जाति की लड़ाई से संसद हलकान है. प्रतीत होता है कि राष्ट्रीय स्तर पर विमर्श का एक ही और सबसे प्रमुख मुद्दा शेष है, जाति. जाति जनगणना, जाति आधारित आरक्षण, जाति आधारित प्रतिनिधित्व इत्यादि.एक देश की लोकतान्त्रिक व्यवस्था के लिए इससे अधिक शर्मनाक स्थिति नहीं हो सकती है कि देश की संसद में इस बात पर बहस हो रही है कि सरकारी सचिव की जाति क्या है? हालांकि यहाँ तक तो फिर भी समझ आता है लेकिन अब इतिहास और इतिहास पुरुषों का वर्गीकरण भी जाति आधारित होने लगा है.
ज़ब से मोबाइल के डेटा सर्वसुलभ हुए हैं तब से सड़कछाप इतिहासकारों की एक ऐसी प्रजाति पैदा हो गईं है जो प्राचीन राजवंशों, सम्राटों की ही नहीं बल्कि स्वतंत्रता आंदोलन के क्रांतिकारियों की भी जाति निर्धारित कर रही है. जैसे, ‘चंद्रशेखर आजाद का असली नाम चंद्रशेखर तिवारी था. चूंकि वे ब्राह्मण थे इसलिए उनकी तस्वीर और मूर्ति में जनेऊ दिखती हैं.’ ऐसे ओछे तर्कों का क्या मतलब हैं? अरे सूरज की भी कोई जाति होती हैं क्या? चंद्रशेखर आजाद आधुनिक भारत के वे इतिहास पुरुष हैं जिनकी यशगाथाएं युगो तक पीढ़ियां दुहराएंगी.
ख़ैर मूल राजनीतिक विवाद का केन्द्र बिन्दु है, जाति आधारित जनगणना. 2024 के आम चुनावों में कांग्रेस-सपा गठबंधन के अप्रत्याशित सफलता के बाद दोनों ही दल सरकार के विरुद्ध उत्साहपूर्ण ढंग से हमलावर है. उन्होंने जाति जनगणना को आधार बनाकर आक्रामक रूप से सरकार पर दबाव बनाने का प्रयास किया है जबकि सरकार इस मुद्दे पर नकारात्मक दृष्टिकोण रखती है.
पिछले दस वर्षों की ‘एंटीइंकाम्बेसी’ की जनभावना के बूते संसद में बेहतरीन स्थिति में दिख रहे विपक्ष से जनता को ढेरों उम्मीदें थीं कि वह एक सकारात्मक भूमिका निभाएगी लेकिन उसके पास ना ‘मेक इन इंडिया’ पर सवाल है ना ही ‘स्मार्ट सिटी’ के लक्ष्य पर, ना बढ़ती बेरोजगारी और घटती सरकारी नौकरियों पर बल्कि उसका सम्पूर्ण ऊर्जा जाति आधारित राजनीति पर लगी है.
असल में विरासत में मिली राजनीति सत्ता प्राप्ति का हमेशा आसान विकल्प तलाशती है. जहाँ जमीन पर उतरकर गरीबी, अभाव, अवसंरचना, शिक्षा, स्वास्थ्य के मुद्दे पर संघर्ष के बजाय जाति, धर्म-मजहब के आसान जहरीले वाचिक बातों से सत्ता का मार्ग तलाशा जाता है. इस समय कांग्रेस-सपा गठबंधन के नेतृत्व की भी यही स्थिति है. इसलिए सत्ता पक्ष के एक नेता ने नेता प्रतिपक्ष की जाति के पहचान पर कटाक्ष किया तब सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष उत्तेजित हो गये कि आप उनकी जाति कैसे पूछ सकते हो? लेकिन ये विपक्ष के महानुभाव पूरे देश के हर नागरिक की जाति पूछने का कार्य संवैधानिक रूप से सिद्ध करवाना चाहते हैं. अब ऐसे तर्कहीन लोगों से क्या उम्मीद की जाये?
हालांकि इसमें कोई शक नहीं की भारत के सार्वजनिक जीवन में एक दौर ऐसा रहा है जब समाज के एक बड़े वर्ग को जन्मना सार्वजनिक जीवन में भेदभाव सहना पड़ा, उसे विकास के लाभ से वंचित रखा गया है. लेकिन आज जो ये रुदालियां गा रहें हैं ना वे इसके भुक्तभोगी हैं और ना जिनपर आरोप लगाये जा रहें हैं वे इसके आरोपी हैं. कहने का तात्पर्य यह है कि आज की जो वर्तमान दलित और तथाकथित पिछड़ा युवा पीढ़ी है वो ना तो छुआछूत और भेदभाव से प्रताड़ित रही है और ना ही वर्तमान की तथाकथित सवर्ण पीढ़ी कोई अत्याचारी. हालांकि तब भी वो अपने पूर्वजों की भूलों का परिमार्जन करते हुए, अपनी योग्यता और मेरिट को अपमानित करते हुए, आरक्षण के दावों को स्वीकार करते हुए, सामाजिक समरसता में योगदान कर रही हैं.
लेकिन तब भी सवर्ण अत्याचार की कल्पित एवं कई दफ़े अतिरंजीत व्यथाओं के आधार पर सामाजिक कटुता पैदा करने का प्रयास चलता ही रहता है और उन्हें किसी अपवादस्वरुप घटना के आधार पर सामूहिक रूप दोषी करार दिया है. वे अपनी जाति, धार्मिक मान्यताओं के प्रति विद्वेषपूर्ण एवं अपमानजनक काटूक्तियाँ सुनने को विवश हैं.परन्तु वे इन दुष्प्रचारों के विरुद्ध कोई तर्क देने का साहस नहीं कर सकता क्योंकि उन्हें तो जन्मना अपराधी घोषित किया जा चुका है, वो भी इस आधार पर कि वे किसी तथाकथित सवर्ण जाति में पैदा हुए हैं.
लेकिन जरा सोचिये, आज आप जब सड़क पर गोलगप्पे, चाट खाने जाते हैं, किसी होटल में जाते हैं तो क्या ये जानने का प्रयास करते हैं कि इसे बनाने और परोसने वाला कौन हैं? या कि आपकी बगल में खा रहा शख्स कौन हैं? स्कूल, कॉलेज, सिनेमा हॉल, ऑडिटोरियम में आपके बगल में बैठे व्यक्ति से क्या उसकी जाति पूछी जाती है या क्या किसी सार्वजनिक स्थल पर जाति परिचय के आधार पर प्रवेश दिया जाता है? असल में ऐसा नहीं होता, लेकिन फिर भी छुआछूत की भ्रामक दुष्प्रचार के आख्यान चरम पर सुनाये जाते हैं.
यह उलटबांसी अजीब है. दुनिया विकास की ओर भाग रही है, सभ्यता आधुनिकता के नये प्रतिमान गढ़े जा रहें हैं लेकिन भारत में पिछड़ा, अतिपिछड़ा और दलित बनने की होड़ लगी है. संभवतः भारतीय समाज दुनिया में इकलौता ऐसा समाज है जहाँ पिछड़ेपन, वंचना को ‘ग्लोरिफाइड एवं ग्लैमराइज’ किया जाता था. उस जातिवाद में भी धर्म और मजहब का तड़का अलग ही है. अब अयोध्या बलात्कार कांड का उदाहरण लें. चूंकि आरोपी सपा का नेता और मुसलमान है इसलिए ना कोई कांग्रेस-सपा का पिछड़ा नेता पहुँचा और ना ही भीम आर्मी के दलित मसीहा. क्यों, क्योंकि यहाँ आरोपी कोई सवर्ण ब्राह्मण, राजपूत या बनिया नहीं है इसलिए पिछड़ा-अल्पसंख्यक राजनीतिक लामबंदी या दलित-पिछड़ा जातियों के ध्रुवीकरण की संभावना नहीं है और मुसलमानों के नाराजगी का खतरा अलग से है.
यह तो एक बानगी है. वास्तविकता में देश में आरक्षण की सुविधा और सामाजिक न्याय को लेकर राजनीतिक दोमुहापन सदैव चरम पर रहा है, जिसका उदाहरणस्वरुप मुजाहिरा अभी पिछले दिनों हुआ जब एससी/एसटी वर्ग के आरक्षण को संपन्न और सुविधा भोगियों (क्रीमिलेयर) द्वारा हड़पे जाने के विरुद्ध निर्णय देते हुआ सर्वोच्च न्यायलय ने 1 अगस्त 2024 को अनुसूचित जाति-जनजाति वर्ग के अंतर्गत वर्गीकरण को उचित माना.
लेकिन उसके बाद क्या सत्ता पक्ष और क्या विपक्ष, सभी इस निर्णय के विरोध में खड़े हो गये और सबका साथ-सबका विकास के नारे वाली सरकार ने भी तुरंत सक्रिय होते हुए यह घोषणा कर दी कि वह इसे लागू नहीं होने देगी. क्या ये सामाजिक समानता के दावों का अपमान नहीं है? सरकार और विपक्ष समेत ये पूरी राजनीतिक जमात किस मुँह से बाबा साहेब आंबेडकर के सपने और सामाजिक उत्थान और समरसता के दावे करते हैं? लगातार मिलते लाभ के सुविधाभोगी SC/ST सांसद- विधायक, नौकरशाह और अन्य दलित समाज का अगड़ा एवं सम्भ्रांत जो इस वर्ग का कई पीढ़ियों से संवैधानिक सुविधाओं का लाभार्थी है, वह चाहता है कि केवल और केवल उनके बच्चे, उनके परिवार और संभव हो तो केवल उनकी जाति को ही ये सारी सुविधाएं मिलें. और यही कारण है कि करोड़ों के संपत्तिधारी और उच्च शिक्षा जिसमें विदेश से प्राप्त डिग्रियों के बावजूद पिछड़ा-दलित बनने की होड़ लगी है.
यह ओछी सोच भले ही क्षुद्र लाभ की रणनीति में प्रभावकारी दिखती हो लेकिन व्यवहारिक दृष्टि से. इसे निकृष्टता का प्रतीक ही माना जायेगा. यह मानसिकता हमेशा राष्ट्रीय समाज को पिछड़ा-दलित बनाये रखने का कुत्सित षड़यंत्र होगा ताकि समाज में जाति आधारित विभेद बना ही रहें. क्या किसी ने भी हासिये पर पड़े उस अन्तिम दलित-वंचित समूह से जानने की कोशिश की कि वह क्या सोचता या चाहता है? वह तो तब भी वोट बैंक मात्र था और आज भी हैं. उसकी उपयोगिता शुरुआत से ही अपने दलित समाज के सम्भ्रांत वर्ग के पीछे खड़े होने, उनकी राजनीतिक गुलामी करने मात्र की ही रही थीं और आज भी है.
ध्यात्वय है कि विपक्ष की जाति जनगणना की मांग इस तर्क पर आधारित है कि इसके द्वारा प्राप्त आंकड़ों के आधार पर सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्रतिशत बढ़ाया जाये. इससे सभी पिछड़ी और दलित जातियों के प्रतिनिधित्व का विस्तार होगा. प्रथम दृष्टया इस मांग में कोई बुराई नहीं दिखती, लेकिन इसके दूसरे अन्य वीभत्स दुष्प्रभाव होंगे जिनकी चर्चा नहीं हो रही. जातिगत जनगणना जाति आधारित पहचान को और पुख्ता करेगी. इससे जो सामाजिक टकराव उत्पन्न होगा उसका नकारात्मक असर लंबे समय तक राष्ट्रीय एकता पर पड़ेगा.कहने का तात्पर्य है कि आज ज़ब बदलते युग के साथ ज़ब जाति आधारित पहचान एवं सामाजिक रूढ़ियां दिनोदिन शिथिल होती जा रही हैं तब जाति जनगणना ना सिर्फ सामाजिक-राजनीतिक बल्कि संवैधानिक रूप से जाति एवं वर्गीय विभाजन को मजबूत करेगा. यह एक ऐसी कटुता का प्रादुर्भाव होगा जो अगले कई दशकों तक देश का सामाजिक जीवन विषाक़्त कर देगा. सामाजिक समरसता जो वर्तमान में एक निर्णायक पथ पर हैं, उसकी गति बाधित होगी और जाति विभेद के शिथिल होते दायरे कड़े हो जायेंगे. इन सबसे बढ़कर मेरिट और योग्यता का निरंतर हतोत्साहन देश की प्रशासनिक कुशलता एवं उसके विकास की गति के लिए आत्मघाती कदम होगा.
हालांकि आज के उग्र जातिगत ध्रुवीकरण के राष्ट्रव्यापी माहौल में ऐसे वैचारिक तर्क कहना और सुनना, दोनों ही अपराध होगा. राजनीति के इस विघटनकारी उन्मादी माहौल में सामाजिक एकता के तर्क स्वीकृत नहीं होंगे इसलिए सबसे उचित विकल्प यही है कि जाति जनगणना हो ही जानी चाहिए. ताकि जिन्हें इससे सत्ता प्राप्ति का मार्ग दिख रहा है उनका भी भ्रम दूर हो जाये. असल में जाति आधारित एक ऐसा जहरीला कुण्ड है जिससे अमृत नहीं निकलेगा. लेकिन इससे पिछड़ा वर्ग के आरक्षण पर हावी एवं उसकी खुली लूट में शामिल यादव, कुशवाहा, कुर्मी जैसी जातियाँ तथा दलित वर्ग में मीणा, जाटव जैसी सशक्त जातियों ने आरक्षण पर जो एकाधिकार जमा रखा है, उसकी विवेचना जरूर हो सकेगी. और सच मानिए तो जाति जनगणना से यह पता लगाना भी संभव होगा कि आखिर सत्तर सालों में आरक्षण का लाभ सर्वव्यापी क्यों नहीं हुआ? कौन सी ऐसी जातियाँ हैं जिन्होंने आरक्षण की धार को. अपनी सुदृढ़ राजनीतिक और सामाजिक प्रभुता के बूते बाधित कर रखा है? वैसे भी संविधान के अनुच्छेद-340 के तहत गठित रोहिणी आयोग (2017) की रिपोर्ट भी तैयार है और इसके लागू होते ही पिछड़ावाद के ध्रुवीकरण की मुहीम हमेशा के लिए ध्वस्त हो जायेगी. और उसके बाद आरक्षण के लाभ के सबसे तीव्र एवं कटु संघर्ष पिछड़ा वर्ग की जातियों का आतंरिक ही होगा. यकीन मानिये इसके बाद यही जाति जनगणना के मुरीद जातिवादी नेता और बौद्धिक जमात ही अपनी राजनीतिक साख और सम्मान बचाते दिखेंगे, तब देखना होगा कि इनके पास सामाजिक समानता एवं आरक्षण को उसके वास्तविक जरूरतमंदों तक पहुंचाने के पक्ष में इनके पास कितना तर्क शेष है?