युवाओं के छीजते चरित्र का संकट

शिवेंद्र सिंहभारत विश्व का सर्वाधिक युवा देश है, जहाँ जनसंख्या का लगभग 66 फीसदी आबादी यानि 808 मिलियन लोग 35 वर्ष से कम आयु के हैं. जाहिर है कि वह अगले कई दशकों तक जनसांख्यिकीय लाभांश की स्थिति में होगा. देश सरकारों से अपेक्षा कर रहा है कि वह आधुनिक ज्ञान-विज्ञान और तकनीकी से लैस एक सक्षम युवा पीढ़ी को तैयार करेगी जो भारत और एशिया ही नहीं बल्कि दुनिया का ‘मैन पावर-हॉउस’ बनेगा. इस सम्बन्ध में राज्य और केंद्र सरकारें कमोबेश प्रयास कर रहीं है, जिनसे जुड़ी आलोचनाएं भी हैं और अपेक्षाएं भी. परन्तु इसके केन्द्र बिन्दु युवा वर्ग की क्या स्थिति है? क्या वह राष्ट्र के उत्थान और अपनी वैश्विक भूमिका के लिए तैयार है? 
 पिछले दिनों ‘फोर्ब्स’ द्वारा ने 30 अंडर 30 एशिया का 9वां एडीशन जारी किया गया. इस सूची में भारत के  ट्रांसेक इंडिया के फाउंडर येशु अग्रवाल, कपल के फाउंडर श्रीनिवास सरकार, क्रेडिट वाइज कैपिटल के  आलेश अवलानी, आल्टर ग्लोबल के यशवर्द्धन कनोई, साल्ट की को फाउंडर उदिता पाल, क्रेडफ्लोइंडिया के संस्थापक कुणाल अग्रवाल, आलराइट इंडिया के फाउंडर आदित्य दादिया, ब्लैकस्टोन के अनिकेत दामले जैसे युवा शामिल हैं. इसी के समकक्ष संघ लोक सेवा आयोग 2023 के सफल प्रतिभागियों में पवन कुमार जैसे गरीबी और अभावों को झटककर स्वयं को साबित करने वाले युवाओं के उदाहरण भी हैं.
लेकिन ये प्रशंसित अक्स देश के बहुसंख्यक युवा वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करता. यह सिर्फ एक छोटे से प्रतिभाशाली एवं नैतिक लक्ष्य के प्रति समर्पित युवा समूह का चेहरा है. जबकि बहुसंख्यक युवा आबादी का जीवन एक नकरात्मक दर्शन का प्रतीक बन चुका है. जहाँ देश में कहीं मोबाईल पर बात करने से रोकने पर बेटी पिता की हत्या कर देती है (छत्तीसगढ़ के बिलासपुर) तो कहीं ऑनलाइन गेम खेलने को लेकर बेटा माँ (लखनऊ) को मार डाल रहा है. ये भारतीय युवाओं का वो विद्रुप चेहरा है जिस पर हम चर्चा नहीं करना चाहते.
एक तरफ इलाहबाद विश्वविद्यालय से लेकर काशी विद्यापीठ तक उच्च शिक्षण संस्थान में सीटें खाली रह जा रहीं हैं और दूसरी ओर चुनावी रैलियों में तिल रखने की जगह नहीं है. रोजगार दफ़्तर में रजिस्ट्रेशन ना कराना वाले युवाओं का भी निश्चित सोशल मिडिया अकॉउंट है. वर्तमान भारतीय युवाओं का आम जीवन इतना नाटकीय हो गया है कि सोशल मिडिया के स्वीकार्यता के बिना वे अपना रोजमर्रा का जीवन भी नहीं ज़ी पा रहे हैं. कैमरे इतने जरूरी हो गये हैं कि वे अब लड़कियों-महिलाओं के बाथरूम एवं चेंजिग रूम तक उनकी स्वीकृति से पहुंच गये हैं. यानि अब नहाते और कपड़े बदलते वक्त भी कैमरे ऑन रखें जाते हैं और उन्हें बाद वो वीडियो सोशल मिडिया पर अपलोड कर उम्मीद की जाती है कि अधिक से अधिक लोग इसे देखकर लाईक का बटन दबाएँ. वैसे एक ज़माने में ऐसे वीडियो एमएमएस कहे जाते थे लेकिन प्रसिद्धि और पैसे कमाने की होड़ ने निर्लज्जता और मर्यादा की रेखा बड़ी छोटी कर दी है.
 यह सिनेमाई ग्लैमर से प्रसारित कैमरे का रोग व्यापक रूप से इतना भयानक हो गया है कि अब युवाओं की योग्यता यूट्यूब एवं इंस्टाग्राम के फॉलोवर्स की संख्या से तय हो रही हैं जहाँ भद्दे, अश्लील वीडियो बनाने में जुटे भारत के भविष्य संस्कारहीनता में एक दूसरे को. पीछे छोड़ देने की होड़ में लगे हैं. हालांकि आज यूट्यूब, इंस्टाग्राम और दूसरे तरीकों से पैसा कमाकर जल्दी अमीर बनने की ये सनक इसलिए  है क्योंकि हमने नैतिकता और प्रगति के मानक बदल दिये हैं. आज धन की अधिकता ही प्रगतिशीलता की. परिचायक है और इसके लिए जो भी रास्ता अपनाना पड़े वही नैतिकता का स्वीकृत मानक है. वर्तमान में राजनीतिक अभियानों और चुनावी लड़ाई में किशोरों और तरुणों की बढ़ती संख्या पद और पैसा कमाने की त्वरा का ही प्रत्यक्ष प्रमाण है.
 
हालांकि वर्तमान युवा पीढ़ी की इससे बड़ी समस्या है, नारीत्व की अश्लीलता और पुरुषत्व का स्त्रैण हो जाना. जिसका परिणाम ये हुआ है कि लैंगिक समानता के नाम पर अत्यधिक आधुनिक शिक्षित लड़के लिपस्टिक लगाकर साड़िया पहनने लगे हैं और लड़कियां पतलून पहनकर सड़कों पर शराब पीकर हंगामा करने के साथ खुले में पेशाब करने की इजाजत चाहती हैं. यौन शुचिता की बात करने वाले तो पुरातनपंथियों की कौन कहे अब संस्कार पिछड़ेपन का प्रतीक बन गया है.
राष्ट्रीय जीवन में आई इस निकृष्ट गिरावट के लिए मिडिया भी कम जिम्मेदार नहीं है. अपराधी, नेताओं, सिनेमाई लोगों को अपने मुख्य पृष्ठ पर रखने वाले अख़बार समाज के लिए जीने वालों को आखिरी पन्नों में छोटी सी जगह में रखते हैं. आम जनता के दरवाजे तक नहीं पहुंचने वाले मिडिया के कैमरे गुंडे-बदमाशों पर डॉक्यूमेंट्री बनाने में व्यस्त रहते हैं. सिनेमाई अभिनेत्रियों की नग्नता को प्रमुखता मिलती है और प्रशासनिक एवं सैन्य सेवाओं में समर्पित महिलाओं के नाम भी नहीं सुनें जाते. आज भी देश के बहुसंख्यक युवा पद्मश्री तुलसी गौड़ा के बजाय ऐश्वर्या राय को अधिक जानते हैं, जबकि हलधर नाग से ज्यादा चर्चित तो गैंगस्टर लॉरेंस बिश्नोई है.
इस देश के प्रबुद्ध और अतिशिक्षित वर्ग के मानसिक दीवालियेपन का भद्दा प्रमाण देखिये कि कुछ समय पूर्व एक यूट्यूबर और सीरियल की एक्ट्रेस को आईआईटी बॉम्बे जैसे उच्च कोटि के शिक्षण संस्थान में मोटिवेशनल स्पीकर के तौर बुलाया गया. देश के बेहतरीन अभियांत्रिकी संस्था में प्रवेश प्राप्त इन युवाओं को उस बाला ने क्या सीख दी होगी, ये चिंतन का विषय है और उससे अधिक खीझ पैदा करने वाली बात है उसे आमंत्रित करने वाली आयोजक मंडली का मानसिक स्तर.
 असल में हम भारतीय वो अभिशप्त कौम हैं जो आजतक औपनिवेशिक दासत्व एवं पश्चिमी भोगवाद के श्रेष्ठता के दावे से सहमे नजर आते हैं. कहते हैं जो व्यक्ति अपने हीनता मनोग्रंथि से आबद्ध रहता है, वह अपने प्रताड़क या स्वयं पर शासन करने वाले को अवचेतन मन में ही अपने से श्रेष्ठ समझने लगता है और चाहे अनचाहे उसी के संस्कार-मार्ग का अनुगामी हो जाता है. भारत का आधुनिक समाज बहुत कुछ इसी रोग से ग्रसित है जिसे यह लगता है कि पश्चिम का भोगवाद ही प्रगति का वास्तविक मानक है. लेकिन वास्तव में इस भोगवाद की अतिशयता मानवीय मस्तिष्क को एक कुंठित व्यक्तित्व में बदल देता है जिसकी परिधि नकारात्मक स्वरूप में उभरती है. इसी का परिणाम है कि कम उम्र के बच्चे गंभीर प्रकृति के अपराध जैसे हत्या, बलात्कार शामिल हैं आदि में लिप्त पाये गये हैं. जैसे हैदराबाद या दिल्ली के निर्भया बलात्कार एवं हत्याकांड के मुख्य आरोपी नाबालिक या तरुण थे.
आये दिन ऑनलाइन गेमिंग के नाम पर परिवरिजनों की हत्या, वीडियो बनाते हुए, स्टंट करते हुए दुर्घटनात्मक मृत्यु की सूचना जैसे ख़बरें अखबारों में आम है. नशे में धुत अपनी गाड़ी से आम लोगों को सड़कों पर रौँदते युवा आज देश के सामने पारिवारिक संस्कारों के पतनशील संकट का प्रतीक बने खड़े हैं. पुणे में एक धनाढ्य परिवार के युवा द्वारा अपनी गाड़ी से कुचलकर दो इंजीनियरों की हत्या और उसके परिवार द्वारा धनबल के. माध्यम से उसे छुड़ाने का प्रयास इसका ज्वलंत उदाहरण है कि उपभोक्तावाद की इस विभक्त प्रतिस्पर्धा में मानवता रौंद दी गई है.
 अकसर ऐसे अपराधों की विभीषिका से जनित सार्वजनिक चर्चाओं का समाधान नये और कठोर क़ानूनों के आधार पर समाज सुधार पर आके रुकता है, किन्तु क्या यही समाधान पूर्ण है? संभवतः नहीं,  समझना होगा कि क़ानून एक बाह्य प्रेरणा है जो गलत के प्रतिरोध में सहायक है किन्तु यह कुछ सही करने का दबाव नहीं डाल सकता जैसे कि बलात्कार के अपराध का कठोर क़ानून से शमन संभव है लेकिन यह किसी यौन हिंसा पीड़ित की सहायता के लिए अन्य नागरिक को प्रेषित नहीं कर सकता. इसका मार्ग है नैतिकता यानि जो आतंरिक प्रेरणा का सार है. देशीय समाज को इसी की आवश्यकता अधिक है.
 यह स्वीकारना होगा कि युवाओं की पथभ्रष्टता का सारा दोष सिर्फ आधुनिकता एवं भूमंडलीकरण का ही नहीं है, बल्कि बहुत हद तक परिवार संस्था का है. ओशो कहते हैं कि, ‘प्रतिपल हमारे मन में हजारों संस्कारों का निर्माण हो रहा है’, लेकिन इनकी प्रेरणा तो परिवार द्वारा प्रदत्त मूल्यों से ही उपजती है. इसलिए युवा वर्ग के भटकाव की समस्या के समाधान की शुरुआत भी ऊपर से नीच होनी चाहिए यानि जैसे देश में भ्रष्टाचार से निपटना हो तो सर्वप्रथम राजनीतिक वर्ग और शीर्ष नौकरशाही को आर्थिक दृष्टि से पाक साफ होना पड़ेगा ना कि सिस्टम में नीचे बैठे बाबू और चपरासियों की धर-पकड़ से व्यवस्था सुधरेगी. वैसे ही नई नस्ल को अधिक मानवीय एवं चारित्रिक दृढ़ बनाना हो तो इसकी शुरुआत परिवार से होनी चाहिए ना कि आधुनिकता को कोसकर.  ये मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि बच्चे दृढ़ पर्यवेक्षक होते हैं, वे कमोबेश अपने परिवार से प्राप्त संस्कारों एवं परिवारिजनों के आचरण का भौतिक प्रतिरुप होते हैं.
 समझना होगा कि मात्र युवा पीढ़ी ही नहीं बल्कि देश के राष्ट्रीय चरित्र का भविष्य भी अंततः परिवार द्वारा ही तय होना है. सामान्यतः कोई एक राष्ट्रीय समाज परिवारों का ही एक ढांचा होता है. किसी समाज की प्रगति परिवारों के सकारात्मक दृष्टिकोण और उनके नैतिक आचरण पर ही निर्भर होता है क्योंकि परिवार से प्रसारित मूल्य ही समाज के परिवेश का मानक बनते हैं. उत्क्रमण प्रक्रिया यानि रिवर्स प्रोसेस में भी यह बात उतनी ही सत्य है. अर्थात् हर स्थिति में परिवार और समाज एक दूसरे को प्रभावित करते हैं. इसलिए यह अतिआवश्यक है कि बच्चों की पहली पाठशाला यानी परिवार उनके चरित्र निर्माण की मूल जिम्मेदारी को समझें और स्वीकार करें क्योंकि परिवार द्वारा दी गई दिए गए मनोवैज्ञानिक आवरण में ही बालक का मानसिक एवं बौद्धिक विकास होता है और वह यह समझ पाता है कि समाज एवं राष्ट्र के प्रति उसका आचरण किस प्रकार का होना चाहिए? अथवा उसे किस तरह के चारित्रिक गुणों का विकास करना चाहिए? यही वो तर्क है जिसे हमें आधुनिक सभ्यता दौड़ से थोड़ा अल्प विराम लेकर विचार करने की आवश्यकता है. संभव है कि ‘अतिआधुनिक-अतिप्रगतिशीलता’ के गलाकाट उपलब्धिवान बनने की मृगतृष्णा और नैतिकताविहीन मार्ग के अनुसरण से परे कोई सहज़ मार्ग दिखाई दे जाये.

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