स्लिम लीग की अनुपस्थिति संविधान सभा पर अंत तक छाई रही। इस तरह मानो संविधान सभा पर मुस्लिम लीग की प्रेत बाधा मंडरा रही हो। उससे चाहते हुए भी छुटकारा नहीं मिला। इसे विडंबना ही कहेंगे कि अंतिम क्षण तक कांग्रेस नेतृत्व झूठे उम्मीद के भ्रमजाल से निकल नहीं सका। पहले चरण में यह उम्मीद थी कि मुस्लिम लीग अंतत: संविधान सभा में सम्मिलित हो जाएगी। इसीलिए लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव पर बहस को एक माह के लिए टाल दिया गया। फिर भी मुस्लिम लीग नहीं आई। इसका प्रभाव और परिणाम संविधान सभा पर जो होना था, वह हुआ। ऐसा ही दूसरे चरण की बहस में शरीक लोगों के भाषण में दिखता है। इस चरण के दूसरे वक्ता नरहर विष्णु गाडगिल थे। वे लोकमान्य तिलक से प्रभावित होकर स्वाधीनता संग्राम में कूदे थे।
आजादी के बाद नेहरू मंत्रिमंडल में अनेक महत्वपूर्ण पदों पर रहे। संविधान सभा में लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव के समर्थन में उनका बोलना स्वाभाविक था। उनके भाषण में नए तर्क हैं। जो पहले बोला गया है, उसमें उन्होंने नई धार दी।
उन्होंने जो कहा, वह उनका और व्यापक अर्थों में कहें तो भारत ऐसी आशा तब और आज भी करता है। उनके वाक्य हैं-‘प्रयाग के संगम के बाद कोई गंगा और जमुना के जल को साथ बहने से नहीं रोक सका।’ उनके इस कथन पर संविधान सभा में सदस्यों ने हर्ष घ्वनि की। अपना समर्थन जताया। उनके आशावाद से ही आह्वान के ये वाक्य निकले थे-‘समय आ गया है जब दोनों संप्रदायों को अक्ल आएगी और परिणाम यह होगा कि वह एक ऊंची एकता स्थापित करेंगे।’
इसे उनके इस कथन से समझा जा सकता है,‘यह संविधान सभा न केवल शासन का स्वरूप विकसित करने के लिए है, बल्कि उसके विवरण को भी तैयार करने के लिए है।’ उनके इस कथन से स्पष्ट है कि संविधान सभा को उस समय जिस लक्ष्य को समझने की जरूरत थी, उसे ही वे व्यक्त कर रहे थे। उनके कथन का एक आधार भी था। वह यह कि ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली ने अपने भाषण में कहा था कि ‘मेरे साथी इस इरादे से भारत जा रहे हैं कि वे उस देश को शीघ्रातिशीघ्र आजादी दिलाने की कोशिश करें।’ उसके बाद ही उनके मंत्रिमंडल के तीन सदस्य लार्ड पेथिक लारेंस, सर स्टेफर्ड क्रिप्स और ए.वी. एलेक्जेंडर 23 मार्च, 1946 को भारत पहुंचे। एटली के ‘साथी’ यही थे। एटली के मंत्रियों की वह टीम ही कैबिनेट मिशन कहलाई। उसके भारत आने पर परिस्थिति असाधारण थी। कांग्रेस तीन बातें चाहती थी। संविधान सभा, भारत की आजादी और अंतरिम सरकार। लेकिन मुस्लिम लीग भारत विभाजन के लक्ष्य से कम किसी बात पर समझौता नहीं करने की रणनीति पर चल रही थी।
कैबिनेट मिशन ने जो घोषणा की, उसे तब कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों ने अपनी-अपनी सफलता मानी। कैबिनेट मिशन की घोषणा 16 मई, 1946 को हुई। उससे ही संविधान सभा का जन्म हुआ। कैबिनेट मिशन की योजना में ही संविधान सभा की पूरी रूपरेखा, उसकी सीमाएं और अधिकार क्षेत्र का वर्णन है। कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने कैबिनेट मिशन योजना को अपने-अपने ढंग से देखा और देश को दिखाया। संविधान सभा में बहस के दौरान जो भाषण हुए, वे ज्यादातर तो कैबिनेट मिशन की अपने दृष्टिकोण से व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। दूसरे चरण की बहस पर यह छाप दिखती है कि वक्ताओं ने समझ लिया और मान लिया कि मुस्लिम लीग का इंतजार अनावश्यक है। मुस्लिम लीग संविधान सभा में नहीं आएगी। यही बात नरहर विष्णु गाडगिल के भाषण में भी है जब वे कहते हैं कि ‘वास्तव में हम यहां कार्यकारिणी के रूप में इक्ट्ठे हुए हैं और संविधान सभा स्वतंत्रता के संघर्ष की एक मंजिल है।’ इस भूमिका के बाद वे पंडित जवाहरलाल नेहरू के लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव पर बोले, ‘इसमें हमारे ध्येय की परिभाषा की गई है, स्वतंत्र सर्वोच्च लोकतंत्र।’ वे प्रश्न पूछते हैं। उनका प्रश्न मुस्लिम लीग से है कि क्या वह लोकतंत्र के विरूद्ध है? मुस्लिम लीग को इस प्रश्न से वे निरूत्तर करने के भाव से कहते हैं, ‘जहां तक मैं जानता हूं कि मुस्लिम लीग ने गत छ: वर्षोंं में जितने प्रस्ताव पास किए हैं, उनमें उसने अपने ध्येय गणतंत्रात्मक स्वतंत्रता ही प्रकट किया है।
वास्तव में आज जो इस्लामी मुल्क इस्लामी दुनिया का नेतृत्व कर रहा है, वह तुर्की भी लोकतांत्रिक राज्य है। इसलिए मुस्लिम लीग को हमारे इस ध्येय में आपत्ति नहीं होनी चाहिए।’ तर्क के लिए उनका यह कहना समझ में आता है। लेकिन आज जब कोई भी उन परिस्थितियों पर नजर डालेगा तो पाएगा कि नरहर विष्णु गाडगिल भी भ्रम में थे। उसी तरह जैसे कि कांग्रेस का पूरा नेतृत्व भी भ्रम में था। उसी भ्रम के कारण वह नेतृत्व मुस्लिम लीग की चाल समझ नहीं पाया। तभी तो वे यह कहते हैं ‘इसलिए मुस्लिम लीग को हमारे इस ध्येय में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। अतएव यह देखना चाहिए कि इस प्रस्ताव में गुण क्या हैं, और यदि यह बताया जा सके कि कोई बात आपत्तिजनक है, तो उसको तब समन्वित किया जा सकता है, जब आपत्ति करने वाले यहां होंगे।’ इससे यही भाव निकलता है कि कांग्रेस उस समय भी मुस्लिम लीग से संविधान सभा में सम्मिलित होने की झूठी आशा कर रही थी। संविधान सभा के सामने मुस्लिम लीग के अलावा दूसरा बड़ा प्रश्न था कि ब्रिटिश सरकार का रवैया क्या होगा? कहीं ऐसा तो नहीं है कि संविधान सभा के प्रयास पर वह पानी फेर दे। इस बारे में जो बातें नरहर विष्णु गाडगिल ने तब कही, उससे यह आशंंका उभरती है। उनके भाषण में आशंंका और उसका निराकरण भी दिखता है।
इन वाक्यों से आशंका प्रकट होती है-‘अगर संविधान तैयार कर लिया जाता है और उसकी स्वीकृति नहीं मिलती तो जनता पूछेगी कि उसके अनुमोदन का क्या हुआ?’ इस पर उनका कहना था, ‘अनुमोदन के दो प्रकार हैं-नैतिक और भौतिक।’ इसके बाद वे कहते हैं कि ‘हम संविधान बनाने की दिशा में जैसे-जैसे बढ़ते जाएंगे, इस देश में ब्रिटिश शक्ति सूखती जाएगी। अंत में वह लुप्त हो जाएगी। बच जाएगी उसकी विधिवत विदाई।’ उनका आशय यह था कि संविधान सभा जो दस्तावेज बनाएगी, उसे भारत का नैतिक समर्थन होगा। लेकिन भौतिक समर्थन तो ब्रिटिश सरकार को ही देना था। परिस्थितियां ऐसी बनेंगी कि ब्रिटिश सरकार इसके लिए विवश हो जाएगी।
नरहर विष्णु गाडगिल के भाषण का अंतिम अंश का संबंध उस चुनौती से था जिसे अंग्रेज शासक ‘अल्पसंख्यकों के प्रश्न’ कहते थे। इस पर उन्होंने कहा कि ‘यह समस्या तो विदेशी शक्ति की सृष्टि है।’ इसके बाद उन्होंने जो कहा, वह उनका और व्यापक अर्थों में कहें तो भारत ऐसी आशा तब और आज भी करता है। उनके वाक्य हैं-‘प्रयाग के संगम के बाद कोई गंगा और जमुना के जल को साथ बहने से नहीं रोक सका।’ उनके इस कथन पर संविधान सभा में सदस्यों ने हर्ष घ्वनि की। अपना समर्थन जताया। उनके आशावाद से ही आह्वान के ये वाक्य निकले थे-‘समय आ गया है जब दोनों संप्रदायों को अक्ल आएगी और परिणाम यह होगा कि वह एक ऊंची एकता स्थापित करेंगे।’ उस दिन उनके भाषण का यह अंतिम अंश संविधान सभा के सपने को प्रकट करता है। ‘हम जो प्रतिनिधि यहां एकत्रित हुए हैं, उन पर जो कार्यभार डाला गया है, वह महान और ऐतिहासिक है। मुझे संदेह नहीं है कि हम इस अवसर का सदुपयोग करेंगे और इस प्राचीन देश को स्वतंत्रता के ध्येय तक पहुंचाएंगे। ऐसे समाज की रचना करेंगे जिसमें मनुष्य की कद्र उसकी संपत्ति से नहीं, उसके गुणों से होगी, जिसमें मनुष्य का चरित्र ही उसकी कसौटी होगा, रुपये-पैसे नहीं; जिसमें गर्व को तिलांजलि दी जा चुकी होगी और ईर्ष्या जिह्वा से न निकल सकेगी; जिसमें पुरुष और स्त्री अपना मस्तक ऊंचा करके चलेंगे; जहां सब सुखी होंगे क्योंकि सभी समान होंगे, जिसमें धर्म युद्ध क्षेत्र नहीं होंगे, क्योंकि सभी कर्त्तव्य की देवी के उपासक होंगे, जिसमें जाति का अभिमान भी नहीं होगा और जाति की हीनता- जनित लज्जा भी नहीं होगी।’ वे इसे अधिक व्यापक अर्थ देते हुए कहते हैं कि ‘जहां सिद्धांत मनुष्य को मनुष्य से पृथक न करेंगे क्योंकि उनका सिद्धांत तो सबकी सेवा करना होगा, जहां स्वतंत्रता और संपन्नता प्राप्त होगी, क्योंकि किसी को शक्ति या समृद्धि का एकाधिकार नहीं प्राप्त होगा। सभी सुखी होंगे क्योंकि सभी समान होंगे। इसमें संदेह नहीं कि यह एक स्वप्न है, पर उद्देश्य और ध्येयपूर्ण जीवन के लिए स्वप्न आवश्यक है।’ इन शब्दों में उन्होंने अपना भाषण समाप्त किया- ‘यह न हुआ तो मनुष्य का जीवन कौवे के समान हो जाएगा‘काको् प जीवति चिराय: बलिं च भुङक्ते।’ अर्थात, टुकड़ों पर तो कौवा भी बहुत दिन जीवित रहता है।’ संविधान सभा के इस भाषण को आज पढ़ने पर कम से कम चार प्रश्न किसी भी व्यक्ति के मन में उत्पन्न होंगे।
पहला, क्या वे स्वप्न पूरे हुए? अगर नहीं तो क्यों? दूसरा, इसके लिए कौन है जिम्मेदार? तीसरा, संविधान से जो राज्य व्यवस्था बनी और आज तक चल रही है, वह इसके लिए कितना जिम्मेदार है? चार, भारतीय समाज की विविधता वास्तव में उसकी आधारभूत शक्ति है। उसी से लोकतांत्रिक भावना पैदा होती है। आज यह प्रश्न बहुत बड़ा हो गया है कि क्या संसदीय व्यवस्था ने उस आधारभूत शक्ति को खोखला नहीं कर दिया है? उसी दिन विजयालक्ष्मी पंडित का संविधान सभा में जो भाषण हुआ, उसमें एक महत्वपूर्ण सूचना है। वह यह कि सन् 1937 में उत्तर प्रदेश की विधानसभा में विजयालक्ष्मी पंडित ने एक प्रस्ताव पेश किया। उसमें संविधान सभा बनाने की मांग थी। उस प्रस्ताव को याद कर उन्होंने कहा ‘आज दस वर्ष बाद वह मांग पूरी हो रही है। यह स्वतंत्रता के मार्ग में एक ऐतिहासिक स्तंभ है।’ विजयालक्ष्मी पंडित का भाषण अपेक्षाकृत छोटा था। लेकिन उसमें सारतत्व अधिक थे। पहला यह कि स्वतंत्र भारत की एक वैश्विक भूमिका होगी। उसे एशिया का नेतृत्व करना होगा। दूसरा यह कि जवाहरलाल नेहरू के प्रस्ताव में अल्पसंख्यकों को समान अधिकार का आश्वासन है। इसलिए उन्हें आशंंकित नहीं होना चाहिए।
तीसरी बात जो उन्होंने कही वह मौलिक थी। वह यह कि अल्पसंख्यक अगर भारत के बाहर की किसी शक्ति का मुंह ताकेंगे और उससे मदद लेंगे ‘तो उन्हें कोई ‘धोखेबाज’ कहे बिना नहीं रहेगा।’ चौथी और आखिरी बात में एक अपील थी। हम यह दिखा दें कि उसे जो चुनौती दी गई है, उसका यह प्राचीन देश भारत अपने भूतकालीन आदर्षों और परंपराओं के बल पर सामना कर सकता है।