अनुबंध और संविदा: रोजगार की वैधता का अनर्थ

शिवेंद्र सिंहबड़ी और युवा आबादी के देश भारत में रोजगार की उपलब्धता एक संकट है और बहस-विमर्श का विशिष्ट मुद्दा भी. पिछले दिनों एक कार्यक्रम में लार्सन एन्ड टूब्रो कंपनी के चेयरमैन एस.एन. सुब्रमण्यम ने कर्मचारियों को हफ्ते में 90 घंटे कार्य करने की एक अव्यवहारिक सलाह दे डाली. इसके बाद कार्य योजना, कार्य क्षमता और विकास के आंकड़ों पर योजनाओं पर लम्बी बहस छिड़ गईं. कई प्रभावशाली लोग जैसे इंफ़ोसिस के नारायण मूर्ति, ऐसे बयानों को उचित नहीं मान रहें हैं.
हालांकि इस विवाद के दरमियान, तब भी देश को रोजगार और कार्य प्रारूप पर विमर्श सही दिशा में  नहीं दिखा. इसके समरूप ही एक अहम् मुद्दा है सरकारी संस्थानों में अनुबंध और संविदा आधारित रोजगार के बढ़ती परंपरा का. इसमें कार्य या परियोजना विशेष को आधारित करके सरकारी संस्थाओं द्वारा साक्षात्कार (वाक इन इंटरव्यू) आधारित वैकेंसी घोषित की जाती है जिसे निर्धारित तिथि पर अभ्यर्थी अपने सर्टिफिकेट के साथ उपस्थित होते हैं. चयनित लोगों को पूर्व निर्धारित समय यानि छः माह से लेकर तीन या अधिकतम पाँच साल तक के लिए नियुक्त किया जाता है. कई बार इनमें कार्य समय विस्तार के अवसर होते हैं तो कभी अनुबंध निर्धारित समय पर समाप्त हो जाते हैं. यानि की एक निर्धारित तारीख के बाद आपका रोजगार समाप्त या सरकार की नियोक्ता संस्था आपसे उम्मीद करती है कि 15 से 30 दिनों का नोटिस देकर आप इस्तीफा दे सकते हैं. इस तरह देखें तो सरकारी क्षेत्र में सिमटते अवसर और निजी क्षेत्र की बढ़ती प्रभुता में अनुबंध आधारित नौकारियों ने एक भीषण अव्यवस्था फैला रखी है. लेकिन समस्या इसके अतिरिक्त भी हैं.
संविदा आधारित नौकरियों की दूसरी सबसे बड़ी समस्या है स्वास्थ्य बीमा की अनुप्लब्धता. एक ओर  सरकार के पास आयुष्मान योजना के विषय में तर्क स्वास्थ्य सुरक्षा के सर्वव्यापीकरण के तर्क हैं दूसरी ओर उसे अपने लिए ही काम करने वालों के स्वास्थ्य बीमा की चिन्ता नहीं है.
ऊपर से इन नौकरियों में वेतन बड़े मामूली हैं. जैसे की शोध विभाग में कार्यरत परियोजना के सहयोगियों और सहायक की मासिक तनख्वाह, जिनसे नेट और पीएचडी की डिग्री की उम्मीद की जाती है, से अधिक पैसे तो ugc के फेलोशिप प्राप्त शोधार्थियों को हर महीने मिलते हैं. ऐसे में कर्मचारी सदैव अच्छे और स्थायी अवसरों की तलाश में रहते हैं. उनका ध्यान काम से अधिक अपनी रोजी यानि नौकरी बचाने या सम्भावना क्षीण हो तो नये अवसर तलाशने में अधिक लगता है. और अच्छा अवसर मिलते ही वे नौकरी छोड़कर चले जाते हैं जिससे सम्बंधित संस्थान के कार्य क्षमता और कार्ययोजना दोनों को नुकसान होता है. और इसमें उनका दोष भी नहीं है. सच कहें तो इससे पूर्व प्रचलित ऐडहॉक की नौकरियों में कम से कम असामायिक-यकायक रोजगार छीनने का तो संकट नहीं था ना.
 इसके अलावा अनुबंध आधारित नौकरियों में बड़ी आसानी से रोस्टर प्रणाली और आरक्षण नियमों की अनदेखी की जाती है. यह एक ऐसा घातक कार्य है जो सरकारी क्षेत्र में न्यायपूर्ण सामाजिक प्रतिनिधित्व के संवैधानिक मूल्यों की घोर अवमानना है और जिसके भविष्य में घातक परिणाम हो सकते हैं. शीर्ष पदों पर बैठे वर्ग द्वारा आम जनचेतना की अनदेखी उनका ख़ुद का मानसिक भ्रम है. जनता सब देखती भी है, समझती भी है और अवसर मिलते ही उचित प्रतिउत्तर देती भी है.
देश ने रोजगार के बहुत से बदलते स्वरुप दो दशकों में देखे हैं. वर्ष 2005 में गरीब, अशिक्षित निम्न तबके के लिए अस्तित्व में आया चुनाव जिताऊ रोजगार योजना ‘नरेगा’ (बाद में ‘मनरेगा’), जिसमें व्यस्क सदस्य को न्यूनतम 100 दिनों के रोजगार की गारंटी की व्यवस्था थी. वर्तमान में सरकारी संस्थान में प्रचलित अनुबंध आधारित नौकरियां भी शिक्षित यहाँ तक कि उच्च शिक्षित युवाओं के लिए मनरेगा योजना सरिखा ही है जहाँ छः महीने से लेकर तीन या चार सालों के पूर्व निर्धारित रोजगार की व्यवस्था है.
चलिए मान लेते हैं सरकारी तन्त्र के शीर्षस्थ वर्ग की यह मान्यता है नौकरी के इस स्वरुप से कर्मचारियों में प्रतिस्पर्धात्मक कार्य क्षमता उभरेगी और उनके प्रदर्शन में सुधार होगा जिससे सार्वजानिक क्षेत्र उन्नत होगा. लेकिन इसके मूल ध्येय पर तब भी प्रश्नचिन्ह खड़े होते हैं. जैसे कि इस बात की क्या गारंटी है कि किसी कर्मचारी के प्रदर्शन का मूल्यांकन निरपेक्ष और निजी दुराग्रह से रिक्त रहेगा? यदि ऐसा नहीं है तब तो अनुबंध का अग्रसारित होना, जैसा कि कई नियुक्तियों में व्यवस्था है, पूर्णतः किसी उच्च पद पर बैठे व्यक्ति के इच्छा अधीन होगा. और यदि उसके मन में अपने अवर यानि कनिष्ठ सहकर्मी के विरुद्ध किसी तरह की दुर्भावना हो तब तो उसकी नौकरी पर संकट है या वो अनुबंध की पूर्णता के साथ समाप्तप्राय है. या ये भी हो सकता है कि कोई ऐसा व्यक्ति जो कम या संभवतः योग्यताहीन ही हो लेकिन अपने जोड़-तोड़, सेटिंग की काबिलियत के बल पर नौकरी में बना ही. ना रहे बल्कि उन्नति भी करें. वैसे भी देश के सार्वजानिक जीवन में जाति, परिवार, क्षेत्र के आधार में भेदभाव की मान्यताएँ कोई ढका छुपा तर्क नहीं है. वैसे भी नौकरी से लेकर राजनीति तक जातिवाद की चरम दूरभिसन्धि इस देश में किस बुरी तरह व्याप्त है, यह सर्वविदित है. ऐसे में दोनों ही परिस्थितियों में योग्यता का कोई बहुत अर्थ नहीं रह जाता. 
ये तो मतस्य न्याय की अवस्था है, जहाँ किसी योग्य, जरुरतमंद रोजगार आपेक्षी व्यक्ति की जीविका, उसके परिवार का आर्थिक संबल का ध्येय किसी उच्च पदस्थ व्यक्ति की इच्छा, आकांक्षा पर आधारित हो. ऐसे में तो अनुबंध आधारित ये  रोजगार का क़ानून तो उस ब्रिटिश कालीन रौलेट-एक्ट (सन् 1919) की याद दिलाता है जहाँ ‘ना कोई अपील, ना वकील, ना दलील’ का नियम था. वैसा ही कुछ सरकार की अनुबंध आधारित नौकारियों की स्थिति है जहाँ नौकरी से निकाले जाने के बाद कर्मचारी अपील-दलील करने की स्थिति में होता ही नहीं है.
परफोर्मेंस आधारित सेवा विस्तार और कार्य कुशलता एक मसला हो सकता है और निश्चित रूप से व्यावसायिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण भी है लेकिन इसके दुसरे पहलू को देखिये जहाँ एक कर्मचारी कि,उसके ऊपर आश्रित परिवार की जिंदगी जो उस मासिक तनख्वाह पर ही निर्भर है, और जिसे निरंतर किसी के एक निजी फैसले के साये में अपनी जिंदगी जीनी है जरा उस पहलू से सोचिये. ऐसे में यह क्यों ना कहें कि एक ओर जहाँ सरकार की ओर से रोजगार के नये अवसर पैदा किये जाने और कार्य-व्यवहार के प्रारूप को अधिक मानवीय एक गरिमापूर्ण बनाने के दावे किये जा रहे हैं और दूसरी ओर तेजी से बढ़ती नौकरशाही के अव्यवहारिक विचार व कार्यपद्धति द्वारा मध्यम एवं निचले स्तर के संविदा आधारित कार्मिकों के प्रति अमानवीय दृष्टिकोण को सत्ता संरक्षण प्राप्त है.
इसके अलावा नौकरी हेतु लिखित परीक्षा की परंपरा को जिस तरह से नष्ट किया जा रहा है वह भी काफी हद तक अनुचित है. देश में में शिक्षण संस्थान और उनके अध्ययन-अध्यापन, परीक्षा अंकन की. पद्धति से सरकारें और नियोक्ता पूर्णतः परिचित होंगे. ग्वालियर की जीवाजी यूनिवर्सिटी ने अपने कारनामें से जैसे भारतीय उच्च शिक्षा को सम्मानित किया है, वह कोई अपवाद स्वरुप मामला नहीं है. ऐसे में मात्र अंक-पत्र और डिग्री के आधार पर साक्षात्कार में आमंत्रित करना और नौकरी पर रखना अनुचित ही नहीं एक भीषण षड़यंत्र है ऐसे अभ्यर्थियों के विरुद्ध जो परीक्षा के संघर्ष में स्वयं की श्रेष्ठता सिद्ध करने में सक्षम है किन्तु रिजल्ट और एपीआई स्कोर के मामले में पीछे धकेल दिये जा रहें हैं.
आपको याद हो कि नौकरियों में इसी परफॉर्मेंस वाले दबाव में पिछले दिनों कई युवाओं के आत्महत्या की खबरें चर्चा में रही थीं. जैसे सितम्बर, 2024 में पुणे की 26 वर्षीय सीए युवती की असामयिक मौत के बाद ऑफिस कार्य के नियमितकरण के लिए क़ानून बनाने की माँग की जा रही थीं. ऐसे में, ये वही नग्न सत्य है जहाँ भारत की नवधनाढ्यवादी तथाकथित विकसित भारत की संकल्पना में युवाओं की जान ग्रोथ, डेवलपमेंट, विकास, प्रोग्रेस जैसी शब्दावलियों की अपेक्षा कही अधिक सस्ती है. ऐसे में एस. सुब्रमण्यम उसी बाजारवादी आर्थिक लाभ तथा विकासवादी श्रेष्ठता  क्रूर भावशून्यता का खुली अभिव्यक्ति दे रहे थे जिसका कि देश की लोकतान्त्रिक सरकार और उसकी संस्थाएं मौन रूप में व्यवहारिक प्रदर्शन कर रही हैं.
 हालांकि नैतिकता और क़ानून की नियमावली के अर्थ इस लोकतान्त्रिक राष्ट्र में बड़े विचित्र हैं. वे राजनीति, सत्ता, व्यवसाय के प्रभावशाली वर्ग के लिए अलग और आम लोगो के लिए बिलकुल ही अलग हैं. जैसे इसी मामले को ही लें. यदि परफॉर्मेंस, कार्य प्रदर्शन ही इसका आधार हो कि क्या व्यक्ति अपने द्वारा धारित पद के योग्य है, तब तो इसकी शुरुआत विधानमंडलों एवं संसद के सदस्यों यानि माननीय जनप्रतिनिधियों से होनी चाहिए, आखिर देश का वर्तमान और भविष्य तो वे ही निर्धारित कर रहे हैं. और यह योग्यता परिक्षण, उनके क्षेत्र की जनता और उनके कार्यक्षेत्र और धारित संस्थानों जैसे मंत्रालयों आदि से प्रभावित आम जन द्वारा वैसे ही छमाही और सालाना रूप से हो जैसा कि सरकार के अनुबंधित कर्मचारियों का होता है, तभी व्यवस्था को न्यायिक माना जायेगा. क्या नेतृत्व और सरकार इसके लिए तैयार है?
नहीं, क्योंकि जनप्रतिनिधित्व की आड़ में ये वो ढीट और निर्लज्ज जमात है जिसे आम जनसरोकारों में कोई विशेष रूचि नहीं है. इसलिए आप कह सकते हैं कि इसलिए देश में लोकतान्त्रिक उसूलों की मान्यता बड़ी दोमुही, बड़ी दोगली है.असल में इन सभी वाजिब तर्कों की वैधता के पीछे सबसे बड़ी समस्या है सत्ता यानि व्यवस्थापिका एवं कार्यपालिका की व्यवहारिक अहमन्यता. सत्ता को तब तक किसी अनिष्ट-कुमार्गी नीति से कोई फर्क नहीं पड़ता जब तक कि लोग सड़कों पर ना हो, या कुछ एक की जान पुलिस-प्रशासन की लाठी-गोली से ना जाये.
 ख़ैर यह अनुबंध के रोजगार की विसंगतियाँ भी ऐसा ही एक महत्त्वपूर्ण मसला है जिसे ‘विकसित भारत’ की दौड़ के दावे लगा रहे शीर्ष केन्द्रीय नेतृत्व और राष्ट्रीय योजनाकारों को समझने की आवश्यकता है ताकि मेहनतकश शिक्षित युवा अपनी दिहाड़ी मजदूरी की स्थिति तथा भविष्य की दश्चिन्ता से निश्चिन्त होकर राष्ट्रीय उन्नति में अपनी पूर्ण सामर्थ्य से योगदान करने में अपनी ऊर्जा लगाये ना कि रोजगार बचाने के संकट से जूझने में. जबकि सरकार द्वारा प्रश्रय प्राप्त अनुबंध और संविदा आधारित नौकरियों का मूल यथार्थ है रोजगार की अनिश्चितता, भ्रष्टाचार और शासकीय मनमानी. ऐसे में याद दिलाते चलें कि लोकतंत्र में सरकार का प्राथमिक दायित्व है तंत्र के विरुद्ध जन की रक्षा करना, वास्तव में जनतंत्र का अर्थ भी तभी ध्येयपूर्ण होगा .

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