हॉलीवुड खामोश है। सारे स्टूडियो निस्तब्ध, कैमरा निस्पंद, कलाकार निश्चेष्ट ! सांता मोनिका पर्वत श्रृंखलाओं से टकराती प्रशांत महासागर की केवल लहरों की गूंज सुनाई पड़ती है। कल रात (2 मई 2023) से हड़ताल है। अतः काम ठप है। अमेरिका का राइटर्स गिल्ड इस प्रतिरोध का आयोजक है। उसके ग्यारह हजार पटकथा-लेखकों ने कलम डाल दिया। उनकी मांग अत्यंत जायज हैं। उद्योग का मुनाफा कई गुना बढ़ा है। हिस्सा दें। वर्ना जैसा वेतन, वैसा काम होगा। लेखकों को व्यापक समर्थन मिला है। डेढ़ दशकों से उनके परिश्रमिक में वृद्धि नहीं हुई है। टीवी शो प्रचुरता में हैं। नतीजन विज्ञापन की आय भी कई गुना हुई है। हड़ताल का असर पहली रात से ही पड़ रहा है। सामयिक शीर्षक नहीं लिखे जा सके। पटकथा में परिमार्जन भी नहीं हो पा रहा है। अब ग्यारह हजार पटकथा लेखकों की जमात एक ओर है, तो मुनाफाखोर मालिक उधर। संवाद, शोध कार्य, नई रचनाएं, कलात्मक प्रस्तुति, सब बंद हैं। चौबीस घंटों में ही दबाव दिखने लगा है। मालिकों को याद है कि पिछली हड़ताल (मार्च-अगस्त 1988) से फिल्म उद्योग को करीब दो अरब डॉलर (आज डॉलर 82 रुपए के बराबर है) का नुकसान हुआ था।
उधर हड़ताल से जन्मी स्थिति का सामना करने हेतु पुरानी फिल्में ही दिखाई जा रही हैं। नए डायलॉग न मिलने के कारण, बीते दृश्य पुराने संवाद के साथ पर्दे पर पेश हो रहे हैं। केवल होम वीडियो चला रहे हैं। समाधान क्या है ? गिल्ड का कहना है कि असीम लाभ और फैलते व्यापार में भागीदारी हो पटकथा लेखकों की। वाजिब अनुपात में पटकथा लेखकों को न्यायोचित मेहनताना मिले। तब तक काम नहीं। इसे श्रमजीवियों की शब्दावली में इसे “हड़ताल” कहते हैं। भारत में दो सदी बीते (1827) में साम्राज्यवादी सत्ता के विरुद्ध शोषित श्रमिकों ने यह कदम उठाया था। देशी मुनाफाखोर अंग्रेजी शासकों से सांठगांठ कर कामगारों को चूस रहे थे। तब कलकत्ता जैसे महानगर में “हडताल” शब्द की उत्पत्ति हुई। इतिहास में “हडताल” के आविष्कार का श्रेय ओड़ीसा के “भोई” लोगों को मिला। मई महीने की बहुत गर्मी के दिनों में कलकत्ता में “हडताल” हुयी, जो पूरे भारत में पहली थी। उस समय लोगों का गाड़ी या पालखी के बिना काम नहीं चलता था। श्रीमंताई का पता उनकी गाड़ी से लगाते थे। पैसेवाले की पहचान पालखी से। गाड़ी खींचनेवाले भोई जाति के लोग संगठित होकर “हडताल” पर चले गए। अंग्रेजों को यह “हडताल” तकलीफदेह लगने लगी। चार दिन तक यह चली। अंग्रेजों ने इसको खत्म करने के लिए उत्तर प्रदेश और बिहार से लोगो को बुलाया। इससे हड़तालियों की हिम्मत टूट गयी। युरोपियनों ने फिर चार पहिये की गाड़ी बनवाई। उसमें दो घोड़े जोड़ दिए। इसे बघ्घी या तांगा कहते थे। “हडताल” वापस हुई और मजबूरी में फिर से काम शुरू किया। मगर उसी दिन से “हडताल” का हथियार तो मिला।
एक बुद्धिकर्मी होने के नाते मुझे हड़ताल की कला और विज्ञान से साबका मुंबई में 2 अक्टूबर 1962 से “टाइम्स ऑफ इंडिया” में नौकरी लगने के दिन से ही पड़ा। प्रथम सप्ताह में ही मैं ने बंबई यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट्स (IFWJ) की सदस्यता शुल्क जमा की। साथ ही “टाइम्स ऑफ इंडिया” एम्प्लाइज यूनियन की भी। हालांकि प्रशिक्षु पत्रकार के लिए यह निषिद्ध था। मगर लखनऊ विश्वविद्यालय में छात्र यूनियन से ही चस्का, बल्कि दिलचस्पी हो गई थी। फिर स्वतंत्रता-सेनानी के पुत्र होने के नाते प्रतिरोध के दर्शन से आप्लावित तो रहता ही था, खासकर 1975-77 के आपातकाल के दौरान तो पूरा ही था। फिर अहमदाबाद संस्करण में तबादला (1967) होने से तो बगावत की पुण्यभूमि और बापू के साबरमती आश्रम जाकर सत्याग्रह का सम्यक बोध भी हो गया। उसके पूर्व श्रेष्ठतम विद्रोही राममनोहर लोहिया से छात्र जीवन में सन्निध्य हो चुका था। अपने श्रमिक संघर्ष के लम्बे दौर में हम पत्रकारों को नयी तकनीक भी इजाद करनी पड़ी थी। बड़ौदा के निकट खेड़ा जनपद में कस्बा है मातर। यहीं खेड़ा सत्याग्रह 1918 में बापू ने चलाया था। तो इस कस्बे के एक वरिष्ठ पत्रकार वजीहुद्दीन हमारी गुजरात पत्रकार यूनियन के पदाधिकारी थे। अपना तखल्लुस (उपनाम) “वज्र मातरी” रख लिया था। वे दैनिक “गुजरात समाचार” के चीफ सब-एडिटर थे। एक बार उन्हें गुजराती वर्तनी की त्रुटि के कारण मालिक शांतिलाल शाह ने निलंबित कर दिया था। तब मैं गुजरात श्रमजीवी पत्रकार यूनियन में महासचिव था। हमने गांधीवादी आंदोलन चलाया। सारे साथियों को निर्देश था कि बिना मात्रा के खबरें मुद्रित होंगी। अर्थात कोका कोला छपेगा: “काला काला” जैसा। मुख्यमंत्री लिखा जायेगा: “मख्यमंत्र”। दूसरे दिन मालिक को पाठकों की शिकायत आयी। शाहजी गुस्से से संपादकीय विभाग में चिल्लाये आये। पूछा : “मात्री क्यां छे” ? (गुजराती में मात्रा को स्वरमात्री कहते हैं)। सभी डेस्क वालों ने अत्यंत शील, सधे हुए तरीके से जवाब दिया : “मालिक, मात्री को तो आप ही ने निकाल दिया।” अंततः मालिक ने वज्र मातरी को बहाल कर दिया। तब फिर अखबार में मात्रायें भी वापस लगने लगी।
इसीलिए भूलोक में जहां भी विद्रोह, विप्लव, बगावत, हंगामा, आंदोलन, इंकलाब, गदर होता है तो एक श्रमिक के नाते हमारी स्वाभाविक संवेदना तथा समर्थन उन जुझारूओं के साथ ही होती है। सम्राट नेपोलियन ने कहा भी था : “क्रांति गोबर का ढेर होती है जिससे स्वादिष्ट खाद्यान्न उपजता है।” फ्रांसीसी क्रांति भी हुई थी। इसने समानता, स्वतंत्रता और भ्रातृत्व का सूत्र विश्व को दिया था। हड़ताल उसी का आधुनिकतम संस्करण है।