कांग्रेस की मति लंबे समय से विपरीत चल रही है। इसका एक उदाहरण इसी महीने मिला। कांग्रेस कार्यसमिति ने एक देश-एक चुनाव को ‘दुर्भावनापूर्ण’ बताया। एक अजीब तर्क अपने कथन के लिए दिया। क्यों दिया और कैसे दिया? इसे तो कांग्रेस नेतृत्व ही स्पष्ट करेगा। उनका तर्क है कि संविधान के मूल ढांचे में इससे बदलाव होगा और यह कांग्रेस को स्वीकार नहीं है।
क्या वास्तव में एक देश-एक चुनाव से संविधान के मूल ढांचे में बदलाव होगा? यह प्रश्न जितना सुनने में सरल लगता है, उतना है नहीं। आश्चर्य तो यह है कि कांग्रेस के मौजूदा नेतृत्व ने अपने कथन की छानबीन नहीं की। अगर की होती, तो वे ऐसा प्रस्ताव पास कर उसे लोगों को बताते नहीं। मल्लिकार्जुन खड़गे जैसा सुलझा हुआ व्यक्ति कांग्रेस का अध्यक्ष है। लेकिन अफसोस की बात है कि उनकी अध्यक्षता में यह निर्णय हुआ।
इस निर्णय को स्वतंत्र भारत के इतिहास पर अगर एक दूरबीन मानें, तो जवाहरलाल नेहरू वे प्रधानमंत्री माने जाएंगे, जिन्होंने संविधान के मूलढांचे को ढहाया। यह कौन कह रहा है? सोनिया गांधी, राजीव गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे कह रहे हैं। किसी दल के नेतृत्व की मति जब मारी जाती है, तो वे सबसे पहले अपने पुरखे को गाली देते हैं। यही कांग्रेस कर रही है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी क्यों एक देश-एक चुनाव की बात कर रहे हैं? कब से कर रहे हैं? क्या वे संविधान की व्यवस्था को नष्ट करना चाहते हैं? क्या वे भारत के संघीय ढांचे को ध्वस्त करना चाहते हैं? ऐसे प्रश्न वे ही उठाएंगे, जो बेशर्म हैं। जिन्हें यह याद ही नहीं है कि संविधान की व्यवस्था में बालिग मताधिकार से जो पहला चुनाव हुआ वह वास्तव में एक देश-एक चुनाव का उदाहरण है। यह बात 1952 की है।
यहां यह भी याद दिलाना जरूरी है कि संविधान तो 26 जनवरी, 1950 को लागू हो गया था। लेकिन चुनाव करीब दो साल बाद हुए। इसका कारण चुनाव की तैयारी में लगने वाला समय था। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने सुकुमार सेन को चुनाव आयुक्त बनवाया था। पंडित नेहरू को चुनाव कराने की जल्दी भी थी। लेकिन सुकुमार सेन प्रधानमंत्री के कहने पर जल्दी करने वालों में से नहीं थे। पूरी तैयारी के बाद उन्होंने चुनाव के कार्यक्रम घोषित किए।
जिन देशों को लोकतंत्र के चुनावों का अनुभव था, वे आशंकित थे। इतना बड़ा देश, जिसमें लोकसभा और विधानसभाओं के साथ-साथ चुनाव क्या निष्पक्ष, स्वतंत्र और बाधारहित हो सकेंगे, यह थी उनकी आशंका। देश की जनता ने उसका उत्तर दिया। दुनिया ने माना कि भारत में साक्षरता भले ही कम हो, लेकिन लोकतांत्रिक शिक्षा में हर नागरिक उच्च स्तर पर शिक्षित है।वह पहला सफल प्रयोग था। जो चौथे आम चुनाव तक चला।
यहां कोई भी यह पूछ सकता है कि आखिर वह क्रम क्यों टूटा? इसी के साथ आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कोशिश का प्रश्न भी जुड़ा हुआ है।इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं। कांग्रेस का विभाजन हो गया था। उन्होंने लोक-लुभावन नारे दिए। समाजवादी और कम्युनिस्ट नेताओं ने उनके नारे को ईशवचन माना। वे इंदिरा गांधी की आत्मकेंद्रित राजनीति के दुष्प्रभाव को तब नहीं समझ सके। जब समझने लगे, तब बहुत देर हो चुकी थी। अपनी सत्ता को बचाने, मजबूत करने और कांग्रेस की लोकतांत्रिक परंपरा को त्यागने के लिए इंदिरा गांधी ने लोकसभा के मध्यावधि चुनाव का निर्णय किया।
वह साल 1971 का है। उस चुनाव में एक तरफ इंदिरा गांधी की कांग्रेस थी, तो दूसरी तरफ चार दलों का महागठबंधन था। लोगों ने इंदिरा गांधी के नेतृत्व पर अनेक कारणों से भरोसा किया।लेकिन उस चुनाव से जो नई शुरूआत हुई वह कितनी भयानक हो गई है, इसे हर सजग नागरिक न केवल जानता है, बल्कि चिंतित भी है। उसी चिंता को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने समय-समय पर व्यक्त किया है। वे लोगों की सराहना के पात्र हैं। आश्चर्य इस पर है कि जिसे साधारण नागरिक अपने हित में समझ रहा है, उसे आज का महागठबंधन और उसका नेतृत्व कर रही कांग्रेस अपने लिए खतरनाक मान रहा है। इसका एक ही अर्थ समझ में आता है कि विपक्ष अपना राजनीतिक हित चुनाव की अराजकता में देख रहा है। है न यह विचित्र बात!
अगर तुलना करें, तो 1971 में इंदिरा गांधी का फैसला किसी लोकतांत्रिक कसौटी पर खरा नहीं उतरेगा।क्योंकि उससे पहले उन्होंने किसी से भी कोई परामर्श नहीं किया। दूसरी तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बहुत पहले इस विचार को रखा कि चुनाव एक साथ होने चाहिए। लेकिन उस अपने विचार को थोपने की जरा सी भी कोशिश उन्होंने नहीं की। लोगों को याद है कि 2018 में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने संसद के संयुक्त अधिवेशन को संबोधित करते हुए एक देश-एक चुनाव की जरूरत को रेखांकित किया था। उनकी अपील थी कि इस पर विचार हो और आम सहमति बने। उन्हांने यह भी कहा था और सही कहा था कि बार-बार होने वाले चुनाव से नागरिक चिंतित हैं और संशाधनों का भारी बोझ उन पर आ पड़ता है।
आज हर कोई जानता है कि पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक समिति कार्य कर रही है। इसे दो तरह से देख सकते हैं।पहला तो यह कि जिस विचार की उन्होंने अपील की थी, उसे साकार करने के उपाय उनकी अध्यक्षता में बनी कमेटी बताएंगी। दूसरा यह कि इस समय एक देश-एक चुनाव ऐसा विषय है जिस पर खुली चर्चा हो रही है। यह एक लोकतांत्रिक और अहिंसक प्रक्रिया है। ऐतिहासिक भूल को सुधारने और चुनाव को पटरी पर ले आने के लिए यह प्रक्रिया अपनाई गई है। लेकिन जो विरोध में ही अपना उद्धार समझते हैं, उनके लिए यह प्रक्रिया भविष्य के सूर्यग्रहण जैसी है। वे अपने राजनीतिक अनिष्ट से बेचैन हो उठे हैं।
सुना है एक दिन गृहमंत्री अमित शाह और प्रधानमंत्री के प्रमुख सचिव पी.के. मिश्र पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से मिलने पहुंचे। नए संसद भवन के उद्घाटन से कुछ दिन पहले की यह बात है। इस तरह विचार-विमर्श के बाद एक समिति घोषित हुई। लेकिन यह सिलसिला चार महीने पहले शुरू हुआ। इसका एक औचित्य इसलिए भी है कि विधि आयोग अर्से से सिफारिश करता रहा है कि एक साथ चुनाव होने चाहिए। विधि आयोग की एक रिपोर्ट है। वह 1999 में आई थी। उसका शीर्षक है-‘चुनाव कानूनों में सुधार।’ उस रिपोर्ट का सार यह है कि एक साथ चुनावों का क्रम टूटने का मुख्य कारण अनुच्छेद 356 का दुरूपयोग और विधानसभाओं का भंग होना रहा। हालांकि अब 356 के उपयोग के आसार बहुत सीमित हो गए हैं। इसलिए अलग-अलग कराए जाने के बजाय लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव प्रत्येक पांच वर्ष में एक बार कराया जाना आदर्श होगा।
जब से इस विषय पर पुनः चर्चा शुरू हुई है, तब से मीडिया में एक बहस चल ही रही है। वह भविष्य में भी चलेगी।जितने पूर्व चुनाव आयुक्त हैं, जितने चुनाव विशेषज्ञ हैं और जो चुनावों का असली बही-खाता जानते हैं, वे इस बात से सहमत हैं कि एक साथ चुनाव होना चाहिए। एक साथ चुनाव से क्या-क्या फायदे होंगे? इसकी गणना भी की जा रही है। जो बात सभी जानते हैं, वह यह कि चुनाव खर्च में भारी कमी होगी। इंदिरा गांधी ने जब चुनाव अलग कराया था, तब भी यही विषय था जो निर्णायक बना। उन्होंने चुनाव को इसलिए अलग कराया, क्योंकि सत्तारूढ़ कांग्रेस चुनाव को खर्चीला बनाकर विपक्ष को खाईं में डालने का इरादा रखती थी। जो आज का विपक्ष है, उसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चाहते हैं कि वह खाईं और खंदक से निकले। लेकिन विपक्ष को अपनी खाईं पसंद आ गई है।
ऐसा भी नहीं है कि केवल विधि आयोग ने एक साथ चुनाव की सिफारिश की थी। यह बात विभिन्न मंचों पर उठती रही है। इसके कई कारण हैं। जिनमें चुनाव का बढ़ता खर्च, समय की बर्बादी और चुनावों के कारण विकास के तंत्र का ठप्प हो जाना आदि तो है ही, यह भी है कि संसद की स्थाई समिति ने भी सुझाया था कि एक साथ चुनाव पर बात होनी चाहिए और राजनीतिक दलों में आम सहमति बननी चाहिए। यह 2015 की बात है। इसी तरह नीति आयोग ने भी सुझाया था।उसका एक पर्चा है जो कहता है कि एक साथ चुनाव से विकास की रफ्तार तेज गति पकड़ेगा। जो चुनाव लड़ते हैं, वे भी इसी मत के हैं। यह बात अलग है कि पार्टी का नेतृत्व कोई लाइन ले लें, तो उन्हें उसका समर्थन करना पड़ता है।
संसद की एक समिति ने हाल में ही एक साथ चुनाव के मुद्दे पर मंथन किया है। उसकी सिफारिश आ गई है। जिसमें कहा गया है कि कुछ आवश्यक संविधान संशोधन करने पड़ेंगे। इसी तरह विधि आयोग ने पुनः इस विषय का अध्ययन किया है।2018 में उसकी रिपोर्ट आई थी। अब नई रिपोर्ट भी तैयार है। सुना है कि विधि आयोग ने एक उपाय बताया है कि दो चरणों में फिलहाल चुनाव को एक साथ कराने का निर्णय व्यवहारिक होगा। इसका अर्थ यह है कि 2024 में लोकसभा और उन राज्यों के चुनाव साथ कराए जा सकते हैं, जिनका कार्यकाल जल्दी पूरा हो रहा है। इसी तरह दूसरे चरण में 2029 में पूरे देश के चुनाव लोकसभा के साथ कराया जाना संभव होगा। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की समिति की रिपोर्ट हर बात का समाधान दे सकेगी। इसीलिए इस समिति की रिपोर्ट का इंतजार हो रहा है।