आनंद कुमार
भारत की संविधान सभा द्वारा संविधान का ऐसा मसौदा तैयार किया गया, जो कि उत्तर औपनिवेशिक समय में भारत के अन-औपनिवेशीकरण और प्रजातांत्रिक राष्ट्र-निर्माण का आधार बना। जनवरी 26, 1946 में अपने गठन के पश्चात संविधान सभा ने 40 माह के लंबे विचार-विमर्श के पश्चात, नवंबर 26, 1949 को इस मसौदे को पूरा किया, परंतु कांग्रेस समाजवादी पार्टी ने संविधान सभा का बहिष्कार किया। यह 1934 से ही कांग्रेस के भीतर भारतीय समाजवादियों का प्रमुख दल था। उन्होंने भारत की आजादी और महात्मा गांधी की हत्या के पश्चात 1948 में कांग्रेस को तोड़ दिया और समाजवादी दल का गठन किया तथा विपक्ष की भूमिका निभाई। जनता के सुझाव पाने के लिए वितरित किए गए संविधान के मसौदे के वे कटु आलोचक थे। समाजवादियों की प्रमुख आपत्तियाँ क्या थीं? समाजवादियों ने भारतीय गणतंत्र के संविधान के निर्माण में भाग क्यों नहीं लिया और क्या वे इसे ‘एक खोया हुआ अवसर’ मानते थे?
भारतीय संविधान की समाजवादी समीक्षा
संविधान के मसौदे की समाजवादी समालोचना कोई नगण्य घटना नहीं थी। संविधान सभा के उच्चतम स्तर पर स्वयं अध्यक्ष डॉ. बी.आर. आंबेडकर द्वारा इसके लिए उचित आभार प्रर्दिशत किया गया, इसकी चर्चा की गई और इसका उत्तर दिया गया। इसे अनायास खारिज नहीं किया गया। एक भविष्योन्मुखी अथवा जैफरसनवादी मार्ग अपनाने की बात भी कही गई। नवंबर 25, 1949 को संविधान सभा के सम्मुख किए गए अपने अंतिम भाषण में आंबेडकर ने कहा, ‘संविधान की आलोचना मुख्यत: दो क्षेत्रों से साम्यवादी दल और सामाजवादी दल से हुई। क्या ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि संविधान सचमुच इतना खराब था?’ मैं इसे नकारने का साहस कर रहा हूं। साम्यवादी दल सर्वहारा की तानाशाही के आधार पर संविधान का निर्माण चाहता था। वे इस संविधान की आलोचना इसलिए कर रहे थे, क्योंकि संविधान संसदीय प्रजातांत्रिक प्रणाली पर आधारित था। समाजवादी दो बातें चाहते थे। पहली बात वे यह चाहते थे कि संविधान इस बात की पूरी आजादी दे कि जब कभी वे सत्ता में आएँ तो संपूर्ण निजी संपत्ति का, बिना कोई मुआवजा दिए राष्ट्रीयकरण अथवा समाजीकरण कर सकें। दूसरी बात वे यह चाहते थे कि मौलिक अधिकारों पर किसी प्रकार का कोई अंकुश न रहे, क्योंकि यदि वे सत्ता में न आ सके तो उन्हें सरकार की अबाध आलोचना, यहाँ तक कि सत्तापलट का भी अधिकार मिले। ये ही मुख्य आधार हैं, जिनको लेकर मुख्यत: संविधान की निंदा की जा रही है।
डॉ. आंबेडकर ने इन आपत्तियों के दार्शनिक और राजनीतिक पहलुओं की अनदेखी नहीं की। उन्होंने इन आपत्तियों का उत्तर संकल्पनात्मक तथा रचनात्मक ढंग से दिया। उनके कथनानुसार, ‘मैं यह नहीं कहता कि संसदीय प्रजातंत्र का सिद्धांत राजनीतिक प्रजातंत्र का एकमात्र आदर्श रूप है। मैं यह भी नहीं कहता कि बिना मुआवजा दिए निजी संपत्ति का राष्ट्रीयकरण न करने का सिद्धांत इतना पवित्र है कि उसे छुआ भी नहीं जा सकता।’ मैं यह भी नहीं कहता कि मूल अधिकार कभी निरंकुश नहीं हो सकते और उन पर लगाई पाबंदियां कभी हटाई ही नहीं जा सकती। परंतु मैं इतना अवश्य कहता हूँ कि यह वर्तमान पीढ़ी के सिद्धांत हैं और यदि इस कथन में अतिशयोक्ति की गंध आए तो मेरा कहना है कि यह संविधान सभा के विचार अवश्य हैं। मसौदा तैयार करनेवाली समिति को इन्हें संविधान में शामिल करने के लिए दोषी क्यों माना जा रहा है ? मैं तो यह भी कहूँगा कि इसके लिए संविधान समिति के सदस्यों को भी क्यों दोष दिया जाए? मध्य अमरीकी राजनेता जैफरसन, जिसने अमरीकी संविधान के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, ऐसे मूल्यवान विचार व्यक्त किए थे, जिनकी संविधान निर्माता अनदेखी नहीं कर सकते। एक स्थान पर उन्होंने कहा है, ‘हमें प्रत्येक पीढ़ी को अलग राष्ट्र मानना चाहिए, जिसे बहुमत की इच्छा के अनुरूप अपने को शासित करने के अधिकार होंगे, परंतु आनेवाली पीढ़ियों को शासित करने के नहीं, किसी अन्य राष्ट्र के निवासियों को तो बिल्कुल भी नहीं।’
समाजवादियों ने संविधान सभा का बहिष्कार क्यों किया?
समाजवादियों द्वारा संविधान सभा का बहिष्कार करने के अनेक कारण थे। सर्वप्रथम तो यह सभा सार्वभौम वयस्क मताधिकार से नहीं चुनी गई थी। कांग्रेस ने संविधान सभा में भाग लेने पर सहमति दी थी, जिसके सदस्य अप्रत्यक्ष रूप से प्रांतीय विधानसभाओं द्वारा चुने गए थे, जिनका अपना चुनाव भारत सरकार अधिनियम 1991 के तहत हुआ था और जिसमें मात्र 15 प्रतिशत से अधिक मतदाताओं ने भाग नहीं लिया। था। नेहरू पहले के अपने पक्ष से विचलित हो गए थे, जिसमें उन्होंने सार्वभौम वयाम मताधिकार के आधार पर गठित संविधान सभा की वकालत की थी। ब्रिटिश सरकार द्वारा निर्धारित पद्धति को नेहरूजी द्वारा स्वीकार किया जाना समाजवादियों के लिए गहरा आघात था। दूसरा, रजवाड़ों की रियासतों को दिया गया प्रतिनिधित्व दोषपूर्ण और मनमाना था। रियासतों से चुने जानेवाले संविधान सभा के 69 सदस्यों में से 28 सदा देशी रियासतों के राजाओं के द्वारा मनोनीत होने थे। शेष कांग्रेसी नेताओं द्वारा मनोनी। थे, जिनका अखिल भारतीय प्रजा सम्मेलन में वर्चस्व था। तीसरा, उन्हें प्रतीत होता है कि संविधान सभा ब्रिटिश सरकार और मुसलिम लीग द्वारा बुना गया एक षड्यंत्रपण जाल है। चौथा, यह भी उनकी समझ से बाहर था कि एक ओर गांधीजी विभाजित भारत स्वीकार न करने पर अड़े थे, वहीं कांग्रेस कमेटी ने कैबिनेट कमेटी के प्रस्ताव स्वीकार कर लिये थे। इस आशय का प्रस्ताव अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के बंबई में 1946 में आयोजित अधिवेशन में 51 के मुकाबले 204 मतों से पारित हुआ था। पांचवां, वे ब्रिटिश सरकार के प्रति वफादारी की शपथ लेने को तैयार नहीं थे, जो कि संविधान सभा की सदस्यता के लिए चुनाव लड़ने का फॉर्म भरने की पहली शर्त थी।
कांग्रेस समाजवादी दल के महासचिव जयप्रकाश नारायण के अनुसार, ‘संविधान ब्रिटिश शासन की उपज है। इसलिए यह हमें वैसी आजादी कभी नहीं दे सकता, जिसके लिए हम संघर्ष करते रहे हैं। यह लोगों की शक्ति की उपज नहीं है।’ जयप्रकाश ने कांग्रेस और देश को स्वाधीनता के लिए निर्णायक लड़ाई लड़ने के लिए तैयार करने का आह्वान किया था। उन्होंने अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के नवंबर 23-24, 1946 को मेरठ में आयोजित अधिवेशन के मैनिफेस्टो में शामिल करने हेतु इस आशय का एक प्रस्ताव पेश किया था, जिसमें कहा गया था कि संविधान सभा के कांग्रेसी सदस्यों की अपेक्षा अखिल भारतीय कांग्ग्रेस समिति ही कांग्रेस के मैनिफेस्टो के प्रकाश में स्वराज के स्वरूप पर विचार करने में अधिक सक्षम है। उन्होंने कहा था, ‘आम आदमी के लिए स्वराज तब तक एक यथार्थ नहीं हो सकता, जब तक ऐसे समाज का निर्माण न हो जाए, जिसमें राजनीतिक से लेकर सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र तक लोकतंत्र व्याप्त नहीं होगा तथा जिसमें विशेषाधिकार प्राप्त वर्गों को अधिसंख्यक लोगों के शोषण का अधिकार नहीं होगा और न ही वर्तमान समाज में व्याप्त असमानताओं जैसी असमानताएं रहेंगी। ऐसे समाज में वैयक्तिक आजादी, अवसर की समानता और प्रत्येक नागरिक के लिए अपने व्यक्तित्व के विकास की संभावनाएं रहेंगी।’
जनवरी 6, 1947 को नेहरू जी ने अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी में प्रस्ताव रखकर ब्रिटिश मंत्रिमंडल की 6 दिसंबर की घोषणा को स्वीकार करने का सुझाव दिया। जयप्रकाश नारायण ने इस सुझाव का विरोध किया। उन्होंने तो कमेटी से त्याग-पत्र तक देने की पेशकश की। उनका मानना था कि यह कदम अंतत: पाकिस्तान बनाने की दिशा में एक कदम और आगे बढ़ने जैसा होगा।
समाजवादी दल के वरिष्ठतम नेता आचार्य नरेंद्र देव ने संविधान सभा के विषय में एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया, जिसका समर्थन महाराष्ट्र के प्रभावशाली समाज सुधारक और जन नेता राव साहब पटवर्धन ने किया था। इस प्रस्ताव में कहा गया था, ‘यह समाजवादी कांग्रेस घोषणा करती है कि वह स्वतंत्र, सर्व सत्तासंपन्न गणतंत्र की पक्षधर है, जहां पर सारी शक्तियां और सत्ता लोगों से प्राप्त होंगी। एक ऐसा संविधान बनेगा, जिसमें सामाजिक तथ्यों को इस प्रकार निर्धारित किया जाएगा, जिससे सभी लोगों की आजादी, उन्नति और अवसर की समानता सुनिश्चित की जाएगी, ताकि यह प्राचीन देश विश्व में अपना उचित सम्मानजनक स्थान प्राप्त कर सके और मानवता के विकास और कल्याण में भागीदार हो सके। कांग्रेस अपने सभी सदस्यों को इन लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु कार्य करने का निर्देश देती है।’
अच्युत पटवर्धन की चेतावनी और जे.पी. द्वारा विरोध
कांग्रेस समाजवादी दल के संस्थापक नेता अच्युत पटवर्धन (1942 की अगस्त क्रांति के नेता, जिन्होंने महाराष्ट्र में ‘सतारा’ मुक्ति आंदोलन किया और जिन्हें ब्रिटिश सरकार 1942 से 1946 तक पकड़ने में नाकाम रही) भी कांग्रेस की कार्यकारिणी समिति के संविधान सभा में भाग लेने विषयक निर्णय के विरोध में जयप्रकाश नारायण के साथ आ गए। पटवर्धन ने कहा, ‘संविधान सभा में भाग लेने पर अपनी सहमति देने के बाद कांग्रेस यह कह कैसे सकती है कि वह समूहीकरण में भाग नहीं लेना चाहती? कांग्रेस की कार्यकारी समिति ने कहा कि उन्होंने समूहीकरण विषयक उपवाक्य की अपनी व्याख्या मानी है। जिन्ना की इस विषय की अपनी व्याख्या थी, जो कांग्रेस से भिन्न थी। अब तक प्रकाशित पत्राचार से ऐसा प्रमाण नहीं मिलता कि ‘कैबिनेट कमेटी’ ने समूहीकरण विषयक कांग्रेस की व्याख्या को माना था। इसके विपरीत, कैबिनेट मिशन ने यह स्पष्ट कर दिया था कि कांग्नेस द्वारा की गई व्याख्या, कैबिनेट मिशन की अवधारणा से बिल्कुल भिन्न है। इस विषय में कांग्रेस के लोग अंतरिम सरकार में सहभागी होने के कारण रपटीली जमीन पर थे। बंबई में कांग्रेस के अखिल भारतीय अधिवेशन में अध्यक्ष और अन्य नेताओं ने कमेटी को आश्वस्त किया था कि वे संविधान सभा में किसी प्रकार का पूर्व आश्वासन दिए बिना शामिल हुए हैं। परंतु बाद में उन्हें यह स्वीकार करना पड़ा कि उन्होंने कैबिनेट मिशन की शर्तों को पूरी तरह स्वीकार किया था।’ अच्युत पटवर्धन ने सामयिक चेतावनी देते हुए कहा था कि भारत का प्रशासन बाहरी सैन्यबलों की सहायता से नहीं चलाया जाना चाहिए, उन्हें वापस भेजा जाना चाहिए। विदेशी सैनिकों के द्वारा शांति स्थापना की अपेक्षा वे हिंदू-मुस्लिम दंगों को स्वीकार करेंगे।
जुलाई 27, 1946 को मुस्लिम लीग ने कैबिनेट मिशन की दीर्घकालीन योजना को ठुकरा दिया और पाकिस्तान बनाने के लिए 16 अगस्त को ‘सीधी कार्रवाई’ की घोषणा कर दी। अगले 18 महीने के लिए यह उपमहादीप रक्तपात और दंगों में डुबा दिया गया। हिंसक कुकृत्य चरम सीमा पर पहुंच गए, जो कि कलकत्ता से नोआखाली तक और वहां से बिहार तक फैले। ये अंतत: पंजाब और उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत तक फैल गए। ब्रिटिश मंत्रिमंडल ने दिसंबर 6, 1946 को एक बयान जारी किया, जिसमें कहा गया, ‘परस्पर स्वीकृत कार्यविधि पर चलने के अलावा संविधान सभा के किसी भी अन्य तरीके से सफल होने की कोई संभावना नहीं थी। यदि कोई ऐसा संविधान बनाया जाता, जिसे बनाने में भारत की जनसंख्या के एक बड़े वर्ग (मुस्लिम लीग) की सहभागिता न रहती तो ऐसी अवस्था में संभवत: ब्रिटिश सरकार ऐसे संविधान को स्वीकार करने में अनिच्छुक लोगों पर ऐसा संविधान थोपने की कल्पना भी नहीं कर सकती थी, यही कांग्रेस का भी मत था।’ इस घोषणा ने पाकिस्तान की मांग में नई जान फूंक दी। जनवरी 6, 1947 को नेहरू जी ने अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी में प्रस्ताव रखकर ब्रिटिश मंत्रिमंडल की 6 दिसंबर की घोषणा को स्वीकार करने का सुझाव दिया। जयप्रकाश नारायण ने इस सुझाव का विरोध किया। उन्होंने तो कमेटी से त्याग-पत्र तक देने की पेशकश की। उनका मानना था कि यह कदम अंतत: पाकिस्तान बनाने की दिशा में एक कदम और आगे बढ़ने जैसा होगा।
संविधान सभा के बहिष्कार पर किसी प्रकार का खेद
संविधान सभा के बहिष्कार के मुद्दे पर समाजवादी दल का तात्कालिक आत्म मूल्यांकन क्या था? संविधान सभा के बहिष्कार के परिणामस्वरूप समाजवादियों के संविधान निर्माण की प्रक्रिया ने पूरी तरह बाहर रह जाने विषयक खेद की बातों के परिणामस्वरूप जयप्रकाश नारायण ने कहा था, ‘जहां तक हमारा प्रश्न है, हमें संविधान सभा के बहिष्कार का बिल्कुल कोई खेद नहीं है। ऐसा करके हम देश को अपनी इस चिंता से अवगत करवाना चाहते थे कि अंग्रेजों के साथ समझौते की बात ही मूलत: गलत थी और इसे पूरी तरह ठुकरा दिया जाना चाहिए था। इसे पूर्णतया ठुकराते हुए समझौते की बात करना परले दर्जे की अवसरवादिता होती।’ उन्होंने आगे चलकर और स्पष्ट करते हुए कहा, ‘जिस तरह आगे चलकर घटनाएं घटित हुई और मुस्लिम लीग संविधान सभा को छोड़ गई, तदुपरांत जो संस्था बची, उसे भारत के लिए संविधान के मसौदे को तैयार करने का अधिकार ही नहीं रहा।’ जैसा कि मैंने पहले कहा है, ब्रिटिश सरकार के साथ हुए समझौते को समाप्त करके, और अंतरिम सरकार से त्याग-पत्र देकर, अंतत: लोगों द्वारा चुनी गई संविधान सभा का गठन किया जाना चाहिए था।
तब यह क्रांतिकारी शक्तियों का केंद्र बनती और ब्रिटिश सरकार की सत्ता को अंतिम रूप से चुनौती दे सकती थी। समाजवादी दल ने भी ऐसी संविधान सभा में निष्ठापूर्वक सहभागिता की होती और इसके निर्णयों को लागू करने का पूरा दायित्व सँभाला होता। हमें बताया गया कि ऐसा करने से गृहयुद्ध की आशंका थी, जिसे टालने के लिए पाकिस्तान के निर्माण की मांग को स्वीकार करके चला गया। हमारा मानना था कि पहली बात तो यह थी कि ऐसा खतरा उठाया जाना चाहिए था, दूसरे पाकिस्तान निर्माण की माँग स्वीकार करके इस आशंका के निर्मूल होने की अपेक्षा, पुष्ट होने की संभावना अधिक थी। कांग्रेस के लिए आसानी से मिल रही सत्ता का लोभ संवरण करना बहुत कठिन था। और इतिहास ने यह बताया है कि इसके कितने दु:खद दुष्परिणाम सामने आए हैं। −
यथावत से साभार