वर्ष 1946 की दो घटनाओं पर जितना ध्यान दिया जाना चाहिए उतना नहीं दिया गया है। पहली घटना नौसेना विद्रोह की है। इस विस्फोटक घटना ने ब्रिटिश सरकार को भारत छोड़ने के लिए विवश कर दिया। यह कोई संयोग नहीं हो सकता कि नौसेना विद्रोह के अगले ही दिन यानी 19 फरवरी को ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली ने केबिनेट मिशन को भारत भेजने की आनन-फानन में घोषणा कर दी। वह आया। दूसरी घटना का संबंध संविधान सभा को बचाने में महात्मा गांधी की भूमिका से है। दूसरी घटना के तथ्य की उपेक्षा की गई है। जिसे यहां प्रस्तुत करने का प्रयास है।
केबिनेट मिशन योजना वास्तव में एक सिफारिश थी। कुछ मौलिक प्रश्नों पर कांग्रेस और मुस्लिम लीग में सहमति नहीं बन सकी। इसलिए केबिनेट मिशन को अपनी ओर से एक योजना घोषित करनी पड़ी। उसने ऐसा इस आशा और विश्वास से किया कि आखिरकार कांग्रेस और मुस्लिम लीग केबिनेट मिशन योजना को स्वीकार कर लेंगे। लेकिन संविधान सभा के लिए हुए चुनाव के परिणाम ने एक विचित्र परिस्थिति पैदा कर दी। चुनाव में कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। वे चुनाव 1945-1946 में संपन्न हुए थे।
भारत के इतिहास में 1946 का साल युग परिवर्तन का प्रतीक बन गया है। जो भी ऐतिहासिक घटनाएं घटित हुई उनका बीजारोपण इसी साल हुआ। चुनाव परिणाम ने साबित कर दिया कि मुस्लिम जनमत पर जिन्ना पूरी तरह छा गए हैं। पंजाब और उत्तर पश्चिमी सीमांत प्रांत इसके अपवाद थे।
संविधान सभा बनने के बाद केबिनेट मिशन की योजना में जो ‘समूह संबंधी खंड’ का प्रावधान था उस पर कांग्रेस और मुस्लिम लीग में गंभीर मतभेद पैदा हो गए। इसे दूर करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने हस्तक्षेप किया। पर वह एक सहमति बनाने में विफल रही। वही वह समय है जब ब्रिटिश सरकार ने मुस्लिम लीग पर हाथ रखा। 6 दिसंबर, 1946 को जो ब्रिटिश सरकार का बयान आया वह इसका प्रमाण है। ‘यदि ऐसी संविधान सभा संविधान बनाती है जिसमें भारत की जनसंख्या के किसी बहुत बड़े भाग का प्रतिनिधित्व नहीं है तो हिज मैजेस्टी की सरकार ऐसे संविधान को देश के उस न मानने वाले भाग पर बल पूर्वक लागू नहीं करेगी।’ इससे मुस्लिम लीग को बल मिला, क्योकि ब्रिटिश सरकार ने इस बयान में मान लिया कि दो राज्य और दो संविधान सभा बन सकती है। लेकिन संविधान सभा का तीर तो उसके तरकश से निकल चुका था। संविधान सभा के गठन की घोशणा और उसकी तारीख निर्धारित हो गई थी। ब्रिटिश सरकार के बयान को अपना बल समझ कर मुस्लिम लीग ने संविधान सभा का बहिष्कार किया। और यह मांग की कि भारत की संविधान सभा को विघटित कर दिया जाना चाहिए। उसका तर्क था कि भारत के सभी भागों के लोगों का संविधान सभा में पूरा प्रतिनिधित्व नहीं हो रहा है।
प्रश्न यह है कि ब्रिटिश सरकार के बयान और मुस्लिम लीग की मांग के बावजूद संविधान सभा कैसे विघटित होने से बच सकी। इसका श्रेय महात्मा गांधी को जाता है। कैसे? यही अनकही कहानी है। जिस दिन ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली ने घोशणा की कि केबिनेट मिशन भारत भेजा जा रहा है, उसके ठीक एक दिन पहले की बात है। महात्मा गांधी मुंबई पहुंच गए हैं। यह मालूम होते ही के.एम. मुंशी उनसे मिलने गए। उन्होंने गांधीजी को बताया कि मुख्य न्यायाधीश स्टोन ने उनसे अनुरोध किया है और पूछा है कि क्या वे वकीलों के एक समूह का नेतृत्व करते हुए जापान जाना चाहेंगे जहां प्रधानमंत्री तोजो पर युद्ध अपराधी का मुकदमा चलाया जाना है। इस अनुरोध को उन्होंने अस्वीकार कर दिया था। यही बात उन्होंने गांधीजी को बताई। इस पर महात्मा गांधी ने सहमति दी और उनसे कहा कि वे कांग्रेस में पुनः आ जाएं। उनका आग्रह स्वीकार कर के.एम. मुंशी मुंबई प्रदेश कांग्रेस के दफ्तर गए। वहां सदस्यता फार्म भरा और उसका शुल्क जमा किया। जो तब चार आना होता था। यह 18 फरवरी, 1946 की बात है। अगले दिन यानी 19 फरवरी, 1946 को एटली ने घोषणा की।
इससे के.एम. मुंशी की कांग्रेस में महत्वपूर्ण भूमिका पुनः प्रारंभ हुई। महात्मा गांधी, सरदार पटेल और पंडित नेहरू उनकी कानूनी प्रतिभा के पहले से ही कायल थे। 10 जुलाई, 1946 को महात्मा गांधी ने के.एम. मुंशी को बताया कि कांग्रेस कार्यसमिति ने एक विशेषज्ञ समूह बनाने का निर्णय किया है। वह समूह संविधान सभा के लिए उद्देश्य प्रस्ताव और नियमों के प्रारूप बनाएगा। जिसमें कांग्रेस अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू ने एक सदस्य के.एम. मुंशी को भी मनोनीत किया है। महात्मा गांधी ने उनसे कहा कि सारे काम छोड़ दीजिए और इस जिम्मेदारी का सबसे पहले निर्वाह करिए। अगले दिन उन्हें जवाहरलाल नेहरू का पत्र मिला। विशेषज्ञ समूह के अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू स्वयं थे। उस समूह में आसफ अली, एन. गोपालस्वामी आयंगार, के.टी. शाह, डी.वी गाडगिल, हुंमायू कबीर और के. संथानम थे। बाद में कृष्णा कृपलानी को समूह में सचिव के रूप में लिया गया।
के.एम. मुंशी की अपनी डायरी और संविधान से संबंधित दस्तावेजों से एक आश्चर्यजनक तथ्य सामने आता है। वह यह कि केबिनेट मिशन योजना के प्रकाशित होने पर कांग्रेस में जबर्दस्त उत्साह था। योजना 17 मई को प्रकाशित हुई। उसकी घोषणा 16 मई को हुई थी। 17 मई, 1946 को सरदार पटेल ने के.एम. मुंशी को पत्र लिखा कि ‘इस घोषणा से सुनिश्चित हो गया है कि किसी भी रूप में पाकिस्तान की कोई संभावना नहीं है।’ इस पत्र से के.एम. मुंशी ने एक निष्कर्ष निकाला कि सरदार पटेल उस समय भारत विभाजन को रोकने के लिए मुस्लिम लीग के साथ साझा सरकार बनाने के लिए तैयार थे। यह बात अलग है कि अंतरिम सरकार के कटु अनुभवों के आधार पर एक साल में ही सरदार पटेल ने समझ लिया कि भारत विभाजन ही एक मात्र हल है।
मुस्लिम लीग के बहिष्कार के बावजूद संविधान सभा बन तो गई, लेकिन वह अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही थी। संविधान सभा के सदस्यों के भाषण पर ध्यान दें तो यह बात सूरज की तरह साफ हो जाती है। संविधान सभा के सामने समस्याएं क्या थी? सबसे बड़ी और मूलभूत समस्या यह थी कि संविधान सभा सार्वभौम नहीं थी। इस पर विवाद था, हालांकि डा. राजेंद्र प्रसाद इसे सार्वभौम बताते थे। संविधान सभा में जब यह प्रश्न आया तो उनका यही कहना होता था। पर यथार्थ अलग था। इसलिए वह विपरीत था क्योंकि संविधान सभा को भारत की जनता ने नहीं, ब्रिटिश सरकार ने बनाया था। इस आधार पर ही मुस्लिम लीग चाहती थी और उसने वाइसराय वेवल पर दबाव बनाया कि पूरे भारत का प्रतिनिधित्व नहीं होने के कारण संविधान सभा को वे भंग कर दें। तर्क तो यही कहता था। जिसे ब्रिटिश सरकार ने बनाया, उसे भंग करने का भी अधिकार उसको ही था। यह बात अलग है कि ब्रिटिश सरकार के प्रतिनिधि और वाइसराय वेवल ने संविधान सभा को भंग करने की मांग अनसुनी कर दी।
केबिनेट मिशन योजना में संविधान सभा को राज्यों के संविधान निर्माण में किसी भी प्रकार के नियंत्रण का अधिकार नहीं था। वह अपने लिए नियम बना सकती थी। वास्तव में केबिनेट मिशन योजना में संविधान सभा को भारत के लोकतांत्रिक स्वरूप को निर्धारित करने का पूरा अधिकार तो था लेकिन उसे ‘समूह संबंधी खंड’ के अंतर्गत राज्यों के राजनीतिक ढांचे को परिभाषित करने और नियंत्रित करने का कोई अधिकार नहीं था। यह संविधान सभा का सबसे कमजोर पक्ष था। पर केवल यही एक मात्र समस्या नहीं थी। समस्याओं का अंबार था। दिखने में और सुनने में साधारण सी बात लगेगी लेकिन यह भी एक समस्या थी कि क्या कोई विदेशी संविधान सभा का सदस्य हो सकता है? केबिनेट मिशन योजना में इसके लिए एक प्रावधान था। लेकिन के.एम. मुंशी की सलाह पर महात्मा गांधी ने इसका रास्ता बंद कराया।
संविधान सभा के पहले दिन की अध्यक्षता कौन करेगा? वाइसराय वेवल चाहते थे कि अध्यक्ष की नियुक्ति वे करें। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। अमेरिका और फ्रांस की संविधान सभाओं के उदाहरण से यह तय हुआ कि संविधान सभा के सबसे बुर्जुग सदस्य अध्यक्षता करेंगे। इस तरह डा. सच्चिदानंद सिन्हा अस्थाई अध्यक्ष हुए। जिन्हें कांग्रेस अध्यक्ष आचार्य जे.बी. कृपलानी ने आसन पर पहुंचाया। राष्ट्रीय स्वाभिमान से जुड़ा एक बड़ा प्रश्न यह था कि उस समय जिसे लाइब्रेरी हाल कहते थे, उसमें दीवालों पर गवर्नर जनरलों की आदमकद पेंटिंग लगी हुई थी, क्या उसके रहते संविधान सभा की बैठक होगी? इस पर शासन से बड़ा विवाद चला। आखिरकार वे सारी पेंटिंग हटाई गई। वे कहां भेजी गई और रखी गई? यह किसी को पता नहीं है। आज उस लाइब्रेरी हाल का नाम है- सेंट्रल हाल। जहां अब भारत के बड़े नेताओं की पेंटिंग लगी हुई है।
इन बाधाओं में दो बातें और जुड़ गई। पहली का संबंध चर्चिल से है। जिन्होंने ब्रिटिश संसद में संविधान सभा की वैधता पर सवाल उठाया। दूसरी बाधा मुस्लिम लीग ने खड़ी की। यह स्पष्ट नहीं था कि मुस्लिम लीग अगर संविधान सभा में आ भी गई तो क्या वह नियमों का पालन करेगी? महात्मा गांधी के परामर्ष और निर्देश से जब के.एम. मुंशी ने केबिनेट मिशन योजना का अध्ययन किया तो उन्हें ये समस्याएं दिखी। वे समस्याएं मौन नहीं, मुखर थी। उन्होंने पाया कि सबसे बड़ी चुनौती ब्रिटिश नीति और उसके अंतर्गत केबिनेट मिशन योजना की घोषणा में है। दूसरी चुनौती को मुस्लिम लीग अपनी विभाजक कारवाईयों से उपस्थित कर रही थी। तीसरी चुनौती का संबंध अल्पसंख्यक समुदाय से था। चौथी चुनौती सबसे बड़ी थी। वह यह कि केबिनेट मिशन योजना की घोषणा में भारत की केंद्रीय सरकार का स्वरूप ढीलेढाले संघ का था।
के.एम. मुंशी ने इन चुनौतियों को समझकर संविधान का एक प्रारूप बनाया। जिसमें प्रस्तावना के अलावा पचास अनुच्छेद थे। इस बारे में जब उन्होंने जवाहरलाल नेहरू से बात की तो उनका सुझाव था कि वे गोपाल स्वामी आयंगार से विमर्श करें। इस तरह गोपाल स्वामी आयंगार और के.एम. मुंशी का साझा प्रयास प्रारंभ हुआ। के.एम. मुशी ने दो दस्तावेज बनाए। पहले दस्तावेज का संबंध संविधान सभा के उद्देश्य से था। दूसरे दस्तावेज में संविधान सभा की नियमावली का प्रारूप था। 4 अगस्त, 1946 को उन्होंने इसे तैयार कर लिया था। उन्होंने जो नियमावली बनाई उसे संविधान सभा ने ‘कार्य संचालन नियमावली’ कहा। 11 दिसंबर, 1946 को विधिवत संविधान सभा ने एक समिति बनाई। जिसमें के.एम. मुंशी के अलावा चौदह अन्य सदस्य भी थे। यह औपचारिक प्रक्रिया का निर्वाह मात्र था।
वास्तव में कार्य संचालन की नियमावली तो के.एम. मुंशी ने अगस्त महीने में ही बना ली थी। उन्होंने उसे इस तरह बनाया था कि मुस्लिम लीग, ब्रिटिश सरकार और वाइसराय वेवल चाहें भी तो भी संविधान सभा को भंग न कर सकें। अपने कार्य संचालन नियमावली के बल पर संविधान सभा सार्वभौम शक्तियों का भरपूर उपयोग जरूरत पड़ने पर कर सके और उसे न्यायालय में मान्यता भी प्राप्त हो सके। इतिहास का यह अनदेखा पर महत्वपूर्ण तथ्य है कि महात्मा गांधी के परामर्श को मानकर के.एम. मुंशी कांग्रेस में पुनः न आते तो संविधान सभा को मुस्लिम लीग संभव था कि भंग करा देती। यह भी क्या संयोग था कि के.एम. मुंशी ने उसी दिन कांग्रेस की सदस्यता ली जिस दिन नौसेना विद्रोह भड़का?