विपक्ष की राजनीति की निरर्थकता

बनवारी

भारतीय राजनीति में विपक्ष की भूमिका जिस तेजी से निरर्थक होती जा रही है, वह सबके लिए चिंता का विषय होना चाहिए। नरेंद्र मोदी का दूसरा कार्यकाल शुरू हुए लगभग डेढ़ वर्ष हो रहा है, इस बीच सरकार ने अनेक निर्णय किए हैं। केंद्र सरकार के हर निर्णय का मुख्य विपक्षी कांग्रेस और उसके राजनैतिक सहयोगियों ने विरोध किया है। लेकिन उनके इस विरोध का देश के लोगों पर कोई प्रभाव होता दिखाई नहीं दे रहा। यह सिलसिला मुस्लिम महिला (विवाह अधिनियम संरक्षण) कानून से शुरू हुआ था।

मुसलमानों में प्रचलित तीन तलाक प्रथा के कारण मुस्लिम महिलाओं के साथ होने वाली बर्बरता को देखते हुए सर्वाेच्च न्यायालय ने इस प्रथा को असंवैधानिक घोषित किया था और सरकार को उसके लिए कानून बनाने के लिए कहा था। इस कानून का विरोध किए जाने का कोई उचित आधार नहीं था। पर संसद में विपक्ष ने यह कानून बनने से रोकने के लिए सब संभव उपाय किए।

जब राज्यसभा में सरकार के समर्थक सांसदों की पर्याप्त संख्या न होने के बावजूद यह विधेयक पारित हो गया तो संसद के बाहर मुसलमानों को सरकार के खिलाफ लामबंद करने की पूरी कोशिश की गई। उसके बाद संविधान की धारा 370 समाप्त करने का निर्णय हुआ। सरकार के इस कदम का पूरे देश में जितना व्यापक समर्थन था, उसे देखते हुए मुख्य धारा का कोई दल अधिक समय तक उसका विरोध करने का जोखिम नहीं उठा सकता था। पर जम्मू-कश्मीर की दोनों बड़ी पार्टियों नेशनल कांफ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी तथा हुर्रियत कांफ्रेंस के नेता लगातार यह कहते रहे थे कि केंद्र सरकार ने ऐसा कोई निर्णय किया तो कश्मीर में तिरंगा उठाने वाला कोई नहीं बचेगा। इसलिए ऐहतिहातन इन सभी नेताओं को हिरासत में लेना या नजरबंद करना आवश्यक था।

विपक्ष ने देशहित की परवाह किए बिना उसे राष्ट्रीय मुद्दा बना लिया। सरकार को संसद और अदालतों में घेरने की कोशिश की गई। पश्चिमी देशों में सरकार को बदनाम करने की पूरी कोशिश हुई। अलबत्ता जम्मू-कश्मीर, जहां इन सब नेताओं को जनविद्रोह की आशा थी कुछ नहीं हुआ।
इसके बाद नागरिकता संशोधन विधेयक आया। विपक्ष के विरोध और राज्यसभा में सरकार के समर्थक सांसदों की अपर्याप्त संख्या के बावजूद यह कानून भी पारित हो गया। लेकिन विपक्षी दलों के साथ-साथ जो शक्तियां तीन तलाक और धारा 370 हटाए जाते समय कोई आंदोलन खड़ा नहीं कर पाई थीं, उन्होंने इस कानून को लेकर एक वितंडा खड़ी कर दी। यह कानून बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान में मजहबी उन्माद और असहिष्णुता का शिकार होकर भारत आए और यहां शरणार्थी की तरह रह रहे हिन्दू, सिख, जैन, बौद्ध और ईसाई समुदायों को भारतीय नागरिकता देने के बारे में था। उसका मुसलमानों से कोई लेना-देना नहीं था। लेकिन यह भ्रम फैलाया गया कि नागरिकता कानून में धार्मिक आधार पर भेदभाव किया जा रहा है और सरकार मुसलमानों को देश से निकालना चाहती है।

विरोध करने वालों में कोई यह सुनने को तैयार नहीं था कि यह कानून देश के दुर्भाग्यपूर्ण विभाजन का शिकार हुए अल्पसंख्यकों को उनका अधिकार देने के लिए बनाया गया है और विभाजन के समय पाकिस्तान में बचे रहे इन समुदायों को प्रताड़ित होने पर भारत की नागरिकता देने का आश्वासन स्वयं महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू ने दिया था। नागरिकता कानून के खिलाफ यह आंदोलन जल्दी ही राजनीतिक दलों के हाथ से निकलकर देश विरोधी तत्वों के हाथ में चला गया। उनके द्वारा दुनियाभर में भारत सरकार के विरुद्ध भावनाएं भड़काई गईं। यह विरोध बाद में कोविड-19 के कारण हुए लॉकडाउन का शिकार हो गया। इस तरह देश के मुसलमानों को सरकार के विरुद्ध लामबंद करके अशांति फैलाने की एक और कोशिश बेकार हो गई।

कोविड-19 एक विश्वव्यापी समस्या है और उसके लिए शुरू में दुनिया का कोई देश तैयार नहीं था। फिर भी पश्चिमी देशों में विकसित चिकित्सा तंत्र था, जबकि भारत में वह भी नहीं था। केंद्र सरकार को इस महामारी को सीमित रखने के लिए एक बड़ा तंत्र खड़ा करना था। यह राष्ट्रीय संकट था और उसमें समूचे राजनैतिक प्रतिष्ठान को सकारात्मक भूमिका निभाते हुए सरकार को सहयोग देना चाहिए था। लेकिन शासक दल को छोड़कर किसी राजनैतिक दल ने लोगों की सहायता करने का दायित्व नहीं निभाया। इसी बीच प्रवासी मजदूरों की समस्या सामने आई, जो औद्योगिक क्षेत्रों में कामबंदी के कारण असुरक्षित अनुभव कर रहे थे और अपने गांव-कस्बों की ओर लौटना चाहते थे।

लगभग एक करोड़ लोगों को सुरक्षित घर लौटाने की जिम्मेदारी सरकारी तंत्र पर आ गई थी। बहुत से लोग असुरक्षित और आशंकाग्रस्त होकर पैदल या अयोजित साधनों से निकल पड़े। ऐसे लोगों को रास्ते में खाना खिलाने और आश्रय देने का काम देश के लोगों ने जिस तत्परता और तल्लीनता के साथ किया, उसने भारतीय समाज में बहुत से लोगों की आस्था लौटाई होगी। लेकिन विपक्षी दलों ने असंतोष पैदा करने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने दिया। संकट की इस घड़ी में सरकार की ओर से जितने बड़े पैमाने पर लोगों के घर भोजन की सामग्री पहुंचाई गई, वह अपने आपमें अभूतपूर्व था। लेकिन लोगों की स्थिति जाने-समझे बिना दुनियाभर में यह प्रचार किया गया कि कामधंधों के अभाव में भारत में बड़े पैमाने पर लोग भूखों मर रहे हैं और सरकार निष्क्रिय बनी हुई है।

कोविड-19 को नियंत्रित रखने के लिए जो तंत्र विकसित करना आवश्यक था, उसके लिए सरकार द्वारा जो सहायता कोष बनाया गया, उसके प्रावधानों को लेकर खूब हल्ला मचाया गया जबकि नेहरू सरकार के समय से चल रहे कोष के प्रावधान इससे कुछ कम ही थे। कुछ दिन पहले नीट आदि परीक्षाएं करवाने का निर्णय लिया गया तो उसको रुकवाने के लिए राजनैतिक तूफान खड़ा करने के साथ-साथ अदालतों तक के दरवाजे खटखटाए गए। इस सबके बीच वे परीक्षाएं संतोषजनक रूप से आयोजित हो गईं और परीक्षार्थियों का एक साल बच गया। पर हमारे विपक्ष को यह अहसास नहीं हुआ कि उसकी आपत्ति अनावश्यक और आशंकाएं अतिरंजित थीं। इस सबके बाद सरकार ने कृषि संबंधी कानून बनाए। कृषि कानूनों के द्वारा सरकार ने किसानों को अपनी फसल कभी भी और कहीं भी बेचने का अधिकार दे दिया। इसके साथ ही उसने किसानों को यह छूट दे दी कि वे चाहे तो फसल या उसकी कीमत को लेकर पहले से ही कंपनियों से अनुबंध कर सकते हैं। सरकार का मानना है कि इस तरह का प्रबंध किए बिना किसानों की आय नहीं बढ़ाई जा सकती। जब तक किसानों की आय नहीं बढ़ती, औद्योगिक वस्तुओं की मांग अधिक नहीं बढ़ पाएगी और भारत के औद्योगीकरण में गति नहीं आ पाएगी।

सरकार के इस तर्क से विपक्षी दल तो सहमत थे ही नहीं, किसान संगठन भी सहमत नहीं हुए। भाजपा समर्थक किसान संगठनों ने भी उनका विरोध किया। इन कानूनों को लेकर विवाद की गुंजाइश थी। अगर पुराने आढ़ती किसानों को उचित मूल्य नहीं देते तो बड़ी कंपनियां उन्हें उचित मूल्य दे देंगी, इसकी क्या गारंटी हो सकती है? दुनियाभर में बड़ी कंपनियों का अनुभव कोई बहुत संतोषजनक नहीं रहा है। पर इसके लिए संसद और इसके बाहर सार्थक बहस की आवश्यकता थी। जबकि विपक्ष ने हर बार सरकार की समझ पर नहीं, उसकी नीयति पर ही सवाल उठाने की कोशिश की। इसलिए जैसे पहले विपक्ष द्वारा मुसलमानों और मजदूरों को सरकार के खिलाफ लामबंद करने की कोशिश असफल हुई थी, वैसे ही किसानों को लामबंद करने की कोशिश भी असफल हुई। एक और मुद्दे पर विपक्ष को इस बीच मुंह की खानी पड़ी। लद्दाख में चीन भारतीय सीमा का अतिक्रमण करने की कोशिश कर रहा है। विपक्ष को पूरी सजगता से यह सुनिश्चित करने का अधिकार है कि सरकार सीमाओं से कोई खिलवाड़ न होने दे। पर विपक्ष ने परिस्थितियों को ठीक से समझने की बजाय सरकार पर अनर्गल आरोप लगाने शुरू किए और वह खलनायक बनता चला गया।

इस समूची अवधि में विपक्ष ने सरकार के हर निर्णय का विरोध किया है। लेकिन उसका विरोध न सरकार पर कोई प्रभाव डाल पाया न लोगों पर। इसमें संदेह नहीं है कि सरकार और विपक्ष के बीच एक गंभीर वैचारिक टकराव की स्थिति बनी हुई है। कांग्रेस के नेतृत्व में देश की राजनीति का अस्सी के दशक तक जो वैचारिक आधार था, वह नब्बे का दशक आते-आते बदलने लगा। स्वतंत्र भारत की राजनीति को जवाहर लाल नेहरू ने जो वैचारिक मोड़ दिया था, वह 1991 का लोकसभा चुनाव आते-आते अपना प्रभाव खो चुका था। उसका निमित्त रामजन्म भूमि आंदोलन बना था। उसने यह सिद्ध किया कि भारत अनेक धर्मों और जातियों को जोड़-बटोरकर पैदा किया गया राष्ट्र नहीं है, वह मूलतः सनातन धर्म का वाहक अपनी एकता को विविध धाराओं और स्वरूपों में व्यक्त करने वाला समाज और राष्ट्र है, जिसकी अपनी आस्था और सुव्यवस्थित वैचारिक परपंरा है। वह किसी विरोधी विचार के प्रति सहिष्णु तो हो सकता है, पर उसके दबाव में अपना स्वत्व नहीं छोड़ सकता। इस वैचारिक संघर्ष को नेहरूवादी सेक्यूलरिज्म संज्ञा से और भारतीय जनता पार्टी के समर्थक हिन्दुत्व संज्ञा से स्पष्ट करते रहे हैं। पर यह दोनों ही शब्द इस वैचारिक संघर्ष की व्याख्या करने की दृष्टि से अपर्याप्त हैं।

इस संघर्ष के माध्यम से नब्बे के दशक के अंत में भाजपा को सत्ता मिली। पर भाजपा सरकार के पहले प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी इन दोनों विचारों के बीच में खड़े हुए मध्यमार्गी ही थे। इसलिए वे अपनी सरकार को कांग्रेसी सरकारों से अलग कोई छवि नहीं दे पाए। एक दशक के अंतराल के बाद नरेंद्र मोदी को भी इसी वैचारिक संघर्ष के कारण सत्ता मिली। भारत की मूल मान्यताओं के बारे में उनकी समझ भले अपर्याप्त हो, पर उनमें उनकी निष्ठा गहरी है और इसी कारण अपने कई अप्रिय निर्णयों के बावजूद उन्होंने देश के लोगों का विश्वास खोया नहीं है। पिछले कुछ दशकों में देश की राजनीति में जो परिवर्तन हुए हैं राम जन्मभूमि आंदोलन उसका एक कारक था, एकमात्र कारक नहीं था। उस आंदोलन का महत्व केवल यह था कि उसने यह दिखा दिया कि भारतीय समाज की मूल धारणाएं बदली नहीं हैं और उन धारणाओं में भारत के लोगों की निष्ठा गहरी है। इसने नेहरूवादी लोगों को यह समझा दिया कि उनके पैर जमीन पर टिके हुए नहीं थे। जवाहर लाल नेहरू ने अपने राजनैतिक विचार ब्रिटिश शासकों से ग्रहण किए थे और उन्हें अपने बनाए राजतंत्र में फैला दिया था। इस तंत्र के वैचारिक दृष्टिकोण को बदलना आसान काम नहीं था। कांग्रेस इसी विश्वास के आधार पर अपने राजनैतिक विचार पर टिकी रही।

कांग्रेस की शक्ति का एक आधार नेहरूकाल की यह सब धारणाएं थीं और दूसरा आधार नेहरू-इंदिरा गांधी राजवंश। उसकी यह दृढ़ मान्यता थी कि इस वंश के बिना देश को स्थिर शासन नहीं मिल सकता। पर इस वंश की आंतरिक ऊर्जा इंदिरा गांधी के साथ समाप्त हो गई थी। उनकी हत्या जिन परिस्थितियों में हुई थी, उसके कारण राजीव गांधी को उनका न केवल सहज उत्तराधिकारी मान लिया गया, बल्कि आरंभ में उनसे काफी आशाएं लगाई गई। पर इन अपेक्षाओं को पूरा करने की योग्यता राजीव गांधी में नहीं थी। राजीव गांधी की हत्या के बाद इस राजवंश को विदा कर दिया जाना चाहिए था। लेकिन कांग्रेस ऐसा साहस करने की स्थिति में रह ही नहीं गई थी। इसलिए एक अंतराल के बाद सोनिया गांधी को कांग्रेस की कमान दे दी गई। उसी समय यह स्पष्ट हो गया था कि कांग्रेस अपनी जिजीविषा खो चुकी थी।

अपने आपको कांग्रेस का नियंता बनाए रखने के लिए इस परिवार ने निरंतर कांग्रेस का स्वभाव और स्वरूप बदला। जवाहर लाल नेहरू ने कांग्रेस की रचनात्मक भूमिका को समाप्त करके उसे केवल राजनैतिक भूमिका में सीमित कर दिया। इंदिरा गांधी ने उसे पुराने कांग्रेसी नेताओं के हाथ से निकालकर राजनैतिक प्रबंधकों के हाथ में दे दिया। सोनिया गांधी ने उसके बचे-खुचे संगठनात्मक आधार को समाप्त करके उसे अपने परिवार के निष्ठावान लोगों के हवाले कर दिया। सोनिया गांधी के नेतृत्व में पार्टी के भीतर हर स्तर पर चुनाव की जगह नामजद करने की प्रणाली शुरू हुई। कांग्रेस आलाकमान पूरी तरह एक राज दरबार में बदल गया। 2019 के संसदीय चुनाव में पराजय के बाद सोनिया परिवार का इस दरबार में भी विश्वास खत्म हो गया और वह उससे विरक्त होने लगा। उसी की टीस पिछले अगस्त में 23 कांग्रेसी नेताओं द्वारा सोनिया गांधी को भेजी गई चिट्ठी में थी। कांग्रेस की हताशा इन नेताओं की इस टिप्पणी से प्रकट होती थी कि कांग्रेस के संगठन की यही दशा बनी रही तो वह अगले पचास वर्ष भी सत्ता में नहीं आ सकती।

कांग्रेस को 2014 में मिली असफलता ने काफी हताश किया था। अब तक के इतिहास में यह उसका सबसे खराब प्रदर्शन था। लेकिन उस समय कांग्रेस को ही नहीं, वामपंथियों सहित सभी विपक्षी नेताओं को विश्वास था कि देश की राजनीति में कोई स्थायी परिवर्तन नहीं हुआ है। पिछली बार जैसे अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार से लोगों का मोहभंग हो गया था, वैसे ही नरेंद्र मोदी की इस सरकार से भी हो जाएगा। इसलिए मोदी सरकार का विरोध करने में विपक्ष एकजुट दिखाई दे रहा था। वह सरकार का विरोध करने का कोई मौका छोड़ना नहीं चाहता था। राफेल लड़ाकू विमानों की खरीद को अनावश्यक मुद्दा बनाया गया। उसके साथ सरकार के नोटबंदी और जीएसटी जैसे निर्णय सामने आए।

विपक्ष ने उनका पुरजोर विरोध करने की कोशिश की। पर विपक्षी दलों ने पाया कि सरकार के ऐसे अप्रिय फैसलों के बाद भी लोगों में उसका विश्वास घटा नहीं है। इसका कारण यह था कि लोगों को नए नेतृत्व केी नीयत पर शक नहीं था। इससे विपक्षी दलों और उनके नेताओं में निराशा फैलती चली गई। धीरे-धीरे सरकार का विरोध करने में अधिकांश विपक्षी दलों और नेताओं का उत्साह क्षीण होने लगा। केवल कांग्रेस और ममता बनर्जी जैसे मुख्यमंत्री सरकार के हर फैसले का विरोध करने में तत्पर दिखाई देते रहे।

धीरे-धीरे यह विरोध राजनैतिक न रहकर व्यक्तिगत होता चला गया। सोनिया परिवार ने पाकिस्तान में किए गए भारतीय सेना के ऑपरेशनों पर भी उंगली उठाने से संकोच नहीं किया। इस सबसे कांग्रेस के नेताओं की विश्वसनीयता समाप्त होने लगी थी। माक्र्सवादी पार्टी त्रिपुरा में चुनाव हारकर केवल केरल तक सीमित रह गई थी। इसके बाद राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के अलावा किसी दल की भूमिका नहीं बची। 2019 के चुनाव में भाजपा को और बड़ी जीत मिली। इसने पूरे विपक्ष को और अधिक हताश कर दिया। अधिकांश विपक्षी दल कांग्रेस से छिटककर ही अस्तित्व में आए हैं। इसलिए उनमें एक-से वोट बैंक को लेकर छीना-झपटी रहती है। इस बात ने भी अधिकांश विपक्षी नेताओं को कांग्रेस से दूरी बनाने के लिए विवश किया है।

पिछले डेढ़ वर्ष में विपक्ष की राजनीति कांग्रेस में सिमट गई है और कांग्रेस की राजनीति एक परिवार में। 2019 में आम चुनाव केी पराजय के बाद जब राहुल गांधी ने कांग्रेस का अध्यक्ष पद छोड़ा था तो कांग्रेस की असफलता का दोष यह कहते हुए पार्टी के अन्य सभी नेताओं पर डाला था कि नरेंद्र मोदी का विरोध करने में पार्टी उनका साथ नहीं दे रही। कांग्रेस के नेताओं की समस्या यह रही है कि राहुल गांधी का विरोध राजनैतिक कम व्यक्तिगत अधिक है। इसके अतिरिक्त अपनी अयोग्यता और राजनैतिक अपरिपक्वता के कारण राहुल गांधी निरंतर हंसी का पात्र बनते रहे हैं। उनके द्वारा किया जाने वाला नरेंद्र मोदी का विरोध किसी को प्रभावित नहीं कर पाता।

सोनिया परिवार ने राहुल गांधी की असफलता को प्रियंका गांधी की सक्रियता से ढकने की कोशिश की। पर प्रियंका गांधी स्वभाव से राजनैतिक नहीं हैं। राहुल गांधी ने राजनीति को ट्विट के स्तर पर उतार दिया है। अब तक असफलताओं के बावजूद कांग्रेस के पास राज्य स्तर पर कुशल नेताओं की कमी नहीं थी। पर उनमें से अनेक राहुल गांधी की राजनैतिक शैली के कारण पार्टी छोड़ गए। राहुल गांधी में जो अहंकार दिखता है, वह जितना उनके एक राजवंश का सदस्य होने के कारण है, उससे अधिक अपनी अयोग्यता के कारण है। कांग्रेस जब तक इस राज परिवार से बंधी हैं, अपनी वर्तमान दुर्दशा से उबर नहीं सकती। एक परिवार की राजनैतिक हताशा में फंसकर पूरे विपक्ष ने ही अपनी साथर्कता खो दी है। यही कारण है कि पिछले डेढ़ वर्ष में सरकार के विरोध में छेड़ा गया कोई आंदोलन जनांदोलन नहीं बन पाया। धीरे-धीरे सरकार का विरोध राहुल गांधी के दैनिक ट्विट में सिमटता जा रहा है। क्या विपक्ष के नेता अपनी इस स्थिति से उबरने के लिए कोई प्रयास नहीं करेंगे?

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