रस्सी से लटकाकर फांसी देने से अनावश्यक पीड़ा होती है। अतः भारत के पंचासवें प्रधान न्यायधीश धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ चाहते (21 मार्च 2023) हैं कि सरकार कष्टहीन मृत्युदंड की विधि रचे। जबकि उनके स्वर्गीय पिताश्री, जो 16वें प्रधान न्यायाधीश (1985 में) थे, न्यायमूर्ति यशवंत विष्णु चंद्रचूड़ ने अपने निर्णय (23 सितंबर 1983) में लिखा था कि रस्सी से फांसी देना “क्रूर नहीं है।” दोनों फैसलों में व्यक्त पिता-पुत्र के दृष्टिकोण में काल-भेद चार दशक का है। लंबा अंतर है। कारण स्पष्ट है क्योंकि अक्सर वकीलों की योग्यता की श्लांघा में भी है कि ये अश्वेत कोटधारी आजीवन बाल की खाल निकालने में निष्णात होते हैं। सीधी में टेढ़ी देखना और अनगिनत मीन-मेख निकालना उनकी फितरत है। हालांकि गुणदोष खोजना एक पेशेवर प्राकृतिक प्रवृत्ति है।
गौर करें जरा नवाधुनिक विद्वानों की विधिवत अवधारणा पर कि “कानून और सरकार जब जीवन दे नहीं सकते तो उन्हें प्राण लेने यानि फांसी देने का अधिकार नहीं होना चाहिए। मृत्यु के बाद अपराधी के सुधरने की गुंजाइश खत्म हो जाती है इसलिए ही आजीवन कारावास की दंड व्यवस्था बनायी गयी।” विश्व के 144 से ज्यादा देशों में फांसी की सजा खत्म हो गई है। भारत के विधि आयोग ने 2015 में रिपोर्ट मे कहा था कि आतंकी मामलों को छोड़कर अन्य अपराधों के लिए फांसी की सजा का कानून खत्म हो जाना चाहिए। मुम्बई आतंकी हमले और निर्भया मामले में अपराधियों को फांसी की सजा दी गई थी।
यूं तो उच्चतम न्यायालय ने कल फांसी को समाप्त करने की मांग को पुनः स्पर्श नहीं किया। पर मसला बना रहा कि प्राण देने वाला ही उसे ले सकता है। अर्थात सर्वशक्तिमान परमपिता परमेश्वर पर ही यह भार डाल दिया जाए। तब तक हत्यारा अपराधी जीता रहे और राशन पानी मुफ्त पाता रहे।
इस संदर्भ में मृत्यु दण्ड की समाप्ति के पक्षकारों के लिए कुछ प्रश्न उठते हैं। दार्शनिक तथा उपदेशात्मक शैली में मानवता की दुहाई देना सरल है। जिनके कुटुम्बीजन हत्या के शिकार हुए हैं उनकी भावना क्या है? इस पर सम्यक विचार किये बिना, सन्तुलित नजरिया नहीं बनेगा। शुरूआत करें स्वाधीन भारत के प्रथम मृत्युदण्ड के निर्णय से। नाथूराम विनायक गोड्से को फांसी लगने तक पश्चाताप नहीं था कि एक असहाय, असुरक्षित, छड़ी थामे कमजोर बुढ्ढे़ पर गोली चलाना अधम गुनाह उसने किया था। यह कोई शौर्य का काम कतई नहीं था। उस वक्त भी इस निकृष्ट हत्यारे के बचाव में बयानबाजी हुई कि उसे फांसी से मुक्त किया जाय। कोलकता के उस हत्यारे का उल्लेख हो जिसने एक स्कूली बालिका का बलात्कार किया और मार डाला। धनंजय चटर्जी एक सुरक्षा गार्ड था और उसी भवन के एक फ्लेट में उसने यह अपराध किया । होशोहवास में उसने यह जघन्य हरकत की। जब न्यायालय ने उसे फांसी की सजा सुनाई तो मानवाधिकार के दावेदार, उदारपंथी, तथाकथित प्रगतिवादी उस हत्यारे की क्षमा की मांग बुलन्द करने लगे। इन लोगों को लेशमात्र भी टीस नहीं हुई उस बालिका के भाई की मानसिक यातना को लेकर। इन मानवाधिकारियों की पुत्री, बहन या भाभी के साथ ऐसा हुआ होता तो? यह तर्क उन वकीलों पर लागू होता है जो जानबूझ कर हत्यारों के पैरोकार बन जाते है। एक मुम्बईया फिल्म आई थी जिसमें बलात्कारियों के वकील अनुपम खेर की दृष्टि बदल जाती है जब उनके मुवक्किल उसकी जवां बेटी का अपहरण कर बलात्कार करने जाते हैं। वकील साहब सुधर गये क्योंकि तब खुद पर बीतने लगी। बस यही तर्क है कि मुत्युदण्ड की आवश्यकता कितनी है ?
अब जरा गौर करें उन अपराधियों पर जिन्हें इस सदी में रस्सी पर टांग कर फांसी दी गई। पाकिस्तानी आतंकवादी अजमल कसाब जिसने मुंबई में (21 नवंबर 2012) निर्दोष जनों की लाशें गिरा दी थी। मोहम्मद अफजल जिसने 2001 में भारतीय संसद को बम से उड़ा देने की कोशिश की थी। असीम धनजन का नाश किया। याकूब मेनन जिसने 1993 में मुंबई पर सिलसिलेवार बम फोड़े और सैकड़ों आमजनों की हत्या कर दी। उसे 30 जुलाई 2015 को लटकाया गया था। अब यदि फांसी की सजा खत्म हो अथवा इन जेहादी हत्यारों को चिकन बिरयानी खिलाकर जेलों में अनवरत आतिथ्य दिया जाए तो क्या उचित इंसाफ होगा ? याद रहे कि सर्वोच्च न्यायालय चंद वरिष्ठ वकीलों के अनुरोध पर रात ढले खंडपीठ बैठाकर इन हत्यारों की याचना सुनता रहा था।
मृत्युदण्ड की प्रथा का कानूनी इतिहास में सदियों पुराना है। बेबीलोन के राजा हम्मूराबी के समय (1750 ईसापूर्व) अपराधियों को मौत की सजा देने का कानून था। “हम्मूराबी विधि संहिता” दुनिया का सबसे पहला पीनल कोड माना जाता है। इसमें 25 तरह के अपराधों के लिए मौत की सजा देने के प्रावधान थे। ईसा से सात सदी पहले एथेंस में हर अपराध के लिए मौत की सजा दी जाती थी। ऐतिहासिक दस्तावेज बताते हैं कि मौत की सजा ऐसी होती थी कि ज्यादा से ज्यादा दर्द हो। सजा-ए-मौत के लिए अपराधी को ईसा मसीह की तरह सूली पर लटका दिया जाता था। कुछ सभ्यताओं में पीट-पीटकर मार देने का चलन था। जिंदा जला देने या अंग काट-काटकर अलग करके भी मौत दी जाती थी। जहरीले नाग से डसवाया जाता रहा। दसवीं सदी आते-आते फांसी का चलन भी बढ़ने लगा। वक्त के साथ मौत की सजा ने वीभत्स रूप ले लिया। सोलहवीं सदी में इंग्लैंड के राजा हेनरी अष्टम ने करीब 72,000 लोगों को मौत की सजा सुनाई। उस वक्त खौलते पानी या तेल में डालने, फांसी, सिर काटने, हाथ-पैर खींचकर मारने जैसे तरीके अपनाए जाते थे।
फिलहाल प्रधान न्यायाधीश चंद्रचूड़ तथा न्यायमूर्ति पामिदिघंटम श्रीनरसिंहम की खंडपीठ ने सरकारी वकील से कहा कि वह जवाब पेश करें कि बिना दर्द के फांसी कैसे मुमकिन है।