आबोहवा में उदासी घुली है। बेदर्द वक्त की ध्वनियों में असहायता के स्वर है। ह्दय में अकेलेपन के दर्द की उठती लहरियां है। सब कुछ अनहोनी खामोश लहरिया है। नि:शब्द के आगोश में सब कुछ डूबा हुआ है। मशीनों का शोर थमा तो प्रकृति गुनगुनाने लगी। पक्षी गा रहे है। शायद उसे सुनने-धारण करने की स्वर सामथ्र्य छीज गई। आदमी पिंजरे में बंद हो गए। पिंजरे वाले आजाद हो गए।
कोरोनाजनित बंदी जीवन में बचपना फिर से घर-आंगन-ओसारे में उतर आया। ‘बायोलाजिलक क्लाक’ के युग में हम जाने-अनजाने दाखिल हो गए। अलसुबह कानों में गौरैयों चीं-चीं की सामूहिक ध्वनियों का स्नान हो रहा है। श्रवणेद्रियों का यह नहान इतना तेज है कि अलसाई-मुदी आंखे खुल जा रही है। ब्रह्म मुहूर्त का जागरण किताबों के पन्नों से निकल कर अनुभूतियों में दाखिल हो गया। मानस खुद-ब-खुद स्मृतियों के अभिलेखागार में पहुंच जा रहा है। आंखों में बचपने के चित्र बेतरतीब ढंग से चलने लगते है। बचपन की यादों के।
नीम के पेड़ के नीचे चावल के दानों को दादी बिखेर देती थी और गौरैया चींचीं करती हुई अपने आने की आहट देते हुए फुदक-फुदक कर दानों को चुगने लगती थी। दानों के पास ही गौरैयों की प्यास बुझाने के लिए पकी-तपी माटी का पात्र रखा रहता था। पानी भी पीती थी और छपाक-छपाक स्नान भी करती थी। घर में बड़ा सा आंगन था। दरवाजों और आंगन के जरिए गौरैया चींची करती हुई घर में दाखिल हो जाती थी। पूर्व और दक्षिण के कोने मे स्थित रसोई तक बड़े अधिकार बोध के साथ फुदकती हुए अपने हिस्से का दाना चुग लेती थी। न कोई रोक न टोक। यह है प्रकृति की संस्कृति जिसमें हमारे पुरखे-पुरनिया रचे बसे थे।
यूं ही नहीं गौरैया का हाउस स्पैरों कहा गया। गौरैया का मन कितना भारी हुआ होगा उस क्षण जब उसने मानुष जाति के हाउस को ही अलविदा कहा होगा। जबकि ये मनुष्य जाति की आदिम साथी है, सहचरी है। जहां मुनष्य, वहीं पर ये रहिवास बनाती है। हम भोग-विलास की नदी में उतरते गए। तैरने की कला सीख नहीं पाए और फिर उसी में डूब गए।
भौतिकता की उठती वासना की लहरे इतनी भीषण है, खतरनाक है कि प्रकृति की संस्कृति उसमें खोने लगी, गुम होने लगी। नन्हीं-मुन्नी, भोली-भाली गौरेया ने जरूर प्रतीक्षा की होगी लेकिन हम सम्हलने के बजाय लडख़ड़ाने लगे, गिरने लगे। आखिर वह कब तक इंतजार करती। नम आंखों से उसने मानुष जाति से विदाई ले ली। विदा नहीं नहीं लेती तो क्या करती? हमारे घर तो बड़े हो गए लेकिन ह्दय इतने छोटे हो गए कि छोटी सी गौरैया भी उसमें अब नहीं समाती।
गौरैया का गूगलीकरण होने से बच गया। वह इतिहास के पन्नों में दािखल होने से बच गई। लाक डाउन में गौरैया का गान सुनकर जेहन में यह सवाल उठता है कि आखिर अब तक ये कहां थी? इनकी चीं-चीं क्यों नहीं सुनाई पड़ रही थी। मेरे घर पर जब गौरैयों ने आकर फुदकना शुरू किया तो शुरूआती दो-चार दिन तो खूब चौक रही थी। बहुत सजग-सतर्क थी। अपलक निहारते हुए अपने आंखों में उनका सौंदर्य भरने की कोशिश करता, ये फुदकती हुई दूर चली जाती थी। जाए भी क्यो न? हमी ने तो उनको मजबूर किया था दूर जाने के लिए। पशु-पक्षी क्या? यदि भावों का हहराता सागर ह्दय प्रदेश में उमड़-घुमड़ जाए। बरसने के मुहाने पर पहुंच जाए, तो ईट-पाथर भी बोलने लगते है। हुआ कुछ ऐसा ही। अब गौरौयों से दोस्ती सी हो गई है। मित्रता को यह भाव तो सनातनी है। पुरखों से दोस्ती चली आ रही है। लेकिन हमी ने इस डोर को कमजोर करते-करते तकरीबन तोड़ सा दिया। अनचाहे सन्नाटे ने वह डोर मानों फिर से जोड़ दी है। पता नहीं बेचारी गौरैया यह समझ पा रही है कि नहीं यह सब मजबूरी जनित है। मृत्यु के भय की आशंका में शून्य और सन्नाटे की उपस्थिति हुई है। फिलहाल वह चाहे वह समझे या न समझे लेकिन उसने फिर से चूं-चूं का स्वर छेड़ दिया है। लाबी में लगे बड़े से शीशे पर वह अपनी हमशक्ल के भ्रम का शिकार हो उसकी शिनाख्त करती है। चोंच की टक-टक की ध्वनि से लाबी गुंजायमान है। गरमी में पंखे नहीं चल पर रहे है। डर लगता है कि कहीं खच्च से कटने की आवाज न आ जाए। रूठने के बाद बड़ी मुश्किल से फुदकती हुई आई है, यदि फिर नाराज हुई तो क्या होगा।
लाबी से लगी रसोई में फिर वही बचपन का दृश्य। आधिकार बोध के साथ अपने हिस्से का दाना चुगने का दृश्य देख भाव विभोर हो जाता हूं। रसोई से सटे आंगन से फिर फुर्र हो जाती है। आधुनिक मकानों की ऐसी स्थापत्य शैली है कि उसमें आंगन-ओसारे की कल्पना ही नदारद है। आंगन है भी तो लोग इतना भयाक्रांत है कि उस पर लोहे की जाली चढ़ा देते है। आखिर घर के भीतर गौरैया दाखिल कैसे हो? टाइल्स में चिकनाहट ऐसी कि उस पर फुदकना मुश्किलों से भरा है। फिसलने-सरकने का डर है। मशीनों का शोर शराबा भी इस उच्चतम स्तर पर कि माने कान ही फट जाएंगे। आखिर ऐसे बहहवासी माहौल में पक्षियों का कलरव कैसे हो? उनका कलरव होता रहा होगा। वे मन मोहिनी राग छेड़ते रहे होगे। लेकिन हमारे कानों की क्षमता ही शायद कम हो गई थी। उनके राग को सुन नही पाते थे या सुनते रहे हो लेकिन महसूस नहीं कर पाते थे।
दरअसल हम लोग स्वरहीन व्यक्ति-परिवार-समाज-राष्ट-विश् व की रचना की ओर बढ़ रहे है। नख से शिख तक बेसुरे होने की प्रक्रिया में है। बेसुरो को प्रकृति की संस्कृति के रचनाकारों के स्वर की राग-रागिनियों से कैसा वास्ता? उन्हें ये मधुरिम स्वर क्यो सुनाई पड़ेगे? सुर का महात्म्य तो स्वर से भरे-पूरे समाज में है। अब, जबकि वातावरण में परिस्थितिजन्य खतरनाक सन्नाटा तारी है तो उस सुर को जाने-अनजाने में सुन ले रहे है। क्योकि हम लोग अब बेसुर से सुरयुक्त हो रहे है। लंबी-लंबी लक्जरी गाडिय़ा है। महल जैसे मकां है। मकां में मृत्यु का भय और सड़को पर सूनापन। प्रकृति हमे संकेत दे रही है कि यदि अब नहीं चेते तो हम कड़क फैसला सुना ही देगे। अभी तो बस तुम्हारी आंखों को खोलने के लिए थोड़ा सा झटका दिया है। प्रकृति की संस्कृति से लयकारी का भाव जगाना होगा। यदि ऐसा नहीं हुआ तो मानुष जाति वैसे ही इतिहास के पन्ने में दफन हो जाएगी जैसे कि डोडो।