संविधान में बदलाव के बारे में डा. भीमराव अंबेडकर और पंडित जवाहरलाल नेहरू के विचार समान थे। अंबेडकर ने यह स्पष्ट रूप से कहा है कि भविष्य की पीढियां अपने विवेक और विमर्श से संविधान में बदलाव के लिए स्वतंत्र हैं। यही बात दूसरे शब्दों में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने रखी। 22 जनवरी, 1947 को उन्होंने कहा कि संविधान में बदलाव का हर पीढ़ी को अधिकार है। डा. भीमराव अंबेडकर संविधान के निर्माता के रूप में विख्यात हैं। अक्सर उनके कथन का हवाला दिया जाता है। कांग्रेस भी अपनी राजनीति के तकाजे में उनका सहारा लेती है। लेकिन इस समय कांग्रेस ने अंबेडकर और नेहरू को भुला दिया है। ऐसा न होता तो नागरिकता संशोधन विधेयक पर कांग्रेस उलटबासी पर नहीं उतरती। जिस संशोधन विधेयक को संसद ने स्वीकार किया है और जिसे गृहमंत्री अमित शाह ने अपने भाषण में तथ्यों और तर्कों पर उचित ठहराया है, वह मात्र एक कानून में अत्यावश्यक संशोधन है। अफसोस है कि विपक्ष इसे संविधान में बदलाव का मुद्दा बना रहा है, जबकि उसे प्रायश्चित स्वरूप इस संशोधन का समर्थन करना चाहिए।यह ठीक है कि नागरिकता संशोधन विधेयक से उन लोगों को मौलिक अधिकार मिल जाएगा जो परिस्थितियों के मारे हुए हैं। जहां थे, वहां सताए गए थे। वे भारत के अलावा कहीं दूसरी जगह जा नहीं सकते। इस अर्थ में वे मूलत: भारतीय हैं। एक वास्तविक भारतीय को उसका अधिकार दिलाना हर सरकार का पहला कर्तव्य बनता है।
उसी को नरेंद्र मोदी की सरकार ने पूरा किया है। यह दिखने में छोटी सी बात है। एक फर्ज अदा करने की घटना है। लेकिन संविधान की दृष्टि से यह इसलिए असाधारण, ऐतिहासिक और बड़ी घटना है क्योंकि इससे एक संवैधानिक बहस छिड़ेगी। हमारे संवैधानिक ढांचे में जहां-जहां विसंगतियां बनी हुई हैं वे उजागर होंगी। नरेंद्र मोदी सरकार ने उन विसंगतियों को ही दूर करने की ठानी है।नागरिकता का प्रश्न किसी भी देश में मूलभूत होता है। भारत का संविधान जब बन रहा था, उस समय भी नागरिकता का प्रश्न उन चंद बड़े प्रश्नों में था जिन पर खूब खरी बहस संविधान सभा में हुई। उस बहस का परिणाम यह हुआ कि संविधान सभा ने नागरिकता के बारे में स्थाई और पूरा कानून नहीं बनाया। मोटी-मोटी बातें निर्धारित कीं। पूरा कानून बनाने का दायित्व संसद पर आया। यह संविधान सभा की व्यवस्था है। उसी का पालन करते हुए पंडित जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने 1955 में नागरिकता कानून बनाया। उसमें समय-समय पर संशोधन होते रहे हैं। जैसी जरूरत उपस्थित हुई, वैसी व्यवस्था बनाने के लिए नागरिकता कानून में संशोधन हुए हैं। नरेंद्र मोदी की सरकार ने जो संशोधन कराया है, वह बहुत पहले हो जाना चाहिए था। इस संशोधन को विवादों के घेरे में खड़ा किया जा रहा है। आरोप है कि इससे संविधान के मूल ढांचे को क्षति पहुंचेगी। जो लोग यह तर्क दे रहे हैं वे मूल ढांचे को जाने वगैर ऐसा कर रहे हैं। साफ है कि उनका तर्क वास्तविक नहीं है। अवास्तविक है। इसी अर्थ में राजनीतिक ज्यादा है। दलीय दृष्टिकोण पर आधारित है।
नागरिकता संशोधन विधेयक की आलोचनाओं के खोखलेपन को जानने और समझने के लिए संविधान सभा की बहस पर एक नजर डालनी चाहिए। जब संविधान का अंतिम प्रारूप तैयार हुआ और उसे डा. भीमराव अंबेडकर ने संविधान सभा में रखा, तब जो बहस हुई उसका वह अंश यहां प्रासंगिक है, जिसका संबंध नागरिकता के प्रश्न से है। अंतिम प्रारूप पर संविधान सभा में करीब सालभर बहस हुई थी। 1949 के अगस्त माह में नागरिकता से संबंधित दो अनुच्छेदों पर बहुत सारे संशोधन संविधान सभा में थे। इन पर बहस शुरू कराने से पहले अध्यक्ष डा. राजेंद्र प्रसाद ने संविधान सभा में कहा कि ‘डा. अंबेडकर ने दो महत्वपूर्ण परिसीमाओं की ओर सभा का ध्यान आकर्षित किया है। पहली परिसीमा यह थी कि यह प्रारूप नागरिकता के सीमित प्रश्न से संबंधित है। दूसरी बात यह थी कि वर्तमान प्रारूप से संबंधित विषयों सहित अन्य विषयों को संसद पर छोड़ा जाता है। वह जैसा ठीक समझें वैसा करें।’ इसे बताकर डा. राजेंद्र प्रसाद चाहते थे कि बहस न हो और प्रारूप के नागरिकता संबंधी अनुच्छेद को स्वीकार कर लिया जाए। पर वैसा हुआ नहीं, जैसा संविधान सभा के अध्यक्ष डा. राजेंद्र प्रसाद ने इच्छा व्यक्त की थी। बहस की शुरूआत डा. पंजाब राव देशमुख ने की। उनका संशोधन था। उन्हें ही डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने पहला अवसर दिया। वे विदर्भ से संविधान सभा के सदस्य थे। कानून के विशेषज्ञ थे। किसान परिवार से थे। आजादी के बाद नेहरू मंत्रिमंडल में वे कृषि मंत्री हुए।
नागरिकता के कानून में इस संशोधन से भारत में रह रहे परंतु सताए गए लोग अब अपना भविष्य सवांर सकते हैं। उनके साथ अन्याय जो चला आ रहा था और वह दोहरा था, उसका अंत हो गया। इस संशोधन से एक बड़ी बहस भी पैदा होगी जो संविधान को केंद्र में रखकर चलेगी। इस तरह संविधान के प्रति चेतना बढ़ेगी।
संविधान सभा में उनका भाषण अत्यंत प्रभावी था। जो अनुच्छेद प्रारूप में था उसे उन्होंने ‘अधिक दुर्भाग्यपूर्ण’ ठहराया। उन्होंने संशोधन पेश किया। जिसमें मांग की कि ‘जो हिन्दू या सिख धर्म का अनुयायी है और जो किसी अन्य देश का नागरिक नहीं है, उसे भारत का नागरिक होने का हक होगा।’ पंजाब राव देशमुख में भविष्य दृष्टि थी। वे चाहते थे कि भारतीय व्यक्ति के साथ अन्याय और उत्पीड़न जहां भी हो और वह उससे मुक्ति पाने के लिए भारत में शरण ले, तो उसे नागरिकता दी जानी चाहिए। उनके तर्कपूर्ण और लंबे भाषण में व्यवधान भी हुए। एक सदस्य जो उत्तर प्रदेश से थे और मशहूर भी थे, उन्होंने प्रश्न उठाया कि भारतीय कैसे पहचाने जाएंगे? वे थे प्रो. शिब्बन लाल सक्सेना। इस पर पंजाब राव देशमुख ने अपने जवाब में कटाक्ष किया और कहा कि ‘मैंने सोचा था कि भारतीय व्यक्ति बहुत सरलता से पहचाना जा सकता है।… पर यदि प्रोफेसर यह सोचते हैं कि भारतीय व्यक्ति को नहीं पहचाना जा सकता है और निर्धारण करना आवश्यक है कि भारतीय व्यक्ति कौन है, उसका रूप-रंग क्या है तो मैं किसी उपयुक्त परिभाषा का निर्धारण का कार्य उन पर ही छोडूंगा।’ उस बहस में नजीरूद्दीन अहमद, जसवंत राय कपूर, टी.टी. कृष्णमाचारी, बृजेश्वर प्रसाद, प्रो. के.टी. शाह आदि उस दिन (11 अगस्त, 1949) बोले। प्रो. के.टी. शाह ने नागरिकता के प्रकारों पर विद्वतापूर्ण भाषण दिया। लेकिन उन्होंने माना कि जिस विषय पर विचार हो रहा है, वह अत्यंत पेचीदा है। उन्होंने ही इसे चिह्नित किया कि ‘1935 के संविधान में नागरिकता संबंधी भेदभाव के उपबंध रहे हैं। वे उपबंध भारतीयों के विरूद्ध और विदेशियों के पक्ष में थे।’ उनके इस कथन को आज दूसरे ढंग से कहा जा सकता है कि जो लोग नागरिकता संशोधन विधेयक की आलोचना कर रहे हैं वे भारतीयों के विरोध में खड़े हैं।
नागरिकता का प्रश्न किसी भी देश में मूलभूत होता है। भारत का संविधान जब बन रहा था, उस समय भी नागरिकता का प्रश्न उन चंद बड़े प्रश्नों में था जिन पर खूब खरी बहस संविधान सभा में हुई। उस बहस का परिणाम यह हुआ कि संविधान सभा ने नागरिकता के बारे में स्थाई और पूरा कानून नहीं बनाया।
प्रो. के.टी. शाह ने यह भी कहा कि ‘मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि इस पर प्रारूप समिति ने पर्याप्त ध्यान नहीं दिया है।’ उन्होंने भारतीयों के प्रति अन्यायपूर्ण भेदभाव के तमाम उदाहरण दिए। संविधान सभा में ठाकुरदास भार्गव ने भी इस बहस में हिस्सा लिया। लेकिन आर.के. सिधवा ने पंजाब राव देशमुख के संशोधन का जिक्र कर कहा कि पारसी भी उस सूची में शामिल हो सकते हैं। संशोधन विधेयक ने यह संभव कर दिखाया है। उस समय इस बात पर भी बहस हुई थी कि अंतिम तारीख कौन सी होगी। जिसके आधार पर नागरिकता का निर्णय होगा। तब 19 जुलाई, 1948 की तारीख प्रारूप समिति ने सुझाई थी। संविधान सभा में नागरिकता पर बहस सचमुच जितनी जटिल तब थी, उतनी आज भी है। इसका कारण एक ही है-भारत विभाजन। भारत विभाजन ने ही यह समस्या पैदा की है। जिसे 12 अगस्त, 1949 को संविधान सभा में सरदार भोपेंद्र सिंह मान ने रखा। उनका जो आरोप तब था,वह आज विपक्ष पर सटीक बैठता है। उन्होंने कहा था कि ‘एक निर्बल प्रकार की धर्मनिरपेक्षता इसमें घुस आई है।’ उनका विचार था कि हिन्दू और सिख शरणार्थियों के दृष्टिकोण को पूरी तरह समझने और उनके साथ न्याय करने की जरूरत है।
नागरिकता के कानून में इस संशोधन से भारत में रह रहे परंतु सताए गए लोग अब अपना भविष्य संवार सकते हैं। उनके साथ अन्याय जो चला आ रहा था और वह दोहरा था, उसका अंत हो गया। इस संशोधन से एक बड़ी बहस भी पैदा होगी जो संविधान को केंद्र में रखकर चलेगी। इस तरह संविधान के प्रति चेतना बढ़ेगी। संविधान को समझने की गति तेज होगी। जहां संशोधन की जरूरत है,उसकी मांग बढ़ेगी। इस तरह भारत का संविधान एक नई राष्ट्रीय आकांक्षाओं और लक्ष्यों का जीवंत दस्तावेज बन सकेगा और समय के साथ विकसित होगा।