धर्मों एवं पंथों की वैचारिकी का प्रादुर्भाव मानव सभ्यता की आध्यात्मिक व नैतिक उन्नति के सन्मार्ग निर्धारित करने के हुआ लेकिन बीतते वक्त के साथ यह धार्मिक-पंथीय प्रेरणाएँ अपने विभिन्न मान्यताओं के विश्वासी समुदाय के मध्य टकराव का बायस बनी. क्योंकि इनकी सैद्धांतिक पृष्ठभूमि को आध्यात्मिकता एवं ईश्वरीय प्रेम के बजाय अपनी श्रेष्ठता और स्वप्रसार की शक्ति के रूप में ही समझा तथा स्वीकृत किया गया. मध्यकालीन इतिहास इसका गवाह है तथा वर्तमान वैश्विक संघर्ष भी इसकी पुष्टि करते हैं. फिलिस्तीन युद्ध का उदाहरण सामने है. स्वयं भारत दुनिया का वाहिद ऐसा मुल्क है जो इस्लामिक पंथीय सिद्धांत के आधार पर विभाजित हुआ.
हालांकि सारे वैचारिक टकराव के बावजूद भी इन सभी धार्मिक-पंथीय मान्यताओं में एक विचार सर्वनिष्ठ है कि सभी ‘नियतिवादी’ है यानि जो ईश्वरीय या प्राकृतिक विधान में निर्धारित है, वह जरूर होगा. लेकिन इसके अतिरिक्त साम्यता का एक और बिन्दु है जिस पर इनकी एकमतता है, वह है समलैंगिकता का विरोध.
इसे लेकर अब्राहमिक धर्म के पंथों का रवैया नितांत कठोर रहा है. इस्लाम एवं ईसाईयत के पंथीय क़ानून अप्राकृतिक या यूँ कहें कि समलैंगिक सम्बन्धों के विरुद्ध हमेशा से मुखर रहें हैं, बल्कि उन्होंने इसे कठोर दंडात्मक नियमों के अंतर्गत माना है जिनमें पत्थर से मारना, जिन्दा जलाना, सर कलम जैसी दंडात्मक विधियां शामिल रही हैं. परन्तु भारतीय धर्म-संस्कृति ने कभी भी इसे लेकर मुखर विरोध या कटु दाण्डिक नियमों का प्रावधान नहीं किया है. हालांकि याज्ञवल्क्यस्मृति-मिताक्षराटी का-प्रायश्चित्त भाग में निषिद्ध यौन कृत्यों पर चर्चा की गईं है और उनके लिए प्रायश्चित्त विधानों को सुझाया गया.
पिछले दिनों सिनेमा के माध्यम से इस विषय पर उपजे विवाद ने भिन्न स्थिति पैदा की ज़ब पाकिस्तान की टीवी इंडस्ट्री विवादों के केन्द्र में थी. फवाद खान- सनम सईद अभिनित टीवी शो ‘बरज़ख’ में पुरुषों के समलैंगिक रिश्ते दिखाये जाने पर विवाद खड़ा हो गया. बढ़ते सामाजिक विरोध के बाद निर्देशक असीम अब्बासी ने आधिकारिक बयान जारी करते हुए इसे बंद करने की घोषणा की. उसी समय भारत में शर्मिला टैगोर, मनोज वाजपेयी अभिनित फ़िल्म गुलमोहर को सर्वश्रेष्ठ हिंदी फ़िल्म समेत तीन राष्ट्रीय पुरस्कार मिले. पारिवारिक रिश्तों को विचारती इस फ़िल्म में विशेष रूप से दादी से लेकर पोती तक की पीढ़ी को महिला समलैंगिकता परोसने का प्रयास किया है. गुलमोहर में समलैंगिक दादी अपनी पोती के समान लिंग के प्रति रुझान को उकसाती हैं और उसका न्यायिक पक्ष सिद्ध कर रहीं हैं.
अब देखिये तो चलचित्र के माध्यम से दोनों ही राष्ट्रीय समाज के समक्ष समलैंगिकता परोसी गईं, तो पाकिस्तानी समाज ने उसका विरोध किया नतीजतन निर्माता-निर्देशक को उसे क्षमा-याचना के साथ वापस लेना पड़ा और टीवी समेत यूट्यूब जैसे दूसरे माध्यमों से उसे हटाना पड़ा. दूसरी ओर चूंकि भारतीय समाज, जो स्वयं को अधिक प्रगतिवादी मानता है और थोड़ा ‘वोग कल्चर’ का मुरीद है, अतः यहाँ समलैंगिकता को महिमामंडित करती फ़िल्म को सराहा गया, उसे पुरस्कृत किया गया.
इस विरोध और सराहना के मध्य बड़ा ही सामान्य सा सम्बन्ध है. सराहना उक्त विषय की समाज में स्वीकृति बढ़ाती है जबकि विरोध एक वर्जना पैदा करती है, वर्तमान ही नहीं बल्कि भावी पीढ़ियों के मस्तिष्क में. सिनेमा छाया का भ्रम है, मानव रचित माया जो ना होकर भी होने का एहसास कराती है. कला के एक माध्यम के रूप में सिनेमा दर्शक के चेतन-अवचेतन मनोवृतियों को प्रभावित करने सक्षम है.
ऐसा नहीं है कि हिन्दी सिनेमा में समलैंगिकता को सराहती, सहेजती फ़िल्में पहले नहीं बनी है, जैसे मीरा नायर की कामसूत्र, दीपा मेहता की फायर, पंकज बुटालिया की कारवाँ, अमोल पालेकर की दायरा, अलीगढ़, लेकिन इससे सम्बंधित फ़िल्म पहली बार ऐसी प्रशंसित और पुरस्कृत जरूर हुईं है.
दिखने में यह भले ही एक सामान्य घटना लगे लेकिन इसके निहितार्थ विशेष है. प्रश्न केवल यह नहीं है कि आपने किन स्वनिर्धारित मानकों पर सिनेमा को कला, अभिनय अथवा पटकथा की उत्कृष्टता के आधार पर राष्ट्रीय पुरस्कार के लिए चयनित किया, बल्कि मुख्य सवाल यह है कि आखिर ऐसे सिनेमा को पुरस्कृत एवं प्रशंसित करने के सार्वजानिक सन्देश के अर्थ को समझने का प्रयास क्यों नहीं किया गया?
गुलमोहर जैसी समलैंगिकता को महिमामंडित करती फिल्म को राष्ट्रीय स्तर के पुरस्कार से नवाजना उनके वैचारिकी को स्वीकार करने का सन्देश है. अब चुंकि राष्ट्रीय न्यायपालिका ने भी समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर करके ऐसे विचारों को राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृति दिलाने में बड़ी भूमिका निभाई है तो इसे लेकर मुखरता बढ़ना स्वाभाविक है. हालांकि यौन अभिरूचि हमेशा से व्यक्ति विशेष की निजता है और मनुष्य के निजी भाव या रूचि के विरुद्ध का विचार मूर्खतापूर्ण है किन्तु वही तक जहाँ यह सर्वसमाज की व्यवस्था को हानि नहीं पहुँचाता. निजता तब तक ही शोभनीय लगती है ज़ब तक वह सार्वजानिकता को दुष्प्रभावित ना कर रही हो.
अतः ज़ब व्यक्तिगत उन्मुक्तता में निजी यौन अभिरूचि को सामाजिक आदर्श दिखाने और सर्व स्वीकृत कराने का प्रयास होगा तो उस पर चर्चा भी होगी और आवश्यकतानुसार विरोध भी होगा.इस विध्वन्सक एवं समाजद्रोही वोग कल्चर के नुमाइंदे चाहे जितने तर्क दें लेकिन समलैंगिक सम्बंधों की सामाजिक-क़ानूनी स्वीकृति राष्ट्रीय समाज के लिए विघटनकारी ही सिद्ध होना है.
शायद सरकार-प्रशासन एवं शीर्ष पर बैठा राष्ट्रीय नीति निर्धारक वर्ग यह समझने में असमर्थ है कि यह मात्र भौतिकता प्रधान्य युग ही नहीं है बल्कि सशक्त कर्मों से निर्मित कृतयुग भी है. जिस समय कर्म की नैतिकता के मानक पूर्णतः ध्वस्त कर दिये जायेंगे उस समय समाज अराजकता में डूब जायेगा. जायसी कहते हैं, ‘का भा जोग कथनि के कथे | निकसे घिउ न बिना दधि मथे |’ तात्पर्य यह है कि आचारशील व्यक्ति ही इस समाज में प्रतिष्ठा पाता है. और ऐसे ही विचारों को भी सार्वजानिक प्रतिष्ठा प्राप्त करने का अधिकार भी है.
सिनेमा का सौंदर्य शास्त्र नग्नता एवं निषिद्ध यौनिकता के प्रदर्शन से इतर भी बहुत कुछ है. कला अवचेतन मन भावों से उत्पन्न होकर चेतन प्रयोजन का सूत्रपात करती है, जिसके मूल में सृजन की प्रेरणा एवं आनंदानुभूति की कामना लक्ष्यित होती है. लेकिन हिन्दी सिनेमा अब समाज को जोड़ने से अधिक तोड़ने को उद्यत है.सिनेमा या टीवी सीरियल मात्र संपादन एवं निष्पादन कलाओं के मात्र सीमित क्षेत्र नहीं हैं बल्कि इन्होंने युवाओं के अवचेतन मन को अधिकृत करते हुए एक ऐसे यूटोपिया का निर्माण कर लिया है जहाँ उनकी सही-गलत सभी बातें समाज प्रभावित करती हैं. आज बढ़ते यौन हमले, बलात्कार, यौन रोगों का प्रसार, विवाहेत्तर सम्बन्ध जैसे कई दुर्गुण समाज को खोखला कर रहें हैं जिसे उभारने में फ़िल्में भी बराबर की अभियुक्त हैं. इसलिए सिनेमा को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के रूप में विषमता परोसने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए.
यह सही है कि फ़िल्में अकसर अपने दौर के सामाजिक-राजनैतिक पृष्ठभूमि को अभिव्यक्त करने का प्रयास करती हैं. आज के स्वच्छन्द युग में यौन वर्जनाओं जैसे समलैंगिकता पर चर्चा करने या सिनेमा द्वारा उसके प्रस्तुतिकरण पर कोई आपत्ति नहीं है किन्तु सिनेमाई जगत के लिए यह समझना जरुरी है कि इसको प्रमाणित करने या न्यायिक ठहराने के बजाय उसे इसके मूलभूत प्रवृत्ति और उसके कारकों की पड़ताल के पश्चात् इसके उचित-अनुचित पक्ष के निर्णयन को दर्शकों पर छोड़ देना चाहिए.
लेकिन वास्तविकता में सिनेमा का ध्येय समलैंगिकता को महज सनसनी एवं उत्तेजना प्रसार के विषय-वस्तु के रूप में प्रयोग करने की है, बजाय इसके की वह ऐसी विकृत प्रवृत्तियों के अस्तित्वमान होने या इनके उभार के उत्तरदायी सामाजिक-सांस्कृतिक कारकों का विश्लेषण करें. यानि उसका रुख इसे लेकर जिम्मेदारिपूर्ण एवं संजीदा होना चाहिए था जबकि उसकी प्रवृत्ति इसके सर्वथा विपरीत है.
हिन्दी सिनेमा के वैचारिक पक्ष की बहुधा स्थिति ऐसी हो गईं है कि यहाँ नैतिकता तलाशना स्वयं में एक मूर्खतापूर्ण सोच है. सिनेमा अब कला की श्रेणी से निकलकर व्यवसाय की श्रेणी में सम्मिलित हो चुका है इसलिए कला की नैतिकताएं यहाँ प्रभावी नहीं रह गईं हैं और व्यवसाय तो यूँ भी नैतिकताविहीन होते हैं. लेकिन ज़ब व्यवसाय मानव समाज को क्षति पहुंचाते हैं तो उन्हें भी जाँच और दंड का सामना करना पड़ता है. जैसे कोका कोला और पेप्सी अपने पेय में कीटनाशक होने के आरोप में जाँच का सामना कर चुके हैं वैसे ही व्यावसायिक सिनेमा को भी कला की. उन्मुक्तता की ओट में सामाजिक ध्वन्स की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए.
सामान्य सिद्धांत है, जातियों के उत्थान एवं पतन की प्रक्रिया उनके जीवन दर्शन की श्रेष्ठता अथवा क्षुद्रता पर निर्भर करती है. यह एक शाश्वत् नियम है. जैसे पाकिस्तान एवं मध्य पूर्व के इस्लामिक देश अपने पंथीय मान्यताओं में उन्मादी बन गये हैं इसलिए उसकी सामाजिक संरचना मजहब आधारित हिंसा एवं क्रूरता से भरी वीभत्स हो चुकी है. दूसरी ओर पश्चिम के देश तर्कहीन आधुनिकता से प्रेरित होकर वैचारिकीहीन दुविधा एवं सामाजिक विखंडन से जूझ रहें हैं. और समस्या ये है कि भारत जैसे विकासशील से विकसित बनने की त्वरा में शामिल. देश भी अब इसी कतार में शामिल हो रहें हैं.
असल में भारत समेत पूरे पूर्वी एशिया तथा पश्चिम जगत में आधुनिक से आधुनिकतम बनने की त्वरा ने मानव समाज को एक ऐसी तर्कहीन दौड़ में धकेल दिया है जहाँ नैतिकता का कोई दायरा ही शेष नहीं रहा है. अमेरिका-यूरोप के देशों की अति-भौतिकतावादी दर्शन पर निर्भरता उनके सामाजिक-नैतिक जीवन को पतित कर रही है. लेकिन यथार्थ में यह मूल्यहीन सभ्यता की उन्मुक्तता मानव गरिमा की मृत्यु की राह है.
कहना होगा कि उक्त विचार के दायरे में भारतीय समाज भी अपवाद नहीं है जो शनै:-शनै: अब यूरोपीय मान्यताओं एवं वैचारिक का मुरीद होता जा रहा है. आखिर समलैंगिकता की स्वीकृति और उसे राष्ट्रीय स्तर पर तरजीह देने का और क्या अर्थ निकाला जाये. आज मूल्यों के टकराव एवं आधुनिकता के बवंडर में भारत की सांस्कृतिक विरासत तथा उसके नैतिक संस्कार दांव पर लगे हैं. अब उसे तय करना ही होगा कि उसे अपने जीवन- दर्शन को कौन सी दिशा देनी है और वो कम से कम समलैंगिकता जैसी मानसिक विकृतियों को सराहने की तो बिलकुल भी नहीं होनी चाहिए.