विगत एक – डेढ़ दशकों से देश की सबसे पुरानी पार्टी का शीर्ष कांग्रेस नेतृत्व वामपंथ के मोह में जकड़ा हुआ है। राहुल गांधी और प्रियंका वढेरा वामपंथी विचारधारा के नेताओं की सलाह पर पार्टी को चला रही हैं। आइसा, एआईएसएफ और एसएफआई से निकले लोग कांग्रेस की दिशा तय कर रहे हैं। कांग्रेस को इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ रहा है। इन वामपंथी सलाहकारों के दुर्व्यवहार से पार्टी के खांटी नेता और कार्यकर्ता अलग राह पकड़ रहे हैं। पिछले दिनों दिल्ली कांग्रेस अध्यक्ष अरिवंदर सिंह लवली ने पद से इस्तीफा दे दिया। अरिवंदर सिंह लवली और उनके पहले पार्टी छोड़ चुके कंग्रेसियों ने नेतृव पर जो आरोप लगाए थे, वे काफी गंभीर थे। दरअसल राहुल गांधी और प्रियंका बढेरा को शायद कांग्रेस के इतिहास का बोध ही नहीं है।
यह ऐतिहासिक सत्य है कि भारत में कांग्रेस पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी के बीच रिश्ते शुरू से ही विवादित रहे हैं। महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू वामपंथियों और उनके अभियान को संदेह की दृष्टि से देखते रहे। यह बात दीगर है कि जवाहर लाल नेहरू का थोड़ा झुकाव वामपंथ की ओर था। हालांकि नेहरू भारतीय वामपंथियों पर अक्सर व्यंग कसते थे। नेहरू जी व्यंगात्मक लहजे में कहा करते थे कि भारत के वामपंथियों की नजर में इतिहास की शुरुआत रूस की क्रांति से हुई है।
भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की भूमिका विवादित ही रही है। वर्ष 1942 में महात्मा गांधी ने अंग्रेजों के खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन शुरू किया तो भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने इस आंदोलन से खड़ को अलग कर लिया। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने यह निर्णय सोवियत संघ के का आग्रह किया था। आजादी के बाद भी वामपंथी कई बार देश के हितों के खिलाफ खड़े हुए। कई कारणों से जवाहर लाल नेहरू कम्युनिस्ट पार्टी से इतना खफा थे कि वर्ष 1959 में केरल में ईएमएस नंबूदरीपाद के नेतृत्व में बनी भारत की पहली वामपंथी सरकार को भंग कर दिया था। आगे चलकर 1962 में भारत पर चीनी हमले के वक्त भी भारत के वामपंथियों की भूमिका देश के हितों के खिलाफ थी।
उल्लेखनीय है कि आजादी के बाद काफी समय तक भारत की राजनीति में दक्षिणपंथी मानी जाने वाली जनसंघ का प्रभाव सीमित था। लेकिन, 1990 के दशक में देश की राजनीति में भारतीय जनता पार्टी के उभार से भारतीय राजनीती की दिशा और दशा बदल गयी। अब वामपंथी पार्टियां मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी आदि कम्युनिस्ट पार्टियां कांग्रेस व अन्य धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को समर्थन देने के लिए बाध्य होने लगी। वर्ष 2004-2009 तक वामपंथी पार्टियों ने कांग्रेस के नेतृत्व की सरकार का बाहर से समर्थन किया। हालांकि भारत-अमरीका की परमाणु संधि को लेकर कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों के बीच खुलकर मतभेद सामने आया।
वर्ष 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की लहर में कांग्रेस और सारी वामपंथी पार्टियां हासिये पर चली गयी। इसके बाद से ही एक के बाद एक वाम नेता कांग्रेस में शामिल होने लगे। 2019 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा को दोबारा ऐतिहासिक सफलता मिली। इसके बाद तो आइसा, एआईएसएफ और एसएफआई से निकले अधिकाँश नेता कांग्रेस में शामिल हो गए। यही नहीं देश के शीर्ष विश्वविद्यालयों के छात्र संघों में जीत का परचम लहराने वाले ये वामपंथी नेता जल्द ही कांग्रेस जैसी पार्टी की दिशा तय करने की भूमिका में आ गए। यही नहीं खांटी कांग्रेसी नेताओं के किनारे कर इन्ही आयातित नेताओं को लोकसभा चुनाव में पार्टी का उम्मीदवार बनाया गया है।
इस तरह कांग्रेस में वैचारिक बदलाव का असर अब पार्टी मुख्यालय में भी नजर आ रहा है। आम कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की सोच और धारणा की रिपोर्ट पार्टी कार्यकारिणी तक नहीं पहुंच पा रही है। दरअसल, वामपंथ जमीनी मुद्दों की समझ कम रखते हैं। वो एक खास तरह के नैरेटिव पाल कर रखते हैं और उस पर ही वो काम करते हैं। कांग्रेस नेतृत्व फिलहाल वामपंथ के उसी मोहपास में फंसा हुआ है और अपने जमीनी नेताओं और कार्यकर्ताओं को समझ नहीं पा रहा है। देश की सबसे पुरानी पार्टी को इसकी कीमत भी चुकानी पड़ रही है।