपनी सहमति जताई.
द्वितीय विश्वयुद्ध शुरु हो जाने के पश्चात डॉक्टर जी की अंतर्व्यथा को दर्शाते हुए संघ के तत्कालीन सरकार्यवाह ह.ब. कुलकर्णी से अपना प्रत्यक्ष अनुभव इन शब्दों में व्यक्त किया था ‘एक दिन डॉक्टर जी ने मुझे अपने घर पर बुलाया, सभी के सो जाने के पश्चात डॉक्टर जी ने मुझसे कहा, ‘मुझे भय है कि कहीं इस महायुद्ध का स्वर्णावसर भी हम हाथ से न खो दें, इस युद्ध की पूर्व से ही कल्पना थी, परन्तु इस खंड प्रायः देश के प्रत्येक ग्राम में एक-एक हेडगेवार का निर्माण होता तो मैं इसी जन्म में मेरे हिन्दू राष्ट्र को स्वतंत्र देख पाता, परन्तु ईश्वर की इच्छा कुछ और ही प्रतीत होती है’ यह कहकर डॉक्टर जी का गला भर आया और उनकी आंखों से अश्रुधारा बहने लगी. उनके अंतिम श्वासों में भी यही शब्द निकले ‘अखंड भारत’ और ‘पूर्ण स्वतंत्रता’.
बाल्यकाल से लेकर जीवन की अंतिम श्वास तक अपने राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए जी जान से जूझने वाले स्वतंत्रता संग्राम के सेनापति डॉक्टर हेडगेवार की एकमात्र अंतिम इच्छा थी मातृभूमि को स्वतंत्र देखना, परन्तु उनकी यह पीड़ायुक्त प्रार्थना न शरीर ने मानी और न ही भगवान ने स्वीकार की. एक मराठी कवि ने मराठी भाषा में इस पीड़ा को व्यक्त किया था, जिसका हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है – ‘इस समय तुम लौट जाओ हे मृत्युदेव, मुझे अपनी आंखों से देख लेने दो मेरी मातृभूमि की स्वतंत्रता, फिर मैं अपने आप प्रसन्नतापूर्वक तुम्हारे पास भागा चला आऊंगा’.
इन्हीं दिनों दिनांक 19 जून 1940 को जब सुभाष चंद्र बोस उनसे भावी क्रांति के सम्बन्ध में वार्ता करने के लिए आए, तब उसी समय डॉक्टर जी को हल्की नींद आ गई. इस झपकी को देखकर सुभाष बाबू ने उन्हें जगाना ठीक नहीं समझा, वे मात्र इतना कहकर चले गए – ‘अभी इनके आराम में खलल डालना ठीक नहीं होगा, इन्हें सोने दीजिए, मैं जल्दी फिर लौटकर फिर किसी दिन आकर मिल लूंगा’, परन्तु जब डॉक्टर जी को सुभाष बाबू के आने की जानकारी मिली तो वे नाराज हुए और कहा ‘मुझे जगाया क्यों नहीं, इतना बड़ा राष्ट्रभक्त स्वतंत्रता सेनानी मुझसे मिलने आया और उसे यूं ही जाना पड़ा, यह ठीक नहीं हुआ, दौड़कर जाओ और सुभाष बाबू को वापस लाओ’, परन्तु तब तक तो वे बहुत दूर निकल चुके थे.
21 जून 1940 को डॉक्टर हेडगेवार ने अपना शरीर छोड़ दिया. प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार वे मृत्यु के पूर्व फूट-फूटकर रोए थे. यहां यह महत्वपूर्ण प्रश्न खड़ा होता है कि अपनी सारी व्यक्तिगत एवं पारिवारिक इच्छाओं को पूर्णतया भस्म कर देने वाला डॉक्टर जी जैसा लौहपुरुष जोर-जोर से क्यों रोया? इस प्रश्न का एक ही उत्तर है कि उनकी चिरप्रतीक्षित अभिलाषा भारत की स्वतंत्रता परमेश्वर ने उनके जीवनकाल में पूरी नहीं की. यही व्यथा उनकी आंखों से आंसुओं की बरसात बनकर बह रही थी.
डॉ हेडगेवार शब्दों से नहीं आचरण से सिखाने की पद्धति पर विश्वास रखते थे संघ कार्य की प्रसिद्धि की चिंता ना करते हुए संघ कार्य के प्रणाम से ही लोग संघ कार्य को महसूस करेंगे समझेंगे तथा सहयोग एवं समर्थन देंगे ऐसा उनका विचार था इसलिए उनके निधन के पश्चात भी अनेक उतार-चढ़ाव संघ के जीवन में आने के बाद भी संघ कार्य अपनी नियत दिशा में निश्चित गति से लगातार बढ़ता हुआ अपने प्रभाव से संपूर्ण समाज को स्पर्श करता हुआ आलोकित करता हुआ आगे ही बढ़ रहा है संघ की इस यशोगाथा में ही डॉक्टर जीके समर्पित युग दृष्टा सफल संगठन और सार्थक जीवन की यशोगाथा है।
डॉक्टर हेडगेवार के बताये मार्ग पर आज करोड़ों स्वयंसेवक भारत माता की सेवा में दिन रात एक कर रहे हैं सब यही गाते हैं पूर्ण करेंगे हम सब केशव वह साधना तुम्हारी,संघ की शाखाओं में उच्चारित होंने वाला “परम वैभवं नेतु मेतत स्वराष्ट्रम” का मंत्र अव सिद्ध हो चला है। सारी दुनिया मे भारत की यशो दुंदुभी बज रही है भारत को जो मान सम्मान स्थान अब मिल रहा है उसके पीछे केशव रचित सृष्टि ही तो है।
(लेखक भारतीय जनता पार्टी मध्यप्रदेश कार्य समिति के सदस्य एवं राजगढ़ भाजपा के जिला प्रभारी हैं. उपरोक्त उनके व्यक्तिगत विचार हैं.)