मानवाधिकार की दमदार आवाज़ अनंताकाश के मौन मे डूब गई। वे बेजुबानो की आवाज थे। खुद चरैवेति-चरैवेति ऋषि परंपरा के अनिकेत थे। फिर भी न जाने कितनों को घर-गृहस्थी से भरा-पूरा बना दिया। वंचितों-पीड़ितों -शोषितों के ह्रदय मे धड़कन की तरह धड़कते रहे। वे खुद दाहक अग्नि मे धधकते रहे लेकिन उनके स्वर को सत्ता के केंद्रों ‘ दिल्लियों ‘ तक पहुँचाते रहे। उनमे पहाड़ जैसा धीरज और साहस था। वे लोकतांत्रिक हरबा-हथियारों से लैस होकर युद्ध की जन-मुनादी कर देते थे।
थोड़ा सा ठिठक कर भी यह नही सोचते थे कि सामने वाला कितना ताक़तवर है। हजारो हाथ- पाँव वाले आवारा पूँजी के ढेर पर बैठे थैलीशाहो से वे टकरा जाते थे। वे न तो सांसद रहे और न ही विधायक, फिर भी उनसे कम नही रहे। उनमे संघर्षों का ताप था। उनमे जन-संघर्षो के स्थान को संसद बना देने की क्षमता थी। देश के हर हिस्से मे उनके लोग सुखद यादों को गुनगुनाने वाले मिल जाएगे। प्रकृति की लीला ऐसी कि वे खुद तो बिखरे हुए थे। आधे-अधूरे थे। लेकिन ताउम्र लोगो को सजाते सँवारते रहे।
सिर्फ मनुज को ही नही, जल-जंगल-जमीन को भी। उनका जाना पूरब की उस बेधड़क आवाज़ का शांत हो जाना है, जिसकी हर आवाज़ दूसरों की विकल-वेदना और अधिकारों की रक्षा के लिए निकली हो। उनके विचारों की त्वरा ऐसी थी कि हम जैसे लोग उसी मे गुँथ कर जिंदगी के नए-नए अर्थ तलाशते थे। महाश्वेता देवी ने कहा था कि चलते फिरते आंदोलन है चितरंजन। अपने दौर के मशहूर शायर मिर्ज़ा ग़ालिब खुद टूटते हुए अपने युग की की प्रखर क्रान्तिकारी आवाज़ बन गए। शायर ग़ालिब ने कहा था कि ‘ मैं हूँ अपनी शिकस्त की आवाज़’।
उदारीकरण,भूमंडलीकरण और ग्लोबल गाँव ने जब ग़रीब-गुरबो को तोड़ना शुरू किया। उनके घरो में उदासी घोलना शुरू किया तो चितरंजन सिंह उन बेसहारों का सहारा बन गए। उनकी आवाज़ बन गए। वह आवाज मौन हो गई। अनंत मे विलीन हो गई। जाने के पहले काल के कपाल के संघर्ष वाले अध्याय पर हस्ताक्षर कर गई है।
चौदह जनवरी 1952 को उत्तर प्रदेश के बलिया ज़िले के सुल्तानपुर में शेर बहादुर सिंह वहाँ धरोहर देवी के यहाँ चितरंजन का जन्म हुआ। काशी से प्रयाग तक शिक्षा दीक्षा हुई। सफ़र को उन्होंने अपने पैरों में ही बाद लिया था। यात्रा, संघर्ष और जेल तीनों शब्द उनके जीवन में गहरे समाए हुए थे। पहली बार प्रेस विरोधी आन्दोलन में जेल गए।बोफ़ोर्स तोप सौदे की जाँच की माँग को लेकर भी जेल गए। समाजवादी चंद्रशेखर के बेहद क़रीबी थे। चंद्रशेखर जी ने उन्हें फक्कड़ कहा था। चितरंजन ने फक्कड़ीपना दिखाया भी। उनके प्रधानमंत्रित्व काल में अमरीकी जहाज़ों को तेल भरने की इजाज़त देने के विरोध में आंदोलन करने के दौरान जेल गए। चितरंजन में गद्य लेखन का अद्भुत कौशल था।
‘कुछ मुद्दे:कुछ विमर्श’ पुस्तक में उन्होंने अपने युग के सवालों के साथ सघन मुठभेड़ किया है। वे एक अच्छे स्तंभकार भी थे। दिनमान से उन्होंने लिखनाशुरू किया था और तमाम पत्र पत्रिकाओं में उनका नियमित लेखन होता रहा था। चितरंजन में इलाहाबादी बौद्धिक विमर्श और उसका ताप अपने शिखर पर था। छात्र जीवन में ताराचंद हास्टल, लल्ला चुंगी आदि अनगिनत जगहों की यादें उनके साथ जुड़ी हुई है, जो रह-रह कर झकझोर दे रही है। उनके शब्दों ने ,विचारों ने , मुझे जैसे तमाम लोगों को गढा है ,निखारा है ,सजाया है ,सवारा है। छात्र जीवन के बाद उनसे आख़िरी मुलाक़ात फैजाबाद( अब अयोध्या) में हुई। यहाँ प्रेस क्लब के एक कमरे में वे ठहरे हुए थे। कमरे की स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। जब मैं पहुँचा तो वे लाल-हरे रंग का गमछा लपेटे हुए बैठे थे। बहुत सी बातें हुई। अब बातें ही शेष रह गई है। आप को अलविदा लिखते हुए मन भारी हो जा रहा है और आँखें नम हो जा रही है।