जी.आर. एल्टन लिखते हैं, ‘प्रतीक पीढ़ी अपने दृष्टिकोण से सामाजिक आवश्यकतानुसार अतीत की व्याख्या करती है, उसी प्रकार प्रत्येक इतिहासकार अपने दृष्टिकोण से अतीत का अवलोकन करता है.'(दी प्रैक्टिस ऑफ हिस्ट्री, पृष्ठ-12).किंतु अतीत के अवलोकन के लिए वास्तविक दृष्टि तथ्य आधारित होनी चाहिए, तभी इतिहास का मूल्यांकन निरपेक्ष एवं पूर्वाग्रह रहित होगा.
पिछले दिनों कांगड़ा ( हिमाचल प्रदेश) में एक कार्यक्रम के दौरान सरसंघचालक डॉ. भागवत ने कहा था कि, “भारत का इतिहास एक विशेष दृष्टि से लिखा गया, यह गलती सुधारी जानी चाहिए.” प्राचीन और मध्यकालीन ही नहीं बल्कि आधुनिक भारत का इतिहास भी पूर्वाग्रही एवं भारतीयता के प्रति घृणा से भरे इतिहासकारों की कुंठा की परिणीती है. देश का विद्यार्थी वर्ग ये जान ही पा रहा कि जिन व्यक्तियों क़ो उनकी पाठय-पुस्तकों में आदर्श नायकत्व का मुलम्मा चढ़ाकर प्रस्तुत किया जा रहा है, उनके व्यक्तित्व का वास्तविक स्वरुप क्या था ? ऐसे लोगों की एक लंबी सूची है, जैसे मिर्जा ग़ालिब, गोपालकृष्ण गोखले, अबुल कलाम आजाद इत्यादि. ऐसा ही एक नाम पंडिता रमाबाई का है.
रमाबाई, जिन्हें आधुनिक भारत की पहली नारीवादी कहा जाता है, वो महाराष्ट्र के एक ब्राह्मण परिवार मे 1858 ई. क़ो पैदा हुईं थीं. उनके पिता अनंत शास्त्री डोंगरे संस्कृत के प्रकांड विद्वान् थे. बाद में वे कलकत्ता जा बसे. उन्होंने अपनी बेटी क़ो भी उच्च कोटि की शिक्षा दिलवाई. रमाबाई अपने ज्ञान के बूते एक विदुषी के रुप में चर्चित हुई. कलकत्ता में उनके व्याख्यान से प्रभावित विद्वानों ने उन्हें सरस्वती की उपाधि तक दे डाली गई.
1880 में उन्होंने बंगाली वकील विपिन बिहारी से शादी कर ली. ‘ये शादी अंतर-जातीय थी इसलिए उनके समाज ने इसका विरोध किया. पति की मृत्यु के पश्चात् रमाबाई पूना में बस गईं तथा ‘आर्य महिला समाज’ की स्थापना की. ये संस्था बालिका शिक्षा एवं बाल विवाह रोकने के लिए समर्पित थी. वो विद्रोही विचारों वालीं समाज सुधारक थीं तथा पितृ-सत्तात्मकता की कठोर आलोचक थीं. पहले तो पंडितों ने उन्हें सरस्वती कहा लेकिन जैसे ही वो ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के खिलाफ बोलने लगीं और ईसाई धर्म को अपनाया, वैसे ही विद्रोहिणी बन गईं. उनकी आलोचना हुई लेकिन तमाम आलोचनओं के बाद भी वो विधवाओं के उत्थान के लिए काम करती रहीं.’- उपरोक्त सारी बातें प्रचलित है जिन्हें हेरफेर करके (Manipulate) पिछले आधे दशक से भी अधिक समय से इतिहास की तमाम पुस्तकों में प्रस्तुत किया जाता रहा है. लेकिन इन आलोचनाओं के वास्तविक कारकों पर चर्चा नहीं होती.
रमाबाई, भारत में ही ईसाईयत के प्रभाव में आ चुकीं थीं. 1883 में वो इंग्लैंड गईं. वहीं उन्होंने घोषित रूप से ईसाई पंथ स्वीकार कर लिया और अपनी बेटी के साथ सितंबर 1883 को चर्च ऑफ इंग्लैंड में बपस्तिमा कराया. ब्रिटेन प्रवास के दौरान लिखी गई अपनी किताब ‘द हाई कास्ट हिंदू विमेन’ में रमाबाई ने एक हिंदू महिला होने के बुरे परिणामों की चर्चा की है.1886 में वो अमेरिका गईं. अपने कई वर्षों के विदेश प्रवास के दौरान रमाबाई अपने व्याख्यानों में भारतीय परम्पराओं के विरुद्ध विष-वमन करती रहीं. रमाबाई का सनातन धर्म के प्रति नफरत का भाव इतना प्रबल था कि वे विदेशों में भी इसके विरोध का अवसर नहीं चूकतीं थीं.
‘भारतीय आध्यात्मिक पुर्नजागरण के पिता’ स्वामी विवेकानंद ज़ब शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन के अपने व्याख्यान में सनातन धर्म के महान पक्ष का विश्लेषण कर रहे थे तब रमाबाई अपने नेतृत्व में वहां बहुत सी महिलाएं के साथ उनके खिलाफ प्रदर्शन कर रही थीं. साथ ही वे प्रश्न उठा रही हैं कि अगर उनका (स्वामी विवेकानंद) धर्म इतना महान है तो उनके देश में महिलाओं की इतनी खराब हालत क्यों है ? ज़ब विश्व हमारी धार्मिक श्रेष्ठता से अभिभूत हों रहा था तब एक भारतीय ईसाई महिला ही पाश्चात्य देशों में उसे अपमानित करने में लगीं थी. बाद में स्वामी विवेकानंद ने अपने एक पत्र में इस पर प्रतिक्रिया देते हुए लिखा, “ये औरतें तो ईसाइयों से भी ज़्यादा ईसाई हैं.”
अमेरिका से लौटने पर रमाबाई ने पुणे में ‘शारदा सदन’ नाम से एक आवासीय विद्यालय स्थापित किया. घोषित रूप से इस विद्यालय का मुख्य प्रयोजन था, प्रवास की सुविधा के साथ भारतीय कन्याओं और विशेषकर विधवाओं के लिए शिक्षा की व्यवस्था करना. इसकी परामर्श समिति के सदस्यों में तेलंग, भंडारकर रानाडे जैसे प्रसिद्ध व्यक्ति शामिल थे. स्वयं लोकमान्य तिलक भी इस संस्था से सहानुभूति रखते थे. किन्तु यथार्थ में ‘शारदा सदन’ ईसाई मिशनरियों की सनातन विरोधी मुहीम का हिस्सा थी. जल्द ही सेवा और शिक्षा के नाम पर धर्मांतरण के कुत्सित षड़यंत्र में लगी इस संस्था का वास्तविक चरित्र समाज के समक्ष प्रकट हुआ. रमाबाई, जिनके नाम के साथ सम्मान सूचक शब्द के रुप में ‘पंडिता’ का प्रयोग किया जाता है वे वास्तव में सनातन धर्म की जड़ खोदने में व्यस्त थी.
शारदा सदन’ यथार्थ में ईसाई मिशनरी के एक अंग के रूप में धर्मान्तरण में लिप्त संस्था थी. जैसे ही इस बात की सूचना प्रसारित हुई, लोकमान्य तिलक ने अपने अख़बार ‘केसरी’ के माध्यम से इसका विरोध शुरू किया. केसरी के माध्यम से लम्बे समय से शारदा सदन में चल रहे सनातन समाज विरोधी षड़यंत्र का पर्दाफाश हुआ. लेकिन वही सनातन समाज की वही पुरानी पंथनिरपेक्षता की सनक के कारण यहां भी तत्कालीन समाज सुधारकों ने वास्तविकता जानने के बजाय तिलक का ही विरोध करना शुरू कर दिया. ‘सुबोध’ नामक पत्रिका में बकायदा तिलक के ऊपर व्यंगपूर्ण लेख लिखे गए और उन्हें स्त्री शिक्षा का विरोधी तक साबित कर दिया. ऐसे ही कितने ही अन्य आक्षेप उनके ऊपर लगाए गए.
‘आधुनिक भारतीय राष्ट्रवाद के जनक’ लोकमान्य तिलक क़ो साम्राज्यवादियों के साथ-साथ भारतीय मॉडरेट नेताओं और वामपंथियों ने सुनियोजित तरीके से भारत में रूढ़िवादी एवं समाज सुधार विरोधी व्यक्ति घोषित किया है. शुरुआत में तिलक के कट्टर विरोधी गोखले और उनके समर्थक मॉडरेट नेताओं के दल तथा वैलेन्टाइन शिरोल जैसे साम्राज्यवादी लेखकों ने यह मिथ्या धारणा फैलाई. इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए रजनी पामदत्त ने अपनी किताब ‘आज का भारत’ में एवं एम.एन. राय ने अपनी पुस्तक ‘ट्रांजीशन ऑफ इंडिया’ में लोकमान्य तिलक को ‘रुढ़ीवादी राष्ट्रीयता की पुनर्चेतना के जन्मदाता’ के तौर पर चित्रित किया. बाद में कुछ विदेशी विद्वानों यथा, हेनरिक क्रेमर ‘वर्ल्ड कल्चर्ज एंड वर्ल्ड रिलिजन्स’ में और आमूरे डे रेनकोट ‘सोल ऑफ इंडिया’ इत्यादि में, ने इस वैचारिक षड्यंत्र को अंतरराष्ट्रीय रूप में प्रचारित किया. ख़ैर, तिलक ने इन सभी आरोपों का प्रत्युत्तर देते हुए ‘केसरी’ में लिखा, “ईसाई महिलाएं स्त्री शिक्षा की आड़ लेकर हमारे समाज में घुसपैठ कर रही हैं. उनके समर्थक चाहे वे कितने ही बड़े विद्वान क्यों ना हो, हम उन्हें जनता और हिंदू धर्म के शत्रु ही समझेंगे.” (तिलक से आज तक, पृष्ठ-67).
जब विवाद बढ़ने से यह मसला सुर्खियां बटोरने लगा, तब इस संस्था को पार्श्व से संचालित करने वाली अमेरिका की ईसाई मिशनरी सोसायटी को इसमें हस्तक्षेप करना पड़ा. जैसा कि अनुमान था सोसाइटी ने रमाबाई का पक्ष लिया और उन्हें यह अधिकार दिया कि वह संस्था को जैसे चाहे वैसे चला सकती हैं. लेकिन लोकमान्य तिलक भी झुके नहीं और उन्होंने विरोध जारी रखा. तिलक का प्रभाव ऐसा था कि जनता का एक बड़ा वर्ग इसके विरोध में उत्तेजित होने लगा. अंततः इससे निर्मित सामाजिक दबाव से घबराकर रानाडे और आग़रकर भी ‘शारदा सदन’ के समर्थन से पीछे हट गए और उन्होंने यह घोषित किया कि चूंकि शारदा सदन को एक धर्मांतरण कराने वाली संस्था के रूप में संचालित किया जा रहा है, इसलिए वे उससे अपना संबंध तोड़ रहे हैं.
तब तक उन इलाकों में रमाबाई का विरोध बहुत तीव्र हो चला था. कुछ वर्षों के बाद रमाबाई शारदा सदन को पुणे से हटाकर ‘केडगांव’ ले गई और वहां उसे ईसाई संस्था ‘मुक्ति सदन’ का ही एक अंग घोषित कर दिया गया. कर्नाटक के गुलबर्गा में भी मिशनरीयों के धर्मान्तरण कार्य से रमाबाई जुड़ी रही. ईसाईयत के लिए समर्पित इसी सेवा भाव के लिए संभवतः यूरोप के चर्च 5 अप्रैल को उनकी याद में ‘फीस्ट डे’ के तौर पर मनाते हैं.
आज तक ईसाई मिशनरियों के धर्मान्तरण के जिस कुत्सित षड़यंत्र से सनातन समाज त्रस्त है, कभी रमाबाई इसका हिस्सा ही नहीं रही थी बल्कि अग्रिम दस्ते की नेतृत्वकर्ता भी थीं. अनायास ही नही था कि रमाबाई ने ब्रह्म समाज के आवरण में अपने कार्य कि शुरुआत की जो वैसे ही अपने ईसाई प्रभाव के लिए जाना जाता था. ‘रामधारी सिंह दिनकर’ लिखते हैं, “बाइबिल और ईसाई पुराणों का अध्ययन समाज के अंदर उत्साह से किया जाने लगा और ईसा मसीह ही सभी ब्रह्म-समाजियों के पूज्य पथ-प्रदर्शक हो गए. (संस्कृति के चार अध्याय, पृष्ठ-396). ध्यात्व हैं कि स्वयं गांधीजी भी सनातन समाज के विरुद्ध ईसाई मिशनरियों के षड़यंत्रों के कटु आलोचक थे एवं इनके धर्मांतरण के कार्य को सख्ती से बंद कराने के प्रबल समर्थक थे.
आश्चर्यजनक है कि सनातन समाज की महिलाओं के ऐतिहासिक शोषण पर लिखने वाली रमाबाई ने कभी भी उन तथाकथित प्रगतिशील पश्चिम की नारियों के विषय में उत्तेजना नहीं दिखाई जो ‘विंच हंट’ एवं ‘प्रिमा नॉक्टे’ जैसी बर्बर एवं गलीज़ परंपराओं के नाम पर दमन और शारीरिक शोषण का शिकार हुई थीं. दूसरी बात ये कि ज़ब वे धर्म परिवर्तित करके ईसाई बन चुकी थीं तो उन्हें क्या अधिकार था कि वे सनातन समाज के आतंरिक मामलों में हस्तक्षेप करती. अगर उन्हें सुधार का इतना ही व्यसन था तो सनातन धर्म के अंतर्गत रह कर प्रयास करतीं.
राममनोहर लोहिया लिखते हैं, “मनुष्य के इतिहास पर दृष्टि डालते हुए, यह याद रखना अच्छा होगा कि ऐतिहासिक खोज में अभी बहुतेरी असलियतों का पता लगाना है.”(इतिहास चक्र, पृष्ठ 13), हालांकि उपरोक्त विवरण प्राप्ति हेतु किसी विशेष परिश्रम की आवश्यकता नहीं है. समस्या हैं अध्ययन- मनन से दुऱ होते समाज क़ो इससे जोड़ने की तथा उसे इतिहास की वास्तविकता से परिचित कराने की, ताकि वे भविष्य के लिए सचेत हो सके.