सार्वजनिक जीवन में भाषा की मर्यादा क्या हो इसकी कोई स्थापित संहिता नहीं है. किंतु मानव समाज में सभ्यता के साथ ही एक अघोषित मर्यादा स्थापित की गई. सामान्यतः इस मर्यादा रेखा के आस-पास ही संवाद के स्तर का होना विवादों को रोकता है. लेकिन यह मर्यादा कई बार सार्वजनिक जीवन में टूट भी जाती है. ज़ब यह कार्य किसी आम इंसान से हो तो समाज के लिए महत्वहीन होता है. किंतु यदि यह कृत्य किसी नामचीन हस्ती द्वारा किया गया हो विवाद का विषय बन जाता है. ऐसे ही एक विवाद तब शुरू हुआ ज़ब विख्यात कवि कुमार विश्वास ने संघ-भाजपा के लिए असंसदीय भाषा का प्रयोग किया.
हुआ यूँ कि मध्य प्रदेश के उज्जैन में विक्रमोत्सव कार्यक्रम के तहत 21 से 23 फरवरी तक रामकथा का आयोजन किया गया है. कार्यक्रम में रामकथा करने पहुंचे कवि कुमार विश्वास ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ-भाजपा को अनपढ़ लोगों का संगठन कह दिया. यह बात उन्होंने धर्म ग्रंथों का जिक्र करते हुए बजट की चर्चा आने पर कही. इस दौरान मध्य प्रदेश के मंत्री मोहन यादव, सांसद अनिल फिरोजिया, विधायक पारस जैन सहित महापौर मुकेश टटवाल आदि कार्यक्रम में मौजूद थे. उस समय हल्के-फुल्के ढंग से कहीं गई इस बात पर बाद में विवाद प्रारम्भ हों गया. विवाद बढ़ने के बाद कुमार विश्वास ने माफी मांगी ली. उन्होंने कहा कि आपकी इस सामान्य बुद्धि में अगर ये प्रसंग किसी और तरीके से चला गया है तो उसके लिए मुझे माफ करें. हालांकि उनकी माफी में भी उनके ज्ञान का अहंकार ही झलक रहा है.
इस विवाद के कई पहलू हैं. हो सकता है कि संघ- भाजपा की कार्यशैली से अथवा उसकी विचारधारा से कविवर कुमार विश्वास को शिकायत रही हो. किंतु उसके लिए सार्वजनिक मंच से ऐसी अमर्यादित टिप्पणी ठीक नहीं हो सकती. अगर वे संघ को अनपढ़ो का संगठन बता रहें थे तो इससे उनका बौद्धिक अहंकार प्रदर्शित होता है. कुमार विश्वास जैसे बहुश्रुत एवं बहुपठित व्यक्ति को अज्ञानी तो नहीं ही कहा जा सकता है. यह उनका स्व के ज्ञान से उपजा घमंड है जो उनके विचारधारा से असमत संगठन को इस असभ्य तरीके से सम्बोधित करने को उत्तेजित कर रहा है. असल में यह घटना संघ-भाजपा से अधिक कुमार विश्वास का स्वयं का अपमान है. उनके जैसे विद्वत-जन से ऐसे अशिष्ट वक्तव्य की उम्मीद नहीं की जाती.
हालांकि एक पहलू ने संघ और भाजपा से जुड़े नेताओं-कार्यकर्ताओं का भी है. उन्हें अपनी आलोचना के प्रति इतना दुराग्रह ही नहीं होना चाहिए और यदि कुमार विश्वास माफी मांग चुके हैं तथा विवाद का पटाक्षेप चाहतें हैं तो इसे अनावश्यक तूल देने की जरुरत नहीं थी. अगर यही करना है तो फिर उनमें और असभ्य कट्टरपथियों में क्या अंतर रह जाएगा. जो हर विवाद पर जान लेने तक को उतारू हो जाते हैं. आलोचना सहना भी सीखें और अगर आलोचना करने वाले ने अपनी बात से हटते हुए माफी मांग ली है फिर उसके कार्यक्रम में तोड़-फोड़ करने और कार्यक्रम बंद करवाने, वहां से भगाने की धमकी भी देना ठीक नहीं है. वर्तमान राजनीतिक-सामाजिक परिशिष्ट ऐसा हो गया है कि आलोचना क्या सामान्य समालोचना भी कोई भी दल- संगठन, उसके नेता कार्यकर्त्ता तक बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं है. भाजपा कार्यकर्ताओं को इस मार्ग पर जाने की आवश्यकता नही है .
आवश्यकता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का देश में सम्मान बना रहे, किंतु इस अधिकार का प्रयोग भी जिम्मेदारी से हो तो समाज में समन्वय बना रहेगा.
[लेखक सामाजिक कार्यकर्त्ता एवं सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय की हिंदी सलाहकार समिति के सदस्य हैं]