चीन में मनुष्य और पशुओं के बीच का संबंध जैसे-जैसे बदल रहा है, वहां पशुजनित बीमारियां बढ़ती जा रही हैं। पिछले कुछ दशकों में अनेक बार चीन को उन विषाणुओं का सामना करना पड़ा है, जो पशुओं से मनुष्यों में संक्रमण कर जाते हैं और महामारी का रूप ले लेते हैं। इससे पहले एक विषाणु के संक्रमण के कारण श्वास संबंधी रोग ने महामारी का रूप ले लिया था। फिर चीन में बर्ड μलू फैला। अब कोरोना वायरस ने चीन में और चीनियों के संपर्क में आने वाले दुनियाभर के अनेक देशों में चिंता और आतंक पैदा कर दिया है। चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने पौराणिक शब्दावली का उपयोग करते हुए इस वायरस को दानव बताया है और आत्मविश्वासपूर्वक कहा है कि उस पर नियंत्रण कर लिया जाएगा। फिलहाल अभी के चिकित्सा शास्त्र में इस विषाणु के संक्रमण का कोई इलाज नहीं है। भारत में यह दावा किया गया है कि आयुर्वेद और होम्योपैथी से कोरोना वायरस का उपचार संभव है, लेकिन उसे सिद्ध किया जाना बाकी है। इस समय लक्ष्य इसके संक्रमण को रोकना है और उसकी चपेट में आने वाले लोगों को अन्य सब लोगों से अलग-थलग करके उनके शरीर को इस विषाणु से लड़ने में समर्थ बनाना है।
चीन में ज्यों-ज्यों संपन्नता बढ़ रही है, भोजन सामग्री का विस्तार हो रहा है। अनोखेपन के नाम पर सब तरह के पशु-पक्षी और कीड़े- मकोड़े यहां के लोगों के भोजन में शामिल होते जा रहे हैं।
यह काम चीन काफी दक्षता से कर रहा है। पर समस्या यह है कि सब लोगों में इस विषाणु के संक्रमण के बाद तुरंत लक्षण नहीं उभरते। इसलिए बहुत से संक्रमित लोग जांच में बच जाते हैं और वे उसके फैलने में सहायक हो सकते हैं। चीन में इस वायरस का ऐसा हौव्वा पैदा हो गया है कि हांगकांग में मुख्य चीन से आने वाले लोगों पर पाबंदी लगाई जा रही है। चीन ने रातोंरात दो बड़े अस्पताल खड़े कर दिए हैं। लेकिन इस वायरस से संक्रमित लोगों की संख्या 25 हजार पार करने का अंदेशा है। अब तक दो सौ से अधिक लोग उसकी बलि चढ़ चुके हैं। कोरोना वायरस चीन के हूबे प्रांत की राजधानी वुहान से संक्रमित हुआ था। एक करोड़ से अधिक आबादी वाला वुहान शहर यातायात का बहुत बड़ा केंद्र है। उसके साथ ही यहां जानवरों का बहुत बड़ा बाजार है। इस बाजार में वे सब जानवर उपलब्ध होते हैं, जिन्हें चीनियों द्वारा खाया जा सकता है। चीन दुनिया के उन देशों में है, जहां भक्ष्य-अभक्ष्य का विचार सबसे कम देखने को मिलता है। इस बाजार में पालतू या जंगली पशु के अलावा सांप, बिच्छू, चमगादड़ या विभिन्न तरह के कीड़े-मकोड़े मिलते हैं, जिन्हें खाने से चीनी परहेज नहीं करते।
बाजार में ही जानवरों को काटा-पीटा जाता है, इसलिए वहां चारों तरफ काफी गंदगी दिखाई देती हैं। समुद्री जीवों, जंगली पशुओं या कीड़े-मकोड़ों से विषाणुओं के संक्रमण का सबसे अधिक खतरा होता है। चीन में जिंदा जानवरों को खौलते तेल में पकाने का भी रिवाज है, विशेषकर सांप आदि को। यह माना जा रहा है कि इस बार का कोरोना वायरस चमगादड़ के मांस से फैला हो सकता है। जहां भक्ष्य-अभक्ष्य के बारे में इतनी लापरवाही बरती जाती है, वहां जानवरों से विषाणुओं के संक्रमण का खतरा हमेशा बना रहेगा। जिन पशुओं को सामान्यत: खाया जाता है, उनसे संक्रमित होने वाले वायरस से प्रतिरोध की क्षमता शरीर पैदा कर लेता है। लेकिन विलक्षणता के नाम पर सब तरह का मांस खाया जाने लगे तो शरीर की प्रतिरोधक क्षमता काम नहीं करती। यूरोपीय लोगों से अमीरी की दौड़ में पड़े चीनियों की जीवनशैली तेजी से बदल रही है। इन परिवर्तनों का मनुष्य और पशु के बीच संबंध पर भी काफी असर पड़ा है। परंपरागत चीन में मनुष्य के लिए पशु का उपयोग केवल उसके मांस तक सीमित नहीं था। यातायात में उनका बहुलता से उपयोग होता था।
चीन में दूध भोजन का भाग नहीं है। इसलिए दुधारू पशुओं से जिस तरह का आत्मीय संबंध भारत में विकसित किया गया, वैसा चीन में विकसित नहीं हुआ। फिर भी चीन में पशुओं का इतना विविध उपयोग रहा है कि वे अपने परिचित संसार का अंग समझे जाएं और उनसे किसी न किसी स्तर पर आत्मीयता बनी रहे। लेकिन अमीरी की ओर भागते चीन ने पशु के परंपरागत उपयोग समाप्त कर दिए हैं। यातायात का व्यापक मशीनीकरण हो गया है। इसलिए पशुओं का उपयोग उनके मांस तक सीमित हो गया है। अगर पशुओं से संबंध केवल भक्ष्य और भक्षक का होकर रह जाए तो प्रकृति पशु को कब भक्ष्य से भक्षक बना देगी, हम नहीं कह सकते। यही आज संसार के अधिकांश हिस्सों में हो रहा है। केवल चीन ही पशुजनित विषाणुओं की चपेट में नहीं है, विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार प्रति वर्ष विश्व में लगभग एक अरब लोग पशुजनित विषाणुओं का शिकार होते हैं और उनमें लाखों लोग अपने प्राण खो बैठते हैं। दुनिया में आज जो भी संक्रामक रोग दिखाई दे रहे हैं, उनमें से 60 प्रतिशत पशुजनित विषाणुओं की देन है। 19वीं शताब्दी तक यूरोप भी पशुजनित विषाणुओं के फैलने से काफी त्रस्त रहा है। इतिहास में 1350 के आसपास फैली महामारी का काफी उल्लेख होता है।
ब्लैक डेथ के नाम से प्रसिद्ध इस महामारी के दौरान यूरोप से लगाकर चीन तक की आधी आबादी समाप्त हो गई थी। यह महामारी चूहों से संक्रमित हुए विषाणुओं के कारण फैली थी। इस प्लेग का आतंक काफी दिन तक बना रहा था। लेकिन यूरोप में महामारी फैलने की यह इतनी भयानक अकेली घटना नहीं थी, वहां हर 50 से 100 साल के भीतर ऐसी भयंकर महामारी फैलती रही है, जिसमें एक चौथाई से एक तिहाई आबादी नष्ट हो जाती थी। यह सिलसिला 19वीं शताब्दी तक चलता रहा। उस पर नियंत्रण तभी संभव हुआ, जब यूरोपीय लोगों ने अपने भोजन को औद्योगिक सामग्री में बदल दिया। अब सभी औद्योगिक देशों में डिब्बाबंद भोजन का प्रचलन है। उसे औद्योगिक वस्तु बनाने की प्रक्रिया में उसका इस तरह प्रसंस्करण किया जाता है कि किसी हानिकारक वैक्टीरिया की गुंजाइश न रहे। इतना ही नहीं औद्योगिक देशों में इस बात का भी बारीकी से ध्यान रखा जाता है कि बाहर से कोई हानिकारक वैक्टीरिया इन देशों में न पहुंचने पाए। पश्चिम के चिकित्सा विज्ञान का विकास हानिकारक वैक्टीरिया या वायरस से शरीर की रक्षा करने की विधि तलाशते हुए ही हुआ है। यह और बात है कि पश्चिम का चिकित्सा शास्त्र शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने की बजाय उसे कमजोर ही कर रहा है। इसमें बड़ी भूमिका एंटीबायोटिक दवाओं के अतिशय सेवन की है।
रोग-प्रतिरोधक क्षमता कम होते जाने से दूसरी तरह की बीमारियां बढ़ रही है। भारत में इन सब समस्याओं से यथासंभव बचा जाता रहा था। हमारे यहां आयुर्वेद का सारा जोर शरीर को पुष्ट करने और उसकी रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने पर रहा है। आयुर्वेद का लक्ष्य रोग के उपचार से अधिक स्वास्थ्य की रक्षा है। इसलिए औषधियों का उपयोग रोग की नौबत न आने देने के लिए अधिक हुआ है। इसके अलावा हमारे भोजन में परिपूर्णता है। उसमें अन्न, शाक और दूध का संतुलन इस तरह रहा है कि शरीर को सभी पोषक पदार्थ मिल जाएं। हमारा पशुओं से संबंध केवल उनके मांस के लिए नहीं रहा। भारत में सदा से मांसाहार रहा है, लेकिन मर्यादा में। वह भक्ष्य- अभक्ष्य का विचार करते हुए रहा है। हम चीनियों की तरह सब कुछ खाने के आदी नहीं रहे। वैसे भी पशुओं का उपयोग हमारे यहां उनके मांस से अधिक उनके दूध के लिए है। इस नाते भी गाय के दूध को सर्वश्रेष्ठ दूध समझा गया है, इसलिए गौमाता की पूजा होती रही है। हमारी दृष्टि समूचे पशु जगत के लिए ही आत्मीयता से भरी रही है। सभी पशुओं का संरक्षण-पोषण ही हमारे यहां दीर्घ परंपरा रही है। आज के तार्किक दृष्टि से सोचने वाले लोग इन परंपराओं का महत्व नहीं समझ पाते। हमारे यहां अगर सांप की भी पूजा होती है तो उसका कारण मनुष्य और पशु जगत के बीच एक आत्मीय संबंध बनाए रखना है। यही कारण है कि हम पशुजनित विषाणुओं के प्रकोप से काफी कुछ बचे रहे हैं। अपनी परंपरागत जीवनशैली की इस विलक्षणता को हमें भूलना नहीं चाहिए।