भारत के संविधान की उद्देशिका का संबंध गर्भ-नाल की भांति उस लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव से जुड़ा हुआ है जिसे पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 13 दिसंबर, 1946 को प्रस्तुत किया। संविधान सभा का वह चौथा दिन था। राजनीतिक परिस्थितियां विपरीत थी। मुस्लिम लीग ने संविधान सभा का बहिष्कार कर रखा था, हालांकि कांग्रेस के नेतागण इस आशावाद में जी रहे थे कि मुस्लिम लीग अपने निर्णय पर पुनर्विचार करेगी। वह आशा फलीभूत नहीं हुई। होती भी कैसे? मुस्लिम लीग ने उस समय की विघटनकारी राजनीति की थाह पा ली थी। जो उसे 16 अगस्त, 1946 की सीधी कारवाई से मिली थी। संविधान सभा के शुरू होने से पहले के चार महीने विकट थे। स्वाधीनता आंदोलन के मूल लक्ष्य पर गंभीर खतरे पैदा हो गए थे। ऐसी विकट परिस्थिति में भी एक उल्लास का भाव संविधान निर्माताओं में था। इतिहास के वे साक्षी बन रहे थे। राष्ट्रीयता की लहर को लोकमान्य तिलक ने अपने एक कथन से उसे उसकी भाषा और परिभाषा दी थी। उन्होंने कहा था कि ‘स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।’ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने उनका अनुसरण किया। उसने 1906 के अपने अधिवेशन में घोषणा की कि हमारा अंतिम लक्ष्य स्वराज्य है। उसकी एक प्रारंभिक रूपरेखा नेहरू के प्रस्ताव में थी।
मूल प्रश्न यह है कि स्वाधीनता आंदोलन के किस चरण में संविधान का विचार नेताओं के मन में आया? स्वराज्य और संविधान की परस्परता कब अस्तित्व में आई? कब यह विचार आया कि संविधान का ही रास्ता श्रेयष्कर है? संविधान के अध्येयताओं ने इसका अपने-अपने ढंग से उत्तर दिया है। ज्यादातर ने यह तो बताया है कि 20वीं सदी के दूसरे दशक में स्वाधीनता आंदोलन में संविधान का विचार नए सिक्के की भांति हाथों हाथ चल निकला। स्वाधीनता के लिए संविधान को एक सार्थक उपकरण समझा जाने लगा। क्या ऐसा ब्रिटेन से लड़ते हुए वैसा ही बनने का वह विचार था या एक उपाय? इस पर अनेक दृष्टिकोण हो सकते हैं। लेकिन यह अज्ञात सा तथ्य रहा है कि कांग्रेस के गया अधिवेशन में देशबंधु चितरंजनदास ने पहली बार संवैधानिक शासन को सबसे बढ़िया बताया और अपील की कि हमें इसका एक प्रारूप बनाना चाहिए। हम जानते हैं कि देशबंधु चितरंजनदास का राजनीतिक मानस ब्रिटिश संसदीय परंपरा में बना और विकसित हुआ था। उन्हें अपने अध्ययन और राजनीतिक समझ से सूझा कि ब्रिटिश शासकों को संविधान का आइना क्यों न दिखाया जाए? उन्होंने संविधान का जो मंत्र दिया उसे बाद में कांग्रेस ने रामबाण समझकर अपना लिया।
संविधान के सूत्र को महात्मा गांधी ने तुरंत ही वाणी दी। स्वाधीनता आंदोलन की राजनीतिक और मनोवैज्ञानिक परिस्थितियों में परिवर्तन के लिए उन्होंने एक आधार शिला रखी। उन्होंने कहा कि भारत की जनता को अपनी नियति स्वयं निर्धारित करनी होगी। याचना नहीं रण करना होगा। वह अहिंसक होगा। सत्याग्रह होगा। उनके शब्द हैं कि ‘स्वराज ब्रिटिश संसद का उपहार न होकर भारत की जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों से वह निर्मित होगा।’ यह भी 1922 की ही बात है। इस तरह हम पाते हैं कि उस वर्ष में दो धरातलों पर यह विचार पैदा हुआ कि अपना संविधान हो। उसे भारत की जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि बनाएं। ब्रिटिश सरकार अपना संविधान न थोपे। ऐसे अनेक सपने स्वाधीनता आंदोलन में पले, पके और आकांक्षा जगी कि वे साकार हो। संविधान सभा चाहे जैसी भी बनी, यह एक ऐतिहासिक सत्य और तथ्य है कि संविधान निर्माताओं ने अपने सपने को साकार करने का उसे उपलब्ध परिस्थितियों में सर्वोंत्तम उपकरण माना। संविधान सभा का एक ऐतिहासिक संदर्भ रहा है। जिसमें विदेशी शासन से मुक्ति की आकांक्षा थी। स्वराज की स्थापना का लक्ष्य था। स्वतंत्रता के बिना स्वराज स्थापित नहीं किया जा सकता है। स्वतंत्रता तो संविधान से ही प्राप्त की जा सकती है। इस मूल अवधारणा ने भारत की स्वाधीनता से पहले ही संविधान सभा को जन्म दिया।
यहां उन ऐतिहासिक घटनाओं को याद कर लेना चाहिए, जो संविधान सभा के लिए मील के पत्थर बने। पहली घटना 17 मई, 1927 की है। जब मोतीलाल नेहरू ने कांग्रेस के समक्ष एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया था। जिसमें संविधान निर्माण का आह्वान था। उसी प्रस्ताव को परिमार्जित कर 28 मई, 1927 को कांग्रेस के चेन्नई अधिवेशन में जवाहरलाल नेहरू ने रखा। वह स्वराज संविधान का प्रस्ताव था। वह स्वीकृत हुआ। उसी कड़ी में 19 मई, 1928 को मुंबई में एक सर्वदलीय सम्मेलन बुलाया गया। जहां ‘संविधान के सिद्धांत निर्धारित करने के लिए’ मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में एक समिति बनाई गई। उस समिति ने 10 अगस्त, 1928 को अपनी रिपोर्ट दी, जो नेहरू रिपोर्ट कहलाती है। संविधान के लक्ष्य और उसकी रूपरेखा बनाने का वह पहला प्रयास था। उस रिपोर्ट में मोटे तौर पर दो बातें थी। पहली यह कि भारत का राष्ट्रवाद मानवता का पर्याय है और सृजनात्मक है जबकि ब्रिटेन का राष्ट्रवाद साम्राज्यवाद और शोषण पर आधारित है। वह संवैधानिक सुधारों के आवरण में स्वाधीनता आंदोलन को बांटने की चाल चल रहा है। इससे मुक्ति का माध्यम है-अपना संविधान। दूसरी यह कि संविधान से सांप्रदायकिता की चुनौतियों से पार पाया जा सकता है। नेहरू रिपोर्ट में प्रभुसत्ता की अवधारणा स्पष्ट थी। वह यह कि भारत की जनता में ही प्रभुसत्ता का वास है।
इन प्रयासों से ब्रिटिश सत्ता पर दबाव बना। जिसका एक परिणाम निकला। ब्रिटिश सरकार ने एक संवैधानिक आयोग बनाया। जिसे साइमन कमीशन के नाम से जाना जाता है। लंदन में कुछ अंतराल पर जो तीन गोलमेज सम्मेलन क्रमवार हुए वे संवैधानिक सुधारों के आवरण ओढ़े हुए थे। लेकिन मंशा तो साम्राज्यवाद को टिकाए रखने की थी। इसलिए ब्रिटिश सरकार कुटिल चालें चल रही थी। जिसे महात्मा गांधी ने समझा और समाधान के लिए अपने जीवन की बाजी लगा दी। महात्मा गांधी ने भारत की पूर्ण स्वतंत्रता में बाधाओं को पहचाना। उन्हें दूर करने के लिए तर्क दिए। वे मात्र राजनीतिक स्वतंत्रता का सपना नहीं पालते थे। उनकी कल्पना में सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और सभ्यतागत स्वतंत्रता भी थी। वे यह जानते थे और मानते भी थे कि आर्थिक और सामाजिक लोकतंत्र के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता अधूरी होगी। वह लगंड़ी होगी। ये उदाहरण अपने आप में इस बात के प्रमाण हैं कि स्वाधीनता आंदोलन में संविधान के लक्ष्य पर लंबे समय से विमर्श किया जा रहा था। इस दृष्टि से वह एक वैचारिक आंदोलन भी था।
डा. बी. पट्टाभि सीतारामय्या ने कांग्रेस का इतिहास लिखा है। उसमें वे एक जगह लिखते हैं कि ‘मौलिक अधिकारों और आर्थिक व्यवस्था’ वाला प्रस्ताव कांग्रेस कार्यसमिति के सामने कुछ एकाएक तौर पर पेश हुआ था। इसकी पृष्टिभूमि का भी उन्होंने वर्णन किया है। जिसमें बताया है कि कांग्रेस के नेता विजयराधवाचार्य ने इस प्रश्न को अमृतसर कांग्रेस में उठाया था। लेकिन कांग्रेस के नेताओं ने इस पर अध्ययन-मनन आवश्यक समझा। इस तरह करांची अधिवेशन में जो प्रस्ताव पारित किया गया वह संविधान के लक्ष्य की प्रारंभिक रूपरेखा थी। उस अधिवेशन की अध्यक्षता सरदार वल्लभ भाई पटेल ने की थी। वह 1931 का वर्ष था। लेकिन कांग्रेस ने अपनी आधिकारिक नीति में संविधान सभा की मांग 1934 में शामिल की थी। इसका एक इतिहास है। तीसरे गोलमेज सम्मेलन के बाद ब्रिटिश सरकार ने जो श्वेत पत्र जारी किया था उसमें संवैधानिक सुधारों का एक प्रारूप था। उसे कांग्रेस ने 1934 में अपनी कार्यकारिणी समिति में विचारार्थ रखा। ब्रिटिश श्वेत पत्र को अस्वीकार कर दिया। कांग्रेस ने घोषणा की कि ‘निर्वाचित संविधान सभा ही होगी जो संविधान बनाएंगी।’ इस तरह वह पहला अवसर था जब कांग्रेस ने संविधान सभा के लिए एक औपचारिक मांग रखी। इसलिए संविधान सभा का पहला कार्य स्वाभाविक रूप से अपने लक्ष्य का स्पष्ट निर्धारण ही होना था। हम जानते हैं कि लक्ष्य के सुनिष्चित हो जाने पर पथिक को अपना पथ चुनने में कोई कठिनाई नहीं आती।
गया कांग्रेस से संविधानवाद की धारा फूटी। वह चल पड़ी। उसकी यात्रा में सार्थकता और सफलता का क्षण ढाई दशक बाद आया। इस लंबी अवधि में स्वाधीनता आंदोलन की मुख्य धारा संविधानवाद की थी। केबिनेट मिशन की योजना जैसे ही सामने आई कि कांग्रेस के नेताओं ने अनुभव किया कि वह घड़ी आ गई है। स्वाधीनता और संविधान की मंजिल दूर नहीं है। यह घटना है, 16 मई, 1946 की। जिस दिन केबिनेट मिशन ने अपनी योजना घोषित की। उसमें भारत के भावी संविधान की एक रूपरेखा प्रस्तुत की गई थी। उसमें अनेक कमियां थी। हजारों दोष थे। इसके बावजूद कांग्रेस नेतृत्व ने समझा कि दशकों के संघर्ष का लक्ष्य प्राप्त करने का अवसर आ गया है। इसलिए 24 जून, 1946 को कांग्रेस की कार्यसमिति ने निर्णय किया कि वह प्रस्तावित संविधान सभा में सम्मिलित होगी जिससे स्वतंत्र, अखंड और लोकतांत्रिक भारत का संविधान बनाया जा सके। कांग्रेस के उस प्रस्ताव में लक्ष्य संबंधी मोटी-मोटी बातें भी थीं।
हर संविधान का अपना एक दर्शन होता है। वह उसके लक्ष्य में परिलक्षित होता है। जिसे संविधान में उद्देशिका कहते हैं। कांग्रेस नेतृत्व को दुनिया के दूसरे संविधानों की उद्देशिकाओं की परंपरा ज्ञात थी। अमेरिका ने अपने संविधान में राज्यों के संघ का उद्देश्य ‘न्याय, घरेलू शांति, राष्ट्रीय सुरक्षा, जनकल्याण और स्वतंत्रता की स्थापना’ निर्धारित किया था। आयरिश संविधान के उद्देशिका में भी राष्ट्रीय लक्ष्य का निर्धारण है। संविधान सभा में लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव पर वाद-विवाद का समापन करते हुए पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि ‘इस प्रस्ताव के जरिए हम वह संविधान बना पाएंगे जिसकी रूपरेखा इसमें दी हुई है। मुझे विस्वास है कि वह संविधान हमें असली आजादी देगा। वह आजादी हमारी भूखी जनता को खाना, कपड़ा और रहने की जगह देगी। उनको उन्नति के लिए हर तरह के अवसर देगी। मुझे यह भी विस्वास है कि इस संविधान से दूसरे एशियाई देशो को आजादी प्राप्त होगी।’ इससे पहले उन्होंने संविधान सभा को याद दिलाया कि ‘इस प्रस्ताव में समय पर कांग्रेस मंचों पर किए गए प्रस्तावों, प्रतिज्ञाओं और वादे के अलावा भारत छोड़ों आंदोलन का प्रस्ताव भी शामिल है। इन प्रस्तावों ने दुनिया पर अपनी छाप छोड़ी है। अब वक्त आ गया है कि हम अपने वादे को पूरा करें।’
संविधान निर्माताओं के दर्शन को समझने के लिए हमें पंडित जवाहरलाल नेहरू के समापन भाषण और लक्ष्य संबंधी उस प्रस्ताव को ध्यान से पढ़ना चाहिए जिसे संविधान सभा ने 22 जनवरी, 1947 को स्वीकार किया।