कांग्रेस ने संविधान सभा के लिए अभियान चलाया। हर मंच से मांग की। 19 नवंबर 1939 को गांधी जी ने हरिजन में लिखा कि अगर वयस्क मताधिकार पर आधारित संविधान सभा बनती है तो वही साम्प्रदायिक समस्या का हल निकाल सकती है। गांधी जी का यह भी कहना था कि उस संविधान सभा से जो संविधान निकलेगा वह देशज होगा।
जबकि संविधान सभा का तीन तरफ से विरोध हो रहा था। पहला विरोध मुस्लिम लीग की तरफ से था। दूसरा डा. अंबेडकर की तरफ से आया। तीसरा विरोध ब्रिटिश सरकार की तरफ से आया।
सबसे पहले सर् मारिस गायर ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के अपने दीक्षांत भाषण में संविधान सभा की मांग का विरोध किया। उन्होंने कहाकि कि यह व्यर्थ की कवायद है।
उनके बाद रेजिनार्ड कुपलैंड ने कहाकि संविधान सभा की मांग को राष्ट्रीय कहना सही नहीं है। यह तो कांग्रेस की मांग है। लेकिन उसी संविधान सभा की मांग को, जिसे अंग्रेज व्यर्थ की कवायद कह रहे थे, जब दूसरा विश्वयुद्ध शुरू हुआ तो ब्रिटिश शासकों ने उसे अपना लिया।
उस नारे को ही छीन कर खुद लगाने लगे। 8 अगस्त 1940 को वायसराय लिनलिथगो ने घोषणा की कि युद्ध समाप्त होने के बाद भारतीयों को संविधान बनाने की पूरी सुविधा दी जाएगी।
मार्च 1942 में क्रिप्स आए और संविधान सभा की पूरी रूपरेखा प्रस्तुत की। उन्होंने कहाकि युद्ध के बाद सन 1935 के कानून के आधार पर विधानसभाओं के चुनाव कारए जाएंगे। उन चुनावों के बाद संविधान सभा बनाने की प्रक्रिया शुरू कर दी जाएगी।
क्रिप्स मिशन के प्रस्तावों को भारत ने स्वीकार नहीं किया। कांग्रेस तब तक इस बात पर अड़ी रही कि हमें केवल संविधान सभा चाहिए। साल 1937 में विधान सभाओं के जो चुनाव हुए, उसमें कांग्रेस के दो नारे थे। पहला हमको 1935 का एक्ट नहीं चाहिए। दूसरा वयस्क मताधिकार पर संविधान सभा चाहिए। सात प्रांतो में कांग्रेस की सरकारें बनीं। हर विधानसभा में कांग्रेस ने अपनी मांग के समर्थन में प्रस्ताव पारित कराया।