क्या सत्य इतना सुंदर हो सकता है

प्रज्ञा संस्थानस्वामी आनंद ने 7 अगस्त, 1927 के ‘नवजीवन’ में गुजरात भर के लोगों के वीरोचित कार्यों के बारे में जानकारी जुटाई है। उसमें पेश किए गए शब्द-चित्रों में हम देखते हैं कि हिन्दू और मुसलमान एक-दूसरे की सहायता कर रहे हैं, मानो उनमें कभी कोई झगड़ा हुआ ही नहीं; दलित और दमनकर्त्ता दोनों ने एक ही घर में शरण ले रखी है और एक ही तरह का खाना खाते हैं, लोग अपने को बड़ी-बड़ी जोखिमों में डालकर एक-दूसरे की रक्षा करने का प्रयत्न कर रहे हैं। इन शब्द-चित्रों को पढ़ते हुए मैं बार-बार यही सोचता था कि क्या यह सब सच हो सकता है। फिर मुझे ध्यान आया कि मैं तो ‘नवजीवन’ पढ़ रहा हूं और उसके स्तंभों में अप्रामाणिक कहानियों को स्थान नहीं दिया जाता, और फिर वहां स्वामी हैं, जो यदि संभव हो तो इस विषय में, मुझसे कहीं अधिक सतर्क रहते हैं कि कोई संदिग्ध चीज शामिल न हो जाए। इन शब्द-चित्रों में हम देखते हैं कि भावनगर से लेकर भड़ौच तक के विशाल विपदाग्रस्त क्षेत्र के लोग, किस अभूतपूर्व ढंगों से, अपनी सहायता खुद कर रहे हैं।

अपने ऊपर विश्वास रखकर अपनी मुसीबतों पर पार पाने में लगे हुए हैं और आपस में एक-दूसरे की सहायता कर रहे हैं। स्वामी ने बिल्कुल ठीक ही लिखा है कि ‘जनता ने उन सभी गुणों का परिचय दिया है जो राष्ट्र को महान और स्वशासित बनाते हैं।’ उनमें कहीं भी भय या घबराहट का नाम तक नहीं था, अगर कुछ था तो बस मृत्यु से जूझने का एक गंभीर संकल्प ही था यदि यह विवरण सही है, मैं अब भी सावधानी से काम ले रहा हूं, तो सभी संबंधित लोग उच्चतम सम्मान के पात्र हैं वे सब एक साथ नेता भी थे और अगुगामी भी। विपत्ति पड़ने पर उनका यह संगठन अपने-आप बन गया था।

नेताओं के सोचने की बात अब यह है कि बाढ़ की विपत्ति आने पर जनता के इस पराक्रम से हमें जो सीख मिली है, क्या उसको स्थाई रूप दिया जा सकता है। क्या तात्कालिक आवश्यकता पूरी हो चुकने के बाद भी हिन्दुओं और मुसलमानों की मैत्री कायम रहेगी? क्या दलित वर्गों की गर्दन पर से हमेशा के लिए जुआ हट जाएगा? क्या लोग भविष्य में भी अपने नित्य प्रति के कार्यों और व्यवहार में स्वार्थ को त्यागकर सभी के हित-साधन का खयाल करेंगे? क्या गुजरात की ओर बहने वाला दान और उदारता का यह स्रोत बाढ़ के पहले की लोलुपता को सदा अंकुश में रख सकेगा? क्या सहायता कोष का काम संभालने वाले लोग, कोष से अपने लिए, कुछ खर्च करने या उसके गबन का लोभ संवरण कर सकेंगे? क्या भविष्य में भी ऐसा होगा कि लोग विपत्ति का झूठा शोर न मचाएंगे और राहत की आवश्यकता न होने पर भी, उसकी मांग न करेंगे?

इन और ऐसे ही अन्य अनेक प्रश्नों के उत्तर तभी संतोषप्रद ढंग से दिए जा सकेंगे, जब आज काम करने वाले अनेक नेता, अपने को स्वर्ण की भांति खारा सिद्ध कर देंगे। ऐसा करने का अर्थ होगा वास्तविक हृदय परिवर्तन, सच्चे अर्थों में प्रायश्चित और आत्मशुद्धि। कहा जाता है कि प्रत्येक प्रलय के बाद, उससे बचे लोगों के जीवन में, सदा ही एक सुधार आता है। हो सकता है कि यह विपत्ति इतनी बड़ी होने पर भी शायद वास्तविक प्रलय की कोटि की न समझी जाए, और इसलिए इससे उतने व्यापक सुधार की अपेक्षा न की जाए।

मनुष्य की संवेदनशीलता इतनी नष्ट हो चुकी है कि वह समय-समय पर ईश्वर के भेजे संकेतों को समझ ही नहीं पाता। हमें तो हर बात ढोल पीटकर बतलाने की जरूरत पड़ती है; तभी हमारी तंद्रा टूटती है और हम इस चेतावनी को सुनते और समझते हैं, कि आत्म-साक्षात्कार का एकमात्र मार्ग यही है, कि हम अपने आपको समाज में इतना गर्क कर दें कि अपना खुद का कुछ भी न रहे। क्या गुजरात अपने-आप को इतना प्रबुद्ध सिद्ध करेगा कि वह हाल की बाढ़ों को एक पर्याप्त चेतावनी के रूप में समझ ले और इस विपदा ग्रस्त प्रदेश के इतिहास में एक नया शानदार अध्याय जोड़ दे? यदि गुजरात की जनता में कोई स्थाई और स्पष्ट दिख सकने वाला सुधार न हो पाया तो भावी पीढ़ियां पराक्रम, आत्म-निर्भरता और पारस्परिक सहायता के, आज के इन विवरणों पर विश्वास करेंगी और वह उचित ही होगा।

(अंग्रेजी से)

यंग इंडिया, 25.8.1927

 

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