भारत सरकार को जिस बात की आशंका थी, वही हुआ। फ्रांस में मोहम्मद साहिब के कार्टूनों को लेकर घटी घटनाओं पर भारत के मुसलमानों को उकसाने और भड़काने की कोशिश हुई। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में कांग्रेस विधायक द्वारा मुसलमानों का एक विशाल जुलूस निकालकर शहर के एक बड़े मैदान में सभा की गई।
फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रों को मौत के घाट उतारने की धमकी दी गई। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्रों ने जुलूस निकाला। इसका नेतृत्व करने वाले मुस्लिम छात्रों ने भी राष्ट्रपति मैक्रों को मार डालने की घोषणाएं कीं और नागरिकता संशोधन कानून का विरोध करते समय लगाए जाने वाले कई आक्रामक नारों को दोहराया गया। मुंबई के मुस्लिम बहुल इलाके भिंडी बाजार में सड़कों पर राष्ट्रपति मैक्रों की असंख्य तस्वीरें चिपकाकर उन्हें पैरों तले रौंदा गया। शहर के शौचालयों के भीतर वह तस्वीरें चिपकाकर फ्रांस के राष्ट्रपति को अपमानित करने की कोशिश की गई।
कांग्रेस शासित पंजाब के शहरों में राष्ट्रपति मैक्रों के विरोध में जुलूस निकाले गए। अनेक अन्य शहरों में भी मुसलमानों को उकसाकर इसी तरह की भड़काने वाली कार्रवाईयां की गईं। फ्रांस के साथ हमारे बहुत गहरे संबंध रहे हैं। फ्रांस ने हमारा अनेक ऐसे मौकों पर भी साथ दिया है, जब अन्य पश्चिमी शक्तियां भारत विरोधी रवैया अपनाए हुए थीं। पिछले दिनों फ्रांस के साथ हमारे संबंधों में और दृढ़ता आई है।
लद्दाख में चीन के साथ तनाव के समय फ्रांस ने काफी तत्परता के साथ हमें लड़ाकू विमानों की तथा भारतीय सेना के लिए आवश्यक अन्य सामग्री की आपूर्ति की थी। भारत के मुसलमानों को भड़काने में लगीं यह शक्तियां फ्रांस के साथ हमारे संबंधों को भी खराब करना चाहती थीं। इस बात को समझते हुए पहले भारत सरकार ने और फिर स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कट्टरपंथी शक्तियों से लड़ाई में फ्रांस का समर्थन करने की घोषणा की।
भारत सरकार ने यह आशा की थी कि इस्लामी कट्टरपंथ से लड़ाई में जिस तरह पूरा पश्चिमी जगत फ्रांस के समर्थन में आगे आया है, उसका भारत के विपक्ष पर असर पड़ेगा। लेकिन उसकी यह आशा फलीभूत नहीं हुई। विपक्ष ने भारत के मुसलमानों के एक छोटे से वर्ग की रैलियों, सभाओं और संचार माध्यमों के द्वारा की जा रही हिंसक टिप्पणियों पर चुप्पी साधे रखी। उनकी चुप्पी का एक कारण बिहार का चुनाव भी रहा हो सकता है। क्योंकि अगर वे मुसलमानों की भावनाओं को भड़काते हुए दिखते तो उसका बिहार के चुनाव पर प्रतिकूल असर पड़ सकता था। बहरहाल इस बार सदा भाजपा के विरोध में खड़े दिखने वाले फिल्म जगत और उसके बाहर के 130 वामपंथी विचार के लोगों ने फ्रांस में की गई बर्बर हत्याओं पर आक्रोश व्यक्त किया और कहा कि उसे किसी भी तर्क से उचित नहीं ठहराया जा सकता।
फ्रांस का समर्थन करने की पहल करने के लिए भारत सरकार को तुर्की और पाकिस्तान के रवैये ने भी विवश किया। एर्दोआन के नेतृत्व में तुर्की ने कट्टरपंथी इस्लाम का दामन थाम लिया है। वह पाकिस्तान और कतर के सहयोग से पिछले दिनों कमजोर पड़े अलकायदा, मुस्लिम ब्रदरहुड और दूसरे कट्टरपंथी इस्लामी संगठनों को पोषित करने में लगा हुआ है। उसे गलतफहमी है कि वह इन शक्तियों के सहयोग से इस्लामी जगत का नेतृत्व पाने में सफल हो जाएगा। अपने जन्म से लेकर अब तक यही गलतफहमी पाकिस्तान को रही है।
फ्रांस की घटनाओं पर मुस्लिम जगत से सबसे पहली प्रतिक्रिया एर्दोआन की ही थी। उन्होंने मोहम्मद साहिब के कार्टून छापने और दिखाने की स्वतंत्रता के लिए मात्र फ्रांस का विरोध नहीं किया। राष्ट्रपति मैक्रों पर अनुचित और आक्रामक टिप्पणियां भी कीं। इसके बाद तुर्की की देखादेखी पाकिस्तान ने भी फ्रांस और उसके राष्ट्रपति के खिलाफ आक्रामक भाषा इस्तेमाल करना शुरू कर दिया।
भारत के मुसलमानों के बीच ऐसे अनेक संगठन पनप गए हैं, जो तुर्की या पाकिस्तान के इशारों पर भारत के मुसलमानों को बहकाने की कोशिश करते हैं। इन संगठनों को चेतावनी देने के लिए यह आवश्यक था कि भारत सरकार फ्रांस के राष्ट्रपति के विरुद्ध तुर्की व पाकिस्तान के नेताओं द्वारा की गई व्यक्तिगत टिप्पणियों पर अपना विरोध प्रकट करती। अब यह स्पष्ट होता जा रहा है कि अधिकांश मुस्लिम देश इस्लामी कट्टरपंथ से अपने हाथ खींचने में लगे हैं। लेकिन एर्दोआन, इमरान और महातिर जैसे नेता इस कट्टरपंथ को जिलाए रखना चाहते हैं, जो किसी और से अधिक मुसलमानों का ही अहित कर रहा है।
भारत में जो वामपंथी बुद्धिजीवी या कट्टरपंथी मुसलमान इसे मजहबी भावनाओं और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बीच का विवाद बताने की कोशिश कर रहे हैं, उन्हें इस विवाद की कुछ और गहराई में जाना चाहिए। यह टकराव 15 वर्ष पहले डेनमार्क के एक अखबार में हजरत मोहम्मद से संबंधित 12 कार्टून छापने से शुरू हुआ था।
अमेरिका पर 2001 में हुए आतंकवादी हमले के बाद यूरोप में कट्टरपंथी इस्लाम को लेकर रुख कड़ा हो रहा था, यह कार्टून उसी का परिणाम थे। डेनमार्क के कुछ मुस्लिम संगठनों ने इन कार्टूनों को लेकर वहां की सरकार से विरोध प्रकट किया। सरकार से कोई संतोषजनक उत्तर न मिलने के बाद उन्होंने मुस्लिम देशों को लिखा। वहां से भी कोई प्रतिक्रिया न आने के बाद उन्होंने अपने प्रतिनिधिमंडलों को मुस्लिम देशों में भेजा। इन प्रतिनिधिमंडलों में गए मुस्लिम नेताओं ने डेनिस अखबार में छपे कार्टूनों के अलावा कई झूठे और कल्पित कार्टून दिखाए, जिनमें से एक में मोहम्मद साहिब को सुअर के रूप में चित्रित किया गया था।
इसकी जानकारी छपने के बाद मुस्लिम देशों में भावनाएं भड़क उठीं। डेनिस अखबार के संपादक को मारने की धमकी दी गई। इन कार्टूनों के खिलाफ जो हिंसा, उत्पात और उसे दबाने के लिए बल प्रयोग हुआ, उसमें लगभग ढाई सौ लोग मारे गए। डेनमार्क सरकार ने शुरू से यह कहते हुए अखबार के खिलाफ कोई कार्रवाई करने से इनकार कर दिया था कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मामला है। यूरोपीय देशों के लिए यह एक सभ्यतागत मूल्य है और वे उसकी रक्षा में खड़े रहेंगे।
दुनिया के बहुत सारे देशों में पत्रकारों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का नारा देकर इन कार्टूनों को छापा और यह कार्टून दुनियाभर में प्रचारित हो गए। 2006 में फ्रांस में कार्टूनों के लिए चर्चित अखबार चार्ली हैब्दो ने भी इन कार्टूनों को छापा, उसके बाद यह सिलसिला शुरू हो गया और इसी तरह के कार्टून हर साल छपने लगे। 2011, 2012 और 2015 में चार्ली हैब्दो के दफ्तर पर हमले हुए। 2015 में कुछ मुस्लिम उग्रवादियों ने अखबार के दफ्तर में घुसकर उसके संपादकीय विभाग के 11 लोगों की निमर्मतापूर्वक हत्या कर दी। फ्रांस की सरकार ने चार्ली हैब्दो की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करने की घोषणा की। फ्रांस की एक विशाल रैली में अखबार का समर्थन करने के लिए लाखों लोग जुटे। चार्ली हैब्दो का नया अंक निकाला गया, जिसकी कई लाख प्रतियां बिकीं।
उसी कड़ी में इस वर्ष एक फ्रांसीसी अध्यापक ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उदाहरण देने के लिए अपने छात्रों के सामने चार्ली हैब्दो के उन कार्टूनों का इस्तेमाल किया। वह अध्यापक अपने छात्रों को यह बताना चाहता था कि 18वीं शताब्दी के अंत में हुई फ्रांसीसी क्रांति के बाद फ्रांस के विचारों में क्या परिवर्तन आया है। इन कार्टूनों को दिखाने से पहले हालांकि उसने अपने मुस्लिम छात्रों को थोड़ी देर के लिए कक्षा से बाहर चले जाने को कहा था। पर बाद में उसके एक मुस्लिम छात्र ने उसकी इस हरकत से नाराज होकर चाकू से उसका गला रेत दिया। एक और घटना में एक चर्च के भीतर एक महिला का सिर काट दिया गया तथा दो अन्य लोगों को मार डाला गया। ऐसी और भी घटनाएं हुई हैं, जिनमें ऐसी ही बर्बरता बरती गई है। मुसलमानों का तर्क है कि मोहम्मद साहिब उनके नबी हैं और उनका कार्टून बनाया जाना वे बर्दाश्त नहीं कर सकते।
यह सही है कि यह कार्टून भले मुस्लिम कट्टरपंथ का मखौल उड़ाने के लिए बनाए गए हो, पर वे अपमानजनक थे। यूरोप के बाहर के लोग इस तरह की अभिव्यक्ति की आजादी को पसंद नहीं करते। पर क्या उसके लिए ऐसी बर्बर हत्याओं की छूट दी जा सकती है? दरअसल यह प्रश्न इससे भी अधिक गंभीर है और वह इस्लाम की मान्यताओं को शेष दुनिया की मान्यताओं से अलग करता है।
कुरान में मूर्ति पूजा की निंदा है, जिसके आधार पर मुसलमान हिन्दू और बौद्ध मंदिरों को नष्ट करते रहे हैं और मूर्तियां तोड़ते रहे हैं। बामियान में ऐसा कुछ ही दशक पहले हुआ था। पर मुस्लिम देशों और नेताओं को इससे आहत हुई दूसरे समुदायों की भावनाओं की चिंता नहीं हुई। भारत में आज भी अनेक मुस्लिम नेता काशी विश्वनाथ मंदिर और कृष्ण जन्मभूमि मंदिर को तोड़कर बनाई गई मस्जिदों को हटाने और ऐसे दिव्य स्थानों के उल्लंघन के लिए क्षमा मांगने के लिए तैयार नहीं है।
इसका कारण नौवीं शताब्दी के बाद अरब देशों के मुस्लिम समुदायों में पनपी यह धारणा है कि हर प्राणी ईश्वर की रचना है। उसकी आकृति या मूर्ति बनाना अपने आपको ईश्वर के बराबर रखना है, इसलिए वह ईश्वर के प्रति अपराध है। सुन्नी इस्लाम में मोहम्मद साहिब को एक सामान्य मनुष्य ही माना जाता है, क्योंकि इस्लाम सृष्टि में देवत्व देखने का विरोध करता है। दूसरी तरफ भारत ने इस नाम रूप सृष्टि के माध्यम से ही ईश्वर का साक्षात्कार किया जाता रहा है। इसलिए भारत के लिए मूर्ति पूजा उसकी केंद्रीय आस्था है।
मोहम्मद साहिब के कार्टून उस तरह देवशक्ति की गरिमा का उल्लंघन नहीं है, जिस तरह हिन्दू देवी-देवताओं का अपमान हिन्दुओं के लिए देवशक्ति की गरिमा का उल्लंघन है। अगर इस्लाम दूसरे धर्मावलंबियों की भावनाओं की रक्षा के लिए अपनी मान्यताएं नहीं छोड़ सकता तो वह यह आशा कैसे कर सकता है कि दूसरे धर्मावलंबी उसकी धार्मिक भावनाओं की खातिर अपनी मान्यताएं छोड़ देंगे। आज यह प्रश्न डेनमार्क, फ्रांस या पश्चिमी जगत में एक भीषण स्वरूप ले चुका है, कल वह भारत में भी लेगा। इसलिए इन सब मूलभूत प्रश्नों पर गंभीरता से विचार होना चाहिए और विभिन्न समुदायों के बीच परस्पर सहयोग और सामंजस्य का रास्ता निकाला जाना चाहिए। केवल भावनाएं भड़काकर कोई समस्या हल नहीं की जा सकती।