कैसा विपर्याय है ? आज शाम (6 मई 2023) 75-वर्षीय चार्ल्स तृतीय का लंदन में राजतिलक हुआ। संग थीं 76-वर्षीया रानी कैमिला भी। जून 2, 1953 में उनकी मां एलिजाबेथ द्वितीय महारानी बनी थीं। चार्ल्स की पहली रानी थी डायना, बेहद लावण्यवती, जो सड़क दुर्घटना से मर गई। उनके दो पुत्र हेनरी और विलियम पिता से रुष्ट हैं। कैमिला के पहले पति शराब-व्यापारी एंड्रयूज बाउल्स थे। उनकी दो संताने भी हैं। कैमिला को घुड़सवारी, कुत्ते, बिल्ली बड़े पसंद हैं।
कई वृद्ध भारतीयों को लंदन के वेस्टमिंस्टर एब्बे चर्च में दिल्ली दरबार (जून 1911) की याद आयी होगी। किताबों में पढ़ी होगी। तब जॉर्ज पंचम और रानी मेरी दिल्ली के बुरारी रोड पर कोरोनेशन हाल में आये थे। बेशकीमती भेंट बटोरे थे। तभी उनको “भारत भाग्य विधाता” से संबोधित करने वाला गीत भी गाया गया था। फिर राजधानी भी कलकत्ता से दिल्ली लाई गई थी। एक विलक्षण निर्णय भी हुआ। कैमिला के मुकुट में कोहिनूर हीरा नहीं था। इधर राजशाही को समाप्त कर इंग्लैंड को गणराज्य बनाने का संघर्ष जोर पकड़ रहा है। इस राजतिलक पर जनता के टैक्स से हजारों करोड़ रुपए का खर्च अनुमानित है। फिजूलखर्ची के विरोध में प्रदर्शन भी हो रहे हैं। प्रदर्शनकारियों का कहना है कि इसके बाद देश से शाही परिवार जैसा ओहदा खत्म हो जाना चाहिए। वे “नॉट माई किंग” वाला अभियान चला रहे हैं। ट्विटर पर भी ये ट्रेंड कर रहा है।
उनका कहना है कि लोग महंगाई से परेशान हैं। बिजली पानी का बिल भरने के पैसे नहीं हैं। बड़े-बड़े डिपार्टमेंटल स्टोर खाली पड़े हुये हैं। जनता बेहाल है। ऐसे मौके पर शाही समारोह में इतना खर्च करना करदाताओं पर अत्याचार है। मगर इस तिलक समारोह के आयोजक ड्यूक एडवार्ड फिट्ज लॉन हावर्ड ने इसे “ब्रिटिश इतिहास का गर्वीला क्षण” बताया। क्या वस्तुतः ऐसा है ? भारत की दृष्टि से कदापि नहीं। जितना अत्याचार तीन सदियों के ब्रिटिश साम्राज्य ने भारतीय उपनिवेश पर किया है वह अक्षम्य पाप है। चार्ल्स और उनके मां-बाप अमृतसर आए थे। जलियांवाला बाग भी गए थे। पर एक शब्द भी खेद का व्यक्त नहीं किया। उस राक्षसीय कृत्य पर शोक भी नहीं ! इसी तरह के असंख्य अत्याचार हुए थे, सभी भुला दिए गए।
मुझे याद है आजादी के कुछ ही वर्षों बाद सोशलिस्ट और कम्युनिस्ट लोग नारा बुलंद करते थे : “कॉमनवेल्थ से नाता तोड़ो।” यह गुलामी की अंतिम कड़ी थी। पर जवाहरलाल नेहरू को अजीब आकर्षण था ब्रिटिश साम्राज्य से। माउंटबैटन परिवार का दबदबा साफ गोचर था। प्रमाण मिलता है सरदार खुशवंत सिंह के संस्मरणों में। एक घटना का यह संपादक-सांसद जिक्र करता है। तब सरदारजी लंदन में भारतीय उच्चायुक्त में जनसंपर्क अधिकारी थे। एकदा प्रधानमंत्री को लंदन एयरपोर्ट लेने गए। कॉमनवेल्थ सम्मेलन हो रहा था। जहाज देर रात तक पहुंचा। खुशवंत सिंह लिखते हैं कि वे नेहरू को लेकर होटल जाने वाले थे। पर नेहरू ने एडविना माउंटबैटन के घर जाने को कहा। “वहां प्रधानमंत्री को छोड़कर मैं अपने आवास पर आ गया। रात काफी हो चुकी थी।” इस परंपरा को तोड़कर नरेंद्र मोदी इस बार एक नया अध्याय जोड़ सकते थे। ब्रिटेन से नाता सुधार कर। उससे माफी मंगवा कर।
नेहरू अक्सर अमेरिकी इतिहासकार विल दूरांत की प्रशंसा करते थे। इन्होंने ग्यारह खंड में लिखी किताब : “सभ्यता का इतिहास।” उसमें भारतीय उपनिवेश पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद को “समस्त इतिहास की निकृष्टतम उपलब्धि” बताया। उन्होंने लिखा कि एक ब्रिटिश व्यापारी संस्था (ईस्ट इंडिया कंपनी) ने 173 वर्षों तक भारत को निर्ममता से लूटा। कोहिनूर हीरे का तो खास उल्लेख है। लेकिन दाद देनी पड़ेगी ब्रिटेन के एक जागरूक मानवतावादी वर्ग का जो भारत के स्वाधीनता आंदोलन का हमदर्द था। मुझे इसका अनुभव है। ब्रिटिश सोशलिस्ट (लेबर) पार्टी का अधिवेशन सागरतटीय ब्राइटन में 1984 में हो रहा था। मैं आमंत्रित था क्योंकि मेजबान ब्रिटिश नेशनल यूनियन आफ जर्नलिस्ट्स उससे संबद्ध है। वहां भारत के रेल कर्मियों की हड़ताल (1974) के साथ सहानुभूति व्यक्त की गई थी। संयोग से मैं जिस होटल में ठहरा था वहीं सप्ताह भर पूर्व ब्रिटिश कंजेर्वेटिव प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर ठहरी थीं। आइरिश स्वाधीनता सेनानियों ने उनका कमरा बम से उड़ा दिया था। मगर प्रधानमंत्री बच गईं। इस पर बड़े खिन्न थे वहां के श्रमिक नेता। वे सब उपनिवेशवाद के कट्टर विरोधी थे। उसी दौर का किस्सा है। ब्रिटिश सोशलिस्ट सांसद रहे फेनर ब्राक्वे को मैं सपरिवार देखने गया। कलकत्ता में जन्में, वे तब 94 वर्ष के थे। मैं, मेरी पत्नी डॉ. सुधा राव, पुत्री विनीता तथा पुत्र सुदेव के साथ लंदन में उनके घर गया था। हम सबने उस संत के पैर छुए। ब्राक्वे भारतीय स्वतंत्रता के अदम्य समर्थक थे। एक बार आंध्र प्रदेश के गुंटूर (अब प्रकाशम) जिले के अंग्रेज कलेक्टर ने गांधी टोपी को प्रतिबंधित कर दिया था। जो पहनता उसे जेल भेज देते। इस मसले को ब्रिटिश संसद में ब्राक्वे ने उठाया। वे स्वयं गांधी टोपी पहनकर सदन में गए। शीघ्र ऐसी बेवकूफीवाली पाबंदी हट गई। लेकिन इन गोरे शासकों से आक्रोशित होने वाला एक वाकया और भी है। तब कोई भी भारतीय इंग्लैंड बिना वीजा के जा सकता था क्योंकि राष्ट्रमंडल नागरिक मुक्त थे। मगर हम लोग जब हीथ्रो एयरपोर्ट पहुंचे तो उन गोरे अधिकारियों ने हमें रोके रखा। मैं नियम समझाता रहा उन आप्रवासी काउंटर के अधिकारियों को कि हम भारत से हैं। घंटे भर बाद उस गोरे अफसर पर मैं चिल्लाया कि : “हमारे भारत में तुम लोग तीन सदियों तक बिना वीजा के डटे रहे। आज हमसे वीजा मांग रहे हो ?” वह मंतव्य समझ गया। हमें जाने दिया।
कुल मिलाकर भारत सरकार को चार्ल्स के राजतिलक पर सशर्त भाग लेना चाहिए था। कम से कम अमानवीय शासन के लिए तो पश्चाताप व्यक्त करें। बस इसीलिए वानप्रस्थ पार कर चुके नए राजा के प्रति दया आती है। मां तो सैकड़ा लगाने से चूक गईं। चार्ल्स गत वर्ष तक प्रतीक्षारत युवराज ही रह गए थे।
[लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं]