संविधान नियमों, अधिनियमों का संग्रहण या दस्तावेज मात्र नहीं होता. यह लोकतंत्र का प्राण तत्व है, उसकी जीवंतता आधार है. 26 नवम्बर, 1949 को भारतीय गणतंत्र द्वारा आत्मार्पित संविधान ने भारतीय लोकतंत्र की आधुनिकता का मार्ग प्रशस्त किया. 1946 की कैबिनेट मिशन योजना के तहत गठित एक संविधान सभा द्वारा इसे तैयार किया गया था. जिसकी मसौदा समिति के अध्यक्ष थे डॉ. बी.आर. आंबेडकर.
ऐतिहासिक नियति का ये अजीब प्रहसन है. जिस देश के धार्मिक-सामाजिक विधानों ने डॉ. आंबेडकर को जन्मना अस्पृश्य-अछूत बना दिया, उसी राष्ट्र में उन्होंने आधुनिक विधान के रूप में संविधान की रचना में मुख्य भूमिका का निर्वहन किया. बाबा साहब ने उन आधुनिक विधानों की रचना की, जो असमानता, अपृश्यता, राज्यसत्ता के दमन के विरुद्ध आम भारतीयों के मूलाधिकारों का संबल है, उनके जीवन, संपत्ति की सुरक्षा ढाल है. इस तथ्य के अनुकूल सहज़ ही इतिहास की नियति का विचार जेहन में कौँधता है. दो दशक पूर्व मनुस्मृति के सार्वजानिक दाहक विद्रोही द्वारा भारत की आधुनिक स्मृति की रचना करना, अवश्य ही अस्पृश्यता के अमानवीय विचारों के विरुद्ध नियति द्वारा लिया गया प्रतिशोध होगा. यह अवश्य इतिहास की नियति ही है कि मनु के दर्शन या ‘मनुवाद’ का क्रूर विरोधी स्वयं ‘आधुनिक मनु’ की उपमा से अलंकृत किया जाने लगा. उन अम्बेडकर को, जो आजीवन रूढ़िवादी मूल्यों पर प्रश्न उठाते रहे.
इससे उस तर्क को आलम्बन मिलता है कि आधुनिक सभ्यता का जन्मदाता वह व्यक्ति रहा होगा जिसने सर्वप्रथम सामाजिक-धार्मिक मान्यताओं की शुचिता और सार्थकता पर प्रश्न उठाये होंगें. कह सकते हैं कि संविधान का आरोहण उस भावना, उन उच्चाकांक्षाओं की बेदी पर हुआ था जिसके नीचे दमित-दलित प्रताड़ित जनता जुगुप्सा की भावना के साथ जी रही थी.
हालांकि ब्रिटिश सत्ता के पतन के बाद 1947 से निरंतर भारतीय गणतंत्र के विखंडन अथवा उस पर सैनिक शासन मुसल्लत किये जाने की भविष्यवाणी की जाती रही, विशेषकर पश्चिमी लेखकों द्वारा. जैसे राजनीतिशास्त्री रॉबर्ट डल का मानना था कि ‘हिंदुस्तान में लोकतान्त्रिक संस्थाओं के विकास की अनुकूल परिस्थितियां नहीं है.’ पत्रकार डॉन टेलर ने भाषाओं, धर्मों, नस्लों की विविधता के आधार पर भारत के एक राष्ट्र के रूप में उदित होने के प्रति शंका जाहिर की थी.
यह सही है कि संविधान के संरक्षण में सत्तर सालों से अधिक की लोकतान्त्रिक यात्रा में हमने देश के विभिन्न हिस्सों, विभिन्न वर्गों में संवैधानिक धारणाओं के प्रति असहमतियों की एक श्रृंखला देखी जो कई दफ़े इतनी तीव्र हो गई कि उसने हिंसक विद्रोह का रूप धारण कर लिया. जैसे भाषायी आधार पर नये राज्य निर्माण का प्रश्न (मद्रास सन् 1951-1953), नृजातीय पृथकता का संघर्ष (नागा विद्रोह 1953, मिजो विद्रोह 1959 आदि), वैचारिक आधार पर बलात सत्ता परिवर्तन का संघर्ष ( आंध्र कॉम्युनिस्ट विद्रोह 1948-49, नक्सल विद्रोह 1967), भाषा का संघर्ष (तमिलनाडु में हिंदी विरोधी आंदोलन 1965), पंथीय विद्रोह (80 एवं 90 के दशक में मुक्त कश्मीर तथा खालिस्तान आंदोलन), धार्मिक स्थलों की मुक्ति का संघर्ष (1992-93 में रामजन्मभूमि स्थान का विवाद) इत्यादि.
इन उग्र विरोधों ने कभी-कभी ऐसी अप्रिय स्थिति पैदा कर दी कि राष्ट्र के पुनः खंडित होने का संकट आसन्न प्रतीत होने लगा. लेकिन फिर हम देखते हैं कि शनै:-शनै: इन विद्रोहों ने संवैधानिक प्रतिरोध का मार्ग पकड़ लिया और संविधान के अंतर्गत ही अपनी असहमतियों के सरलीकरण का मार्ग तलाशने लगे और अंततः इन सारे संघर्षो के शमन एवं निराकरण की नियति संवैधानिक मार्ग ही सिद्ध हुए हैं.
जैसे फजल अली आयोग (1953) ने भाषायी आधार पर नये राज्यों के गठन का मार्ग प्रशस्त किया. नागा, मिजो आदि विद्रोह, संघर्ष विराम एवं चुनावी राजनीति की मुख्यधारा में ही अपना लक्ष्य तलाश रहे हैं. यही स्थिति कश्मीर के इस्लामिक समाज एवं पंजाब के सिख समुदाय की है जिन्होंने अपने अतार्किक विद्रोह के बाद धीमे-धीमे स्वयं को भारतीय लोकतंत्र के साथ एकाकार कर लिया है. उसी प्रकार भाषायी बहुलता को स्वीकार कर संविधान ने ऐसे विरोध के पथ दुर्गम कर दिये हैं. बाबरी ढांचा के विवाद में बहुसंख्यक हिन्दू समाज ने अपने धार्मिक स्थल के विवाद के निराकरण एवं पुनर्प्राप्ति के लिए शक्ति नहीं न्यायालय के निर्णय पर आधारित चेतना को ही प्राथमिकता दी. जहाँ तक वामपंथी हिंसा का प्रश्न है, 1952 में केरल में संवैधानिक मतदान की प्रक्रिया से कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता में आई. यह दुनिया में पहली बार हुआ था जब एक ऐसी विचारधारा पर आधारित दल लोकतान्त्रिक मूल्यों के अनुरूप सरकार का गठन कर रहा था जिसकी आस्था ही हिंसा से सत्ता कब्ज़ाने की है. और आज इस विचारधारा की हिंसा में आस्था निर्णायक रूप से लोकतान्त्रिक मूल्यों की स्वीकृति की ओर स्थापित हो चुकी है.
तात्पर्य यह है कि यह देश पिछले सात दशकों से अधिक समय से संविधान की उस निरंतर यात्रा का पथिक है जहाँ राजसत्ता की निरंकुशता, औपनिवेशिक दमन-शोषण-प्रताड़ना, आर्थिक-सामाजिक वंचना, सत्ता संघर्ष, जातिवाद, राजनीतिक कलुषता-अवसरवाद, नये दौर की उम्मीद, परिवर्तन का संघर्ष, धर्म निरपेक्षता, विचारधाराओं का घर्षण, लैंगिक-सामाजिक समता आदि जाने कितने मसले हर दौर में हमसाया-हमसाथी रहे हैं. लेकिन संविधान के प्रति सम्मिलित आस्था एवं उसके मूल्यों के प्रति तार्किक विश्वास ने इस राष्ट्र की एकता-अखंडता को संजोये रखा.
जैसा कि संविधान के मुख्य शिल्पी डॉ.आंबेडकर कहते थे, ‘संवैधानिक नैतिकता एक स्वभाविक भावना नहीं है. इसका क्रमिक विकास किया जाता है.’ यह भारत के संवैधानिक मूल्यों के दीपित प्रभाव का प्रमाण है. आज भी हमारे मध्य मूल्यों, विचारों को लेकर निरंतर असहमतियाँ बनी रहती हैं लेकिन इसे नकारात्मक टकराव के रूप में चित्रित नहीं किया जा सकता. हम एक जीवंत संविधान के अंतर्गत प्रगतिशील लोकतान्त्रिक समाज की नागरिक हैं. हमारे वैचारिक टकराव एक आधुनिक समाज की चिरंतर सैद्धांतिक विकास का पर्याय है. वैसे भी एकांगी विचारधारा पर आधारित रूढ़िवादी समाज उस ठहरे हुए पानी की भांति होता हैं जहाँ कोई जीवन नहीं पनपता बल्कि केवल सड़ान्ध होती है.
कोई सभ्यता-समाज गतिशील हो तब वहां वैचारिक असाम्यता, सैद्धांतिक प्रतिरोध अवश्यंभावी होते हैं. इसी अनुरूप किसी आधुनिक लोकतंत्र में संवैधानिक धाराओं पर असहमति होना सहज़ है. प्रकृति में कुछ भी पूर्ण नहीं है, यहाँ तक कि दार्शनिक मान्यताओं में ईश्वर भी नहीं. वैसे ही संविधान भी सम्पूर्ण नहीं है. संविधान कोई रुक्ष, जड़वत नियमों का संकलन मात्र नहीं है. यह जीवित संस्थाओं एवं सक्रिय मूल्यों की आस्था का केन्द्र है. स्वयं डॉ.आंबेडकर भी इससे संतुष्ट नहीं थे. वे संविधान की पूर्णता के विचार के विरोधी रहे हैं. वे उस समूह का हिस्सा बनना चाहते थे जो संविधान का विरोध करे. इसी अनुरूप संविधान के मूल ढांचे को स्थिर रखते हुए, काल एवं परिस्थितियों के अनुरूप सदैव संशोधन की आवश्यकता बनी रहती हैं. यही कारण है कि सौ से अधिक संशोधनों के बाद भी भारतीय लोकतंत्र ने उसके मूल भावों को अपरिवर्तित रखा है.
लेकिन कई बार राष्ट्रीय फलक पर ऐसे अप्रिय प्रसंग प्रकट होते हैं जिससे संविधान के प्रति आम भारतीयों में क्षुब्धतापूर्ण क्रोध उभरता है. जब बिहार में जिलाधिकारी की सार्वजनिक हत्या करने वाला ‘बाहुबली जनप्रतिनिधि’ दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से जेल से छूट जाता है, जब किसी निर्भया के विरुद्ध क्रूर-जानलेवा यौन हिंसा का आरोपी मात्र आयु वर्ग के आधार पर जेल से रिहा कर दिया जाता है, बंगाल के सन्देशखाली में महिलाओं के विरुद्ध यौन हिंसा का आरोपी सत्ता संरक्षण में क़ानून को अपमानित करता है, ज़ब मध्यप्रदेश के डिंडौरी में दलितों को प्रताड़ित एवं उनका सामाजिक बहिष्कार किया जाता है, और ना जाने ऐसी ही कितनी अन्यायपूर्ण घटनाएं प्रकाश में आती हैं, तब आम भारतीय नागरिक संविधान की प्रभुता को लेकर शंकित एवं उसके विलंबित प्रतिक्रिया तथा उसकी कानूनी विसंगतियों के प्रति आक्रोशित होता है. उसे यह प्रतीत होता है कि ऐसी आसुरी-अशुभ शक्तियों का मध्ययुगीन दांडिक नियमों से शमन ही सर्वोत्तम उपाय है. लेकिन ‘संविधानवाद की अवधारणा’ उसे लोकतान्त्रिक मार्ग के माध्यम से अपने आक्रोश के निराकरण का मार्ग प्रशस्त करती है. इस अवधारणा ने ही उसे मध्यकालीन रूढ़िवादी समाज से एक आधुनिक सभ्यता के मूल्यों का हामी बनाये रखा है.
संविधान स्वयं में प्रेरक है, उस स्वतंत्रता, समानता, गणतान्त्रिक भावनाओं का, कि जिसे खो देने की सोच ही भारतीय समाज को विह्वाल कर जाती है. और यदि किसी राजनीतिक शक्ति ने इस भावना पर कभी आघात का प्रयास किया है तो जनता ने उसका यथाशक्ति भरपूर प्रतिरोध किया है और इसका वैधानिक प्रतिशोध लिया है.
उदाहरणस्वरुप 1976 में तत्कालीन केन्द्र सरकार ने 42वें संशोधन अधिनियम द्वारा संविधान में विस्तृत-अभूतपूर्व परिवर्तन किये जिसने संविधान की मूल अवधारणा की नींव हिला दी. यह दुराग्रहपूर्ण परिवर्तन इतना व्यापक था कि इसे संवैधानिक इतिहास में संशोधन के बजाय पुनरीक्षण कहा जाता है. यह एक सर्वसत्ताधारी सरकार के एकाधिकार का प्रयास था लेकिन इस अशुभ स्थिति पर जनता खामोश नहीं बैठी रही उसने ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ के रूप में सड़कों पर आंदोलन किया और सरकारी ‘बुलेट’ के विरुद्ध अपने आक्रोश की अभिव्यक्ति ‘बैलेट’ के माध्यम से करते हुए तत्कालीन सरकार को सत्ता से बेदखल कर इतिहास की नियति के आश्रय छोड़ दिया. जनता ने नई सरकार का आह्वान किया जिसने पुनः संविधान की प्रतिष्ठा स्थापित की.
इसलिए वर्तमान और भविष्य की सत्ताओं के लिए यह सबक, एक सन्देश है कि जनता की राजनीतिक समझ को कमतर ना आंके क्योंकि इस आधुनिक भारत की जनता यह जानती है कि इस लोकतंत्र के मंदिर की असली स्वामिनी, मूल शक्ति प्रतिष्ठान वही है. अतः किसी भी राजनीतिक दल को, चाहे वह जितने में प्रचण्ड बहुमत से संसद और विधानमण्डलों का नेतृत्व करे, लेकिन उसके संविधानवाद की अवधारणा के विरुद्ध किसी भी अपमानजनक प्रस्ताव या कार्यवाही को जनता मौनरूप से स्वीकार कर लेगी, यह गलतफहमी उसे नहीं होनी चाहिए. वरना नायकत्व के आरोहण के सज्जित किसी भी सरकार को इतिहास के कूड़ेदान में फेंकते हुए जनता बिलकुल नहीं झिझकेगी.
हालांकि संविधान निर्माताओं ने प्रारम्भ में ही इस प्रवृति के विरुद्ध जनता को सचेत किया था. 26 नवम्बर, 1949 को डॉ. आंबेडकर ने कहा, ‘संविधान पर अमल केवल संविधान के स्वरूप पर निर्भर नहीं करता. संविधान केवल विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका जैसे राज्य के अंगों का प्रावधान कर सकता है. राज्य के उन लोगों का संचालन लोगों पर तथा उनके द्वारा अपनी आकांक्षाओं तथा अपनी राजनीति की पूर्ति के लिए बनाए जाने वाले राजनीतिक दलों पर निर्भर करता है.’ बाबा साहब की इसी बात को विस्तारित करते हुए संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ राजेंद्र प्रसाद ने कहा था, ‘ यदि लोग, जो चुनकर आएंगे, योग्य, चरित्रवान और ईमानदार हुए तो वे दोषपूर्ण संविधान को भी सर्वोत्तम बना देंगे. यदि उनमें इन गुणों का अभाव हुआ तो संविधान देश की कोई मदद नहीं कर सकता.’
अतः जनता को इस इस विचार के प्रति सजग रहने की आवश्यकता है कि उसे अपने लोकतंत्र के ‘मंदिर में ऐसे ही पुजारी’ निर्वाचित करने होंगे जो लोकतान्त्रिक सत्ता के विरुद्ध सर्वाधिकरवाद की कुत्सित भावना से संक्रमित ना हो . साथ ही जनता भी संवैधानिक मूल्यों में अपनी आस्था को सदैव जीवित रखें क्योंकि संविधान किसी राष्ट्रीय समाज की रक्षा तभी कर सकता ज़ब वह समाज संविधान के रक्षार्थ प्राण-प्रण से उद्यत तथा समर्पित रहे. आखिर सनातन धर्म का सन्देश भी तो यही है, ‘धर्मों रक्षति रक्षितः’ यानि धर्म की रक्षा कीजिये, धर्म आपकी रक्षा करेगा.