मांडले जेल से दक्षिण कलकत्ता समिति के श्री हरिचरण बागची को लिखे गये पत्र में नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने लिखा है, “प्राथमिक शिक्षा और उच्च शिक्षा का एक बड़ा फर्क यही है कि प्राथमिक शिक्षा में फैक्टस का परिचय रहता है और उच्च शिक्षा में उसके साथ विश्लेषण और व्याख्या जुड़ जाती है. प्राथमिक शिक्षा में ऐन्द्रिक शक्ति पर विशेष निर्भर रहना पड़ता है. उच्च शिक्षा में ऐसी बातें सिखलायी जाती हैं, जिसे छात्र देख नहीं, पर समझ सकता है. और एक बात है सिखाने के समय इन्द्रिय की सहायता जितनी अधिक ली जाएगी, सीखने वाले को सीखने में उतनी ही आसानी होगी.” सुभाष बाबू के इस कथन से भारतीय उच्च शिक्षा क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार के मूल को बेहतर समझा जा सकता है. अगर सरकारी से लेकर निजी तंत्र में भ्रष्टाचार व्याप्त है तो उसकी वजह मूलभूत शिक्षा व्यवस्था की खामी है. अनैतिकता से भरे ये शैक्षणिक केंद्र और शिक्षक नैतिक-चरित्रवान विद्यार्थी और नागरिक कैसे तैयार करते होंगे ये चिंता का विषय है.
भ्रष्टाचार एवं अकर्मन्यता के केंद्र बनते विश्वविद्यालय
जनवादी परंपरा के लेखक मुक्तिबोध अपनी ‘साहित्यिक डायरी’ में लिखते हैं, “दिल्ली से प्रांतीय राजधानियों तक जो अवसरवाद, अनाचार और भ्रष्टाचार फैला हुआ है, उसके लिए हमारे बुजुर्ग जिम्मेदार थे.” असल में जिन्हें समाज को सीख और संस्कार देने थे, उन्होंने भ्रष्टाचार और अनाचार को प्रश्रय दिया. वर्तमान का आलम यह है कि इस कुव्यवस्था से संस्कार प्रदाता और व्यक्तित्व निर्माणक शिक्षण संस्थान भी अतिव्यापित हैं.
कुछ समय पूर्व उच्च शिक्षण संस्थान के प्राध्यापकों की योग्यता का एक विद्रुप दृश्य उपस्थित हुआ ज़ब तिलकामांझी विश्वविद्यालय, भागलपुर में विश्वविद्यालय सेवा आयोग से चयनित असिस्टेंट प्रोफेसरों का सामना कुलपति से हुआ. उनके ज्ञान का स्तर देखकर कुलपति भी हतप्रभ थे. कुलपति द्वारा पूछे गये, बेरोजगारी क्या है? बेरोजगारी दर क्या है? मौलिक अधिकार कितने और कौन-कौन से हैं? शिक्षा का अधिकार क्या है? अब तक संविधान में कितनी बार संशोधन हुआ है? जैसे सामान्य स्तर के प्रश्नों का उत्तर देने में इनके पसीने छूट रहे थे. जरा कल्पना कीजिये कि ऐसे अयोग्य ‘तथाकथित’ शिक्षक देश के भविष्य का निर्माण कैसे करेंगे. जिनकी विषय की समझ ही अपर्याप्त है तब ये विद्यार्थियों को क्या पढ़ाएंगे.
इस दूरावस्था की मूल वजह है नियुक्ति में होने वाला भ्रष्टाचार. उच्च शिक्षण संस्थानों में योग्यता से अधिक राजनीतिक दखल, भाई-भतीजावाद, धन के आधार पर होने वालीं नियुक्तियों से गुणवत्तापूर्ण शिक्षण की उम्मीद मूर्खता होगी. निकट ही उत्तर प्रदेश के एक विश्वविद्यालय में नवनियुक्त शिक्षक ठीक ढंग से प्रार्थना पत्र नहीं लिख पा रहे थे. इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय है उत्तर प्रदेश उच्चतर शिक्षा आयोग में भर्तीयों में हुई धांधली पर आंदोलनरत प्रतियोगी छात्रों की शिकायत जाँच की माँग करतीं है जिसे सरकार लगातार अनसुनी करती आ रही है.
नियुक्तियों में राजनीतिक दखल किस प्रकार से हो रहा इसका ज्वलंत उदाहरण केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन के निजी सचिव के.के.रागेश की पत्नी प्रिया वर्गीज की नियुक्ति का मामला है. उन्हें कन्नूर विश्वविद्यालय द्वारा मलयालम भाषा विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर नियुक्त कर दिया गया. चयन समिति के समक्ष कुल छ: प्रत्याशी उपस्थित हुए. सूचना के अधिकार के तहत मिली जानकारी के अनुसार प्रिया वर्गीज का शोध स्कोर मात्र 156 था जबकि द्वितीय स्थान पर नामित हुये प्रत्याशी को 651 अंक प्राप्त थे. साक्षात्कार में द्वितीय स्थान पर आये उम्मीदवार को कुल 50 में से 32 अंक मिले वही प्रिया वर्गीज को मात्र 30 अंक. विवाद बढ़ने पर केरल हाईकोर्ट ने प्रिया की नियुक्ति पर रोक भी लगा दी और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) को नोटिस भी जारी कर दी. गौरतलब है कि प्रिया के पति रागेश माकपा के छात्र संगठन एसएसआई के प्रमुख एवं माकपा के सांसद रहे हैं. इस मसले पर केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने सीपीआई (एम) और राज्य सरकार की आलोचना करते हुए इस नियुक्ति को “राजनीति पक्षपात और भाई-भतीजावाद” कहा.
यह कोई पहला मामला या अपवाद नहीं है. सभी दलों की सरकारें ऐसी राजनीतिक नियुक्तियां करतीं रहीं हैं. अल्लामा इक़बाल ने शायद ऐसे ही धूर्त और पतित शिक्षितों को देखकर अशिक्षा को बेहतर माना था. वे लिखते हैं,
“तेरी बेइल्मी ने रख ली बेइल्मों की शान,
आलिम-फाजिल बेच रहे हैं अपना दीन-ईमान”
अब प्राध्यापकों के भीतर पिछले दो दशकों से विशेष रूप से फैल चुके मर्ज ‘राजनीतिक सक्रियता’ की बात करें तो इस व्यसन से प्राध्यापक समाज बुरी तरह संक्रमित हो चुका है. शिक्षण कार्य से अधिक ये अपने उल-जुलूल बयानों के कारण चर्चा में रहते हैं. चर्चा में बने रहना, चाहें वह विवादों के माध्यम से ही क्यों ना हो, ऐसे तत्वों का मुख्य ध्येय बन चुका है. नवरात्री के दौरान महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी के अतिथि प्राध्यापक द्वारा सोशल मीडिया पर इस पवित्र त्यौहार के विषय में आपत्तिजनक पोस्ट किया. बाद में इस विवादित टिप्पणी करने के आरोप में उन्हें पद से हटाने के साथ ही परिसर में उनका प्रवेश प्रतिबंधित कर दिया. यह बयान उनकी विकृत मानसिकता कों दर्शाता है. इससे पूर्व लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के एक एसोसिएट प्रोफेसर द्वारा काशी विश्वनाथ मंदिर पर दिये गये विवादित बयान देने के बाद विरोध प्रदर्शन हुआ. इन्हें इसका भान नहीं कि विश्वविद्यालय शिक्षा के मंदिर हैं राजनीति और सामाजिक विघटनवाद की गंदगी के अखाड़े नहीं.
छोटे शहरों के कॉलेज और विश्वविद्यालयों की ये स्थिति है तो दिल्ली जैसे मेगा सिटी के विश्वविद्यालयों में राजनीतिक दखल की सहज़ कल्पना की जा सकती है. यहाँ तो टीवी डिबेट, मिडिया चैनलों के कार्यक्रर्मों और विभिन्न आयोजनों में तर्कहीन, लक्ष्यहीन और ध्येयहीन बहसबाजी तथा बयानबाजी करना प्राध्यापकों का प्रिय शगल बन चुका है. वर्तमान परिस्थितियों के अवलोकन से प्रतीत होता है कि विश्वविद्यालय ऐसे तत्वों का गढ़ बनते जा रहे हैं जिन्हें ना अपने पद की गरिमा का ख्याल है, ना समाज से शर्म हैं ना सरकार-प्रशासन का भय है और ना ही राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य का भान.
साथ ही अकर्मण्यता का आलम यह है कि एक से डेढ़ लाख तक की मोटी तनख्वाह पाने वाले ये आधुनिक ‘गुरूजी’ लोगों का एक बड़ा वर्ग समय से कॉलेज आना, नियमित कक्षायें लेना जरुरी नहीं समझता. शोध छात्रों के फाइलों के काम निपटाने के लिए उनसे नोटों से भरे लिफाफे लिए जाते हैं. कलर्क और चपरासी की कौन कहें प्रोफेसर और विभागध्यक्ष तक फाइलों पर हस्ताक्षर करने के लिए पैसे लेते हैं. ये कोई निराधार आरोप नहीं हैं. पाठक अपने नजदीक के किसी भी कॉलेज या विश्वविद्यालय में जाकर स्वयं सत्य का अन्वेषण कर सकते हैं. संभवतः उन्हें इससे भी विद्रुप स्थिति का सामना करना पड़ सकता है.
उदाहरणस्वरूप स्वनामधन्य मगध विश्वविद्यालय है, जहाँ किसी भी कोर्स की पढ़ाई पूरी करने में निर्धारित से दुगुना समय लगता है. कुछ दिनों पूर्व तीन साल से लंबित (Pending) परिणामों को लेकर सैकड़ों छात्र-छात्राओं ने पटना में प्रदर्शन किया. ज़ब वे राज्यपाल से मिलने राजभवन की ओर बढ़े तब पुलिस ने इन्हें बल प्रयोग कर रोक दिया. इस दौरान कुछ छात्राओं ने रोते हुए पुलिसकर्मियों का पैर पकड़ लिया और विश्वविद्यालय प्रशासन की प्रताड़ना से तंग होकर आत्महत्या करने की बात करने लगीं. इस वीभत्स स्थिति को समझना होगा जहाँ युवाओं का भविष्य अकर्मण्यता एवं निर्लज्ज शिक्षण संस्थान रौंद रहा है.
प्रसंगवश बताते चलें कि इसी मगध यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर प्रोफेसर राजेंद्र प्रसाद अपने भ्रष्टाचार के कारनामों को लेकर सुर्खियों में रहे थे. यूनिवर्सिटी में खरीदारी के नाम पर 30 करोड़ रुपए से ज्यादा के गलत इस्तेमाल को लेकर उनके आवास, बोधगया के दफ्तर और गोरखपुर स्थित घर पर छापेमारी हुई. प्राप्त जानकारी के अनुसार गोरखपुर के घर से 70 लाख नगद, करीब 5 लाख की विदेशी मुद्रा और 15 लाख रुपए के जेवर बरामद हुए हैं. जमीन के कई कागजात के साथ बैंक खातों और लॉकर की भी जानकारी मिली है.
प्राध्यापक वर्ग का नैतिक पतन किस तरह हुआ है इसकी एक बानगी देखिये. बोकारो के एक महाविद्यालय के प्रोफेसर स्नातक अंतिम वर्ष की छात्रा से अश्लील हरकत, छेड़छाड़ करने और मोबाइल में अश्लील वीडियो भेजकर मानसिक रूप से प्रताड़ित करने के आरोप में गिरफ्तार किये गये. प्रकरण सामने आने के बाद और बहुत सी छात्राओं ने ऐसे उत्पीड़न की शिकायत की. यह कोई पहली या एकमात्र घटना नहीं है बल्कि ऐसे सैकड़ों उदाहरण मिल जाएगा. जिस भारतीय गुरु परंपरा में शिष्या को पुत्री के समक्ष माना गया है वहां ऐसे पतित शिक्षक समाज के पतनशीलता का प्रमाण है.
सरकार और प्रशासनिक स्तर पर तो राजनीतिक कारणों से बदलाव की उम्मीद छोड़ ही दें. अगर गाहे-बगाहेँ किसी विश्वविद्यालय का वी.सी. निजी स्तर पर सुधार का प्रयास करे तो प्राध्यापकों से लेकर कर्मचारियों तक के यूनियन बने हैं जो तुरंत हंगामे और आंदोलन पर उतर आते हैं. एक समय विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों के कैंपस में छात्र राजनीति के आवरण में बढ़ रही अराजकता एवं गुंडागर्दी को रोकने के लिए जिस तरह लिंगदोह कमेटी की सिफारिशों ने एक अवरोधक का कार्य किया और छात्र राजनीति की दशा-दिशा बदल दी. उसी प्रकार प्राध्यापकों एवं विश्वविद्यालय कर्मचारियों की वर्तमान कार्यशैली के विरुद्ध भी किसी निर्णायक और नियंत्रणकारी प्रयास की आवश्यकता है.
देश में प्राध्यापकों की नियुक्तियों के मानक भी समुचित एवं प्रमाणिक नहीं हैं. इनकी नियुक्ति में ए.पी.आई. स्कोर महत्वपूर्ण होता हैं. जिसका निर्धारण शैक्षिणिक योग्यता के अतिरिक्त शोध पत्रों का प्रकाशन, शिक्षा के क्षेत्र में प्राप्त सम्मान आदि से होता है. यही से कानूनी धाँधलियों की शुरुआत होती हैं कई प्रकार की अनाम संस्थायें फलां-फलां सम्मान समारोह और शोधशालाएं आयोजित करवा कर प्रमाण पत्र वितरित करतीं हैं जिनके आधार पर परीक्षार्थी की योग्यता निर्धारित होती है. इसके लिए 1500₹ से 5000₹ या उससे अधिक का शुल्क भी वसूलती हैं. शोध पत्रों के प्रकाशन के लिए पीर रिव्यू और यूजीसी केयर लिस्ट जर्नल की मान्यता है, जिसके संपादकों द्वारा शोधर्थियों से 2000 से लेकर 10000 रुपये तक चार्ज किये जाते हैं. यही नहीं 5000 से 10000 रूपये के शुल्क वसूल कर शोध पत्र लिखने वाले पर प्रकाशित करवाने वाले गिरोह भी मौजूद है. इस विसंगतियों के अतिरिक्त बची-खुची कसर पैसे और राजनीतिक पहुंच द्वारा पूरी हो जाती है.
ऊपर से जिस पीएचड़ी की डिग्री को ए.पी.आई. स्कोर में सबसे ज्यादा अंक मिलते हैं उसे देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में ठेके पर पूरी करवाये जाने की बात सर्वविदित है. विसंगति देखिये कि एक प्रकाशित शोध पत्र के लिए दो अंक दिये जाते हैं और दो अंक ही एक वर्ष शिक्षण के अनुभव पर दिये जाते हैं. ऐसे ही और मसले हैं जिन पर वृहत विमर्श किया जाना चाहिए. निकट ही यूजीसी के अध्यक्ष एम. जगदीश कुमार द्वारा असिस्टेंट प्रोफेसर नियुक्तियों में बदलाव हेतु नये मानक घोषित करते हुए इस पर एक समिति गठित करने की घोषणा की है. यह एक राहतकरी बात है लेकिन आमूलचूल परिवर्तन के लिए एक लंबा संघर्ष और दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है.
सरकार की एक लंबे समय से शिकायत रहीं है कि देश में होने वाले शोधों का स्तर निम्न है, तो उसे इसकी वज़ह भी जानने-समझने का प्रयास करने चाहिए. जिसके लिए प्राथमिक जिम्मेदारी सरकारी संरक्षण में पल रहे विश्वविद्यालय के इन भ्रष्ट तत्वों की होनी चाहिए. देश में लगभग 1000 विश्वविद्यालयों और 40 हज़ार से अधिक कॉलेजों के होते हुए ग्लोबल टैलेंट कॉम्पिटिटिव इंडेक्स के 132 देशों की फ़ेहरिस्त में भारत का स्थान 72वां क्यो है, इन वजहों से आसानी से समझा जा सकता है. ज़ाहिर है कि उच्च शिक्षा की इस दुरावस्था का ही परिणाम है कि भारत की उच्च शिक्षा के क्षेत्र में प्रगति धीमी है. दुनिया की महाशक्ति होने का दावा करने वाले देश में उच्च शिक्षा के लिए प्रवासन करने वाले विदेशी छात्रों की हिस्सेदारी कमोबेश महज एक प्रतिशत है. यह भारत की उच्च शिक्षा नीति के मूलभूत दोषों का प्रत्यक्ष प्रमाण है.