जुलाई 1896 में ज़ब लुमियरे बन्धुओं ने पहली बार भारत में सिनेमा का प्रदर्शन किया तब यह कला से अधिक कौतुहल का विषय था. भावना के रूप से कला मनुष्य द्वारा अपने मनोगत भावों को सौंदर्य के साथ दृश्य रूप में व्यक्त करने की विधा है. इसी के प्रतिरुप सिनेमा को ‘सातवीं कला’ (सेवेंथ आर्ट) कहा जाता है जो प्रतिनिधि कलाओं (रिप्रेजेन्टेटिव आर्ट) और निष्पादन कलाओं (परफॉर्मिंग आर्ट) के संयोग से बना है.
कला के क्षेत्र में तो यह राष्ट्र पहले से ही समृद्ध था. भारतीय मनीषा में ‘नासदीय’ सूक्त मानव हृदय की सर्वप्रथम सौंदर्याभिव्यक्ति रहा है. इस भावना को कालिदास के मेघदूतम से लेकर तुलसीदास के रामचरितमानस में देख सकते हैं जहाँ ‘सोह नवल तनु सुंदर सारी। जगत् जननि अतुलित छबि भारी’ जैसे सौंदर्य का बोध है. लेकिन सिनेमाई कला एक आयतित माध्यम रहा है. इसमें कोई संदेह नहीं कि सिनेमा का पाश्चात्य वैज्ञानिक प्रेरणा की उपज है.अतः उसकी भावनाएं यांत्रिकता से बहुधा प्रेरित रहीं है.
अस्तित्व में आने के बाद से वर्तमान समय तक सिनेमा निरंतर चर्चा एवं विवादों को आकर्षित करता रहा है. चाहे वह 1933 में कर्मा फ़िल्म में देविका रानी एवं हिमांशु राय का चुम्बन दृश्य हो या किस्सा कुर्सी के नाम पर सरकार से विवाद. वर्तमान में भी विवाद उभरे है किन्तु वज़ह सतही नहीं है. यह विचारधारा एवं ‘एजेंड़ा’ प्रसार का वैचारिक द्वन्द है. सावरकर और रजाकर जैसे यथार्थ पर आधारित सिनेमा ने छद्म सेक्युलर राजनीतिज्ञों एवं वामपंथी बुद्धिजीवी वर्ग को ललकारा है. हालांकि इन विवादों की वज़ह वर्तमान कालखंड के विषय परिदृश्य जरूर दिख रहा हैं किन्तु इसका आधार अतीत में निरुपित है.
असल में 1913 में दादा साहब फाल्के द्वारा प्रदर्शित राजा हरिश्चन्द्र के पश्चात् पारसी थिएटर से जुड़े कलाकारों एवं पारसी सेठों का ध्यान इस नया कलाविधि की ओर गया और दो दशकों में ही 1930 तक बारह सौ से अधिक फिल्मों का निर्माण हुआ. जिनका मुख्य विषय धार्मिक आख्यायिकाएं थीं. लेकिन इसी दौरान एक मद्धिम सी धारा थी जो सामाजिक सुधार के लक्ष्य के साथ गतिशील हुईं.असल में जिस समय सिनेमा का प्रवेश भारत में हुआ तक देश सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन के संक्रमण से गुजर रहा था इसलिए जल्दी ही सिनेमा भी उस धारा के संगत हो गया. वी.शांताराम की फ़िल्में दुनिया न माने, पड़ोसी, दहेज़, दो आंखे बारह हाथ जैसी सुधारवादी फ़िल्मों के साथ ही, 1922 में धीरेन्द्र गाँगुली की इंग्लैंड रिटर्न, बाबूराव पेंटर की सावकारी पाश जैसी तीखे सामाजिक व्यंग व्यक्त करती फ़िल्में भी बनी.
फिर 1917 की रूसी क्रांति से अनुप्राणित वामपंथ के उभार एवं युवा वर्ग में इसके आकर्षण से सिनेमा धीरे-धीरे प्रभावित हुआ. 1940 से 1950 के बीच, नया संसार, रोटी, उदायर पाथेय, धरती के लाल, नीचा नगर के माध्यम से सिनेमा समाजवाद की लड़ाई लड़ रहा था. और वैसे भी 1920 के दशक में महात्मा गाँधी भारतीय समाज के मूलभूत परिवर्तन की आवाज लगा ही रहे थे. लेकिन तब भी इन्हें स्वतंत्रता आंदोलन में ना कोई स्वीकार्यता मिली और ना ही सामाजिक जीवन में कोई विशेष सम्मान. जैसे कि महात्मा गांधी, जिन्होंने अपना पूरा जीवन का उत्तरार्ध सामाजिक समानता स्थापना, एवं छुआछूत समाप्ति के लिए समर्पित कर दिया. लेकिन वह भी ‘अछूत कन्या के निर्माता के बहुत आग्रह के बाद भी उनकी फिल्म देखने को तैयार नहीं हुए.
हालांकि ब्रिटिश सत्ता से स्वतंत्रता के पश्चात् अगले दो दशक बीतने तक वामपंथी बौद्धिक जमात में कांग्रेसी सत्ता की क्षत्रछाया में सरकार संस्थानों में मोटी तनख्वाह, एवं वतानूकुलित कमरों में प्रगतिशीलता एवं नये समाज के निर्माण की ज़बानी जुगाली चालू रखी. सत्तर के दशक तक आते-आते नेहरू का निज़ाम पथभ्रष्ट हो चला था और संविधान एवं. लोकतंत्र को इंदिरा के रूप में वंशवादी कुदृष्टि लग चुकी थी. संपूर्ण क्रांति आंदोलन और जनता सरकार दोनों औधे मुँह गिरे. अस्सी के दशक में देश नक्सलवाद और खालिस्तान के दोतरफ़ा संकट से जूझ रहा था और यह राष्ट्रव्यापी अव्यवस्था का दौर वामपंथ को अपने बौद्धिक प्रसार के लिए उपर्युक्त लगा क्योंकि विपदा में अवसर और विघटन को त्वरा प्रदान करना तो उसका घोषित चरित्र रहा है. 70 के दशक में नारीवाद, भ्रष्टाचार, सामाजिक विभेद, उन्मुक्त सेक्स, राष्ट्रवाद की मुखाल्फत जैसे मुद्दों की आड़ में वामपंथी-जिहादी विचारों के प्रसार नया दौर प्रारम्भ हुआ. 90 का दशक देश में उदारीकरण के झंझावत का था. वही इसी समय वैश्विक स्तर पर कम्युनिज्म एवं सोवियत संघ की मशाल बुझने लगी तब भारतीय वामपंथी थोड़े कमजोर जरूर पड़े लेकिन उनकी हिंदू धर्म-संस्कृति से नफरत यथावत बनी रही. अब इस सांस्कृतिक विघटन की कमान भूमंडलीकरण (ग्लोबलाइजेशन) ने संभाली. उदारीकरण ने ना सिर्फ सिनेमा को बदला बल्कि प्रदर्शन के माध्यम भी बदले. एक नये मंच के रूप में ओटीटी ने सिनेमा को डिजिटल युग में पहुंचा दिया जिसने यौनिकता एवं हिंसा को व्यक्तिगत कुंठा के स्वरुप को मोबाईल की निजता के साथ पल्लवित होने का मार्ग उपलब्ध कराया है. लेकिन इस दौर तक आते-आते पश्चिमी पूँजीवाद के विरोध में वामपंथियों ने इस्लामिक कट्टरपंथ का दासत्व स्वीकार कर लिया था.
वास्तव में सिनेमा के विकास के समानांतर हमेशा से वामपंथ प्रेरित वैचारिक षड़यंत्र एवं बौद्धिक आक्षेप की प्रक्रिया देश में लगातार चल रही थी. जिसका अतीत भी पुराना है. मध्यकाल में ज़ब यूरोप पुनर्जागरण से आह्लादित हो रहा था तब अलसाया साहित्य भी नवमार्ग-नवचेतना का अनवेशी बना जैसा कि फ्रांसीसी साहित्यकार रेबेलास का मन्त्र, ‘प्यास- बौद्धिक और नैतिक प्यास, अनुभव की प्यास, यथार्थ की प्यास.’ तो इस साहित्य की प्यास को आप 19वीं सदी के वामपंथी बौद्धिक जुगाली में देख सकते हैं क्योंकि बुकासियो, पैटार्क, दांते से लेकर जाफरे, मूर तक की विस्तृत परंपरा ने प्राचीन धार्मिक-सामाजिक मान्यताओं के विरुद्ध मानववाद एवं भौतिकतावादी दर्शन का एक आधार तो प्रदान कर ही दिया था. जिसे साम्यवाद-मार्क्सवाद ने अपने भौतिकतावादी सन्दर्भ में थोड़े,-बहुत बदलावों के साथ आत्मसात कर लिया.
ज़ब 19वीं सदी के उत्तरार्ध एवं 20वीं सदी के शुरुआती दशकों में यूरोपीय वामपंथ से संक्रमित सज्जाद जहीर, सोफिया वादिया, मौलवी अब्दुल हक, मुंशी दयानारायण, अहमद अली, जोशी मलीहाबादी, शिवदान चौहान, बलराज साहनी, ख्वाजा अहमद अब्बास, सलिल चौधरी, उत्पल दत्त, करुणा बनर्जी ऋत्विक घटक, मृणाल सेन, अमर शेख, पृथ्वीराज कपूर जैसे वामपंथी बौद्धिकों, कलाकारों एवं संगीतकारों ने सिनेमा उद्योग में पैर पसारा.
जिनका प्रथम ध्येय देश के सनातन संस्कारों की तथाकथित जड़ता एवं ‘नीलांबर परिधान’ वाली भारतमाता का आभामण्डल नष्ट करना था.
इसी ध्येय के अनुरूप पं. जवाहरलाल नेहरू के आशीर्वाद से प्रगतिशील लेखक संघ (1936) एवं बाद में पीसी जोशी एवं सज्जाद जहीर जैसे कम्युनिस्ट नेताओं के समर्थन से इप्टा (1943) जैसे संगठन अस्तित्व में आये. बाद में यही वामपंथी जमात सिनेमा जगत के पटकथा लेखन, निर्देशन, अभिनय, संगीत, गायन जैसे विविध क्षेत्रों में काबिज हुईं और अपने कला की ओट स्वघोषित एजेंडे को लागू करने में लग गईं.
परन्तु ऐसा नहीं था कि देशीय वर्ग इनका प्रतिकार नहीं कर रहा था. ‘परिमल’ मंडली जैसे संगठन एवं बांग्ला साहित्यकार सजनीकांत दास जैसे लोग विरोध कर रहे थे लेकिन नये समाज के निर्माण के उदाहरणविहीन रुमानी दावे से उनका प्रतिरोध वामपंथी सम्मोहन के समक्ष क्षीण रहा. ऊपर से नेहरूवादी निज़ाम में वामी-कमियों की पौ-बारह थी. कांग्रेसी सत्ता के निर्देश पर उनके साथ पूरा सरकारी तंत्र खड़ा था. हालांकि बाद में धर्मवीर भारती से लेकर सत्यभक्त एवं कवि ग़दर जैसों के वैचारिक पलायन ने इनकी आत्ममुग्धता को करारी चोट दी. आज 2014 के बाद पिछले एक दशक के नवसत्ता कालखंड में उभरे हिन्दू पुनर्नजागरण के राष्ट्रीय आंदोलन ने उसी सुसुप्त बौद्धिक प्रतिरोध को उभारा है जिसे वामपंथ समर्थक कांग्रेस सत्ताकाल में दमित किया गया था.
आधुनिक युग विचारधाराओं की सीमाओं को संकीर्ण मानने के विद्रोह में ही अपनी महत्ता समझ रहा है. ऐसे में वामपंथ के अंदर पल रही कुंठित भौतिकतावाद ने अब पश्चिम के एवं भोगवाद के साथ मिलकर अपनी दमित यौनिकता एवं हिंसात्मक दुराग्रहों की पूर्ति का मार्ग खोज लिया है. उसे ज्ञात है कि सोवियत संघ के अनुभव के पश्चात् अब दुनिया इस नये समाज के निर्माण के झांसे में नहीं आने वाली. स्वयं भारतीय समाज भी नक्सलवादी आंदोलन के अनुभव से यही सबक लिये बैठे हैं इसलिए आधुनिकता की इस समाज एवं संस्कृतिद्रोही वृत्ति में ही वामपंथ ने अपनी वैचारिक लिप्सा का प्रारब्ध तलाश लिया है.
राजनीतिक-सामाजिक आंदोलनों के मार्ग में दक्षिणपंथ के हाथों पराजित, अपमानित एवं राष्ट्रीय समाज द्वारा अस्वीकृत वामपंथ ने अपनी प्रासंगिकता का मार्ग बौद्धिकता एवं कला प्रदर्शन में तलाश लिया. अतः वामपंथ अनुप्राणित सिनेमा भी इसी दुरभी-सन्धि का एक भाग रहा है. ज़ब किसी राष्ट्र की आध्यात्मिक चेतना को खंडित करना हो तो सर्वप्रथम उसकी सांस्कृतिक विरासत को नष्ट करना होता हैं. 1920 के दशक के बाद और विशेषकर सत्तर के दशक से वर्तमान तक वामपंथी धारा के सिनेमा ने यही किया है.
जैसे कि कला के नाम पर सिनेमा जगत में वैकल्पिक धारा के मुख्य प्रवर्तकों में सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक और मृणाल सेन जैसे लोगों ने भारत और भारतीयता को अक्सर अपने प्रगतिशीलता के नाम पर बड़े ही कठिन स्वरूप में प्रस्तुत किया. जिसका आम भारतीय ही नहीं बल्कि स्वयं सिनेमा जगत ही विरोधी था. स्वयं एक बार फिल्म अभिनेत्री नरगिस में संसद में उनकी आलोचना करते हुए कहा था कि वह पश्चिमी देशों में तारीफ अपने के लिए भारत की गरीबी का चित्रण करते हैं. यह यही नहीं रुक श्याम बेनेगल अडूर गोपालकृष्णन, और ऐसे ही कुछ निर्देशक जिन्होंने समानांतर सिनेमा के नाम पर जाति प्रथा, सेक्स और सामाजिक रूढ़ियों को अत्यंत ही विद्रूपता एवं अतिरंजना के साथ प्रदर्शित किया. इसके लिए वे नेहरूवाद की छाया में देश के तमाम संस्थाओं में ना केवल सम्मानित और पुरस्कृत होते रहे बल्कि विदेशों में वह एक तरह से भारतीय कला फिल्मों के प्रवर्तक ही माने गए.
खास विचारधारा से पोषित सिनेमा जब किसी समाज को नुकसान पहुंचाने लगे तब वह कला नहीं रह जाती. यह बात दक्षिण ही नहीं मध्यम मार्ग की राजनीतिक धारा भी समझ रहीं थी. भारतीय सिनेमा पतित करने पर आमादा है. भारतीयता के विरुद्ध यह षड्यंत्र उन्मुक्त यौनिकता, युवा भटकाव, अनावश्यक सामाजिक विद्रोह की भव्यता प्रदर्शित करना, पारिवारिक मूल्यों का क्षरण जैसे कई मसलों पर दिखा. उस पर यह आरोप भारत के स्वतंत्रता के बाद से ही लग रहे हैं.1953 में मद्रास के मुख्यमंत्री राजगोपालाचारी ने यौनिकता एवं हिंसा पर केंद्रित फिल्मों के भारतीय युवाओं को पथभ्रष्ट करने का आरोप लगाया उन्होंने फिल्म निर्माता से अपने सरम में यौन अपील को कम करने एवं धार्मिक विषयों पर फिल्म बनाने की अपील की. पुनः नवम्बर, 1954 में राज्यसभा सदस्य श्रीमती लीलावती मुंशी ने सिनेमा के कारण देश के नैतिक स्वास्थ्य के खतरे और अपराध और सामाजिक अव्यवस्था फैलने का प्रमुख कारण मानते हुए राज्यसभा में कहा था, “सिनेमा में वह ताकत है कि वह या तो किसी पीढ़ी और देश को सही दिशा दे सकती है या उसे बर्बाद कर सकती है.” तो कुल जमा निष्कर्ष यह है कि हिंदी भारतीय सिनेमा भारतीय संस्कृति और संस्कारों को बर्बाद करने की पूरी मुहिम में लगी हुई है.
तुष्टिकरण की सिनेमाई रणनीति —
तुष्टिकरण एक ऐसा शब्द है जिसे आरोप-प्रत्यारोप राजनीति पर का आरोप लगाते हैं लेकिन इस देश में व्यवस्थित एवं संस्थागत तुष्टिकरण सिनेमा उद्योग ने किया है. वह राष्ट्र-विभाजन की मुख्य जिम्मेदार मुस्लिम वर्ग के स्वागत के लिए बिछ गया. गीतकार पटकथा लेखक गायक संगीतकार निर्देशक से लेकर अभिनेता और अभिनेत्री के लिए मुस्लिम समुदाय ने बहुसंख्यक को गया इस पुस्तक की अल्पसंख्यक वार्ड का उसकी छवि मीठे बहुसंख्यक विभाग की हो गई .
लेकिन यह वह दौर था जब देश का बहुसंख्यक समाज देश विभाजन की अपने पीड़ा से जूझ रहा था. कांग्रेस प्रायोजित ‘भाईचारे’ के तलवार से घायल उसके घावों से खून का रिसना अभी बन्द नहीं हुआ था. उसकी आंखों में इस्लामिक क्रूरता के दर्दीले मंजर अभी भी तैर रहे थे. ऐसे में भारत को काटकर रुक गये इस्लामिक समाज को स्थापित करने के लिए नये पैतरें आजमाये गये ‘नाम जिहाद’ का. वैसे भी सिनेमा की मायावी दुनिया हर हथकंडे जानती है. इसलिए युसूफ खान का नाम बदलकर दिलीप कुमार, हामिद अली खान का नाम बदलकर अजीत, बदरूद्दीन जमालुद्दीन काजी का नाम जॉनी वॉकर हो गया. फातिमा रशीद नरगिस, महजबीन बानों, मीना कुमारी बन गई और ऐसे ही ना जाने कितने मुसलमान हिन्दू नामों के साथ भारतीय सिने जगत में घुलमिल गये.
यहाँ तक की गर्म हवा, तमस, क्या दिल्ली क्या लाहौर,
जैसी श्रृंखलाबद्ध फिल्मों के माध्यम से मुस्लिम समाज के कट्टरपंथी अपराधों को भावनात्मक पीड़ा में ढालकर उसे हिन्दुओं से स्वीकृत भी कराया जा रहा था, उन मुसलमानों की पीड़ा जो स्वयं विभाजन के गुनहगार थे. यहां तक की इस बिरादरी ने सबसे अधिक नुकसान हिंदी को पहुंचाया. इस्लामी बिरादरी में पटकथा लेखन गीतकार संवाद लेखन के जरिए शुद्ध हिंदी को खालिस ‘हिंदुस्तानी’ जुबान में बदल दिया जो शुद्ध संस्कृत निष्ठ औपचारिक हिंदी से परिवर्तित होकर फारसी उर्दू मिश्रित हिंदी हो गई. और बीते समय के साथ इसे तहजीबी भाषा के रंगत में ढाल दिया गया. जबकि यह कोई भाषा नहीं बल्कि बुद्धिनाथ मिश्र के शब्दों में असल में उर्दू कोई भाषा नहीं बल्कि एक प्रकार का ‘माइंडसेट’ है.
हालांकि एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि कला, संगीत जैसे मानवीय सौंदर्य भावों को एकदम निषिद्ध-हराम मानने वाले इस्लामिक समाज के लोग धन-ऐश्वर्य देखते ही सिनेमा के विभिन्न विधाओं में लिप्त रहे यानि लाभ के अनुसार इस्लामिक मान्यताएं लचीली हो सकती है, यह कृत्य इसका प्रमाण है.
ख़ैर भारत के बहुसंख्यक हिन्दू समाज ने अपने परंपरागत सहिष्णु चरित्र के अनुरूप मुस्लिमों कलाकारों को सम्मान एवं स्नेह दिया. शाहरुख, सलमान आमिर खान जैसे अभिनेता ही नहीं बल्कि शबाना आजमी, तब्बू जैसी अभिनेत्रियां भी सराही गईं. दक्षिण के सिनेमा जगत के प्रमुख अभिनेता ममूटी जो कि वास्तव में एक मुसलमान है वह मानते हैं कि अपनी ढाई दशकों से अधिक की अभिनय यात्रा में कभी भी मुस्लिम पहचान उनके पेशे के आड़े नहीं आई. अब जरा इसी के बरअक्स पाकिस्तान के सिनेमा जगत ‘लॉलीवुड’ में एक परिचित हिंदू नाम याद कीजिये.
वामपंथी-जिहादी अधिप्रचार (प्रोपगेंडा) का षड़यंत्र —
हालांकि इसके बावजूद इन मजहबियों का पंथीय कुंठापूर्ण दृष्टिकोण ना केवल बना रहा बल्कि वामपंथी प्रश्रय के साथ शनै-शनै प्रकट भी होने लगा. ऐसा नहीं था कि सिनेमा के नाम पर सनातन. धर्म एवं उसके जातिगत विभेद का नेरेटिव एक दिन में सेट कर दिया गया बल्किआधुनिक सिनेमा सामाजिक एवं सांस्कृतिक विघटन पैदा करने के मनसूबे बनाने में लिप्त रहते हैं. 70 के दशक में इसके प्रणेता बने सलीम-जावेद जिनकी फिल्मों में हिन्दू देवी,-देवताओं को कोसते-गरियाते और मजार के झंडे एवं 786 के बिल्ले से मौत से लड़ते एंग्री यंग मैन के रूप में सनातन धर्म-संस्कृति के विरुद्ध जिहादी षड़यंत्र का लम्बा दौर चला जिसकी कमान अलग-अलग लोगों ने संभाली. हालांकि भारतीय सिनेमा में मुस्लिम सदैव वास्तविकता से परे अति उदात्त, कर्तव्यनिष्ट, ईमानदार दिखाए जाते रहे थे. फिल्मों में उनकी सकारात्मक का स्तर इतना उच्च होता था की नकारात्मकता शायद ही कभी नजर आती हो. सिनेमाई चरित्र में मुसलमान हमेशा ईमानदार दोस्त, बहादुर फौजी, चरित्रवान पुलिस वाले, दोस्ती के लिए मर मिटने वाले वफादार मित्र ही दिखते रहे.. लेकिन 70 के दशक में यह परंपरा और तीव्र हो गईं. जंजीर (1973) का शेर खान ईमानदार मित्र है जबकि फ़िल्म शान (1980) में अमिताभ और शशि कपूर साधुओं के भेष में जनता ढगते हैं. अपहरण वेब सीरीज (2022) देखिये, जिसमें एक साधु वेशधारी व्यक्ति देह व्यापार और ड्रग्स का अड्डा चलाता है.आप गोलमाल अगेन फ़िल्म देखिए. तांत्रिक के रूप में तब्बू भद्दे रूप से मन्त्र पढ़ती हैं. ये सनातन धर्म के मन्त्र पाठन को हास्यास्पद बनाने का तरीका है.
1992 में रिलीज तहलका मूवी में अल्ला रक्खा क़र्बला की कसम लेकर शहीद होने वाला फ़ौजी है जबकि सेना का हिन्दू जनरल गद्दार. बॉम्बे फ़िल्म (1995) का वो दृश्य याद कीजिये जिसमें भगवा झंडे और साधु संतों के जुलुस को देखकर मनीषा कोईराला, जो कि एक मुस्लिम युवती हैं, के चेहरे पर भय का भाव उत्पन्न होते दिखाया गया. कुछ वैसा ही दृश्य राममंदिर के लिए चंदा मांगते युवकों के समय का भी है. उसी फ़िल्म में नायक का ब्राह्मण पिता खुराफाती, कट्टर है जबकि लड़की का मुस्लिम पिता हालात का मारा रहम दिल.
सरफ़रोश (1999) में सीमा पार आतंक में भी मुस्लिमों के बचाव और हिन्दुओं को आक्षेपित करने के तरीके ढूंढे गये. बेचारा पाकिस्तान का आतंकी गवैया हिन्दू ज्योतिष के माध्यम से सीमा पार से हथियार और ड्रग्स मंगाता है जबकि ईमानदार इंस्पेक्टर सलीम देश को बचाता है. ऐसे ही हैदर (2014) में कश्मीरी आंतकवाद को सहानुभूतिपूर्ण दिखाने की कोशिश हुईं. ज़ब सिनेमा के माध्यम से ऐसे नेरेटिव सेट करने का प्रयास होता है कि मुस्लिम ‘भी’ देशभक्त हैं वे यकीनन देशभक्ति का वास्तविक अर्थ नहीं जानते. देशभक्ति का अर्थ है उस देश की भाषा, संस्कृति, सभ्यता, परंपराएं, साहित्य आदि सबसे निरपेक्ष प्रेम करना. जबकि इस्लामिक समाज में ये वास्तविक देशभक्ति एक तरह से अपवाद की है क्योंकि वे ‘क़िबला’ के दिशा-निर्देशन से आजाद हो ही नहीं पाते.
फ़िल्म इश्कजादे (2012) को याद करिये जिसमें भोली-भाली मुस्लिम लड़की को धोखा देकर राजनीतिक प्रतिशोध लेने वाला हिन्दू लड़का और उसका भ्रष्ट दादा. असल में ज़ब लव जिहाद के बढ़ते मामलों को एक नया मोड़ देने की कोशिश में सिनेमा ऐसे काल्पनिक तक़रीरे करता रहा है. पीके (2014) में तो आमिर खान का चरित्र खुलकर हिन्दू लड़कियों से प्रेम प्रसंग के लिए मुसलमानों का बचाव करता है. हालांकि पीके तो वैसे भी हिंदू धर्म का अपमान करने के लिए कला के नाम बेहूदगी की सारी सीमाएं लाँघ दी गईं. आप कुछ-कुछ होता है में उस छोटी हिन्दू बच्ची को देखिये जो अचानक नमाज पढ़ने लगती है और काजोल की शादी रुक जाती है. अब इसे प्रोपगेंडा नहीं तो और क्या कहेंगे?
मै हूँ ना (2004) में एक मुस्लिम किरदार कैसे भारत-पाकिस्तान की दोस्ती के लिए अपना बलिदान देता है और मुख्य आतंकी और खलनायक जो की एक हिन्दू है और पूर्व में बेचारे भोले-भाले मुस्लिमों को मारता है, को मारकर देश को पाकिस्तान के साथ दोस्ती करने का मार्ग सुगम करता है. बजरंगी भाईजान(2015) देखिये जहाँ पाकिस्तानियों को पूरी शिद्दत से दोस्ताना और अच्छे लोग दिखाने की कोशिश हुईं है. एक था टाइगर (2017) जिसमें भारत से दोस्ती के नाम पर जान पर खेलने वाले पाकिस्तानी है और साथ ही परोक्ष रूप से कश्मीर पर पाकिस्तानी प्रोपगेंडा भी है. लेकिन इन सभी में फिल्मों में एक बात समान है कि इनमें मुख्य अभिनेता हो या निर्देशक सब मुसलमान हैं. क्या इसे संयोग माना जाये या ‘कला जिहाद’ का दुर्योग?
याद होगा सैफ अली खान एवं जीशान अयूब की तांडव. में हिंदू आस्था का अपमान, जबकि 2018 में आई सेक्रेड गेम्स में तो हिन्दू आतंकवाद की काल्पनिक थ्योरी को अमलीजामा पहनाने की पूरी पटकथा तैयार की गईं थी. यह कांग्रेस सरकार की 2008 से 2014 तक की हिन्दू आंतकवाद के नेरेटिव का समुचित समर्थन था. आश्चर्य है कि फ़िल्म आर्टिकल 15 के माध्यम से हिन्दुओं की जातिप्रथा पर आक्षेप करने वाले सिनेमा ने कभी मुसलमानों के अशराफ़’, ‘अजलाफ़’, और ‘अरज़ाल’ के कटु जातीय विभाजन पर जागरूकता का प्रयास नहीं किया.
सिर्फ यही नहीं भारतीय संस्कृति के विभिन्न पक्षो समाज, भाषा आदि के ऊपर आक्षेप करती, उनका. उपहास करती फिल्मों की पूरी श्रृंखला सी है. जैसे भाषा के स्तर पर देखिये कि कैसे फिल्मों में हिंदी को अपमानित किया गया. शुद्ध हिन्दी बोलने वाले या तो मसखरी कर रहे थे जैसा कि चुपके-चुपके में धर्मेंद्र या फिर विश्वात्मा में गुलशन ग्रोवर महिलाओं के साथ बलात्कार कर रहे थे. वही सामाजिक संरचना के विरुद्ध दीपा मेहता की फायर (1996) में महिला समलैंगिकता को न्यायसंगत ठहराने एवं वाटर (2005) में विधवा मनोभाव व्यक्तिकरण के नाम पर भारतीय संस्कृति की अनावश्यक विद्रुपता प्रदर्शित करने का सुअवसर माना गया है.
परिवारों को तोड़ने के लिए सिनेमाई जहर का एक उदाहरण देखिए. 2023 में आई और सामान्य रूप से सफल भी रही फ़िल्म ‘तू झूठी मै मक्कार’. मुख्य अभिनेता एक सम्भ्रांत परिवार का है, सभी सदस्य अच्छे व्यवहार वाले हैं. लेकिन अभिनेत्री की दिक्कत है कि उसको परिवार के साथ नहीं रहना क्योंकि उसे आजादी चाहिए. वो रिश्ता तोड़ने के लिए पैसे देकर लोगों को किराये पर रखती है. अन्ततः सारी नाटकीयताओं के बावजूद ज़ब दोनों की शादी होती है तो बहु को ख़ुश रखने का जो फार्मूला निर्देशक दिखाता है वह सास खाना बनाकर दे, उसकी सेवा करे, बहु को कुछ भी पहनने, पार्टी करने बल्कि दारू पीने की आजादी वगैरह-वगैरह हो. इसके बाद ही वो खुश और परिवार के साथ रहेगी.
आपको थप्पड़ फ़िल्म (2020) याद होंगी. फेमनिज्म का इसका बड़ा बेहूदा प्रकरण दूसरा नहीं हो सकता. सम्भव है कि करियर में अचानक मिले बॉस के धोखे के गुस्से में वो लड़का अपनी बहन, भाई, दोस्त पर हाथ उठाता और निजी जीवन में हम आपने ऐसे कई प्रकरण देखें होंगे तो क्या इसके लिए परिवार ध्वस्त कर दिए जाये जबकि वह पूरे समय अपनी गलती के लिए माफ़ी मांगता रहता है.
ऐसी पटकथाएं केवल समाज के विखंडन को प्रेरित करने वाले कुतर्क और ऐसा सिनेमा चित्रात्मक षड़यंत्र लगता है. परन्तु सिनेमा के माध्यम से वामपंथी-जिहादी समूह में भारतीयता को चोटिल करने की इतनी लिप्सा क्यों हैं? असल में मनुष्य की इंद्रीय चेतना में आँखों द्वारा सीखे गये बोध को अधिक तीव्रता से आत्मसात किये जाते हैं इसीलिए आजकल की आधुनिक शिक्षा प्रणाली में छोटे बच्चों को प्रोजेक्टर द्वारा पढ़ाया जाता है. अतः इन्द्रियों के माध्यम से व्यक्ति के अवचेतन मन में अपनी प्रायोजित भावना को समायोजित करने की कला वामपंथी बौद्धिक षड़यंत्र का सदैव हिस्सा रहा है. उदाहरणस्वरुप ‘लालू राज’ में आरा में स्थापित वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय (1992) के परिसर में लगी हुईं बाबू कुंवर सिंह की प्रतिमा को सुनियोजित तरीके से इस्लामी टाइप की टोपी (कुफ़ी या तक़ियाह) पहनाई गई है बल्कि सम्पूर्ण विश्वविद्यालय के विभिन्न कक्षाओं एवं कार्यालयों में लगी तस्वीरों में उन्हें इसी रूप में प्रदर्शित किया गया है. अब ऐसे कौन से ऐतिहासिक स्रोत से कुंवर सिंह या किसी भी राजपूत रियासत के प्रतिनिधि या राजा को मुल्ला छाप टोपी पहनने का प्रमाण मिलता है. यह प्रमाण है दृश्य कला के माध्यम से आम युवाओं के मस्तिष्क में गंगा-जमुनी तहजीब के काल्पनिक विचार के प्रत्यारोपण का.
सिनेमा भी चलचित्र के माध्यम से यही करता रहा है. उपरोक्त सभी सिनेमाई उदाहरणों में वामपंथी-इस्लामिक जिहादी वैचारिक गठजोड़ की षड्यंत्री व्यवस्था देख सकते हैं.
सिनेमा और राष्ट्रवादी चेतना ——
अब वर्तमान विमर्श पर लौटते हैं. द कश्मीर फाइल्स,(2022), के बाद 2024 में आई स्वतंत्रता वीर सावरकर, आर्टिकल 370 एवं रजाकर जैसे फिल्मों के प्रदर्शन के विरुद्ध एक संगठित विरोध चलता रहा है. लेकिन क्यों है, क्योंकि सिनेमा की इस नई धारा ने वामी-मजहबी षड़यंत्र के विरुद्ध प्रतिरोध एवं सामाजिक-राजनीतिक जागरूकता की मुहिम संभाली है. अपने एक सदी से अधिक की यात्रा में पहली बार सिनेमा राष्ट्रवाद के यथार्थ को स्वीकार करने की दिशा में अग्रसर है. और यही वर्तमान विवाद की मूल वज़ह है.असल में वामपंथी एवं जिहादियों की सम्मिलित फ़ौज ने सिनेमाई कला के नाम पर कई दशकों तक बरगलाया लेकिन अब वास्तविकता के निरुपण पर चीख-चिल्ला रहें हैं. चूंकि इन फिल्मों ने हिन्दू प्रताड़ना, जिहादी षड्यंत्र जैसे राष्ट्रीय संकट कों नग्न रूप में प्रस्तुत किया अतः गंगा-जमुनी तहजीब का यूटोपिया ढहने लगा है इसलिए तुष्टिकरण की दुकानदारी करने वालों का आक्रोश समझा जा सकता है. जैसा कि द केरला स्टोरी (2023) के निर्देशक सुदीप्तो सेन कहते हैं कि लोगों की नाराजगी इसलिए है कि उन्होंने सच उजागर कर दिया.बीबीसी जैसी भारत विरोधी एवं कट्टरपंथ समर्थक मिडिया संस्थान ऐसी फ़िल्मों को सत्ताधारी पार्टी की विचारधारा, मनमाने ढंग की कहानियाँ, विचारधारा का हथियार और नया वैकल्पिक इतिहास बताने जैसे विशेषणों के प्रयोग से निंदा कर रहें हैं.
परन्तु सिनेमा की राष्ट्रवादी धारा के पथिकों को इससे परेशान होने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि प्रदर्शित कालाओं पर विवाद तो अनादि काल से चले आ रहे हैं. जैसा कि धार्मिक आख्यान बताते हैं कि स्वर्ग में पहली नाट्य प्रस्तुति पर ही हंगामा हो गया क्योंकि असुरों का मानना था कि एक दृश्य में उन्हें गलत ढंग से प्रस्तुत किया गया है. उन्होंने नाटक बंद कराने की धमकी दी. दैत्यों और असुरों के प्रतिनिधि मण्डल ने विरुपाक्ष के नेतृत्व में परमपिता ब्रह्मा से इसकी शिकायत की. तब ब्रह्मा जी ने उन्हें शांत करते हुए नाट्यसार समझाया, “नाट्य में एकमात्र तुम्हारा या देवों का अनुकरण नहीं है. नाट्य तो तीनों लोकों का भावनुकीर्तन (रचनात्मक अनुकृति) है.”
हालांकि इस वामी-कामी असुरों के विरोधी तर्कों कों देखें तो पहली बात तो यह कि सत्य कोई कहानी या विकल्प की कल्पना नहीं है. ये इतिहास और वर्तमान के अक्स पर हिंदुत्व के लहू चित्रित कथाएँ है जिन्हें जानना,-समझना राष्ट्रीय समाज के भविष्य के लिए दूसरा, हिंदुत्व के नेरेटिव के माध्यम से गुमराह करने का सही अर्थ संभवतः उन्हें नहीं पता या वे इसकी सत्यता की अनदेखी कर रहे हैं. तान्हाजी, सावरकर, रजाकर और कश्मीर फाइल्स जैसी फिल्मों के विषय में अगर किसी भी समूह को यह लगता है कि यह हिंदुत्व को के प्रचारात्मक क्रियाएं थीं तो एक बात तो सुनिश्चित है कि उसे हिंदुत्व का अर्थ नहीं पता है. ‘हिंदुत्व’ भारत का राष्ट्रीय दर्शन है कोई शामी पंथिक षड़यंत्र नहीं है. हिंदुत्व भारत के जीवन चरित की प्राणवायु है जैसा कि डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन लिखते हैं, ” हिंदुत्व एक प्रवाह है, कोई स्थिर स्थिति नहीं, यह प्रक्रिया है परिणाम नहीं. यह एक परंपरा है कोई स्थिर प्रकटीकरण नहीं.” बल्कि महात्मा गांधी के अनुसार, “हिन्दुत्व सत्य के अनुसंधान की सतत साधना है और यदि आज यह मृतप्राय, निष्क्रिय, विकास के प्रतिकूल हो गया तो इसका कारण है कि हम थक गये हैं और जैसे ही हमारी यह थकान दूर होगी, हिन्दुत्व सम्पूर्ण विश्व पर एक ऐसी प्रखर दीप्ति के साथ छा जायेगा जो सम्भवतः इसके पहले सभी के लिये अज्ञात होगा.” राजनीति से लेकर समाज एवं सिनेमा तक की राष्ट्रवादी धारा में राष्ट्रपिता गाँधी ज़ी की भविष्यवाणी के अनुरूप हिंदुत्व जाग रहा तो उसका विरोध नहीं सम्मान किया जाना चाहिए.
आगे मार्ग क्या हो —–
इस सिनेमाई षड़यंत्र के प्रतिरोध का मार्ग तलाशना होगा क्योंकि आधुनिक सभ्यता के युग में किसी कला-प्रतिरुप पर निषेध लादना ना तो संभव हैं और ना ही उचित. इसलिए सर्वप्रथम सरकार से यह अपील होगी कि उसके द्वारा नियंत्रित संस्थान यानि फ़िल्म प्रमाणन बोर्ड अपने मानकों को सिनेमाई अराजकता के विरुद्ध मजबूत करें ताकि युवा पीढ़ी में नैतिक संस्कार सहेजा जा सके. जैसा कि प्रख्यात फ़िल्म निर्देशक वी. शांताराम का कहना था, “हमें ये देखना होगा कि हमारी फिल्में राष्ट्रीय जीवन के तानेबाने से जुड़ी हुई हों और वे भारत की वास्तविकताओं को सही तरीके से गढ़े और चित्रित करें.”
दूसरे, सिनेमा की नई अवतरित राष्ट्रवादी विचारधारा को मजबूती से आगे बढ़ने होगा. उसे वामियों-जिहादियों एवं सबसे बढ़कर पश्चिमी भोगवाद के विरुद्ध कलात्मक प्रतिरोध करते रहने होगा और तीसरे सनातन धर्म की संस्कार परंपरा को अधिक प्रशंसित रूप में नई पीढ़ी को अपनाने के लिए प्रेरित करना होगा ताकि वह इन्द्रिय नियंत्रण एवं चारित्रिक उन्नयन की महत्ता से अवगत हो सके. यही राष्ट्रीय समाज के सुदृढ़ भविष्य का यथोचित मार्ग है.
क्योंकि पश्चिम की चिंतन प्रणाली स्वयं को विज्ञानवादी तथा पदार्थ को ही चरम सत्य मानती है. इससे प्रेरित उनका भौतिकवाद इन्द्रियगम्य बाहरी जगत को ही पूर्ण सत्य स्वीकार किये बैठा है. चूंकि मन को इंद्रियों से भी ऊपर माना गया है और पश्चात्यदर्शन तथा मनोविज्ञान भी मन को ही चरम सत्य मानता है. तब पश्चिम से आए भौतिकतावाद के इस संक्रामक रोग का सांस्कारिक प्रतिरोध ही भारत का भविष्य सुरक्षित रख सकेगा.
क्योंकि भारतीय दर्शन के अनुसार,
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्य परं मनः ।
मनसस्तु परां बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ।। (गीता – 3/42)
अर्थात् इंद्रियां शरीर से परे हैं इंद्रियों से परे रहे हैं मन.
, मन से भी परे है बुद्धि और जो बुद्धि से भी परे हैं वह है स्वयं ज्योति ज्ञानस्वरूप आत्मा. यह धर्म एवं संस्कृति का मार्ग है. यही वो तात्विक सत्य है जो सनातन धर्म से अनुप्राणित राष्ट्रीय चरित्र को संरक्षित करेगी और पश्चिमी भोगवाद एवं वामपंथी-मजहबी दुरभी सन्धि से राष्ट्र तथा राष्ट्रीय समाज की सुरक्षा सुनिश्चित करेगी.