इस्लामी तुर्की फिर से और उदार सेक्युलर गणराज्य हो सकता है। एक पखवाड़े बाद (14 मई 2023) राष्ट्रपति निर्वाचन होगा। इस पद के लिए प्रगतिशील, समतावादी, “तुर्की के गांधी” कहलाने वाले केमल किलिकडारोग्लू प्रत्याशी हैं। यह समाजवादी अर्थशास्त्री सोशलिस्ट इंटरनेशनल के उपाध्यक्ष हैं। पड़ोसी यूरोपियन यूनियन के सदस्य-राष्ट्रों में उनका अपार सम्मान है। उनकी पत्नी सेल्वी गुंडूज पत्रकार हैं और पति की सियासत में सक्रिय साझीदार भी। गत महीनों में केमल ने कट्टरवादी राष्ट्रपति रेसिप एर्डोगन का दृढ़ विरोध किया था, जब उन्होंने मध्यकालीन चर्च हागिया सोफिया (इस्तांबुल) को मस्जिद बना दिया था। अभी दो वर्ष ही बीते राष्ट्रपति एर्डोगन ने आर्थोड्क्स चर्च “कारिया” संग्रहालय को भी मस्जिद (20 अगस्त 2020) में बदल डाला। इस पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने एर्डोगन की भर्त्सना की थी।
गमनीय है कि इस विपक्ष के नेता केमल ने भारत का आभार माना था जब हाल ही में तुर्की के भयंकर भूकंप में उसने सहायता दी थी। तब 7.8 पैमाने के इस भूकंप से सैंतीस हजार लोग मरे थे। विशाल परिमाण में धन-भूमि की हानि हुई थी। भारत ने सात करोड़ रुपये की राहत सामग्री और भारतीय सैनिकों को पुननिर्माण काम हेतु भेजा था। इसके एवज में क्या सिला दिया राष्ट्रपति एर्डोगन ने ? उन्होंने इस्लामी पाकिस्तान की नौसेना के लिए विशाल युद्धपोत भेंट दिया था। इस्तांबुल के बंदरगाह पर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शाहनवाज शरीफ को लेकर राष्ट्रपति एर्डोगन देखने स्वयं गए थे। इस पाकिस्तानी जहाजी बेड़ा का नाम रखा “बाबर”, जिसने राम मंदिर ध्वंस किया था। तुर्की के समारोह में पाकिस्तानी नौसेना अध्यक्ष एडमिरल मोहम्मद अजमलखान नियाजी भी शरीक हुए। नेता विपक्ष केमल को खासकर आक्रोश और पीड़ा इसीलिए है कि मजहबी सहिष्णुता जो तुर्की राष्ट्रपति मुस्तफा कमाल पाशा ने सुदृढ़ की थी को एर्डोगन ने समाप्त कर दिया।
तुर्की सात सदियों से कट्टर इस्लामी साम्राज्य रहा। ओटोमन हुकूमत के खलीफा ने पूर्वी यूरोप को उपनिवेश बनाया था। मगर प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटेन के हाथों शिकस्त मिली तो खलीफा का पद ही खत्म करना पड़ा। तुर्की कभी विश्व इस्लाम का मुख्यालय होता था। फिर सेक्युलर गणराज्य बना। मगर इस्लामी कट्टरवादी दुबारा मजहबी राष्ट्र बनने में सक्रिय हो गए। राष्ट्रपति एर्डोगन की पार्टी इसी अभियान की अगुवा है।
ऐतिहासिक तथ्य है कि निन्यानवे प्रतिशत मुसलमान की आबादी के बावजूद, रूढ़िवादी रस्मों और रीतियों को नेस्तनाबूद कर राष्ट्रपिता मुस्तफा कमाल पाशा ने निजामे मुस्तफा को हटा दिया था। तुर्की को सेक्युलर गणराज्य घोषित कर दिया था। अरबी की जगह रोमन लिपि में तुर्की लिखी जाती है। बुर्का प्रथा का और बहुपत्नी व्यवस्था का अंत कर दिया। मदरसों और मस्जिदों को नियंत्रित किया। झब्बेदार लाल तुर्की टोपी (जिसे मौलाना आजाद आजीवन पहनते रहे) को वर्जित कर दिया। इस तरह युवा तुर्क मुस्तफा कमाल पाशा ने खलीफा के सिंहासन को, ओटोमन सुल्तान के साम्राज्य को ही खत्म कर डाला था। पिछड़े सामंती राष्ट्र का आधुनिकीकरण कर दिया। आज की इस्लामी दुनिया में तुर्की काफी ऊपर है क्योंकि वहां मतदान द्वारा निर्वाचन, सेक्युलर संविधान, नरनारी की समानता, अनिवार्य, एवं मुफ्त शिक्षा उपलब्ध है। तुर्की में हिजाब और बुर्का पर पाबंदी लगी रही। कुछ बारीकी से गौर करें, तानाशाह एर्डोगन को चुनौती देने वाले, इस विनम्र शैली की राजनीति करने वाले, विपक्ष के वामपंथी नेता केमल पर। वे रिपब्लिकन पीपुल्स पार्टी (सीएचपी) प्रतिपक्ष के नेता हैं। इसकी स्थापना कमाल अतातुर्क ने की थी। यही अतातुर्कवाला सेक्युलर तुर्की केमल वापस लाना चाहते हैं।
उन्हें “गांधी” उपनाम से पुकारने के पीछे एक घटना है। जर्मनी में 2016 से निर्वासन में रह रहे तुर्की के समाचार पत्र “कुम्हुरियेट” के पूर्व संपादक कैन डंडर ने जून 2017 में “द वाशिंगटन पोस्ट” में एक लेख में लिखा था कि सीएचपी के प्रमुख चुने जाने के तुरंत बाद केमल किलिकडारोग्लू को लोग गांधी उपनाम से बुलाने लगे। उस दौर में किलिकडारोग्लू के डिप्टी एनिस बेरबेरोग्लू लंबे समय से राष्ट्रपति एर्दोगन के निशाने पर थे। उन्हें कथित जासूसी के लिए 25 साल की जेल की सजा सुनाई गई थी। तुर्की सरकार के फैसले के खिलाफ किलिकडारोग्लू ने समर्थकों के एक बड़े समूह के साथ अंकारा से इस्तांबुल तक 450 किलोमीटर का सफल विरोध मार्च शुरू किया। इस मार्च ने किलिकडारोग्लू को विपक्षी मोर्चे के शिखर पर पहुंचा दिया। उन दिनों तुर्की में करीब 200,000 लोग राजनीतिक कैदी के तौर पर 372 जेलों में रहे। किलिकडारोग्लू के इस विरोध की तुलना महात्मा गांधी के 1930 के प्रसिद्ध “नमक मार्च” से की जाती है। जब बापू और उनके अनुयायी नमक के उत्पादन और बिक्री पर ब्रिटिश औपनिवेशिक एकाधिकार का विरोध करने के लिए समुद्र तट पर पहुंचे थे। इस नमक मार्च में शामिल 60,000 लोगों को गिरफ्तार किया गया था। लेकिन बाद में अंग्रेजों को उन सभी को रिहा करने के लिए मजबूर होना पड़ा। ऐसा ही प्रदर्शन केमल ने भी कर दिखाया था। भयभीत एर्डोगन ने सारे प्रतिरोधियों को रिहा कर दिया था।
आजकल कयास लग रहा है कि दो दशकों तक निरंकुश राज करने वाले एर्डोगन को हटाया जाए। सभी विपक्ष के दल एक मोर्चा बना चुके हैं। यदि अगले माह केमल तुर्की के राष्ट्रपति बन जाते हैं तो भारतीयजन रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा कमाल अतातुर्क को दी गई श्रद्धांजलि याद करेंगे। तब कोलकाता के आशुतोष भवन मे अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ का दूसरा वार्षिक सम्मेलन हो रहा था। कमाल पाशा के निधन (10 नवंबर 1938) हुए एक माह बाद। रवींद्रनाथ के शब्द थे : “आज सारा एशिया कमाल की मृत्यु पर सिर्फ इसीलिए शोक नहीं प्रगट कर रहा है कि उन्होंने तुर्की को राजनीतिक स्वतंत्रता दिलवाई, पर इसीलिए भी कि उन्होंने तुर्की को अज्ञानता और जहालत से मुक्ति दिलवाई। जो अभागा देश इससे सबक नहीं लेगा, वह पतन को प्राप्त होकर नष्ट हो जाएगा।”
चूंकि तानाशाह एर्डोगन तुर्की को फिर उसी कट्टरता और मजहबी जहालत की गर्त में ले जा रहा है, अतः आशा बंधती है कि केमल ही उस पर ब्रेक लगा पाएंगे !