सबसे बड़ी समस्या यह है कि इन नए-नए वायरसों का जब तक कोई उपचार खोजा जाता है, वह बड़ी आबादी को अपनी चपेट में लेकर अपना रौद्र रूप दिखा चुका होता है। आधुनिक चिकित्सा शास्त्र जब तक उसका उपचार ढूंढ़ता है, एक नया वायरस प्रकट हो जाता है।
चीन के नए चांद वर्ष की इससे बुरी शुरुआत क्या हो सकती है कि उत्सव में व्यस्तता की बजाय पूरा चीन महामारी की आशंका में डूबा हुआ है। नए वर्ष के आयोजनों के लिए लाखों चीनी हर वर्ष अपने घरों की ओर लौटते हैं। बड़े शहरों से लाखों चीनी दुनियाभर के पर्यटन क्षेत्रों के लिए उड़ान भरते हैं। लेकिन कोरोना वायरस से फैली महामारी के कारण इस बार चीनियों का घर से निकलना दूभर हो गया है। यह वायरस चीन के जिस वुहान शहर से फैला था, उस शहर की लगभग तालाबंदी कर दी गई है। चीन के जिन क्षेत्रों में इस वायरस का संक्रमण नहीं है, वहां भी हर आने-जाने वाले को संदेह से देखा जाता है। चारों तरफ यह डर फैल गया है कि संक्रमित क्षेत्र का कोई निवासी आकर वहां भी इस महामारी को फैला सकता है।
दूर-दराज के गांवों में किसी को पता लग जाए कि संक्रमित जिले का कोई आदमी आया है, तो स्थानीय प्रशासन ही नहीं,अड़ोस-पड़ोस के लोग भी उसे घर में कैद रहने के लिए विवश कर देते हैं। भय ने लोगों की सामाजिकता और सहृदयता को भी कुंद कर दिया है। संक्रमित क्षेत्र के कई शहरों में यातायात प्रतिबंधित है। चीनी सरकार संक्रमित लोगों के जो आंकडें उपलब्ध करा रही है, उस पर किसी को विश्वास नहीं है। सरकार ने प्रचार माध्यमों और सोशल मीडिया जैसे नए प्लेटफॉर्म की कड़ाई से निगरानी की हुई है ताकि अफवाहें न फैलें। ऐसे में जिन परिवारों का कोई सदस्य संक्रमित क्षेत्र में रह रहा है, उन्हें हर समय आशंका बनी रहती है। चीन सरकार ने शुरू में महामारी की जानकारी छुपाने की गलती भले की है, अब वह मुस्तैदी से उस पर नियंत्रण में लगी है।
फिर भी लोगों को भरोसा नहीं हो पा रहा। विश्वास का यह संकट केवल चीन के भीतर ही अनुभव नहीं हो रहा। इस महामारी की खबर ने दुनियाभर में चीनियों को खलनायक बना दिया है। दुनियाभर के हवाईअड्डों पर चीनियों की सघन जांच- पड़ताल हो रही है। भारत ने चीनी लोगों को वीजा देना स्थगित कर दिया है। अन्य अनेक देश भी चीनियों को वीजा देने से इनकार कर रहे हैं। उन देशों में भी जहां कोरोना वायरस से संक्रमण का एक भी मामला सामने नहीं आया, चीनियों को भय और शंका से देखा जा रहा है। पिछले दिनों चीन ने अफ्रीका में अपने आर्थिक और राजनैतिक प्रभाव के विस्तार के लिए विशेष प्रयत्न किए थे। अब तक वह अफ्रीकी देशों में काफी निवेश कर चुका है। उसके वन वेल्ट-वन रोड अभियान के अंतर्गत अफ्रीका में बहुत सी परियोजनाएं चल रही हैं। इन परियोजनाओं के संचालन के लिए वहां काफी चीनी भेजे गए हैं। अफ्रीका में कुल मिलाकर लगभग दस लाख चीनी रह रहे हैं। वहां कोरोना संक्रमण का कोई केस सामने नहीं आने पर भी सभी चीनी संदेहास्पद हो गए हैं। चीन ने अपने उदारतापूर्वक किए गए निवेश से वहां जो सकारात्मक भाव पैदा किया था, उसे महामारी फैलने की आशंका ने धो दिया है।
पहले ही थी आशंका!
चीन के जिस डॉक्टर ने सबसे पहले इस वायरस के संक्रमण की आशंका जताई थी, उसकी मृत्यु की खबर ने आम चीनियों को उद्वेलित कर दिया। चीन की नियंत्रणकारी कम्युनिस्ट व्यवस्था पर काफी टीका-टिप्पणी हुई। अब तक चीनी प्रशासन अपने नागरिकों को नियंत्रण में रखने के लिए उन्हें निरंतर राष्ट्रवाद की घुट्टी पिलाता रहा है। इस महामारी ने एक झटके में उसका प्रभाव समाप्त कर दिया। लोगों को नियंत्रणकारी कम्युनिस्ट व्यवस्था के लाभ से अधिक दोष दिखाई देने लगे। उन्हें सबसे अधिक इस खबर ने आहत किया कि प्रशासन ने शुरू में इस महामारी से संबंधित तथ्य छुपाने की कोशिश की थी। महामारी को नियंत्रित करने और उससे होने वाली समस्याओं को दूर करने में अब चीन सरकार काफी कुशलता से लगी हुई है। शुरू में आशंकित लोगों ने रोज की जरूरत का सामान बड़ी मात्रा में खरीदकर बाजार में उन वस्तुओं की किल्लत पैदा कर दी थी, लेकिन प्रशासन ने सभी वस्तुओं की आपूर्ति सुनिश्चित की। दवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित की। रातोंरात नए अस्पताल खड़े कर दिए। पर पर्याप्त चिकित्सक उपलब्ध करवाना हंसी-खेल नहीं है। संक्रमित लोगों की बड़ी संख्या को देखते हुए उन सबके परीक्षण के लिए उतना ही बड़ा तंत्र चाहिए, वह रातोंरात पैदा नहीं किया जा सकता। संक्रमण रोकने के लिए बड़े पैमाने पर विशेष तरह के मास्क चाहिए। उनकी दुनियाभर से आपूर्ति की गई है। फिर भी उनकी कमी बनी हुई है।
इस वायरस के संक्रमण के कारण चीन में एक अमेरिकी और एक जापानी की मृत्यु के बाद संपन्न औद्योगिक देशों की चिंताएं भी बढ़ती जा रही हैं। अमेरिका में तो पहले से ही चीन की नकारात्मक छवि है। इस महामारी ने आम अमेरिकियों के भीतर चीन के प्रति दिखाई देने वाले उस नकारात्मक प्रभाव को और बढ़ा दिया है। अमेरिका ने महामारी के फैलते ही चीन में रह रहे अपने व्यवसायियों और छात्रों को वापस बुलाने की पहल की थी। भारत भी विशेषकर वुहान से अपने छात्रों को वापस बुला चुका है।
अनेक अन्य देशों ने भी ऐसा किया है। पाकिस्तान ने ऐसा करने से मना कर दिया। उसका कारण चाहे जो बताया जा रहा हो, पाकिस्तान प्रशासन की असल चिंता यह है कि पाकिस्तान में चीन से आने वाले छात्रों की जांच-पड़ताल, घेरेबंदी और उपचार आदि की वह ठीक से व्यवस्था नहीं कर पाएगा। वुहान में रह रहे भयग्रस्त पाकिस्तानी छात्रों पर अपनी सरकार के इस रवैये का बहुत बुरा प्रभाव पड़ा है। पाकिस्तान के भीतर चीनियों को लेकर पहले ही नकारात्मक भावनाएं थी। अब उनकी आशंकाएं और बढ़ गई हैं। दक्षिण- पूर्व एशिया के देशों में कोरोना वायरस के संक्रमण को लेकर सबसे अधिक चिंता है। अनेक देशों के लोगों की खानपान की आदतों में कुछ समानता है।
उसके कारण वहां के लोगों की आशंकाएं और बढ़ गई हैं। जापान, दक्षिण और उत्तर कोरिया तथा वियतनाम के लोग और प्रशासन चीनियों के साथ-साथ वहां से आयातित खाद्य वस्तुओं को लेकर काफी सावधानी बरत रहे हैं। शुरू में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने अमेरिका पर आक्षेप किया था कि वह चीन में फैली महामारी को लेकर आतंक पैदा करने की कोशिश कर रहा है। पर जैसे-जैसे महामारी से मरने वालों की संख्या बढ़ी और उससे संक्रमित लोगों के बारे में जानकारी फैली इस महामारी का आतंक अपने-आप दुनियाभर में फैल गया। पिछले दो-तीन दशकों में तीसरी बार चीन पशुजन्य वायरस के कारण पैदा हुई महामारी की चपेट में है।
इससे पहले फ्लू और वायु संक्रमित वायरस की चपेट में आया था। कोरोना वायरस चीन के वुहान शहर के जानवरों के बाजार से फैला था। चीन में खाद्य सामग्री के विधि निषेध काफी शिथिल हैं। वहां सभी तरह के जानवरों, सरीसृप, कीड़े-मकोड़ों, पक्षियों और समुद्री जीवों को खाया जाता है। वुहान के जानवरों के बाजार में 112 तरह के पशु-पक्षियों, कीड़े-मकोड़ों और समुद्री जीवों का मांस मिलता है। कहा जा रहा है कि कोरोना वायरस चमगादड़ के मांस के खाने से फैला हो सकता है। चीन में आई संपन्नता के बाद वहां भोज्य सामग्री का भी विस्तार हुआ है। मनुष्य आमतौर पर जिन जानवरों का मांस खाता है, उनसे पैदा होने वाले वायरस से प्रतिरोधक क्षमता उसका शरीर पैदा कर लेता है। लेकिन जंगली जानवरों का मांस, पशु-पक्षियों का मांस अथवा अन्य सांप व दूसरे कीड़े-मकोड़ों की नई प्रजातियों से नए वायरस का खतरा बना रहता है। चीनियों में अनोखा मांस खाने की प्रवृत्ति ने इस खतरे को और बढ़ा दिया है।
पशुजनित वायरस का संक्रमण कोई अकेले चीन की समस्या नहीं है। अमेरिका जैसा उन्नत औद्योगिक देश भी उससे बरी नहीं है। यह तब जबकि अमेरिका में भोज्य सामग्री का लगभग पूरी तरह औद्योगीकरण कर लिया गया है। आम अमेरिकी के भोजन में डिब्बाबंद खाद्य सामग्री ही होती है। उसके प्रसंस्करण की प्रक्रिया में यह सुनिश्चित कर लिया जाता है कि उसमें कोई रोगाणु न बचे। लेकिन पशुजनित वायरस का संक्रमण केवल उसके खाए जाने वाले मांस से ही नहीं होता, उन पशुओं को जिन परिस्थितियों में रखा जाता है या उन्हें जो खिलाया जाता है, उससे भी वायरस पैदा हो सकता है और उसका संक्रमण हो सकता है।
2009 में अमेरिका में स्वाइन μलू फैला था। उसने अमेरिका के सवा दो करोड़ लोगों को प्रभावित किया था। इस महामारी की चपेट में दुनिया के 70 देश आ गए थे। अमेरिका के 3900 लोग स्वाइन μलू के कारण मारे गए थे। पशुजनित बीमारियों का एक विचित्र उदाहरण यूरोप, विशेषकर ब्रिटेन में चार दशक पहले फैली मैड काउ महामारी थी। विशेषज्ञों का मानना है कि उसका कारण गायों के खाने में मिलाया गया मांस था। गाय मांसाहारी पशु नहीं है। लेकिन पशु उद्योग में लगी कंपनियों ने उन्हें अधिक मोटा करने और उससे अधिक मांस पाने की लालच में उनके खाने में प्रोटीन की अधिकता के लिए मांस मिलाना आरंभ कर दिया। उससे गायों में एक बीमारी फैली, जिसने महामारी का रूप ले लिया। उनके मांस से लोग संक्रमित न हो जाएं, इसलिए लाखों गायों का वध कर दिया गया था। पिछले कुछ दशकों में पशु-पक्षियों को मारने के ऐसे और भी उदाहरण सामने आए हैं। आज की सभ्यता में महामारी से भी भयानक उसका डर हो गया है। मनुष्य अपना जीवन बचाने के लिए किसी का भी जीवन लेने के लिए उतावला रहता है।
यह महामारी आधुनिक जीवन और आधुनिक सभ्यता के बारे में कुछ गंभीर प्रश्न उठाती है। यूरोपीय जाति ने आधुनिक सभ्यता को जिस मूल मान्यता पर विकसित किया है, वह यह है कि मनुष्य अपने बुद्धि कौशल से प्रकृति पर विजय प्राप्त कर सकता है। उसे अपने जीवन को सुरक्षित और समृद्ध बनाने के लिए किसी नैतिक नियम की नहीं, बुद्धि कौशल की आवश्यकता है। इस विश्वास के आधार पर आधुनिक शिक्षा मनुष्य को मोरल की जगह रेशनल होने के लिए प्रेरित कर रही है। रेशनल होने के चक्कर में उसने उचित -अनुचित की सभी परंपरागत मान्यताओं को तिलांजलि देना शुरू कर दिया है और अपना जीवन स्वेच्छाचार और भोगवाद पर आधारित कर लिया है। चीन के लोगों से भी मार्क्सवाद के प्रभाव में वहां के नेताओं ने ऐसा ही करने के लिए कहा है।
उसी का परिणाम है कि आधुनिक जीवन के नाम पर वहां भी एक तरह की लापरवाही पनप रही है। लोगों का दूसरे मनुष्यों से, पशु-पक्षियों से, प्राकृतिक जीवन और नैतिक आचारों से संबंध टूट रहा है। यूरोप में विकसित सारा चिकित्सा विज्ञान इस अंधविश्वास पर आधारित है कि सभी रोग बाहरी जैव संक्रमण से होते हैं। हर बीमारी के लिए कोई एक रोगाणु तलाश कर उसे समाप्त करना ही आधुनिक चिकित्सा है। एंटीबायोटिक दवाओं के अत्यधिक सेवन से ही हमारी रोग-प्रतिरोधक क्षमता घट रही है और नित नई बीमारियां हमें घेरती जा रही है। हर बार हम अपने जीवन की अराजकता को कुछ समय तक दोष देते हैं। फिर आधुनिक चिकित्सा शास्त्र और भोग प्रधान जीवन के अंधविश्वास हमें अपने जीवन को नैतिक, मर्यादित और अनुशासित बनाने से रोक देते हैं। अब भारत में भी यही प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। इस महामारी ने चीन में भी अपने खानपान की अमर्यादा को लेकर कुछ चिंता पैदा की है।
पशुजनित वायरस का संक्रमण कोई अकेले चीन की समस्या नहीं है। अमेरिका जैसा उन्नत औद्योगिक देश भी उससे बरी नहीं है। यह तब जबकि अमेरिका में भोज्य सामग्री का लगभग पूरी तरह औद्योगीकरण कर लिया गया है। आम अमेरिकी के भोजन में डिब्बाबंद खाद्य सामग्री ही होती है। उसके प्रसंस्करण की प्रक्रिया में यह सुनिश्चित कर लिया जाता है कि उसमें कोई रोगाणु न बचे।
चीन के मार्क्सवादी अपना नियंत्रण बनाए रखने के लिए केवल राजनैतिक अनुशासन के समर्थक रहे हैं। वे जीवन में किसी और मर्यादा और अनुशासन की जरूरत नहीं देखते। उन्होंने कोरोना वायरस को दानव बताते हुए अपने इस सामर्थ्य का बखान करना चाहा है कि मार्क्सवादी तंत्र उसे समाप्त करने में समर्थ है। लेकिन एक दानव समाप्त होते-होते दूसरा दानव पैदा हो जाता है। उनसे रक्षा के लिए सर्वनियंता राजनैतिक तंत्र की नहीं, एक अनुशासित जीवन की आवश्यकता है। इस महामारी ने इस बार चीन की तेजी से महाशक्ति बनने की आकांक्षा पर भी ग्रहण लगा दिया है। इस महामारी के कारण दुनियाभर में चीनी शंका की दृष्टि से देखे जाने लगे हैं।
महामारी समाप्त हो जाने के बाद भी उनकी यह छवि रातोंरात नहीं बदल जाएगी। इस महामारी ने उनकी अर्थव्यवस्था को भी काफी प्रभावित किया है। उससे उबरने में समय लगेगा। दरअसल, उनकी महाशक्ति बनने की आकांक्षा पर ग्रहण तो बदली हुई अमेरिकी नीति के कारण ही लग गया था। अमेरिका कुछ समय पहले तक चीनियों की बढ़ती हुई आर्थिक शक्ति को विश्व बाजार के विस्तार के रूप में देख रहा था। लेकिन जब चीनियों ने अपनी वैश्विक महत्वाकांक्षा दिखानी शुरू की तो अमेरिका में उसकी छवि अमेरिकी प्रभाव को चुनौती वाले देश की हो गई। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प के कार्यकाल में चीन विरोधी भावना को और बल मिला। इसी के परिणामस्वरूप अमेरिका और चीन के बीच व्यापार युद्ध शुरू हुआ। इस बीच चीन की महत्वाकांक्षी वन वेल्ट-वन रोड परियोजना भी विवादों में घिरने लगी। अनेक देशों में उसे नकारात्मक दृष्टि से देखा जाने लगा। चीन की आर्थिक वृद्धि दर भी घट गई है। इन सब कठिनाइयों से पार पाना चीन के कम्युनिस्ट नेताओं के लिए आसान नहीं होगा।