दूसरा विश्व युद्ध छिड़ने पर संविधान सभा के लिए पंडित नेहरू के अभियान को दो अनपेक्षित समर्थन मिले। पहला समर्थन उन्हें महात्मा गांधी से मिला। पंडित नेहरू के लिए वह बड़ी राजनीतिक उपलब्धि थी। हालांकि संविधान के इतिहास में वह एक पहेली भी बनी हुई है। उसे अब तक सुलझाया नहीं जा सका है। महात्मा गांधी ने ‘एक ही रास्ता’ नामक एक लंबा लेख लिखा। जिसमें उन्होंने संविधान सभा की अनिवार्यता को रेखांकित किया। दूसरी घटना थी, वह स्टेफर्ड क्रिप्स की भारत यात्रा थी, हालांकि वह व्यक्तिगत स्तर पर थी। लेकिन जिस पृष्ठभूमि में हो रही थी, उसके कारण महात्मा गांधी और कांग्रेस नेतृत्व ने उसमें बड़ी संभावना देखी।
महत्वपूर्ण व्यक्तियों की निजी यात्राओं से वह अलग मानी गई। उनसे पहले एडवर्ड टाम्सन गांधीजी से मिलने सेवाग्राम आए थे। उनकी राय थी कि ‘भविष्य में ब्रिटेन के छ: राजनीतिज्ञ भारत की समस्या पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करेंगे।’ क्या महात्मा गांधी ने क्रिप्स की यात्रा में जो संभावनाएं थीं और उस समय जैसी जटिल राजनीतिक परिस्थितियां थी, उनमें से स्वतंत्रता की मंजिल के लिए संविधान सभा को ‘एक ही रास्ता’ बताया? इतिहास में लौटकर गांधीजी के लेख को पुन: ध्यान से पढ़ने से ऐसा ही लगता है।
उससे पहले क्रिप्स को स्पष्ट वक्ता, स्वतंत्र विचारक, आमूल परिवर्तन का पक्षपाती, भारत का हितैषी और पंडित नेहरू का मित्र माना जाता था। उनके इस मिशन से वह भ्रम दूर हो गया। जवाहरलाल नेहरू ने निराशा में कहा-‘यह अपार दुख की बात है कि क्रिप्स जैसा सज्जन भी शैतान का वकील बन गया है।’ गांधीजी भी बड़े दुखी हुए। क्रिप्स के प्रस्ताव पर उन्होंने जो टिप्पणी की, वह इतिहास में यादगार बन गई है। ‘क्रिप्स का प्रस्ताव एक डूबते हुए बैंक का पोस्ट डेटेड चेक है।’
उस समय की ये दो बड़ी घटनाएं हैं। विश्व युद्ध छिड़ चुका था। एक सितंबर, 1939 को वह दुर्योग घटित हुआ। लंदन से वी.के. कृष्ण मेनन पंडित नेहरू को सूचित करते हैं कि स्टेफर्ड क्रिप्स भारत यात्रा पर जा रहे हैं। मंजिल उनकी चीन है। स्वाधीनता संग्राम के उस दौर में पंडित नेहरू के लिए क्रिप्स की भारत यात्रा का कितना महत्व था, यह इस बात से स्पष्ट है कि जैसे ही मेनन से उन्हें सूचना मिली, वे बड़े उत्साहित हो गए। वी.के. कृष्णमेनन का क्रिप्स से वैचारिक और व्यावहारिक सीधा संबंध 1932 से ही था। जब क्रिप्स को यह पता चला कि मेनन तो पंडित नेहरू के बहुत खास हैं, तब उनमें संबंध बहुत गहराया। मेनन की सूचना थी कि क्रिप्स तीन सप्ताह भारत में गुजारेंगे। उन दिनों क्रिप्स सिर्फ एक वामपंथी नेता ही थे। लेबर पार्टी से उनका निष्कासन हो गया था। लेकिन उनका राजनीतिक महत्व ब्रिटेन में बना हुआ था। मेनन भी पंडित नेहरू के लिए तब तक ‘कृष्ण’ हो गए थे। उन्होंने इसी संबोधन से उन्हें 8 नवंबर, 1939 को पत्र लिखा, जिसका यह एक अंश है-‘यह जानकर मुझे बड़ी खुशी हुई है कि सर स्टेफर्ड क्रिप्स भारत आने वाले हैं।
निश्चय ही उनका स्वागत है। और यह बात तुम उनसे कह सकते हो। मैं उन्हें अलग से भी लिख रहा हूं। मैं नहीं जानता कि अगले कुछ हफ्तों के दौरान हालात क्या होंगे। लेकिन अगर हमें निहायत गैरमामूली हालात का सामना करना पड़ेगा, तब भी उनका स्वागत करने वाले लोग यहां होंगे। मैं समझता हूं कि वह विमान से आएंगे। अगर ऐसा हो तो इलाहाबाद उनके उतरने के लिए उपयुक्त होगा। अपने अतिथि के रूप में उनको पाकर मेरी बहन को और मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी और वह जब तक चाहें यहां ठहर सकते हैं। उनके लिए यह मुनासिब होगा कि वह गांधीजी और जिन्ना के सहित कुछ अन्य नेताओं से मिलें। हम उनके लिए एक छोटी यात्रा का प्रबंध कर सकते हैं। लेकिन तीन हफ्तों में सारे देश की यात्रा नहीं की जा सकती, क्योंकि भारत एक बड़ा देश है। वह जहां कहीं जाएंगे, उनसे मिलने और उनकी मदद करने के लिए मित्रों की कमी नहीं होगी। मैं चाहता हूं कि तुम उनसे यह भी कह दो कि अगर उस समय के लिए मैं उपलब्ध न भी रहूं, इलाहाबाद के हमारे मकान में उनका स्वागत होगा।’ स्टेफर्ड क्रिप्स भारत आए। 8 दिसंबर, 1939 को इलाहाबाद पहुंचे।
पंडित नेहरू से लंबी बात की। यहां यह जान लेना चाहिए कि एक माह पहले ही स्टेफर्ड क्रिप्स ने ब्रिटिश सरकार को एक योजना दी थी। जिसमें भारत को डोमिनियन स्टेटस देने का जहां सुझाव था, वहीं यह भी प्रस्ताव उन्होंने दिया था कि ब्रिटेन ने जो भी वादे किए हैं, वे तुरंत लागू किए जाने चाहिए। उसमें ‘भारत के इस अधिकार को भी स्वीकार किया गया था कि यह स्वयं संविधान सभा गठित कर अपने संविधान का निर्माण करे।’ इस आधार पर पंडित नेहरू ने क्रिप्स की यात्रा को महत्व दिया। वे क्रिप्स से पहले से परिचित ही नहीं, मित्रभाव रखते थे। ऐसा क्यों न हो! पंडित नेहरू ने ‘अपनी लंदन यात्रा के दौरान जून-अक्टूबर, 1938 के बीच क्रिप्स के घर जो सप्ताहांत बिताया था, उसने भी बड़ा योगदान दिया था। वहां वे वी.के. कृष्णमेनन के साथ गए थे। इस सप्ताहांत के अतिथियों की सूची में एटली (जो 26 जुलाई, 1945 को प्रधानमंत्री बने) एन्यूरिन बेवन और हेराल्ड लास्की भी शामिल थे और खुद मेजबान क्रिप्स तो थे ही। इस तरह यह अवसर मानों लेबर पार्टी के ‘इंडिया कांसिलिएशन ग्रुप’ की उपसमिति की एक सप्ताहांत बैठक ही बन गया। जिसमें कई अन्य बातों के साथ यह चर्चा भी की गई थी कि किस तरह अगली लेबर सरकार भारत में सत्ता का हस्तांतरण करेगी।
‘उस योजना की जितनी अधिक आलोचना मैं देखता हूं, मैं उस पर उतना ही अधिक मुग्ध होता जाता हूं। वह जन भावना की सबसे अचूक सूचक होगी। उससे हमारी अच्छाइयां और बुराइयां खुलकर सामने आयेंगी। अशिक्षा की मुझे चिंता नहीं है। मैं तो पुरुषों और स्त्रियों, दोनों के लिए आंख मूंदकर विशुद्ध वयस्क मताधिकार की व्यवस्था कर दूंगा, अर्थात उन सबके नाम मतदाता सूची में दर्ज कर दूंगा।
इसके अलावा आम जनता के वयस्क मताधिकार से गठित एक संविधान सभा के बारे में भी चर्चा हुई।’ उस स्टेफर्ड क्रिप्स की यह भारत यात्रा जो थी, वह एक ब्रिटिश सांसद की निजी यात्रा थी, लेकिन खास इसीलिए बन गई क्योंकि उन्हें ब्रिटिश सरकार का अघोषित प्रतिनिधि समझा गया। ऐसा नहीं है कि सिर्फ पंडित नेहरू ने ही समझा। उस यात्रा में वे सुपर वायसराय समझे गए। अपनी पुस्तक ‘अंधकार काल-भारत में ब्रिटिश साम्राज्य’ में शशि थरूर ने इसका कारण इस तरह बताया है-‘क्रिप्स पहले ही ब्रिटेन की राजनीति में एक महान व्यक्ति थे जो सॉलिसिटर जनरल रहे चुके थे और उन्हें कंजर्वेटिव पार्टी के साथ मिलकर यूनाइटेड फ्रंट की हिमायत करने के लिए (जो युद्ध के दौरान पारित हो गया था) 1939 में लेबर पार्टी से निष्कासित कर दिया गया था। क्रिप्स का व्यक्तित्व तपस्वी के शाकाहारवाद एवं व्यक्त अहंकार का मिश्रण था (चर्चिल ने क्रिप्स के लिए कहा था: ‘यदि भगवान की कृपा नहीं होती तो ये भगवान ही हो जाते’।)
क्रिप्स 1939 में युद्ध छिड़ जाने के बाद भारत आये थे और अनेक भारतीय नेताओं को जानते थे, वे पंडित नेहरू को मित्र मानते थे।’ स्टेफर्ड क्रिप्स की उस यात्रा से आशाजनक परिणाम की संभावना का कारण उनका एक भाषण है, जिसे उन्होंने 26 अक्टूबर, 1939 को हाउस आॅफ कामंस में दिया। जिसमें कहा- ‘भारत और उसकी समस्याओं का निराकरण का एक उपाय संविधान सभा है। मुझे यकीन है कि भारत की मुक्ति संविधान सभा में है।’ वे जब भारत आए उस समय वायसराय थे लिनलिथगो। विश्व युद्ध के घोषित होते ही उन्होंने मुस्लिम लीग और जिन्ना को कंधे पर उठा लिया। डॉ. बी. पट्टाभि सीतारामैया ने जिस तरह कांग्रेस के इतिहास में क्रिप्स की इस यात्रा को महत्वपूर्ण स्थान दिया है, उससे भी बहुत सी बातें अपने आप स्पष्ट हो जाती हैं। बी. पट्टाभि सीतारामैया ने ‘कांग्रेस का इतिहास’ में लिखा है कि ‘यह यात्रा बड़ी महत्वपूर्ण थी।’ क्यों वह बहुत खास मानी गई? इसका कारण भी उन्होंने बताया है। ‘सर स्टेफर्ड ने बताया कि हाल में ब्रिटेन के लोगों की सहसा ऐसी धारणा हो गई है कि भारत से समझौता कर लिया जाए और भारतीयों की आकांक्षाओं को पूरा कर दिया जाए।’ क्रिप्स जहां भी गए और जिससे भी मिले, उन्होंने अपना यह कथन दोहराया।
वे गांधीजी, जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल से मिले। लंबी बात की। ‘गांधीजी द्वारा तैयार किया गया एक विस्तृत और लंबा मसविदा भी वे अपने साथ लेते गए।’ यही वह रहस्य है जो अधिक शोध की मांग करता है। उस मसविदे में क्या था? क्या उस समय कांग्रेस नेतृत्व डोमिनियन स्टेटस पर रजामंद थी? क्या गांधीजी ने उसका ही एक खाका मसविदे में दिया था? क्रिप्स की इस निजी भारत यात्रा से पहले गांधीजी संविधान सभा पर मौन थे। वे पंडित नेहरू के अभियान पर संशयग्रस्त भी थे। ऐसा समझना चाहिए और यह उचित भी है कि अचानक उनमें जो परिवर्तन आया, वह एक व्यापक संदर्भ में था। गांधीजी ने अपना लेख ‘एक ही रास्ता’ इलाहाबाद में ही लिखा। उस पर 19 नवबंर, 1939 की तारीख है। गांधीजी 17 नवंबर से एक सप्ताह के लिए इलाहाबाद में उन दिनों थे। कांग्रेस कमेटी की बैठक में रहने के अलावा उन्होंने वहां कमला नेहरू अस्पताल का शिलान्यास किया। उनके लेख का प्रासंगिक अंश इस प्रकार है-‘पंडित जवाहरलाल नेहरू ने मुझे यह दायित्व सौंपा है कि अन्य चीजों के साथ-साथ मैं संविधान सभा के फलितार्थों का भी अध्ययन करूं।
जब उन्होंने कांग्रेस प्रस्तावों में इसे पहले पहल दाखिल किया तो उसके संबंध में मैंने यह सोचकर अपने मन को मना लिया था कि लोकतंत्र की बारीकियों का उन्हें बेहतर ज्ञान है। लेकिन मेरा मन संशयमुक्त नहीं था। मगर घटना चक्र ने मुझे पूरी तरह से उसका कायल कर दिया है और उसी वजह से शायद मैं इसके प्रति खुद जवाहरलाल से भी ज्यादा उत्साहशील हो गया हूं। कारण, जनसाधारण के राजनीतिक तथा अन्य प्रकार के शिक्षण का वाहन होने के अतिरिक्त उसमें मुझे सांप्रदायिकता तथा अन्य रोगों का उपचार भी दिखाई देता है, जो हो सकता है, जवाहरलाल को शायद न दिखाई देता हो।’ ‘उस योजना की जितनी अधिक आलोचना मैं देखता हूं, मैं उस पर उतना ही अधिक मुग्ध होता जाता हूं। वह जन भावना की सबसे अचूक सूचक होगी। उससे हमारी अच्छाइयां और बुराइयां खुलकर सामने आयेंगी। अशिक्षा की मुझे चिंता नहीं है। मैं तो पुरुषों और स्त्रियों, दोनों के लिए आंख मूंदकर विशुद्ध वयस्क मताधिकार की व्यवस्था कर दूंगा, अर्थात उन सबके नाम मतदाता सूची में दर्ज कर दूंगा। उन्हें आजादी होगी कि यदि वे अपने उस अधिकार का उपयोग न करना चाहें, तो न करें।
मुसलमानों को मैं पृथक निर्वाचक मंडल दूंगा, लेकिन अगर आवश्यकता हुई तो पृथक निर्वाचक मंडल दिए बिना हर एक वास्तविक अल्पसंख्यक समुदाय को उसकी संख्या के अनुसार सुरक्षित स्थान दूंगा, हालांकि ऐसा मैं अनिच्छा से ही करूंगा।’ ‘इस प्रकार संविधान सभा सांप्रदायिक समस्या का न्यायसम्मत समाधान ढूढ़ने का सबसे आसान तरीका प्रस्तुत करती है। आज हम ठीक ठीक यह नहीं कह सकते कि कौन किसका प्रतिनिधत्व करता है। कांग्रेस निर्विवाद रूप से व्यापकतम पैमाने पर इसकी सबसे पुरानी प्रातिनिधिक संस्था है, तथापि अन्य राजनीतिक और अर्ध-राजनैतिक संस्थाएं आज उसके प्रबल प्रातिनिधिक स्वरूप पर प्रश्न चिह्न लगा सकती हैं और लगाती भी हैं। मुस्लिम लीग, निस्संदेह, मुसलमानों की सबसे बड़ी प्रातिनिधिक संस्था है, मगर कई मुस्लिम संस्थाएं, जो किसी तरह नगण्य नहीं हैं, उसके इस दावे से इन्कार करती हैं कि वह उनका प्रतिनिधित्व करती है।
लेकिन संविधान सभा तो सभी समुदायों का उनके ठीक अनुपात में प्रतिनिधित्व करेगी। उसके अतिरिक्त परस्पर विरोधी दावों के साथ पूर्ण न्याय करने का और कोई उपाय नहीं है। इसके बिना सांप्रदायिक तथा अन्य दावों का अंतिम निबटारा नहीं हो सकता।’ उस लेख का यह अंतिम वाक्य वास्तव में पूरे संदर्भ को अपने शब्दों में बिना कहे प्रकट करता है, ‘कठिनाई से बाहर निकलने का एक मात्र रास्ता संविधान सभा ही है। अपनी राय मैंने उस पर दे दी है, लेकिन उसकी तफसील से मैं बंधा हुआ नहीं हूं।’ यह लेख 25 नवंबर को ‘हरिजन’ में छपा। यह क्या मात्र एक संयोग था! पंडित नेहरू ने वी.के. कृष्णमेनन को यह पत्र 25 नवंबर, 1939 को ही लिखा। जिसका प्रांसगिक अंश है, ‘वर्किंग कमेटी का जो प्रस्ताव मैंने तुम्हारे पास भेजा है, काफी व्यापक है, और उसका आशय वही है, जो उसके शब्दों से जाहिर होता है। कांग्रेस और ब्रिटिश सरकार के बीच दांवपेच का कोई सवाल नहीं है। आम तौर पर हम किसी तरह के संघर्ष की ओर बढ़ रहे हैं। किसी भी हालत में हम लोग अपनी स्थिति से डिगने नहीं जा रहे हैं, लेकिन यह गांधीजी का तरीका है और कांग्रेस का तरीका भी यही है कि आखिरी क्षण तक हमेशा समझौते के आधार पर बातें करें। यही सत्याग्रह की गांधीजी की व्याख्या है।
मेरा यह मतलब नहीं है कि ये बातें बेमानी हैं। लेकिन मेरा मतलब यह जरूर है कि इस तरह का कोई समझौता बताई गई शर्तों पर हो भी सकता है। तुम देखोगे कि कांग्रेस के प्रस्ताव में सबसे ज्यादा जोर संविधान सभा पर दिया गया है, और इस विचार को विस्तार दिया गया है। गांधीजी अब पूरी तरह से इसके मुरीद हो गए हैं, और जैसा कि उनका तरीका है, भविष्य में वह इसी पर सबसे ज्यादा जोर देना चाहते हैं। अब वह विष्वास करते हैं कि भारत की समस्या को सुलझाने का यही एकमात्र तरीका है, और इस बारे में उन्होंने एक लेख भी लिखा है।’ उस समय गांधीजी के क्या विचार थे, इस बारे में डॉ. बी. पट्टाभि सीतारामैया ने लिखा है कि ‘उनका ऐसा ख्याल था कि यद्यपि हम समझौते से काम चला सकते हैं, परंतु यह समझौता अंग्रेजों और हिन्दुओं के दरमियान नहीं हो सकता था। यह तो हिंसा होगी। यही वजह थी कि वे अपने ही तरीके की संविधान सभा की कल्पना कर रहे थे, जवाहरलाल जी के तरीके की नहीं, जो उन्होंने कांग्रेस के सामने रखी थी।’ क्रिप्स की यात्रा की वह माया थी। कांग्रेस नेताओं से मिलने के पश्चात वे लाहौर ट्रेन से गए। वहां सिकंदर हयात खान से मिले।
जो पंजाब में उस समय यूनियनिस्ट पार्टी की सरकार चला रहे थे। मुसलमानों में तब वे जिन्ना के मुकाबले प्रभाव में बड़े नेता थे। वहीं उन्हें वह फामूर्ला सूझा जो ब्रिटेन ने पूरे जोर शोर से चलाया, ‘संविधान निर्माण के लिए शिथिल संघ (फेडरेशन) की शर्त हो।’ 15 दिसंबर, 1939 को क्रिप्स ने मुंबई में जिन्ना से मुलाकात की। क्रिप्स ने उस यात्रा में भारत की राजनीतिक समस्याओं पर अपनी एक समझ बनाई। कांग्रेस की कोशिश थी कि विश्व युद्ध के सवाल पर एक राष्ट्रीय और मिलाजुला रुख हो। लेकिन वायसराय के विश्व युद्ध संबंधी बयान से कुपित होकर पंडित नेहरू ने राज्यों के मंत्रियों को इस्तीफा देने का आदेश दिया। इसे इतिहासकारों ने ‘एक अविस्मरणीय भूल’ बताया है। वास्तव में इससे ही जिन्ना को अवसर मिला। वह यह दावा जोर से करने लगे कि मुस्लिम लीग ही भारत के मुसलमानों की एकमात्र प्रतिनिधि है। दूसरी तरफ कांग्रेस को उस दौर में ब्रिटिश सरकार से रियायतों का बेसब्री से इंतजार था।
कारण कि क्रिप्स ने बड़ी आशा जगा दी थी। उसे वायसराय लिनलिथगो ने अपने एक बयान से थोड़ा बढ़ाया और सहारा दिया। वह बयान 10 जनवरी, 1940 का है। तब क्रिप्स भारत से रवाना हो गए थे। वायसराय ने मुंबई के ओरियंट क्लब में अपने भाषण में घोषणा करने की मुद्रा में कहा कि ‘ब्रिटेन का उद्देश्य वेस्टमिनिस्टर मॉडल की तर्ज पर भारत को डोमिनियन स्टेटस देना है। जल्दी ही मैं कांग्रेस, मुस्लिम लीग और रियासतों के प्रतिनिधियों को अपनी कार्यकारिणी परिषद में शामिल कर उसका विस्तार करूंगा।’ इस घोषणा से आशा जगी। गांधीजी ने वायसराय से मिलने का समय मांगा। उनकी भेंट 5 फरवरी, 1940 को निर्धारित हुई।
वह अगले दिन भी चली। लेकिन वह कोई परिणाम नहीं दे सकी। गांधीजी ने एक बयान दिया कि वायसराय के प्रस्ताव का उद्देश्य यह था कि भारत के भाग्य का अंतिम निर्णय ब्रिटिष सरकार पर छोड़ दें, जब कि कांग्रेस आत्म निर्णय के सिद्धांत पर समझौता चाहती है। वही समय है जब चर्चिल इन प्रयासों के विरोध में अडिग थे। जान साइमन उनका साथ दे रहे थे। कुख्यात साइमन कमीशन वाले ही वे जान साइमन थे। उनका तार जिन्ना से जुड़ा हुआ था। स्टेफर्ड क्रिप्स ने भारत से लौटने पर एक बयान दिया। जिसे न्यूज एजेंसी ‘यूनाइटेड प्रेस’ ने जारी किया। उनका बयान लंबा है। उसकी खास बातें जो थीं, उसकी अनुगूंज भारत में देर तक सुनाई पड़ती रही। कांग्रेस की मांग को उन्होंने भारत की राष्ट्रीय आकांक्षा बताया था।
स्वाधीनता आंदोलन को मुख्यत: अहिंसक माना था। यह स्वीकार किया था कि ब्रिटेन में हम लोगों को भारत के बारे में बहुत ही कम जानकारी है। ‘कोई भी व्यक्ति इस बात से तो इनकार कर ही नहीं सकता कि सारे देश पर कांग्रेस का बड़ा भारी प्रभाव पड़ा है और अगर वह चाहे तो जल्दी ही ब्रिटेन के जुए से निकल भाग सकती है, लेकिन क्योंकि वह मुस्लिम लीग के सहयोग से ही आगे बढ़ना चाहती है, इसलिए भारत की आजादी रुकी हुई है।’ जब उनसे पत्रकारों ने पूछा कि सांप्रदायिक प्रश्न को तत्काल हल करने के बारे में आपका सुझाव क्या है, तो क्रिप्स ने कहा ‘इसका भी हल संविधान सभा में है।’ कांग्रेस कब तक इंतजार करती। परिस्थितियां उलझती जा रही थीं। इसी दौरान घरेलू मोर्चे पर भी घटनाएं तेजी से घट रही थीं। रामगढ़ में कांगेस का अधिवेशन हुआ। जो 19-20 मार्च, 1940 को तूफानी मौसम के बावजूद संपन्न हो सका। कांग्रेस ने एक प्रस्ताव पारित कर ‘पूर्ण स्वराज’ और ‘वयस्क मताधिकार’ के आधार पर चुनी गयी संविधान सभा के निर्माण की मांग भी रखी।
ब्रिटेन में भी राजनीतिक परिवर्तन हुआ। इसका पूर्वानुमान स्वयं चर्चिल ने लगाया था। 1939 के नवंबर में यह कहा था कि अगले छ: सप्ताह में स्थिति में बड़ा परिवर्तन हो जाएगा। उस समय सीमा में भले न हो पर, 10 मई, 1940 को विंस्टन चर्चिल प्रधानमंत्री बने। ब्रिटिश सरकार का दृष्टिकोण भी बदला और भारत के लिए मंत्री भी बदले। वे लियोपोल्ड एमरी थे। उन्होंने जटलैंड की जगह ली।
इसी प्रकार मुस्लिम लीग ने लाहौर में 23 मार्च, 1940 को ‘पाकिस्तान’ प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। ऐसी परिस्थिति में क्रिप्स जो चाहते थे और उसके लिए प्रयास कर रहे थे उसमें भारी अड़चन ब्रिटिश सरकार की ओर से आई। ‘लेकिन यह कहा जा सकता है कि क्रिप्स ने 1939 में जो निष्कर्ष निकाले, वह उन दिनों की ब्रिटिश सरकार की नीतियों की तुलना में राजनीतिक वास्तविकताओं से कहीं अधिक मेल खाते थे। मार्च, 1940 में क्रिप्स ने चीन से पंडित नेहरू को खेदपूर्वक एक पत्र लिखा था, ब्रिटिश सरकार ‘काफी मूर्खतापूर्ण तरीके से व्यवहार कर रही है, वायसराय के साथ बातचीत के बाद मुझे कुछ उम्मीद बंधने लगी थी कि हालात सुधर सकते हैं, परंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ।’ ब्रिटेन में भी राजनीतिक परिवर्तन हुआ।
इसका पूवार्नुमान स्वयं चर्चिल ने लगाया था। 1939 के नवंबर में यह कहा था कि अगले छ: सप्ताह में स्थिति में बड़ा परिवर्तन हो जाएगा। उस समय सीमा में भले न हो पर, 10 मई, 1940 को विंस्टन चर्चिल प्रधानमंत्री बने। ब्रिटिश सरकार का दृष्टिकोण भी बदला और भारत के लिए मंत्री भी बदले। वे लियोपोल्ड एमरी थे। उन्होंने जटलैंड की जगह ली। एमरी तो शुरू से ही भारत विरोधी थे। उनसे क्रिप्स ने कहा कि, अब तय कर लेना बहुत जरूरी हो गया है कि कांग्रेस के साथ क्या रुख अपनाया जाए-आक्रामक, या शांतिपूर्ण तरीके से व्यवहार? उन्होंने एमरी से तब कहा कि ‘युद्ध के बीच में भी नागरिक अवज्ञा का खतरा ब्रिटिश राज के सामने अवश्य है। इसीलिए उन्होंने यह घोषणा करने का आग्रह किया कि ‘भारत को अपना भविष्य तय करने का अधिकार होगा।’ भारत की समस्या के समाधान में क्रिप्स का तब तक यही योगदान था।
उन्हें चर्चिल ने राजदूत बनाकर मास्को भेज दिया। जहां वे जनवरी, 1942 तक थे। चर्चिल को मास्को में ब्रिटेन की बात रखने के लिए एक वामपंथी राजनीतिक नेता चाहिए था। उस युद्ध काल में स्टालिन एक बहुत महत्वपूर्ण सहयोगी थे। लेकिन क्या चर्चिल क्रिप्स को भारत से अलग भी करना चाहते थे? कम-से-कम उस समय तक, जब तक ब्रिटेन जर्मनी के खिलाफ जीवन-मरण के युद्ध में जूझ रहा हो। दूसरी बार क्रिप्स चर्चिल के युद्ध मंत्रिमंडल के मिशन पर 23 मार्च, 1942 को भारत आए। उनकी इस यात्रा को ही ‘क्रिप्स मिशन’ के रूप में जाना जाता है। इस यात्रा में वे चर्चिल के ऐसे दूत बने कि भारत का नेतृत्व हैरान और परेशान रह गया।
उससे पहले उन्हें स्पष्ट वक्ता, स्वतंत्र विचारक, आमूल परिवर्तन का पक्षपाती, भारत का हितैषी और पंडित नेहरू का मित्र माना जाता था। उनके इस मिशन से वह भ्रम दूर हो गया। जवाहरलाल नेहरू ने निराशा में कहा-‘यह अपार दुख की बात है कि क्रिप्स जैसा सज्जन भी शैतान का वकील बन गया है।’ गांधीजी भी बड़े दुखी हुए। क्रिप्स के प्रस्ताव पर उन्होंने जो टिप्पणी की, वह इतिहास में यादगार बन गई है। ‘क्रिप्स का प्रस्ताव एक डूबते हुए बैंक का पोस्ट डेटेड चेक है।’ भारत ने क्रिप्स का इस बार दूसरा चेहरा देखा। वे चर्चिल के युद्ध मंत्रिमंडल के सदस्य के रूप में जब भारत आए तो वे चतुर वकील ज्यादा थे। लंदन लौटकर उन्होंने कांग्रेस पर आरोप लगाए।
कुछ आरोप बेतुके और झूठे थे। क्रिप्स उन दिनों लार्ड प्रिवी सील थे। चर्चिल के मंत्रिमंडल में यह उनका पद था। वे क्रिप्स मिशन के रूप में तीन हप्ते भारत में थे। कांग्रेस और क्रिप्स में बात कहां टूटी? क्रिप्स ने कांग्रेस पर आरोप लगाया कि उसने संविधान में परिवर्तन की मांग की। सच यह है कि कांग्रेस ने यह मांग रखी ही नहीं। बातचीत टूटी इस पर कि वायसराय की कार्यकारी परिषद में एक भारतीय सदस्य हो। वह युद्ध के दिनों में भारत की सुरक्षा के लिए निर्णय करने में पूरी तरह सक्षम हो। स्वाभाविक रूप से कांग्रेस अपना प्रतिनिधि चाहती थी। उस समय के वायसराय लिनलिथगो ने जुलाई में आई.सी.एस. अफसर सर मलिक फिरोज खान नून को अपनी परिषद में रक्षा सदस्य के रूप में मनोनीत किया।
वे ही मलिक फिरोज खान नून 1957 में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने। जवाहरलाल नेहरू ने भांप लिया था कि क्रिप्स गलतबयानी करेंगे। इसलिए उन्होंने मेनन को सारे तथ्य भेजे। मेनन ने लंदन में एक प्रेस कांफ्रेंरस कर भारत का पक्ष रखा। उस समय पंडित नेहरू और मेनन दोनों क्रिप्स से बहुत निराश हुए। क्या इसलिए कि क्रिप्स से बड़ी उम्मीदें लगा ली थी? यह तो था ही। पंडित नेहरू पर निराशा का भाव कई साल तक बना रहा। यह उनके उन पत्रों में मिलता है जो उन्होंने समयस मय पर वी.के. कृष्णमेनन को लिखे। क्रिप्स तीसरी बार केबिनेट मिशन के प्रमुख सदस्य होकर भारत आए थे। क्रिप्स और पंडित नेहरू में संपर्क सूत्र वी.के. कृष्णमेनन रहे। मेनन और क्रिप्स का संबंध बना रहा।