भारत शासन अधिनियम, 1935 से अंग्रेज जो चाहते थे उसे वे बहुत हद तक पा सके। कांग्रेस नेतृत्व को संविधान की अपनी अंधेरी गुफाओं में भटकाया। मुस्लिम लीग को भारत का भष्मासुर बना दिया। इसमें जाने-अजाने पंडित नेहरू ने भरपूर मदद की। इसकी सबसे प्रामाणिक कहानी नरेंद्र सिंह सरीला ने लिखी है। अखंड भारत कैसे खंडित हुआ? इसमें जिनकी भी रूचि है उन्हें यह कहानी बार-बार पढ़नी चाहिए। उन्होंने ‘विभाजन की असली कहानी’ लिखी। लंदन जाकर मूल पत्रावलियों को पढ़ा। अभिलेखागारों को खंगाला। उसके आधार पर जो तथ्य हाथ लगे उसे अपनी पुस्तक में उजागर किया। वे लार्ड माउंटबेटन के एडीसी रहे।
अंग्रेजों ने 1935 के नए संविधान के आधार पर ब्रिटिश शासित प्रांतों में स्वशासन का एक प्रयोग किया। 1937 में चुनाव कराए। उससे एक नई लहर पैदा हुई। कांग्रेस को अपार सफलता मिली। उसने सात प्रांतों में शासन संभाला। कुछ दिनों बाद असम में भी उसे सरकार बनाने का मौका मिला। इस प्रकार कांग्रेस की आठ राज्यों में सरकारें थीं, हालांकि अनुभव अच्छा नहीं रहा। सरकार चलाने में संविधान के प्रावधान ही बाधक थे। कांग्रेस ने अपने लिए छोटी-मोटी बड़ी बाधाएं स्वयं खड़ी कर ली थी। कांग्रेस कार्यसमिति और संसदीय बोर्ड मंत्रियों का मार्गदर्शन करते थे।
उनसे विधान सभाओं में पार्टी के अनुशासन का पालन करवाते थे। खास तौर पर ख्याल रखा जाता था कि कहीं कांग्रेस के उद्देश्यों की उपेक्षा तो नहीं हो रही है। मंत्रियों को शासन का अनुभव नहीं था। जवाहरलाल नेहरू उन्हें याद दिलाते रहते थे कि कांग्रेस का ऐतिहासिक दायित्व स्वतंत्रता प्राप्त करना है। इसलिए सरकार में रहते हुए उसे याद रखना है और स्वराज्य की योग्यता अर्जित करनी है।
कांग्रेस ने स्वराज्य की योग्यता को कभी परिभाषित नहीं किया। इसके लिए महात्मा गांधी ने जब पंडित नेहरू को बुलाया तो वे उस विमर्श के लिए तैयार ही नहीं हुए। दूसरी तरफ अंग्रेज स्पष्ट थे कि जो संवैधानिक सुधार की राह है उसकी मंजिल संसदीय प्रणाली में पूरी होती है। अंग्रेज समझते थे कि भारत का सामाजिक ढांचा संसदीय प्रणाली के लिए उपयुक्त नहीं है। इस निष्कर्ष पर वे अपना तर्क गढ़ते थे और कहते थे कि भारत अभी स्वाधीन होने की पात्रता अर्जित नहीं कर सका है।
कांग्रेस के लक्ष्य स्पष्ट थे-स्वाधीनता, लोकतंत्र और अखंड भारत। इन्हें पाना और स्थापित करना कांग्रेस अपना दायित्व समझती थी। इस संदर्भ में उस समयावधि में जवाहरलाल नेहरू की भूमिका का पुनः मूल्यांकन आज की आवश्यकता है। वे कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में उस संग्राम का नेतृत्व कर रहे थे। बड़े नीतिगत निर्णय में उनकी निर्णायक भूमिका थी। वह दौर नया था। निर्णायक था। जो 1937 के विधान सभाओं चुनावों से शुरू हुआ। वह अत्यंत महत्वपूर्ण है। उसमें कांग्रेस और मुस्लिम लीग की दूरी कैसे बढ़ी, क्यों बढ़ी? भारत के स्वाधीनता संग्राम में दूसरे विश्व युद्ध ने किस प्रकार हस्तक्षेप किया? उससे राजनीतिक संतुलन कैसे परिवर्तित हो गया? उसमें नेहरू और जिन्ना की भूमिका क्या थी? क्यों कांग्रेस सरकारों ने प्रांतों में इस्तीफे दे दिए? प्रांतीय सरकारों के इस्तीफे की रणनीति क्या सही थी? उससे राजनीति में क्या बुनियादी परिवर्तन हुए? ये प्रश्न उठे तो तब भी थे। संग्राम के षोर में दब गए। आज शांत चित्त से वे अपनी सुनवाई की मांग कर रहे हैं।
दूसरे विश्व युद्ध ने उस समय की जटिल परिस्थितियों में एक नया तत्व जोड़ दिया। ‘इससे वे शक्तियां कार्यरत हो गई जिन्होंने आगे चलकर भारत में पार्टियों की कतारबंदी को ही नहीं बल्कि दुनियाभर में शक्ति संतुलन को बदलकर रख दिया।’ इस तरह दूसरे विश्व युद्ध ने जहां दुनिया के सत्ता समीकरण को बदल दिया वहीं उसने भारत के स्वाधीनता संग्राम में भी जबरदस्त हस्तक्षेप किया। 1 सितंबर, 1939 को हिटलर के पोलैंड पर हमले से विश्व युद्ध षुरू हुआ। प्रांतों में कांग्रेस की सरकारों को तब तक 27 महीने भी नहीं बीते थे। युद्ध छिड़ने के करीब ढाई महीने बाद दिसंबर, 1939 में कांग्रेस के मंत्रियों ने अपनी-अपनी सरकारों से इस्तीफे दे दिए। इससे सत्ता अंग्रेज गर्वनरों के हाथ में पूरी तरह चली गई। कांग्रेस का तर्क था कि निर्वाचित प्रतिनिधियों को भरोसे में लिए बिना भारत को युद्ध में घसीटा गया। आठ राज्यों में सरकारों से इस्तीफा देकर कांग्रेस ने सोचा कि वह ब्रिटिश सरकार पर दबाव बनाने में सफल हो जाएगी। पर परिणाम वास्तव में विपरीत हुआ। जो आज बहुत स्पष्ट दिख रहा है।
कांग्रेस की सरकारें जैसे ही बनी जिन्ना ने अपना रूख बदला। कांग्रेस को अपने निशाने पर ले लिया। उस पर तमाम झूठे आरोपों की बौछार कर दी। अंग्रेजों ने इसे अपने लिए अनुकूल अवसर माना। सरकारों के इस्तीफे से उसकी कांग्रेस पर निर्भरता समाप्त हो गई थी। उसकी मांगों को मानने के लिए अंग्रेजों पर कोई दबाव नहीं था। उसे मुस्लिम लीग का सहारा मिलने लगा था। जो राजनीतिक रिक्तता कांग्रेस ने इस्तीफा देकर बनाई उसे अंग्रेजों ने मुस्लिम लीग को मंच देकर पूरा कर दिया। वी.पी. मेनन को कौन नहीं जानता! वे नामी अफसर थे। तीन वायसरायों लिनलिथगो, वेवल और माउंटबेटन के संवैधानिक सलाहकार रहे। उनका पूरा नाम था- वापुल पांगुनी (वी.पी.) मेनन। उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘द ट्रांसफर आफ पावर’ में लिखा है- ‘अगर कांग्रेस ने प्रांतों में लाभदायक स्थिति को नहीं छोड़ा होता तो भारतीय इतिहास का घटनाक्रम संभवतः बहुत अलग होता।’
आजादी के बाद सरदार वल्लभ भाई पटेल ने वी.पी. मेनन को अपने साथ रखा। उसी वी.पी. मेनन का मत है-‘इस्तीफे देकर कांग्रेस ने घटिया राजनीतिक सूझबूझ का परिचय दिया। इसकी संभावना लगभग नगण्य थी कि उन्हें ब्रिटिश सरकार सत्ता से बरखास्त कर देती क्योंकि उन्हें जनता का व्यापक समर्थन प्राप्त था। राज्य सरकारों के बल पर कांग्रेस ब्रिटिश सरकार पर अपना दबाव बनाए रख सकती थी। उसकी मांगों को ठुकराना ब्रिटिश सरकार के लिए तब कठिन हो जाता। हर प्रकार से यह साफ है कि कांग्रेस मंत्रिमंडल के इस्तीफों से जिन्ना और मुस्लिम लीग को वह मुकाम मिल गया जो उनके लिए तब असंभव दिख रहा था।’
अपने अध्ययन और शोध के बाद नरेंद्र सिंह सरीला ने निष्कर्ष निकाला कि ‘इन इस्तीफों का एक दीर्घकालिक गंभीर परिणाम यह निकला कि सैनिक दृष्टि से महत्पवूर्ण उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत अफगानिस्तान और भारत की सीमा पर खैबर दर्रेे पर राष्ट्रवादियों ने अपना नियंत्रण खो दिया। यदि सन् 1940 से 1946 के वक्त पर कांग्रेस का इन मुस्लिम बहुल प्रांतों में शासन बना रहता तो भारत के विभाजन की योजना आगे नहीं बढ़ाई जा सकती थी। इस प्रांत को शामिल किए बिना पाकिस्तान भारत की सीमा से घिरा रहता और पश्चिमी के लिए जो उसका सामरिक महत्व है वह नहीं रहता। इस क्षेत्र के पठान, कांग्रेस के महारथी सीमांत गांधी खान अब्दुल गफ्फार खाॅं के सम्मोहन में थे। इस सम्मोहन के टूटने से जिन्ना अंग्रेजों की मदद से इस प्रांत में पैर जमाने में सफल हुए। उसकी कहानी अलग है।’
उन्होंने लिखा है कि ‘प्रांतों में कांग्रेसी मंत्रिमंडलों के इस्तीफों से अतिप्रसन्न जिन्ना बंबई के मालाबार हिल्स स्थित पेड़ों से घिरे अपने बंगले में अरब सागर को निहारते हुए कह उठे कि यह कांग्रेस की हिमालयन भूल है।’ उससे राजनीतिक फायदा उठाने के लिए जिन्ना ने 22 दिसंबर, 1939 को मुक्ति दिवस घोषित किया-कांग्रेस शासन से मुक्ति। इसके तत्काल बाद जिन्ना कूटनीति और दम्भ के सहारे जीत हासिल करने के लिए तत्पर हो गए जैसा वह उस समय भारत में जनमत से कभी भी हासिल नहीं कर सकते थे। उस दौर में महात्मा गांधी ने क्या सलाह दी, यह जानना यहां जरूरी है। उससे भी ज्यादा जरूरी यह है कि जवाहरलाल नेहरू ने उन सलाहों पर कान नहीं दिया।
26 अक्टूबर, 1939 को महात्मा गांधी ने नेहरू को लिखा कि ‘यह संभवतः हमारे इतिहास का सबसे नाजुक काल है। उन अहमतरीन सवालों पर मेरी बहुत पक्की राय है जो हमारा ध्यान खींच रहे हैं। मुझे पता है कि उनके बारे में आपकी भी पक्की राय है, मगर मुझसे अलग। आपकी अभिव्यक्ति की शैली मेरी शैली से अलग है।’
विश्व युद्ध के प्रति दृष्टिकोण पर उस समय नेहरू और गांधी में गंभीर मतभेद थे। इसे राजमोहन गांधी ने बेहतर ढंग से लिखा है। उनका मत है कि गांधी की सलाह से कांग्रेस उस समय अपने पत्ते ठीक से चल रही थी। लेकिन विश्व युद्ध छिड़ते ही अचानक जिन्ना के हाथ मजबूत हो गए। कैसे? राजमोहन गांधी लिखते हैं कि ‘जैसे ही विश्व युद्ध छिड़ा कि ब्रिटिश संसद ने भारत के वायसराय लार्ड लिनलिथगो को यह अधिकार दे दिया कि वे जरूरत पड़ने पर प्रांतीय सरकारों से बगैर पूछे निर्णय ले सकते हैं। गांधीजी चाहते थे कि कांग्रेस उस समय ब्रिटेन और उसके सहयोगी देशो के प्रति सहानुभूति का रूख अपनाएं। लेकिन जनभावना दूसरी थी। लोग चाहते थे कि ब्रिटिश सरकार स्पष्ट आश्वासन दे कि युद्ध के बाद भारत को स्वाधीनता दी जाएगी। गांधीजी फिर भी अपने प्रयास में लगे रहे। उन्होंने 9 सितंबर को ‘हरिजन’ में लिखा कि यही समय है जब हमें अपनी भूमिका का निर्धारण सामूहिक रूप से करना है। इससे उन्होंने परामर्श का क्रम प्रारंभ किया। जिन्ना को निमंत्रण भेजा। जिसे उन्होंने इंकार कर दिया।
विश्व युद्ध छिड़ने के तुरंत बाद लिनलिथगो ने जिन्ना से संपर्क साधा। जो-जो कांग्रेस के विरोधी थे, उन सबसे वायसराय ने नाता जोड़ा। उस समय के पत्र व्यवहार से स्पश्ट है कि वायसराय ने किंग जार्ज शश्टम को सूचना दी कि ‘मैं जिन्ना के संपर्क में हूं। वह कठिन कार्य है लेकिन इसे साधने का प्रयास कर रहा हूं।’ उसी पत्र में यह सूचना भी है कि कांग्रेस जो चाहती है उसे वह नहीं देना है। मार्च, 1940 में जिन्ना ने माना कि वायसराय की नजर में उसका महत्व बढ़ गया है। इतिहासकारों का मत है कि विष्व युद्ध ने ब्रिटिष साम्राज्य और मुस्लिम लीग में परस्पर हित की एक कड़ी जोड़ दी।