सिनेमा: सांस्कृतिक आग्रह के समक्ष ढहता अधिप्रचार

शिवेंद्र सिंहसनातन पौराणिक मान्यताओं पर आधारित बहुभाषा में रिलीज फ़िल्म ‘कल्कि 2898 एडी’ ने बॉक्स ऑफिस पर कमाई के नये रिकार्ड कायम किये. रिलीज होने के मात्र 10 दिनों के भीतर इस फ़िल्म ने 500 करोड़ का आंकड़ा पार कर लिया. उम्मीद की जा रही है कि ये भारतीय सिने इतिहास की अब तक की सर्वाधिक कमाई करने वाली फिल्मों की सूची में शामिल हो सकती है.
बताते चलें कि यह फ़िल्म दक्षिण की सिनेमा इंडस्ट्री की उपज है. वैसे भी पिछले एक दशकों में बाहुबली, पुली से लेकर केजीएफ, पुष्पा, कांतारा, सालार जैसी फ़िल्में जिन्होंने बॉक्स ऑफिस पर बड़ी व्यावसायिक सफलताएं अर्जित की है, दक्षिण के कन्नड़, तेलुगू, तमिल सिने इंडस्ट्री की उपज हैं. लेकिन इसी के समकक्ष ज़ब हम भारत के मुख्य प्रतिनिधि सिनेमा यानि हिन्दी सिनेमा या बॉलीबुड की उपलब्धियों पर नजर डालते हैं तो यहाँ ऐसा कोई उल्लेखनीय उदाहरण नज़र नहीं आता. ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए हैं कि वर्तमान हिन्दी सिनेमा की पहचान ‘न्यून रचनाधार्मिता एवं रिमेक’ पर आधारित है और नकल तथा अयोग्यता के पास प्रदर्शित करने के लिए कोई उपलब्धि नहीं होती.
  वर्तमान निकृष्टता के पथिक हिन्दी सिनेमा के वैचारिक पतन की कहानी कई दशक पुरानी है. मजदूर नेता दत्तोपंत ठेंगड़ी कहते हैं, ‘जिस व्यक्ति का कर्म जीवन के परम लक्ष्य से मेल खाये, उसे सौंदर्यबोध से भी असंगत माना जाता है.’ हिन्दी सिनेमा की यही स्थिति है. धार्मिक, सांस्कृतिक अवलम्बन पर आधारित हिन्दी सिनेमा की शुरुआत पुण्डलिक, राजा हरिश्चन्द्र, भस्मासुर मोहिनी जैसी फिल्मों से हुईं लेकिन जल्दी ही यूरोप के आधुनिकता के वैचारिक नाले जर्मनी-फ्रांस से निकली वामपंथ की विचारधारा ने भारतीय राजनीति के साथ सिनेमा को भी प्रभावित करना शुरू किया जिसमें आगे चलकर इस्लामिक एवं ईसाईयत की शामी पंथीय एवं पश्चिम की भोगवादी संगत का भी असर पड़ा.  
 सिनेमा के वामपंथी स्वरुप की कहानी आधी सदी से अधिक पुरानी है.  द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् 1940 के दशक के अन्तिम वर्षों में यूरोप में फैली गरीबी, अभाव, निराशा को स्वर देने के लिए सिनेमा को अधिक वास्तविक रूप में ढाला गया, जहाँ छोटे कैमरों की मदद से आम जन की वास्तविकता का निरुपण किया गया. इसे ही ‘नव यथार्थवादी’ सिनेमा कहा गया, जिसका केन्द्र इटली था. इसके लगभग दो दशकों बाद फ्रांस में साहित्यकारों ने फ्रेंच सिनेमा को रुमानियत से परे सामाजिक-आर्थिक वास्तविकता से परिचित कराया. यही कला सिनेमा का संभाग बना जो सत्तर के दशक में एशिया से लेकर दक्षिण अमेरिका तक फैला और यही कला सिनेमा भारत में समानांतर सिनेमा कहलाया.
सिनेमा की इस नई परंपरा का मुख्य ध्येय भारत के राष्ट्रीय समाज में विभेद और विखंडवाद का वितंडा खड़ा करना था. लेकिन हिन्दी सिनेमा में दलित, मेहनतकश, गरीबों के जीवन निष्कर्ष को प्रतिबिम्बित करतीं हुईं उभरी प्रतिरोध की संस्कृति से भारतीय समाज में कोई तनाव या आघातकारी रोष कभी नहीं उत्पन्न हुआ. 1930-40 के दशक से ही अछूत कन्या, धर्मात्मा, चंडीदास, अछूत, नीचा नगर, नया संसार जैसी फ़िल्में इस धारा का प्रतिनिधित्व करतीं रहीं.
1950-60 के दशक में अपनी नीली आँखों के साथ वामपंथी स्वर में बातें करते राजकपूर आवारा, श्री 420, तीसरी कसम जैसी फिल्मों से किस्सागोई का एक नया संसार रच रहें थे लेकिन वामपंथ के मूल चरित्र के अनुकूल ज़ब उनपर भौतिकता एवं बाजारवाद हावी हुआ तो नारी देह के आवरण के पीछे पैसा बटोरने की मुहिम भी शुरू करने में वे हिचके नहीं. उनकी मेरा नाम जोकर, राम तेरी गंगा मैली,सत्यम शिवम सुंदरम, बॉबी जैसी फ़िल्में इसका प्रमाण हैं. हालांकि उसी दौरान ख़्वाजा अहमद अब्बास, बलराज साहनी, जिया सरहदी, राजेंद्र बेदी जैसी इप्टा की लीगी जमात सक्रिय हो गईं थीं जिसने उस आधारशिला की स्थापना कर दी थीं जो भविष्य में मूलभूत भारतीय संस्कृति के विरुद्ध सामाजिक विघटनवाद के प्रतीक सिनेमा का आधार बनने वाला था.
वामपंथ के इसी कुकथा के अंतर्गत बताते चलें कि भारत में फ़िल्म सोसाइटी आंदोलन का नेतृत्व सत्यजित रे ने किया था ताकि विश्वभर के फ़िल्म प्रशंसको, सौंदर्यवादियों का भारतीय सिनेमा की ओर ध्यान आकृष्ट किया जा सके. ये वही रे थे जो भारत की गरीबी और वंचना को सिनेमा के माध्यम से  विश्वभर में प्रसारित कर वाहवाही लूटने में गौरवान्वित महसूस करते थे. भारतीय वामपंथियों के ‘गॉडफादर’ पं. जवाहर लाल नेहरू ने फ़िल्मों की प्रचारक और प्रभावक क्षमता को समझ लिया था इसलिए उन्होंने सत्यजित रे की फिल्मों में काफी रूचि दिखाई, बल्कि वे तो इस बात के लिए आग्रही थे कि विदेशों में लोग राजकपूर की फ़िल्में देखें. उनकी बेटी और 20वीं सदी की पहली तानाशाह इंदिरा गाँधी सत्यजित रे के प्रति गहरी आस्था रखतीं थीं. उन्होंने इस सिनेमाई आंदोलन को अत्यंत उदारता से सरकारी सहायता उपलब्ध कराई. अतः सिनेमा के इस कालानुक्रम से उस राजनैतिक-सामाजिक पृष्ठभूमि को समझना सरल होगा जिसमें ये फ़िल्में स्वयं को अभिव्यक्त कर रहीं थीं.
हालांकि इसी बीच यानि 1960 से 80 के दशक में राष्ट्रवाद एवं भारतीय परंपरा की एक मुखर धारा भी थी जो वृहद तौर पर आम भारतीय दर्शकों द्वारा प्रशंसित होकर सफलता के नये प्रतिमान स्थापित कर रही थीं. इस धारा में देवानंद, मनोज कुमार से लेकर धर्मेंद्र तक की फ़िल्में थीं. जैसे गाइड, प्रेम पुजारी, उपकार, पूरब और पश्चिम, रोटी कपड़ा और मकान, क्रांति, हकीकत आदि जिन्होंने भारतीय बुद्धिवाद एवं राष्ट्रीय मूल्यों कों अपनी सिनेमाई अभिव्यक्ति में तरजीह दी
 ख़ैर वामपंथी सिनेमा की दृष्टि से 1970-80 का दशक नारीवादी विमर्श का उठान बिन्दु रहा है समाज के जातिवाद एवं धार्मिक रूढ़ियों से शोषित वर्ग की पीड़ा में नारी व्यथा केन्द्र में रहीं. इस दौरान अंकुर, निशांत, मृगया, मंथन, आक्रोश, चक्र, आरोहण, दामुल, पार, आघात, देव शिशु, महायात्रा जैसी वामपंथी नैरेटिव के अनुकूल फ़िल्में बनती रहीं. हालांकि प्रथमदृष्टया ये प्रगतिशील प्रयास की अभिव्यक्ति एवं समाज की सड़ान्ध को उघाड़ने का प्रयास लगता है किन्तु वास्तविकता में यह जो समाज के दलित, शोषित वर्ग की शिकायतों का लाभ उठाकर समाज में संघर्ष पैदा करने में प्रयासरत हैं. यानि इन दशकों के सिनेमा अपने मूल में ही सामाजिक विघटनवाद एवं वैचारिक वैमनस्य का प्रतीक था 
ऐसा भी कह सकते हैं कि ये आर्ट फ़िल्में वामपंथी मिजाज के अभिजात वर्गीय आराम कुर्सियों पर बैठकर कल्पना किये गये पलायनवादी अपेक्षाओं का परिणाम है क्योंकि इस समानांतर सिनेमा के अधिकांश स्वयंभू उन्नायक इसी वर्ग से जुड़े थे. 70 के दशक के पूर्व तक हिन्दी सिनेमा में एक नैतिक आवरण था कि इसने कभी भी सामाजिक बुराइयों को सकारात्मक रूप में प्रदर्शित नहीं किया लेकिन 90 के दशक के बाद तो ‘कुछ भी गलत नहीं होता’ की पश्चिमी जगत की वैचारिकी ने पूरा सामाजिक ताना-बाना ही नष्ट करना प्रारम्भ कर दिया. चलिए मान लेते हैं कि कुछ गलत नहीं होता, फिर तो लड़कियों का बलात्कार करने वाले भी ठीक हैं और नशे में सड़कों पर लोगों के ऊपर गाड़ी चढ़ाने वाले भी. लेकिन वामी-कामी कुतर्कियों को कौन समझाये?
 समय-चक्र के अनुरूप 90 के दशक में सोवियत संघ ढहा और वामपंथियों का सिनेमाई एन्द्रजालिक तिलिष्म भी. इस दौर में उदारवादी और भूमंडलीकरण के आकांक्षी हिन्दी सिनेमा ने जो पश्चिमी उपभोक्तावाद को आत्मसात किया, उसी का परिणाम है आज नगईं पर उतरी, गाली-गलौज करतीं, उन्मुक्त यौनिकता एवं भारतीय धर्म-संस्कृति का उपहास करता वर्तमान सिनेमा. अब वामपंथी जमात लज्जा, मातृभूमि, लाल सलाम, पीपली लाईव, चक्रव्यूह, अलीगढ जैसी फ़िल्में बनाकर खुद को प्रासंगिक रखने के प्रयास में हैं. जैसे 90 के दशक के बाद वामपंथी राजनीतिक क्षेत्र में इस्लामिक कट्टरपंथ के साथ हो गये वैसे ही सिनेमा के क्षेत्र में बाजारवादी भौतिकता में इन्होंने अपनी सम्भावना ढूंढ ली. वैसे भी दुनिया की निकृष्टत्म सिद्धांत में शामिल वामपंथ तो वैसे भी सदैव नकारात्मकता में ही अपने लिए अवसर तलाशता रहा है.
 
वामपंथ की यह खूबी है. वह वक्त की नजाकत के अनुसार सुविधापूर्ण मौकों के साथ हो जाते हैं. जैसे लाभ का अवसर देख देंग के दौर का चीन वामपंथी चोले में बाजारवादी हो गया और रूस से लेकर पूर्वी यूरोप तक से बेइज्जत कर खदेड़े गये वामपंथी अमेरिका से लेकर पश्चिमी यूरोप तक के सरकारी संस्थानों, शिक्षण संस्थानों, एन.ज़ी.ओ., मिडिया ऑफिस के वतानूकुलित कमरों में बैठकर ‘नई दुनिया’ के निर्माण का भ्रामक ज्ञान बघारते रहे. ऐसा भारत में  भी देख सकते हैं. दिल्ली का लुटियन एवं खान मार्केट गैंग इसका बेहतरीन उदाहरण है. इसी अनुरूप आधुनिक हिन्दी  सिनेमा को देखिये. यहाँ सारा वामपंथ सिद्धांत से अधिक, फ्री सेक्स, नारी जिस्म के प्रदर्शन, भद्दी-गालियों से भरी भाषा जैसे दुर्गुणों में गौरवान्वित दिखता है.
हालांकि यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि प्रगतिशील सिनेमा या कला फ़िल्मों के निर्माण की परंपरा जहाँ भी पहुंची, उस देश की मूल परंपराओं एवं संस्कृति  जो पश्चिम के उपनिवेशवादी-साम्राज्यवादी शासन में  शोषित-प्रताड़ित थे उनके उन्नयन एवं संरक्षण को अपना प्राथमिक ध्येय बनाया लेकिन भारत में यह परंपरा बिलकुल विपरीत रही. यहाँ के कला या समानांतर सिनेमा ने अपनी पूरी ऊर्जा भारत की मूल धर्म-संस्कृति को कलंकित एवं अपमानित करने में लगाई. संभवतः यूरोप से आयतित वामपंथ अपने साथ सनातन समाज के अक्षय धर्म-संस्कृति-ज्ञान परंपरा के विरुद्ध जन्मजात विध्वंस की कुंठा लेकर आया था.
 लेकिन 2014 के बाद ज़ब देश में ऐतिहासिक राजनीतिक परिवर्तन हुआ तब वामपंथ-इस्लामिक गठजोड़ का छद्म वैचारिक तिलिष्म ढहने लगा. इसी के साथ सिनेमा में भी मंथर गति से परिवर्तन के चिन्ह दृष्टिगोचर होने लगे. वैसे भी सिनेमा कला के बाजारवादी व्यवस्था का ही प्रतिनिधित्व करते हैं इसलिए उद्योग का द्वन्द भी वह खूब समझता है. अतः वर्तमान समाज की रूचि के अनुसार जल्दी ही उसने स्वयं को ढालना प्रारम्भ कर दिया है. आज बाजार के लोभ में ही सही लेकिन भारतीय मूल्य-परंपराओं, पौराणिक-ऐतिहासिक आख्यानों पर आधारित सिनेमा बनाने की होड़ लगी है. रामायण, पृथ्वीराज, पद्मावत, बाजीराव-मस्तानी जैसी फिल्मों का निर्माण इसी बदलाव का द्योतक है.
 इसी सन्दर्भ में उल्लेखनीय है कि पिछले दो दशकों से हिन्दी सिनेमा में खान ब्रदर्स के नाम से छाये शाहरुख़, सलमान, आमिर जैसे निम्न कोटि के अभिनय क्षमता वालों की सिनेमाई दुकानधारी बंद होने के कगार पर है, हालांकि ये अलग बात हैं कि कुछ मिडिया हॉउस एवं पी.आर. एजेंसियों की मक्कारी से इन्होंने अपना ‘सुपरस्टार’ का आभासी आभामण्डल बना रखा और यही तरीका ये अपनी फिल्मों को चर्चा में रखने तथा हिट कराने के लिए अपना रहे हैं. जैसे सलमान खान की राधे एवं इस्लामिक मानसिकता से कुंठित एवं हिन्दू विरोधी आमिर खान की लाल सिंह चड्डा की जो दुर्गति हुईं, उससे लोग परिचित ही हैं. इसी कड़ी में भारत का खाकर भारत को कोसने वाले शाहरुख़ खान के बहुप्रचारित हिट फ़िल्म जवान की सफलता की कहानी एक विचित्र षड़यंत्र है. कुछ मिडिया रिपोर्ट के अनुसार इसकी सच्चाई यूँ थी कि एक पी.आर. एजेंसी के माध्यम से देश भर के मल्टीप्लेक्स से टिकट ख़रीदे गये. सिनेमाहाल के बाहर हॉउसफुल का बोर्ड लगा रहता था और अंदर सीटें खाली होतीं थीं. आखिर ये खुद को सफल दिखाने की कुंठा ही तो है.

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