भारत की अर्थव्यस्था कृषि अर्थव्यवस्था रही है। ग्राम स्वराज्य उसी खेती किसानी पर आधारित है। भारत में किसान का स्वभाव सहकार रहा। किसान की हरएक व्यवस्था एक दूसरे के सहयोग पर आधारित होती थी। शादी विवाह से लेकर हर काम सहयोग से होता था। मुगल आक्रांताओं और अंग्रजों के आने के बाद यह व्यवस्था छिन्न भिन्न होती गई। बाकी जो बचा था उसे बाजारीकरण ने नष्ट कर दिया। इसी सहकार को बाद में चलकर सहकारिता का नाम दिया गया। जो पहले समाज का स्वभाव था उसके लिए ढांचागत व्यवस्था की गई। भारत में सहकारिता का एक इतिहास है। एक सफर है। इस सफर में कितने उतार चढ़ाव आए इसे देखने समझने की जरूरत है। क्योंकि कृषि सहकारिता के जरिए नई ऊचाई मिल सकती है।
भारत में सहकारि ता आंदोलन दुनिया में सबसे मजबूत है। भारत में करीब पांच लाख सहकारी समितियां सक्रिय हैं। इसमें कृषि, उर्वरक और दूध के क्षेत्र में अधिक सक्रिय हैं। और भी कई क्षेत्रों में सहकारी समितियां काम कर रही है। यही नहीं देश की लगभग 50 फीसदी चीनी उत्पादन सहकारी समितियों के जरिए होता है। दरअसल सहकारी समितियों को सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के बीच संतुलन की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। सन 1963 में केन्द्रीय आपूर्ति और सहकारिता मंत्रालय ने राष्ट्रीय सहकारिता विकास निगम का गठन किया था। यह सहकारिता आंदोलन को गति देने के लिए था। वहीं दूध के क्षेत्र में खेड़ा सहकारी दुग्ध उत्पादन संघ(अमूल) की सफलता को दोहराने के लिए 1965 में राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड का गठन किया गया। मदर डेयरी जैसे संगठन इसका हिस्सा हैं।
वैसे भारत में सहकारिता का इतिहास तो सौ से अधिक साल पुराना है। देखने में आता है कि विधिवत सहकारी संगठनों के से पहले कई भागों में सहकारिता आधारित गतिविधियां चल रही थी। सामूहिक रूप से बनाए जाने वाले जलाशय एक उदाहरण है। इसे जलराई तथा बनराई कहा जाता था। गांव में पहले सामूहिक अनाज का भंडार बनाया जाता था। इसी भंडार से अगली फसल से पहले जरूरत पड़ने पर अनाज उधार लिया जाता था। सदस्यों से किश्त लेकर जरूरतमंद को नगद उधार का चलन भी था। मद्रास प्रेसीडेन्सी में चिटफंड, ट्रावनकोर में कुरी इसी सरकारिता का एक रूप था।
इसी प्रकार कोल्हापुर में ‘फण्ड‘ व्यवस्था थी, जिसमें किसान जलाशय बनाकर पानी के बराबरी से बंटवारे की व्यवस्था करते थे। फसल की कटाई और मण्डी तक अनाज पहुंचाने की भी व्यवस्था करते थे। किसान मिलकर जुताई-बुआई का वार्षिक समझौता करते थे। श्रम और बैलों की संख्या के हिसाब से सदस्यों के बीच उपज का बंटवारा होता था। ये सहकारिता के उदाहरण थे।
उन्नीसवीं सदी के बाद किसानों के पास पूंजी की कमी के कारण असंतोष बढता जा रहा था। 1880 के अकाल आयोग और बीस साल बाद 1901 के आयोग ने भारतीय किसानों के कर्ज में डूबने की बात कही। किसानों के कर्जदार होने से कई बार उनकी जमीन सूदखोरों के कब्जे में चली जाती थी। डेक्कन के दंगों और बढ़ते असंतोष के कारण सरकार को कुछ पहल करनी पड़ी, लेकिन वैधानिक उपायों से स्थिति में विशेष बदलाव नहीं आया।
कृषि बैंकों का प्रस्ताव सर्वप्रथम 1858 में और फिर 1881 में जस्टिस एम0जी0 रानाडे के सहयोग से विलियम बेडरबर्न ने रखा, जो अहमदनगर जिले के न्यायाधीश थे। मार्च, 1892 में फ्रेडरिक निकल्सन को मद्रास प्रेसिडेंसी के गर्वनर ने प्रेसिडेंसी में कृषी या भूमि बैंको की स्थापना की संभावना देखने हेतु नियुक्त किया। इन्होंने अपनी रिपोर्ट दो खण्डों में 1895 तथा 1897 में प्रस्तुत की।
1901 में दुर्भिक्ष आयोग ने सांझी साख संगठनों की स्थापना करके ग्रामीण कृषि बैंक बनाने का सुझाव दिया। इस दिशा में उत्तर पश्चिम प्रान्त और अवध की सरकारों ने कदम उठाए। लोगों का समूह बनाने के पीछे का विचार था कि इससे ऋणदाताओं को भी व्यक्ति की बजाए समूह को ऋण देना कम जोखिम भरा लगेगा।
ऐसे में सहकारी समतियों के लिए वैधानिक आधार भी जरूरी था। वैधानिक आधार देने के लिए सरकार ने एडवर्ड ला कमेटी बनाई। इसमें निकल्सन भी सदस्य थे। यह कमेटी अध्ययन करके सहकारी समितियों के कामकाज के लिए एक व्यवस्था बनाती। इसी केमेटी की सिफारिश पर सहकारी समिति विधेयक 25 मार्च,1904 को लाया गया। यह ऋण संबंधी सहकारी संगठनों तक सीमित था।
साल 1911 तक 5300 समितियां बन चुकीं थीं। इनमें 3 लाख से अधिक सदस्य थे। 1904 के अधिनियम के पहले 5-6 सालों प्रमुख सहकारी समितियां चर्चा में आ गई थी। जैसे राजाहौली ग्रामीण बैंक, जोरहाट कोआपरेटिव टाउन बैंक, चारीगांव ग्रामीण बैंक, जोरहाट, तिरूर प्राइमरी कृषि सहकारी बैंक लि0, तमिलनाडु, एग्रीकल्चर सर्विस कोऑपरेटिव सोसायटी लि0, देवगांव पिपरिया, मध्य प्रदेश, बैंस कोऑपरेटिव थ्रिफ्ट एण्ड क्रेडिट सोसायटी लि0 पंजाब, बिलीपद सर्विस कोऑपरेटिव सोसायटी लि0 उड़ीसा, गर्वनमेंट ऑफ इण्डिया, सेक्रिटरेट कोआपरेटिव थ्रिफ्ट एण्ड क्रेडिट सोसायटी आदि।इस अधिनियम में समिति का स्थापना से लेकर सदस्यों की योग्यता, सदस्यता शुल्क, आमदनी का बंटवारा, नियम कैसे बनाए जाएं और समिति के निराक्षण और लेखा परीक्षण के प्रावधान शामिल थे।
सहकारी आंदोलन को और गति देने के लिए सहकारी समिति अधिनियम 1912 आया। इसमें सहकारी समितियों के संघ का भी प्रावधान किया गया। इस अधिनियम से, ऋण के क्षेत्र में शहरी सहकारी बैंकों का परिवर्तन केन्द्रीय सहकारी बैंक के रूप में हो गया। जिसके सदस्य व्यक्ति भी थे और प्राथमिक सहकारी समितियां भी थी। इसमें अन्य गतिविधियां जैसे क्रय-विक्रय संघों, विक्री समितियों तथा गैर-कृषि क्षेत्रों में हथकरघा बुनकरों तथा अन्य दस्तकारों की सहकारी समितियां बनाने का लक्ष्य था।
साल 1914 में सहकारिता पर मैक्लेगन समिति बनी। बैंकिग संकट तथा प्रथम विश्व युद्ध दोनों ने सहकारी समितियों के विकास को प्रभावित किया। हालांकि सहकारी समितियों के सदस्यों की जमा पूंजी काफी बढ़ गई थी। लेकिन नकदी फसलों के निर्यात और मूल्य बुरी तरह प्रभावित हुए। जिससे प्राथमिक कृषि समितियों की देनदारी काफी बढ़ गई थी। आंकलन के लिए अक्तूबर, 1914 में सर एडवर्ड मैक्लेगन की अध्यक्षता में सरकार ने एक समिति नियुक्त की। समिति ने हर एक राज्य में प्राथमिक स्तर पर सहकारी संस्था, मध्य स्तर पर केन्द्रीय सहकारी बैंक और सबसे ऊपर राज्य सहकारी बैंक स्थापित करने की सिफारिश की। यह अल्पावधि और मध्यावधि पूंजी उपलब्ध कराने के लिए था।
साल 1912 के अधिनियम के बाद, पहली सहकारी आवास समिति 1914 में मद्रास सहकारी संघ स्थापित की गई। इसी तरह बम्बई केन्द्रीय सहकारिता संस्थान तथा बंगाल, बिहार, उड़ीसा, पंजाब आदि में इसी प्रकार की समितियां स्थापित की गई। उपभोक्ता सहकारी समितियों तथा बुनकर सहकारी समितियों के अलावा अन्य गैर-कृषि सहकारी ऋण समितियों की प्रगति अच्छी रही।
साल 1919 में सुधार अधिनियम पारित किया गया। इसके साथ ही सहकारिता का विषय प्रांतों को स्थानांतरित कर दिया गया। साल 1925 में एक व्यक्ति एक मत का विचार आया। यह प्रांतीय अधिनियम बम्बई सहकारी समिति अधिनियम से शुरू हुआ।कृषि ऋण चिन्ता का विषय था। कई समितियों ने अलग-अलग प्रांतों में सहकारी बैंकों की समस्याओं पर ध्यान दिया। साल 1928 में शाही कृषि आयोग ने भी सहकारिता क्षेत्र का पुनरीक्षण किया। इसके बाद अन्य बातों के साथ-साथ भूमि बंधक बैंक की स्थापना की सिफारिश की।
कृषि तथा गैर कृषि क्षेत्रों में समितियों का गठन किया गया। हालांकि निजी विक्रय एजेंसियों तथा संचालक मण्डल की अनुभवहीनता के कारण अधिकतर समितियों को प्रचालन संबंधी कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। इस समय का महत्वपूर्ण विकास अखिल भारतीय सहकारी समिति संघ 1929 की स्थापना था।
साल 1934 में भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना से कृषि ऋण के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण उपलब्धि हुई। भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम 1934 ने रिजर्व बैंक के अंतर्गत कृषि ऋण विभाग की आवश्यकता पर बल दिया। चूंकि सहकारी समितियों को ग्रामीण विकास का माध्यम बनना था, इसलिए साल 1935 में कार्यक्रम तैयार किए गए। इसके तहत ऋण को लेकर गांवों को प्राथमिकता दी गई। साल 1937 में मेहता समिति ने बहु-उद्देश्यीय सहकारी समितियों के रूप में सहकारी ऋण समितियों के पुनर्गठन की सिफारिश की।
दूसरे विश्व युद्ध में कृषि उत्पादों के मूल्यों में वृद्धि हुई। इसके कारण किसानों को लाभ मिला। किसानों को अधिक लाभ मिलने के कारण सहकारी समितियों की देनदारी में कमी आई। घरेलू उपभोग तथा कच्चे माल की कमी का मुकाबला करने के लिए सरकार ने उत्पादकों के सामान की खरीदारी तथा राशन व्यवस्था की शुरूआत की। जिसके लिए सहकारी समितियों का उपयोग करने का निर्णय लिया गया। इससे बहु-उद्देश्यीय सहकारी समितियों के विकास को बल मिला। साल 1939 से 1945 के दौरान शहरी ऋण संरचना के विकास को बल मिला। कई समितियों ने बैंकिग क्रियाकलापों की शुरूआत की। समय के साथ-साथ उनका विकास हुआ।
बहु-ईकाई सहकारी समिति अधिनियम 1942
एक से अधिक राज्यों में सदस्यता वाली सहकारी समितियों के विकास के साथ-साथ केन्द्र सरकार ने वेतन भोगी ऋण समितियों का प्रायोजन किया। बहु-ईकाई और बहु-राज्यीय सहकारी समितियों के लिए सहकारी कानून की आवश्यकता महसूस की गई। इसके बाद 1942 में बहु-ईकाई सहकारी समिति अधिनियम पारित किया गया। जिसने सहकारी समितियों के केन्द्रीय रजिस्ट्रार की शक्तियों को व्यावहारिक रूप से राज्य के रजिस्ट्रारों को दे दिया। जहां सहकारी एजेंसियां काफी मजूबत नहीं थीं, वहां सन् 1944 में गाडगिल समिति ने ऋण के अनिवार्य समायोजन तथा कृषि ऋण नियमों की स्थापना की सिफारिश की।
आर.जी. सरैया की अध्यक्षता में साल 1945 में सहकारी योजना समिति की स्थापना हुई। इस समिति ने सहकारी समितियों को आर्थिक आयोजन के लिए लोकतंत्रीकरण का सबसे उपयुक्त माध्यम माना।