संविधान-75

रामबहादुर राय

यह तारीख सचमुच ऐतिहासिक है, 1949 का 26 नवंबर। संविधान के सपने के पूरे होने का यह दिन है। सबसे पहले लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने यह सोचा कि अपना एक संविधान होना चाहिए। इसके लिए एक ड्राफ्टिंग कमेटी बनी। संविधान की कल्पना में दो दशक बाद एक पंख लगा। विचार आया कि ड्राफ्टिंग कमेटी से बेहतर होगा कि अपनी संविधान सभा हो। इसे करीब एक दशक बाद महात्मा गांधी ने भी अपना स्वर दिया। उसके आठ साल बाद एक प्रक्रिया से संविधान सभा अस्तित्व में आई। परोक्ष निर्वाचन की वह प्रक्रिया थी। संविधान सभा निर्वाचित हो गई, लेकिन गठन कब हो और कैसे हो, यह प्रश्न दिनोंदिन जटिल होता गया। इसमें देर लगी। आखिरकार 9 दिसंबर, 1946 का वह दिन निर्धारित हुआ और संविधान सभा ने गठन की प्रक्रिया पूरी की।

मुस्लिम लीग के असहयोगात्मक रूख से संविधान सभा महीनों उलझन में थी। जून 1947 में भारत विभाजन का निर्णय जैसे हुआ कि संविधान सभा उसकी काली छाया में अपनी राह खोजने के लिए विवश हुई। वह इसमें भी सफल हो गई। जो सोचा था, वह संभव नहीं हो सका। लेकिन संविधान सभा सभी बाधाओं के बावजूद अपनी मंजिल पर पहुंच ही गई। लंबा समय लगा। परिस्थितियां विपरीत थी। थिरचित्त से सोच पाने की फुर्सत बहुत नहीं थी। फिर भी जो संविधान बना उसमें भारत के नागरिक ने स्वराज की संभावना पाई है। हम जानते हैं, स्वराज वैदिक सत्य है। उसमें स्वतंत्रता, समता, सामाजिक सद्भाव, न्याय और लोकतंत्र के सूत्र हैं।

जिस समय संविधान बना तब देश की आबादी करीब 40 करोड़ थी। आज वह 140 करोड़ के पार है। इसी तरह तब जो समस्याएं थी; वे अलग तरह की थी। आज कुछ समस्याएं चुनौतियां बन गई हैं। वे बढ़ी भी हैं। उन चुनौतियों को विशालकाय होते अनुभव किया जा रहा है। तो क्या उपलब्धियां हैं ही नहीं? यह कौन कहता है! उन उपलब्धियों के बल पर ही तो यह विश्वास बढ़ रहा है कि उन चुनौतियों  पर पार पाया जा सकता है। यह भरोसा वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संकल्प से निकला है। उन्होंने एक लक्ष्य निर्धारित किया है। वह यह कि 2047 में विकसित भारत को साकार करना है। यह लक्ष्य प्रेरक होगा। सोचें, सही दिशा में सोचें और उस तरफ सतत चलते रहे तो लक्ष्य पाना कभी कठिन नहीं होता। यह संविधान की कल्पना से उसके बनने तक की कहानी में भी छिपा हुआ है। लक्ष्य निर्धारित हो चुका है। उसे कैसे प्राप्त करें, यह प्रश्न है। लेकिन यह यक्ष प्रश्न नहीं है। इसका उत्तर देने के लिए आखिरकार युधिष्ठिर को उपस्थित होने की जरूरत नहीं है। हर नागरिक सही उत्तर दे सकता है। यह संभव है, जब संविधान-75 के अवसर को विकसित भारत की उपलब्धि के लिए महान अवसर में बदला जा सके। यह कैसे होगा? इसके लिए हर नागरिक को अपनी खोज करनी पड़ेगी। उसे अपने से परिचित होना पड़ेगा। अपने से परिचय एक सांस्कृतिक चेतना का साक्षात्कार है। इसे स्वाधीनता संग्राम में खूब अच्छी तरह अनुभव किया जा सका है। आज अपने से परिचय का ही दूसरा नाम है, अपने संविधान से पूरी तरह परिचित होना।

सांस्कृतिक जागरण ने स्वाधीनता की राजनीतिक लड़ाई को बल दिया। राजनीतिक संघर्ष से स्वतंत्रता मिली। संविधान ने उस संग्राम के समूचे वादे को अपने में समेटा है। जिसकी शुरूआत संविधान की प्रस्तावना से होती है। संविधान की प्रस्तावना में वे जीवनमूल्य हैं जिन्हें नागरिक अपनाकर 21वीं सदी के सांस्कृतिक जागरण को संभव बना सकता है और उससे जो ऊर्जा प्राप्त होगी वह भारत को विकसित होने से किसी भी कीमत पर रोक नहीं सकेगी। विकसित भारत के लिए जो कीमत एक नागरिक को चुकानी है, वह इसकी तैयारी कर सकता है। इस प्रकार संविधान- 75 एक बड़ा अवसर बने और वह जन-जन के लिए नई यात्रा का प्रारंभ हो, तो संविधान निर्माताओं का दूसरा सपना पूरा हो सकता है। यहां कोई भी यह प्रश्न पूछ सकता है कि वह दूसरा सपना क्या था और इसे कैसे जानें? इन दोनों प्रश्नों का उत्तर एक है। वह संविधान में ही निहित है। यह कहने से एक नया प्रश्न पैदा हो सकता है। वह यह कि मूल संविधान या 2024 का संविधान? इस नए प्रश्न से किसी उलझन में पड़ने की जरूरत नहीं है। आज जो संविधान है वह मूल संविधान का अद्यतन स्वरूप है। लेकिन यहां यह भी दर्ज कर लेना चाहिए कि एक जगह संविधान में प्रक्षेपण है। वह अंश आपातकाल में अनावश्यक रूप से जोड़ा गया था। इसके अलावा संविधान की संपूर्णता में लोकतांत्रिक यात्रा उसी दिशा में है जिस दिशा में संविधान सभा ने चलने के लिए निर्देश किया था। इसलिए संविधान-75 का अवसर संवैधानिक संस्कृति को समझने, समझाने और अपनाने का उत्सव बनना चाहिए।

 

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