नए संसद भवन के लोकसभा और राज्यसभा में दर्शक दीर्घाएं अपेक्षाकृत कम ऊंची संभवत: इसलिए रखी गई हैं कि लोग वहां से सदन की कार्यवाही को आसानी से सुन सकें और देख सकें। इस विचार को 13 दिसंबर की घटना ने गहरी चोट पहुंचाई है। यह लोकतंत्र पर भी चोट है। इससे उस भावना को भी धक्का लगा है जिसमें एक नागरिक को लोकतंत्र में कानून बनाने की प्रक्रिया का हिस्सा बनने का अवसर मिलता है। इस तरह दर्शक दीर्घाओं के लोकतांत्रिक प्रयोजन पर एक प्रश्नचिन्ह लग गया है। अगर यह घटना न होती तो दर्शक दीर्घाओं का सदुपयोग होता रहता। ऐसा भी नहीं है कि दर्शक दीर्घा से प्रतिरोध के प्रतीकात्मक प्रयास पहले नहीं हुए हैं। लेकिन उन घटनाओं और 13 दिसंबर की घटना में जमीन-आसमान का अंतर है।
जांच से पूरी बात सामने आएगी। लेकिन जो खबरें छपी हैं उनसे जिस तरह के संकेत मिल रहे हैं, वे एक गंभीर चेतावनी दे रहे हैं। स्पष्टतया इस घटना का संबंध एक राजनीतिक षड़यंत्र से है। यह स्वत: स्फूर्त प्रतिरोध नहीं है। ऐसे समय में जब भारत में संसदीय लोकतंत्र अपनी जड़ें जमा रहा है और संसद परिवर्तनकारी संस्था के रूप में निरंतर मान्यता प्राप्त कर रही है तब लोकसभा की दर्शक दीर्घा से बनावटी क्रांति का अभिनय कई सवाल खड़े करता है। पहला, क्या यह स्वत: स्फूर्त था? जब-जब ऐसी घटना हुई, अगर वह किसी एक नौजवान का उछाह था, तो उसे स्वत: स्फूर्त माना गया। भले ही उसे किसी ने उपकरण बनाया हो, लेकिन एक युवा का नारे लगाना, परचे फेंकना या दर्शक दीर्घा से कूद पड़ना आदि ऐसा कृत्य माना जाता था, जिसमें साजिश नहीं खोजी जाती थी। यह मान लिया जाता था कि उस युवा ने अपना रोष प्रकट किया है। लोकतंत्र में किसी को विरोध प्रकट करने का जो अधिकार मिला है, उसे ही वह युवा अपने ढंग से इस्तेमाल कर रहा है। यही धारणा उस घटना के बारे में बनाई जाती थी। जांच के बाद यही साबित भी होता था।
लेकिन 13 दिसंबर को लोकसभा दर्शक दीर्घा से दो युवकों के कूदने और धुआं फैलाकर अफरातफरी मचाने की घटना कुछ अलग किस्म की है। इसे संसद की सुरक्षा में सेंध की गंभीर घटना इसलिए भी माना जा रहा है क्योंकि 22 साल पहले पाकिस्तान प्रेरित आतंकियों ने संसद पर एक नाकाम हमला किया था। इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के कथन से भी समझा जा सकता है। लेकिन इस घटना के और अनेक आयाम हैं। पहला तो राजनीतिक है। इस घटना की निंदा में पूरा सदन एक जुट रहे, विपक्ष ने इसकी परवाह नहीं की। विपक्ष ने इसे अपने लिए एक राजनीतिक अवसर माना। इसके कारण स्पष्ट हैं। कुछ मामले ऐसे होते हैं जिन्हें दलीय दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए। उनमें ही यह घटना भी मानी जा सकती है। लेकिन विपक्ष ने इसे सदन में मुद्दा बनाया। सारी मर्यादाएं तोड़ी। हद तो तब हो गई जब लोकसभा और राज्यसभा में विपक्ष ने सारी सीमाएं तोड़कर अपनी भड़ास निकाली। परिणामस्वरूप सांसदों का निलंबन हुआ।
कांग्रेस अध्यक्ष मल्किार्जुन खरगे इसे ‘लोकतंत्र का निलंबन’ कह रहे हैं। वे आरोप को अगर अपनी तरफ मोड़ दें, तो उन्हें अपने कथन का यथार्थ समझ में आ जाएगा। वह यह होगा कि विपक्ष ने युवकों की बेजा हरकत को काफी नहीं माना, बल्कि उसे बल दिया और लोकतंत्र को निलंबित करने की अनुचित कार्रवाई का हिस्सेदार बना। इसी से संदेह होता है कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि आईएनडीआईए के अस्तित्व पर मंडरा रहे खतरे को टालने के लिए यह साजिश रची गयी? जिसे विपक्ष लोकतंत्र का निलंबन कह रहा है, उसे अब लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला के बयान ने निराधार साबित कर दिया है। उन्होंने सांसदों को सूचना दी है कि संसद परिसर में सुरक्षा की समीक्षा के लिए एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति गठित की गई है। इसी सूचना में उन्होंने एक स्पष्टीकरण दिया है कि सांसदों का निलंबन संसदीय गरिमा की रक्षा के लिए किया गया।
दूसरी तरफ विपक्ष के रवैए से संदेह गहरा होता जा रहा है। संसद की सुरक्षा का दूसरा अर्थ है, लोकतंत्र की रक्षा। क्या विपक्ष का हंगामा लोकतंत्र की रक्षा है या राजनीतिक मतभेद भुलाकर इस प्रश्न पर आम सहमति बनाना आवश्यक नहीं है? विपक्ष आरोप लगा रहा है कि गृहमंत्री अमित शाह के अहंकार से यह स्थिति पैदा हुई है। क्या विपक्ष का आरोप उचित है? इसे सत्तापक्ष के प्रवक्ता प्रहलाद जोशी के कथन से जांचा जा सकता है। प्रहलाद जोशी संसदीय कार्यमंत्री हैं। उन्होंने विपक्ष को दो बातें बताई हैं। पहली, संसद का परिसर और दोनों सदन लोकसभा अध्यक्ष के प्रशासनिक नियंत्रण में आते हैं। यह परंपरा ब्रिटेन की संसद से ग्रहण की गई है। दूसरी, लोकसभा अध्यक्ष के आदेश से सरकार उच्च स्तरीय जांच करा रही है। यह गृहमंत्री अमित शाह के कथन की पुष्टि है। प्रहलाद जोशी ने यह बताकर अपेक्षा की है कि विपक्ष अपना दायित्व अनुभव करेगा और अपने आचरण को तदनुरूप बनाएगा। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार ने त्वरित कारवाई की। उच्चस्तरीय जांच का आदेश दिया। सी.आर.पी.एफ. के महानिदेशक अनीश दयाल सिंह की अध्यक्षता में जांच समिति बनाई गई है। यह समिति एक पखवाड़े में अपनी रिपोर्ट दे देगी। यही उसे निर्देश मिला है। जांच से जो तथ्य और अगर कोई छोटा या बड़ा षड़यंत्र है तो वह सामने आ जाएगा। लेकिन पहली नजर में यह रोष प्रकट करने का एक लोकतांत्रिक तरीका तो नजर नहीं आता।
जो कुछ अब तक मीडिया में आया है उससे ऐसा लगता है कि कोई साजिश रची गई थी। जिसे इस समय अंजाम दिया गया। अभी तक की जांच से यह बात सामने आई है कि ललित झा इस कांड का मोहरा है। मास्टरमाइंड तो कोई और है। वह कोलकाता में रहता था। वह फरार था लेकिन पकड़ा गया। उससे पूछताछ चल रही है। उसने यह कबूला है कि दो प्रकार की योजना थी। पहली अगर विफल होती तो दूसरी भी साथ-साथ विकल्प के लिए बना ली गई थी। पहली सफल हुई और लोकसभा की दर्शक दीर्घा से कूदकर दो युवक अफरातफरी मचा सके। उसी तरह से बाहर उसी योजना में दो ने नारे लगाए। यह बात भी सामने आई है कि एक गिरफ्तार आरोपी सागर शर्मा की डायरी से कुछ खुलासे हुए हैं। उसकी डायरी दो साल पुरानी है। वह साजिश के लिए बेंगलुरू गया था। सागर के पिता ने दूसरे आरोपी मनोरंजन पर अपने बेटे को बरगलाने का आरोप लगाया है।
आरोपी मनोरंजन डी मैसुरू से है। डेढ़ साल पहले मैसुरू में ये आरोपी एक-दूसरे से मिले थे। इन्हें ललित झा ने आपस में मिलवाया था। अभी तक तो यह जानकारी निकली है कि ये फेसबुक के जरिए परस्पर परिचित हुए हैं। ये चार युवा थे। लखनऊ से सागर शर्मा, लातूर से अमोल शिंदे, मैसुरू से मनोरंजन डी और कोलकाता से ललित झा। पांचवी महिला नीलम है। एक छठा व्यक्ति भी है। वह महेश कुमावत है। उसे भी पुलिस ने पकड़ लिया है। इस तरह छ: आरोपी हैं जिनसे पूछताछ हो रही है। अब तक जो बात उजागर हो सकी है वह यह कि एक योजना में ये काम कर रहे थे। कई महीने पहले से तैयारी चल रही थी।
जुलाई महीने में सागर, अमोल और हिसार से नीलम आईं। ये दिल्ली में मिले। उससे पहले मनोरंजन डी ने मार्च महीने में पुराने संसद भवन के लोकसभा की दर्शक दीर्घा को अपनी योजना के लिए देखा-समझा था। जो घटना 13 दिसंबर की है, उसके लिए चार दिन पहले ये सभी मिले। नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास मेट्रो स्टेशन पर 10 दिसंबर की रात सागर, नीलम और अमोल मिले और फिर मनोरंजन डी के ठिकाने पर गुरूग्राम गए। अगले दिन मनोरंजन डी भी वहां आ गया। इस दौरान इन्हें संसद में विजिटर पास का जुगाड़ करना था। वह इनके अनुमान से एक दिन पहले ही हो गया। यह जानकारी भी अब सार्वजनिक हो गई है कि इन्हें आधार कार्ड कहां से मिला और कहां से तिरंगा खरीदा गया। संसद भवन से पहले ये इंडिया गेट पर मिले।
यह भी षड़यंत्र का ही एक अंग निकलेगा जब जांच रिपोर्ट आएगी कि भाजपा के मैसुरू से सांसद प्रताप सिम्हा के निजी सहायक से पास प्राप्त कर दो युवक संसद भवन के अंदर जा सके। अगर एक ही युवा पकड़ा जाता तो यह घटना वैसी गंभीर नहीं मानी जाती जैसी अब है। इसके दो तथ्य इस बात के स्पष्ट संकेत देते हैं कि काफी पहले से तैयारी चल रही थी। यह अचानक किसी के मन में पैदा आक्रोश के कारण घटना नहीं हुई है। वैसे भी संसद की सुरक्षा जितनी चाक-चौबंद है उसमें घुसपैठ करना आसान नहीं है। फिर भी ये घुसपैठ कर सके तो साफ है कि इसका ताना-बाना बड़ा था। उसका ही पता लगाना जांच का काम है। यहां यह जानना चाहिए कि वे दो तथ्य कौन से हैं। पहला यह कि सबूत मिटाने के लिए मोबाइल को जलाया गया। दूसरा कि दो जोड़े जूते जो लखनऊ में खरीदे गए उन्हें इस तरह बनाया गया था कि कैन छिपाया जा सके। मजेदार बात यह है कि जूते लखनऊ में खरीदे गए और कैन मुंबई में। क्या यह यूं ही हो रहा था? इसे कौन करा रहा था? इसमें पैसा किसका लगा? ये बातें धीरे-धीरे जांच से बाहर आएंगी।
एक रिपोर्ट है कि मनोरंजन डी सात साल पहले कंबोडिया गया और वहां एक साल रहा। वहां वह जो कुछ भी कर रहा था उसकी पुष्ट जानकारी जांच से निकल सकती है। लेकिन यह स्पष्ट हो गया है कि इस साल संसद की सुरक्षा में सेंध लगाने के लिए चार बार मैसुरू से दिल्ली आया। उस दौरान उसकी किससे भेंट हुई और क्या वह किसी की सहायता से अपनी योजना को आकार दे रहा था? ऐसे अनेक सवाल हैं। मनोरंजन 35 साल का है। अविवाहित है। किसान का बेटा है। लेकिन वह किसी अपराध में इससे पहले कभी पकड़ा नहीं गया। पूछताछ में उसकी चतुराई सामने आई है। वह उन मुद्दों की रट लगा रहा है, जिसे विपक्ष चुनाव में उठाना चाहता है। यही बात संदेह पैदा करती है कि वे कहीं विपक्ष के मोहरे तो नहीं हैं। जो भी हो, जांच से जो बातें सामने आएंगी, उनसे इनके रहस्य खुलेंगे। लेकिन जो बड़ा नुकसान होगा, वह अधिक कष्टदायक बनेगा। संसद और नागरिक की दूरी बढ़ेगी। साधारण नागरिक के लिए संसद में आना-जाना बहुत कठिन होता जाएगा। सांसदों को इसकी चिंता करनी चाहिए।
वह उन मुद्दों की रट लगा रहा है, जिसे विपक्ष चुनाव में उठाना चाहता है। यही बात संदेह पैदा करती है कि वे कहीं विपक्ष के मोहरे तो नहीं हैं। जो भी हो, जांच से जो बातें सामने आएंगी, उनसे इनके रहस्य खुलेंगे। लेकिन जो बड़ा नुकसान होगा, वह अधिक कष्टदायक बनेगा। संसद और नागरिक की दूरी बढ़ेगी।