संस्कृति-संविधान द्वारा संरक्षित राष्ट्रीय कुटुम्ब

शिवेंद्र सिंहपरिवार एक पालना है, ‘सकल चारित्रिक एवं उत्तम  सामाजिक गुणावली’ का. परिवार के वृहत रुप में ही राष्ट्र की संकल्पना की गई है और यही वृहदतम् स्वरुप ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के रूप में संदर्भित है. वर्तमान वैश्विक कुटुम्ब के विभिन्न भाग संघर्ष और संकटों में गिरे हैं, जिसकी सीमाई, आर्थिक, क्षेत्रीय विवाद जैसी अलग-अलग वजहें है. इसी क्रम में राष्ट्र के रूप में वर्तमान भारत के अपने अस्तित्व के लिए निकट ही कई संकट प्रत्यक्ष परिलक्षित हैं.

जाति, भाषा, क्षेत्र के मसलों से जुड़े विवाद के नये महाज पैदा किये जा रहे हैं. दक्षिण में तमिलनाडु से पुनः हिन्दी की अस्वीकृति एवं नई शिक्षा नीति के त्रिभाषाई फार्मूले को ख़ारिज करने की मांग हो रही है तो वही उत्तर भारत की राजनीति जाति आधारित जनगणना को लेकर उद्धवेलित है. लेकिन इनमें सबसे अधिक विषाक्त है धर्म-मजहब के निरंतर कटु होते विवाद जिनकी त्वरा विघटनवादी भावनाओं में परिणीत होती जा रही है.

  धर्म-पंथों के सम्मान के नाम पर जो दुराग्रहपूर्ण श्रेष्ठता के भाव आम जनमानस में दिखाई दे रहे हैं, वे आधारहीन हैं. स्वधर्म की श्रेष्ठता तो महात्मा गाँधी भी व्यक्त करते हुए कहते हैं, ‘मेरे विचार से हिन्दू धर्म का सौंदर्य समस्त को एक साथ आलिंगन करने में है, दूसरे में जो सारतत्त्व पाए जाते हैं वे सभी हिन्दू धर्म में एक साथ अनवरत वर्तमान हैं. जो इसमें नहीं पाए जाते हैं वे असार एवं अनावश्यक हैं.’ गाँधी की इस घोषणा में कही कोई आक्रामकता का भाव नहीं बल्कि एक निरपेक्ष समीक्षा का स्वर है. समझना होगा कि धर्म अपने विस्तृत परिवेश में मानव सभ्यता के आध्यात्मिक एवं सामाजिक जीवन की निर्देशिका है, कोई ‘वॉर-क्राई’ का उद्घोष नहीं. सभी धार्मिक-पंथीय मान्यताओं में ईश्वरीय प्रेम को तलाशने और उसे प्राप्त करने की कामना एक सी है, फिर ये टकराव कैसा?
हालांकि समाजवादी चिंतक सच्चिदानंद सिन्हा के अनुसार समझें तो, ‘अनेक तरह के भावनात्मक मानवीय विवाद प्रकृति-संस्कृति द्वैत द्वारा या मनोविश्लेषणात्मक साहित्य में निर्दिष्ट ‘इड और सुपर इगो’ के बीच के विवाद द्वारा व्यापक ढंग से वर्णित है.’ लेकिन वर्तमान राष्ट्रीय फलक पर धार्मिक टकराव से उपजी मानसिक विकृति सर्वव्यापी रूप धारण कर रही है.
कुरान मजीद के अनुसार, ‘वमन् अह्याहा
फक अलमा अह्यऽन्नास जमीअन’ (5/35). अर्थात् 
‘जिसने एक मनुष्य को जिलाया, उसने मानो सारी मानव जाति को जिलाया।’ लेकिन आज मजहबी उन्माद इस स्तर पर पहुंच चुका है जहाँ दीपावली के पटाखों और होली के रंगों के प्रयोग के कारण काफ़िर-मुशरिक प्रताड़ना बल्कि हत्या के  काबिल समझे जा रहे हैं. यह विकृति नहीं तो और क्या है?
 दूसरी ओर आज जो धर्म और धार्मिकता के प्रतीक राष्ट्र के सार्वजनिक जीवन में प्रदर्शित हैं, वे तो मात्र राजनीतिक उपालंभ ही कहे जा सकते हैं. आधुनिक धर्म की स्थिति इतनी विकट है कि वह राजनीति के लाभ-प्रतिलाभ का मात्र अवलम्बन बन चुकी है. आदिकवि वाल्मीकि के राम तो शरीरधारी धर्म हैं, ‘रामो विग्रहवान् धर्म:’ (अरण्य. 38-13). लेकिन राम के नाम पर आज पाखंड का प्रदर्शन ही धर्म की संज्ञा से विभूषित किया जा रहा है. महात्मा गाँधी ज़ब रामराज्य की बात करते हैं तब वह सत्यात्मक धर्म एवं सर्वोदय की भावना से अनुप्राणित हैं क्योंकि धर्म का आदर्श आतंरिक मानवीय चेतना की सजगता से पनपता है, मूर्खतापूर्ण प्रदर्शन से नहीं.
 हालांकि धर्म तो अब विशुद्ध व्यवसाय का प्रतिरुप बन चुका है, जिसके बूते आर्थिक लाभ और राजनीतिक सत्ता मोल ली जा रही है. जन्तु विज्ञानी डसमंड मोरिस भी धर्म की उत्पत्ति का कारण आरंभिक मानव समूहों को नेतृत्व प्रदान करने तथा सामाजिक संसक्ति को दृढ़ बनाने हेतु धर्माध्यक्ष की भांति एक सशक्त नेतृत्व की खोज मानते हैं. यानि धर्म भी राजनीतिक-सामाजिक आवश्यकता की उपज रहा है.  
ख़ैर, टकराव, उन्माद एवं पाखंड ने मानव जीवन में धर्म की प्रासंगिकता पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया है. धर्म हो या पंथ उनकी पारम्परिक उपयोगिता तो सामाजिक बंधनों को दृढ़ता प्रदान करना, समाज की उत्पादक गतिविधियों को निर्देशित करना होता है. धर्म या पंथों की प्रासंगिकता मानवीय मस्तिष्क से हिंसक वृत्ति का शमन और समवाय को प्रश्रय देना है ना कि आक्रामकता को उत्तेजित करना. लेकिन ज़ब वही धर्म-पंथ के आदर्श मानवीयता के विध्वन्सक रूप की प्रेरणा बन जाये तो उनकी वृत्ति पर सन्देह सामान्य वैचारिक प्रक्रिया होगी. इसी अनुरूप यह प्रश्न अब विमर्श का हिस्सा बन चुका है कि क्या धर्म-पंथहीन समाज अधिक समन्वयकारी परिवेश में रह सकेंगे?
लेकिन नहीं, यह विचार एक त्वरित उत्तेजना एवं तात्कालिकता की उपज है. धर्म ने मानव समाज को संस्कारित किया है, उसकी मानवता को जीवित रखा है, उसकी सभ्यता को विभिन्न संदर्श दिये हैं. राष्ट्र के चिरंजीविता का आधार ही उसका दृढ़ धर्म-शरीर है. इसके निर्बल होने से राष्ट्र का सामाजिक जीवन विपथगामी हो जाता है. अथर्ववेद के अनुसार, ‘धर्मणा धृता’ यानि पृथ्वी ही धर्म के बल पर टिकी है. धर्म मानवता हेतु प्राणवायु है. इस जरुरत ने ही रोमां रोलां को मार्क्सवाद से ईसाईयत और फिर सनातन धर्म की ओर मोड़ दिया.
 राष्ट्रीय सन्दर्भ में देखें तो धर्म से अनुप्राणित आध्यात्मिकता भारत के चेतन मन एवं अवचेतन अंतस् के दृष्टिकोण की मार्गदर्शिका रही है. यही वो प्रधान कारक है जिसने भारत के आतंरिक संघर्ष, वैदेशिक हमलों, ध्वँस एवं प्रताड़ना आदि के भौतिक घावों को भरकर उसकी पीड़ा को तिरोहित किया है और उसे पुनः विकास के पथ पर अग्रसर करता रहा है. अतीत का सूक्ष्म अनुशीलन भारत के इस उत्थान-पतन-उत्थान के प्रक्रम का प्रमाणन प्रस्तुत करता है.
अतः धर्म की महत्ता मानव सभ्यता को जीवन प्रदायिनी श्वास के समकक्ष है. लेकिन ज़ब यह भ्रमित व्याख्या का शिकार होकर संघर्षों का आधार बनने लगे तब राष्ट्रीय समाज में समन्वय स्थापना हेतु इसके वृहत स्वरुप, संस्कृति के शरणागत होना लाजमी है. संस्कृति की अवधारणा धर्म-पंथ, राजनीति, अर्थनीति से कही अधिक विस्तृत है. किसी राष्ट्र की संस्कृति उसके अतीत, वर्तमान एवं भविष्य का सर्वांगीण विकास की थाती है. संस्कृति राष्ट्र के चिन्तन, मनन, ज्ञान, कर्म एवं पुरुषार्थ का सम्पूर्ण सृजित निचोड़ है, उसका श्रेष्ठतम तत्त्व है.
संस्कृति वह श्रेष्ठ परम्परा है जो संस्कारों का सौंदर्यतम प्रतिनिधित्व करती है. यह जीवन मूल्यों की आदर्श प्रणाली है, वे आदर्श जो मानव सभ्यता को गरिमा तथा उच्चता प्रदान करते हैं. राजनीति एवं आर्थिक तत्व तो संस्कृति के केवल एक भाग हैं जिन्हें समेट कर वह एक व्यवस्था की रचना करती है. ज़ब भी कोई राष्ट्रीय समाज इनमें से किसी तत्व को संस्कृति के ऊपर तरजीह देता है तब वह अपने अस्तित्व पर आक्षेपित संकटों को आमंत्रित करता है जैसे कि अर्थनीति की श्रेष्ठता स्थापित करके सोवियत संघ एवं पूर्वी यूरोप के राष्ट्र विघटन से जुझे, वही पंथीय श्रेष्ठता को अपनाकर पतनशीलता पाकिस्तान समेत मध्य-पूर्व एशियाई देशों का प्रारब्ध बनी. इसी क्रम में भारत को भी समझना है कि उसके वर्तमान जीवन में अतिव्यापित राजनीति टकराव के माध्यम से अपनी प्रमुखता स्थापित करने के जुगत में है. अतः वैश्विक इतिहास से सीखते हुए पूर्वोपाय के रूप में भारत के राष्ट्रीय समाज को ये ध्यान रखना होगा कि राजनीति राष्ट्रीय पथ की साधना मात्र है ना कि उसका साध्य.
 पुनश्च, जिस प्रकार परिवार में विभिन्न प्रकार के व्यक्तित्व माँ-पिता, भ्राता, भगिनी के बीच वैचारिक टकराव या मत-भिन्नता सामान्य सी बात है. इसी के समरूप राष्ट्ररूपी विशाल कुटुंब में विभिन्न संप्रदाय, मत, जाति, क्षेत्रीयता जैसे मसलों पर टकराव तथा असहमतियाँ सामान्य सी बात है. इन विवादों को मतांतर के रूप में देखने से ये अधिक ग्राह्य होंगे तथा इससे उत्पन्न कलुषता का शमन होगा. वैसे भी लोक समुन्द्र के मंथन से ही तो लोकतान्त्रिक विचार पद्धति के नये आयाम खुलते हैं. भारत के नये संसद भवन के परिसर में प्रदर्शित पौराणिक समुन्द्र मंथन की कथा का दृश्य इसी परिकल्पना का साकार रूप है.
 बहुतेरे विवाद एवं असहमतियों  के बावजूद यदि राष्ट्र आज एकीकृत है तो इसकी एकमात्र वज़ह है उसकी संस्कृति. भारत एक चिरंतर, चिरंजीवी, अजर राष्ट्रीय संस्कृति का श्रेष्ठतम प्रतिनिधि है. हर दफ़े ज़ब राष्ट्र नवीन स्वरुप में उदित होगा (, यथा, गणतन्त्र से राजतन्त्र, फिर उपनिवेश से लोकतंत्र) तो उसके नये-नये रूपों का आना वांछित ही है, ‘नवो-नवो भवति जायमान’. वहां विवाद-विमर्श भी होंगे और जाति, नृजातीय, धार्मिक-पंथीय विभिन्नताएं भी. और विभिन्नताएं स्वयं में प्रकृति के मूल सौंदर्य का बायस हैं. उन्हें सीमित करने का प्रयास तो प्रकृति की आत्मा पर आघात है. वैसे ही जैसे मनुष्य की व्यक्तिगत रूचि यथा धार्मिक मान्यताएं, भोजन, प्रवासन जैसी व्यक्तिगत अभिरुचियों के साथ लड़ाई ठानना मूर्खतापूर्ण विचार है
टकराव एवं भेद-प्रधान स्थूल समाज में भी एकता के सूत्र तलाशे जा सकते हैं, परन्तु इसके लिए समवाय, समन्वय एवं सहिष्णुता के सांस्कृतिक भाव को राष्ट्रीय जीवन के केन्द्र में रखना होगा. आखिर यही तो भारतीय ज्ञान परंपरा के हजारों वर्षों के वैचारिक मंथन का निचोड़ है. इसी के बूते भारत दुनिया भर के प्रताड़ित जाति की शरणस्थली बना, चाहे वे पारसी हो, या यहूदी अथवा द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान पोलिश लोग हों.
 इतिहास जो संघर्ष एवं समन्वय का लेखा-जोखा प्रस्तुत करता है, सांस्कृतिक सहबद्धता से समवाय को साध लेगा, यदि भारत के मूल धर्म के सनातनी अनुयायी सेमेटिक पंथों के अपने विरुद्ध वैदेशिक आक्रामक कृत्यों के विरुद्ध पूर्ण सफल प्रतिरोध ना कर पाने की आत्मग्लानि त्याग दें और सेमेटिक पंथों के अनुगामी अपनी आक्रामक श्रेष्ठता की भ्रामक मनोवृत्ति से बाहर आये. उन्हें इतिहास की सही सीख लेनी होगी और जानना होगा कि वे किसी आक्रमणकारी विजेता के वंशावली का हिस्सा नहीं हैं बल्कि इसी मातृभूमि के पूर्वजों की संतति हैं. धर्म-पंथों की यथार्थता तो संस्कृति के आयाम हैं, सोपान है. धर्म के परिवर्तन तथा पंथ की स्वीकृति से संस्कृति की समृद्ध परंपरा नहीं बदलती. वह तो स्वीकृति-अस्वीकृति से परे यथावत बनी रहती है.
 अतः इस सांस्कृतिक मर्म की समझ ही राष्ट्रीय समाज को अन्य पंथों, विचारधाराओं के प्रति सहिष्णुता के भावना के आत्मसातीकरण के योग्य एवं उसकी अभिलाषी बनाएगी. तब संभव है कि समवाय का मार्ग सुलभ होगा. वैसे भी भारतीय संस्कृति के अंतस् में समवाय एवं सहिष्णुता का भाव सहज़ उपस्थित है जिसकी घोषणा हजारों वर्ष पूर्व ‘देवों के प्रिय’ सम्राट अशोक कर रहे थे. इसे स्वीकारना होगा अन्यथा धार्मिक-पंथीय संघर्ष तो निरंतर बना रहेगा और संभवत: भविष्य में अधिक विध्वंसक होगा. इसलिए यह ध्यान रखना होगा कि भारत के जातीय मानस में मूर्तिमान रूप में उपस्थित मातृभूमि की आभा बनी रहनी चाहिए. वैदिक परंपरा का सन्देश भी तो यही है, ‘माता भूमि: पुत्रो अहं पृथिव्या:’ (अर्थव. 12/1/12). तथा यह कोई भौतिक मत नहीं मातृभूमि के प्रति अंतस् प्रेम का भाग है. 
 मातृभूमि को ना तो पथों, मतांतर में रूचि है और ना ही संप्रदायवाद में. वह तो ‘ऋत’ में विश्वास करता है, ऋत जो कालांतर में धर्म के रूप में अभिहित किया गया. महर्षि वेदव्यास द्वारा व्याख्यायित धर्म ऋत की ही तो व्याख्या है, ‘नमो धर्माय महते धर्मो धारयति प्रजा: | यत्स्याद धारण संयुक्तं स धर्म इत्युदाह्यत: |’ अतीत के इसी ऋतरूपी धर्म के मूल भाव का त्याग राष्ट्र के वर्तमान विघटनवादी स्वरों का मूल कारण है.
ऋत या धर्म की नैतिक प्रेरणा मानव समाज की मार्गनिर्देशिका रही है. जहाँ राजदंड भी नहीं पहुंच पाता वहाँ धर्मदण्ड प्रभावी होता है क्योंकि यह क़ानून की भांति बाह्य प्रेरणा नहीं बल्कि नैतिकता की अंतःप्रेरणा है. जनता का शाश्वत चैतन्य ही राष्ट्र की वास्तविक परिकल्पना का यथार्थ आधार है और चैतन्य समाजों में नैतिक संहिताएं धर्म की संरचना से अनिवार्य रूप से गहरी आबद्ध हैं, फिर तो धार्मिक टकराव की संभावनाएं वैसे ही न्यून होंगी. और दूसरी ओर संस्कृति की एकात्मकता का भाव ऐसे संघर्षों के विरुद्ध प्रतिरोधक होगा.
हालांकि राष्ट्रीय परिवार की एकता के रक्षार्थ संस्कृति के सहयोग के लिए भारतीय संविधान भी एक मजबूत स्तम्भ के रूप में मौजूद है. यह आधुनिक भारत में लोकतान्त्रिक शासन सत्ता एवं राष्ट्रीय जीवन को नियंत्रित करने वाली लिखित नियमावली, जिसे संविधान के रूप में विहित प्रतिष्ठा प्राप्त है. अपने मूल कर्तव्यों की सूची अनुच्छेद 51 (क) के अंतर्गत क्रमशः तीन (राष्ट्र की संप्रभुता, एकता, अखण्डता की रक्षा और उसकी अक्षुण्णता क़ायम रखे) तथा पांच (धर्म, भाषा, प्रदेश या वर्ग से परे सभी लोगों में समरसता और भातृत्व की भावना का निर्माण करे) द्वारा भी संविधान समवाय एवं सहिष्णुता के लिए ही प्रेरित करता है. यही भारत के प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है और उसका उत्तरदायित्व भी, जिसकी प्रेरणा वैदिक कालीन प्रार्थना ‘राष्ट्र जागृयाम् वयम्’ अर्थात् ‘हम राष्ट्र में जागते रहें’ के रूप में दी गई है.
संविधान भारत की राष्ट्रीय वाणी का प्रत्यक्ष स्वरुप है. उसने अपृश्यता, जाति आधारित भेदभाव, बेगारी जैसे अनेक मानवीय पापों का दमन कर उसके कलुषता से भारत के राष्ट्रीय जीवन को मुक्त किया है. इस जनतंत्र को यदि मंदिर कहा जाये तब तो संविधान को उसका धर्मग्रन्थ मानना ही पड़ेगा. भारत की प्राचीन से लेकर अर्वाचिन सभ्यता धर्मग्रंथों के आदेश से अनुप्राणित तो रही ही है. अतः कर्तव्य एवं सत्य के प्रबोध को स्वीकार करने वाले इस समाज के मानस हेतु संविधान के आदेश की स्वीकृति कठिन नहीं होनी चाहिए.

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