आज हम अंतरिक्ष प्रतिस्पर्धा और मिसाइल प्रौद्योगिकी में अपनी उपस्थिति बनाए हुए हैं तो इसका श्रेय जवाहर लाल नेहरू को नहीं, हमारे वैज्ञानिकों को जाता है क्योंकि शीत युद्ध की परिस्थितियों में भी नेहरू अपने शांतिवादी आग्रहों के कारण भारत की सामरिक तैयारी की उपेक्षा किए रहे।
यह निश्चय ही भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के लिए एक बड़ी उपलब्धि है कि उसने चंद्रयान 2 को सफलतापूर्वक पृथ्वी की कक्षा में पहुंचा दिया है, जहां से वह परिक्रमा मार्ग पर उत्तरोत्तर आगे बढ़ते हुए चंद्रमा की कक्षा में पहुंच जाएगा और सितंबर के पहले सप्ताह में अपने उपकरण लैंडर विक्रम और रोवर प्रज्ञान को उतार देगा। इस सफलता के बाद भारत चंद्रमा की सतह को छूने वाला संसार का चौथा देश हो जाएगा। अब तक इस दिशा में तीन अन्य देश बड़ी उपलब्धियां दिखा चुके हैं। अमेरिका और रूस अंतरिक्ष प्रतिस्पर्धा में काफी आगे हैं। चीन इस प्रतिस्पर्धा में कुछ समय पहले ही सम्मिलित हुआ है, लेकिन कम समय में उसने काफी उपलब्धि प्राप्त कर ली है। इतनी कि अब रूस को चीन से अंतरिक्ष विज्ञान में आगे होने के बावजूद अमेरिका के मुख्य प्रतिद्वंद्वी के रूप में नहीं देखा जाता। अमेरिका चीन को नई उभरती चुनौती के रूप में देख रहा है और उसने अपनी अलंघनीयता बनाए रखने के लिए अपने अनुसंधान कार्यक्रमों को प्रभूत साधन उपलब्ध करवाना आरंभ कर दिया है।
कुछ समय पहले तक भारत चीन से बहुत पीछे नहीं था। लेकिन चीन अपने अंतरिक्ष कार्यक्रमों को रणनीतिक कार्यक्रम के रूप में देखता है। उसने इस दिशा में पर्याप्त साधन उपलब्ध करवाए हैं और वह भारत से काफी आगे बढ़ गया है। इस समूची पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हुए ही हमें अपनी उपलब्धियों का आकलन करना चाहिए। यह हमारे लिए कोई विशेष गौरव की बात नहीं है कि अंतरिक्ष प्रतिस्पर्धा में अब हमें भी गिना जाने लगा है और भारत चंद्रमा की सतह को छूने वाली चौथी महाशक्ति बनने वाला है। भारत सदा एक महाशक्ति था और उसे अपनी सभी उपलब्धियों को दूसरी महाशक्तियों की उपलब्धियों की तुलना में ही देखना चाहिए। हमारा अंतरिक्ष कार्यक्रम पचास वर्ष पहले आरंभ हुआ था। 15 अगस्त 1969 को भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन की स्थापना हुई थी। चंद्रयान 2 की उपलब्धि का श्रेय लेने की उतावली में कांग्रेस के नेताओं ने यह याद दिलाने का प्रयत्न किया कि अंतरिक्ष कार्यक्रम उनके शासनकाल की देन है। उन्हें इस बात का भी उत्तर देना चाहिए कि भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन की स्थापना में स्वतंत्र होने के बाद हमें 22 वर्ष क्यों लग गए। उस समय कहा गया था कि देश के पास साधनों की कमी है। प्राप्त साधनों को पहले देश के लोगों के भौतिक जीवन को सुधारने में लगाना आवश्यक है।
यह दुविधा उस समय के कांग्रेस के नेतृत्व में अज्ञान का ही द्योतक थी। पहले और दूसरे महायुद्ध के अनुभव से निकलने के बाद यह सोचना नादानी ही लगता है कि देश की सामरिक चुनौतियों की अनदेखी की जा सकती है। दूसरे महायुद्ध के बाद सोवियत रूस काफी जर्जर हालत में
था। उसके पास न साधन थे, न अमेरिका जैसा वैज्ञानिक और सामरिक प्रतिष्ठान। लेकिन उसे अपनी सामरिक चुनौतियों का ज्ञान था और उनके अनुरूप शक्ति और क्षमता प्राप्त करने का संकल्प था। उस संकल्प के बल पर ही वह अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र में अपनी अग्रणी भूमिका बनाने में सफल हो गया। 1949 में वह अमेरिका से सिर्फ चार वर्ष बाद नाभिकीय शक्ति बन गया। मिसाइल और रॉकेट इंजीनियरिंग क्षेत्र में भी उसने जल्दी ही अपनी उपलब्धियां दिखा दी थी। कांग्रेस के नेता जवाहर लाल नेहरू को आधुनिक निर्माता बताते थकते नहीं है। सच्चाई यह है कि उन्हें न पश्चिमी विज्ञान और प्रौद्योगिकी के मूल स्वरूप की कोई समझ थी और न उसकी दिशा की। वे अपने आपको उस समय की अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों का सबसे बड़ा जानकार मानते थे। वास्तविकता यह है कि शीत युद्ध की परिस्थितियों में भी वे अपने शांतिवादी आग्रहों के कारण भारत की सामरिक तैयारी की उपेक्षा किए रहे। आज हम अंतरिक्ष प्रतिस्पर्धा और मिसाइल प्रौद्योगिकी में अपनी उपस्थिति बनाए हुए हैं तो इसका श्रेय जवाहर लाल नेहरू को नहीं हमारे वैज्ञानिकों को ही जाता है।
वे शीत युद्ध की परिस्थितियों के बीच भविष्य की सामरिक चुनौतियों को देख पाए और देर से सही आज हम इस स्थिति में पहुंचे है कि अंतरद्वीपीय प्रक्षेपणास्त्र बनाने में समर्थ हुए हैं। हम अगले कुछ वर्षों में मानव सहित यान उतारने की तैयारी कर रहे हैं और मंगल तथा शुक्र अभियान की भी तैयारी में लगे हैं, तथा भारत अन्य महाशक्तियों की तरह अंतरिक्ष में एक स्थायी स्टेशन बनाने में जुटा है। इसके अतिरिक्त हम अब एक नाभिकीय शक्ति भी हंै। इस सबका श्रेय चीन और पाकिस्तान से निरंतर मिलती रही चुनौती को भी जाना चाहिए। उनकी आक्रामकता ने हमें नेहरूकाल की शांतिवादी मूर्छा में नहीं पड़ने दिया। आज हमारे वैज्ञानिकों प्रतिष्ठान में ही नहीं, राजनैतिक प्रतिष्ठान में भी विश्व परिस्थितियों की पहले से बेहतर समझ है। इसके बावजूद हमारी सुरक्षा संबंधी चुनौतियां दिन-ब-दिन जितनी गंभीर होती चली जा रही है, उसकी तुलना में हमारी तैयारी अधूरी और धीमी ही दिखाई देती है। आज भी हम इस भ्रम से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाए कि विश्व के अर्थतंत्र और वैज्ञानिक तंत्र की दिशा मानव कल्याण है। विश्व की महाशक्तियों के बीच की प्रतिस्पर्धा का मूल स्वरूप आज भी सामरिक ही है। यह बात समझे बिना हम अपने अंतरिक्ष, मिसाइल या नाभिकीय कार्यक्रम को अपेक्षित गति नहीं दे पाएंगे। इस बात को ठीक से समझने के लिए हमें अंतरिक्ष प्रतिस्पर्धा के इतिहास पर एक सरसरी दृष्टि डाल लेनी चाहिए। अंतरिक्ष प्रतिस्पर्धा में उतरने की पहल सबसे पहले जर्मनी ने की थी। 1930 में उसकी सामरिक प्रयोगशालाएं इस दिशा में लगाई गई।
जर्मनी रॉकेट साइंस में अग्रणी होकर अंतरिक्ष में बड़ी शक्ति हो जाना चाहता था। दूसरे महायुद्ध तक उसने कुछ रॉकेट बना भी लिए थे। पर दूसरे महायुद्ध में पराजय के बाद उसकी इस आकांक्षा पर रोक लग गई। रॉकेट इंजीनियरिंग में दक्ष उसके वैज्ञानिक अमेरिका, ब्रिटेन और सोवियत रूस ने आपस में बांट लिए। अमेरिका ने उसके अनेक प्रमुख वैज्ञानिकों को अपने साथ कर लिया। जर्मनी का रॉकेट साइंस का मुख्य प्रतिष्ठान पूर्वी जर्मनी में था। उस पर सोवियत रूस के नियंत्रण के बाद इस क्षेत्र में सोवियत रूस को अग्रता हासिल हो गई। दूसरे महायुद्ध के बाद लगभग दो दशक तक सोवियत रूस अंतरिक्ष प्रतिस्पर्धा में अमेरिका से आगे था। उसकी अग्रता अमेरिका द्वारा चंद्रमा पर अपना मानवसहित यान पहले उतारने से समाप्त हुई। उसके बाद से अमेरिका इस क्षेत्र में अपनी अग्रता बनाए हुए हैं। दोनों के बीच यह प्रतिस्पर्धा 1991 में सोवियत रूस के बिखरने से और शीत युद्ध की समाप्ति से शिथिल पड़ी। लेकिन थोड़े से अंतराल के बाद चीन इस प्रतिस्पर्धा में शामिल हो गया। चीन के प्रतिस्पर्धा में शामिल होने के बाद विशेषकर अमेरिका नए सिरे से अपनी अग्रता बनाए रखने में लग गया है। पिछले कुछ दशकों में प्रौद्योगिकी में जो विकास हुआ है, उसके बाद अंतरिक्ष प्रतिस्पर्धा और गहरी हो गई है।
आज उपग्रहों का उपयोग संचार तंत्र के लिए तो हो ही रहा है। रिमोट सेंसिंग के द्वारा हम पृथ्वी के चप्पे-चप्पे पर नजर रखने और पृथ्वी के ऊपर और उसकी भीतरी परत की महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त करने में सफल हो गए हैं। मौसम संबंधित भविष्यवाणियों के लिए भी अब हम उपग्रहों पर ही अधिक निर्भर हैं। हमारे भौतिक जीवन में उपग्रहों का उपयोग जिस तेजी से बढ़ा है, उतनी ही तेजी से उपग्रहों को नष्ट करके शत्रु के भौतिक जीवन को तहस- नहस कर देने वाली प्रौद्योगिकी का विकास हो रहा है। भारत ने भी पिछले दिनों निचली कक्षा में स्थापित अपने उपग्रह को नष्ट करके यह क्षमता प्रदर्शित की है कि वह उपग्रहरोधी प्रौद्योगिकी सिद्ध कर चुका है। पर अब सबसे बड़ी चुनौती साइबर क्षेत्र से आ रही है। यह कहा जाने लगा है कि भविष्य में साइबर युद्ध में दक्षता ही विजय की कसौटी बन जाएगी। इस क्षेत्र में दक्षता से शत्रु के उपग्रहों को निष्क्रिय करके आनन-फानन में उसके जनजीवन को चौपट किया जा सकता है, उसके युद्ध तंत्र को निष्क्रिय किया जा सकता है और उसे घुटने टेकने के लिए विवश किया जा सकता है। इस दिशा में हमने अभी अपेक्षित सक्रियता नहीं दिखाई है। चीन साइबर क्षेत्र में अपना कौशल तेजी से बढ़ा रहा है।
भविष्य में साइबर युद्ध में दक्षता ही विजय की कसौटी बन जाएगी। शत्रु के उपग्रहों को निष्क्रिय करके उसे घुटने टेकने के लिए विवश किया जा सकता है।
उसकी प्रगति ने अमेरिका को भी चिंतित कर दिया है। भारत को इन सभी दिशाओं में काफी तेजी से आगे बढ़ने की आवश्यकता है। अपनी सामरिक चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए हमें अपने वैज्ञानिक प्रतिष्ठान को पर्याप्त साधन उपलब्ध करवाकर उसे अधिक तेजी से आगे बढ़ाना होगा। हमें अपनी सुरक्षा संबंधी चुनौतियों को अधिक गंभीरता से लेना होगा। विज्ञान और प्रौद्योगिकी की जिन दिशाओं में हम औरों से आगे निकल सकते हैं, उन्हें चिन्हित करना होगा। हमारे वैज्ञानिक प्रतिष्ठान में प्रतिभा और कुशलता की कमी नहीं है। हमारे यहां केवल राजनैतिक संकल्प की कमी है, हमें सभी चुनौतियों को भांपकर उनसे पार पाने में जुट जाना है। दूसरे महायुद्ध के बाद जैसे अमेरिकी चुनौती को समझकर सोवियत रूस ने अल्प साधनों के बावजूद नए क्षितिज छुए थे वैसे ही चीन की चुनौती को समझकर हमें अपना भविष्य सुरक्षित करने में जुट जाना होगा। हमें खुद से पूछना पड़ेगा कि अमेरिका को चंद्रमा पर उतरने में सिर्फ दो दशक लगे थे। हम पचास वर्ष में भी यह क्यों नहीं कर पाए।