दूसरी पंचवर्षीय योजना में भी सहकारिता क्षेत्र पर बल दिया गया। अखिल भारतीय ग्रामीण ऋण सर्वेक्षण समिति की सिफारिशों के आधार पर योजना ने सरकारी विकास कार्यक्रमों की रूपरेखा तैयार की। यह कल्पना की गई कि गांव का प्रत्येक परिवार कम से कम एक सहकारी समिति का सदस्य होगा। किसानों को बेहतर सेवाएं उपलब्ध कराने के उद्देश्य से ऋण तथा ऋणेत्तर समितियों को जोड़ने का लक्ष्य रखा गया। सहकारी समितियों में राज्य की विभिन्न स्तरों पर भागीदारी का मुख्य उद्देश्य, हस्तक्षेप या नियंत्रण करने की अपेक्षा, उनकी सहायता करना था।
सहकारी समितियों ने राज्य की भागीदारी लागू करने के लिए योजना में दीर्घकालीन राष्ट्रीय कृषि ऋण प्रचालन निधि की स्थापना की सिफारिश की। इस अवधि में केन्द्र सरकार द्वारा राष्ट्रीय सहकारिता विकास निधि की स्थापना की गई। इससे देश में ऋणेतर सहकारी समितियों की शेयर-पूंजी में हिस्सेदारी के लिए राज्य ऋण ले सकें। सन् 1956 के औद्योगिक नीति प्रस्ताव ने औद्योगिक और कृषि उद्देश्यों के लिए और विकासशील सहकारी क्षेत्र के निर्माण के लिए सहकारी आधार पर आयोजित उद्यमों को राजकीय सहायता की आवश्यकता पर बल दिया।
सन् 1936 में श्री एस.टी. राजा की अध्यक्षता वाली सहकारी निधि पर बनाई गई समिति ने राज्य सरकारों के विचारार्थ माडल बिल की सिफारिश की। सहकारी क्षेत्र को प्रभावित करने वाला इस समय का महत्वपूर्ण विकास था राष्ट्रीय विकास परिषद का प्रस्ताव (1958)। सहकारिता नीति के प्रस्ताव ने इस बात पर बल दिया कि सहकारी समितियां ग्रामीण समुदाय के आधार पर प्राथमिक ईकाई के रूप में संगठित की जाएं और ग्राम सहकारी समिति तथा पंचायत के बीच गहरा समन्वय होना चाहिए। इस प्रस्ताव ने यह सिफारिशों के परिणामस्वरूप कई राज्य सरकारों ने अपने अधिनियमों में संशोधन किए।
दूसरी पंचवर्षीय योजना में हम दो कदम और चले। इस योजना में सहकारी विपणन और कृषि उत्पादों के प्रसंस्करण को सहकारिता विकास की समेकित योजना का अंग माना गया। 1900 के करीब प्राथमिक विपणन समितियों की स्थापना की गई। सभी राज्यों में राज्य विपणन महासंघ बने। केन्द्र में राष्ट्रीय सहकारी विपणन महासंघ की स्थापना हुई। इसका नतीजा यह रहा कि किसानों को खेती किसानी के लिए आर्थिक सहयोग आसानी से मिलने लगा। कृषि सहकारी समितियों और विपणन सहकारी संस्थाओं ने प्रसंस्करण के लिए निवेश किया।
तीसरी पंचवर्षीय योजना 1961 में शुरू हुई, यह समय 1969 तक था। इस पंचवर्षीय योजना में जीवन स्तर पर सुधारने पर जोर था। विशेषकर कृषि, लघु सिंचाई, लघु उद्योग तथा प्रसंस्करण, विपणन, वितरण, ग्रामीण विद्युतीकरण, आवास तथा स्थानीय समुदायों के लिए आधारभूत सुविधाओं के विकास के लिए। इसके लिए तय किया गया कि सहकारी समितियां धीरे-धीरे विकास करें। यहां तक कि माध्यमिक और बड़े उद्योगों तथा यातायात की कई गतिविधियों को सहकारिता के आधार पर चलाया जाए।
साठ के दशक के बाद कृषि प्रसंस्करण सहकारी समितियों की संख्या और अंशदान काफी बढ़ा। जिसका मुख्य कारण सरकार की वह नीति थी, जिसके तहत सहकारिता के क्षेत्र में बड़े उद्योगों के लिए दीर्घकालीन ऋण वित्तीय संस्थानों से दी गई। इसी तरह राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड की स्थापना से भारतीय डेयरी सहकारी आन्दोलन को गति मिली। बाद में, राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड ने खाद्य तेलों के क्षेत्र में भी प्रवेश किया। साल 1962 के बाद, उपभोक्ता सहकारी संरचना और सार्वजनिक वितरण प्रणाली को मजबूत बनाया गया। सरकार ने नीति के तौर पर उपभोक्ता या अन्य सहकारी समितियों को उचित दर की दुकानों के आवंटन को तरजीह दी। कई राज्यों ने उचित दर की नई दुकानों को केवल सहकारी समितियों को ही आवंटित किया। भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम 1934 तथा बाद में बैंकिंग विनियमन अधिनियम 1949 के कुछ चुनिंदा प्रावधानों को 1 मार्च, 1966 से सहकारी बैंकों पर लागू किया गया। इसका लक्ष्य था उनके बैंकिंग व्यवसाय को विनियमित करना। जिससे जमा राशि पर बीमा कवर की सुविधा दी जा सके।