पंडित दीनदयाल उपाध्याय की हत्या एक अबूझ पहेली बनी हुई है। वह शायद ही हल की जा सके। अब तो हाल यह है कि उसे अतीत का एक विस्मृत और दुखद अध्याय मान लिया गया है। सबसे बड़ी भूल यही है। उस हत्या का रहस्य एक उनके लेख से और अधिक गहरा हो जाता है। ‘प्राग नगर का खूनी खेल।’ यह वह लेख है जिसे पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने लिखा था, अपनी हत्या से सात साल पहले। वह लेख पांचजन्य में 20 फरवरी, 1961 को छपा है। क्या विचित्र दुर्योग है! उनकी हत्या भी सात साल बाद उसी महीने में हुई।
उस लेख का आमुख इन शब्दों में था- ‘प्राग नगर चेकोस्लोवाकिया में स्थित है। यद्यपि यह कांगों से हजारों मील दूर है परंतु सोवियत संघ के गुप्तचर विभाग द्वारा स्थापित वह खूनी स्कूल यहीं पर चालू किया गया जिसमें प्रषिक्षण-प्राप्त युवकों ने कांगों में अराजकजा निर्माण कर दी। पाठकों की जानकारी के लिए प्रस्तुत पंक्तियों में उस स्कूल की अविस्मरणीय कहानी दी जा रही है।’ इस तरह संपादक ने लेख के बारे में सूचना दी। उस लेख में तथ्यों सहित वर्णन था कि किस तरह कम्युनिस्ट अपने राजनीतिक मंसूबे को पूरा करने के लिए हत्या के तौर-तरीकों की ट्रेनिंग का बाकायदे स्कूल चला रहे हैं। वह लेख एक चेतावनी थी। उनके लिए जो कम्युनिस्ट खेल को जानना और विफल करना चाहते थे। क्या उस चेतावनी को सरकार, समाज और बौद्धिक वर्ग ने सुना? ऐसा नहीं लगता।
अगर सुना होता तो पंडित दीनदयाल उपाध्याय की हत्या का षड़यंत्र सफल नहीं होता। विडंबना देखिए कि अदालत, जांच आयोग और सीबीआई ने अपने-अपने स्तर पर हत्या के रहस्य को खोलने के आधे-अधूरे प्रयास किए और जो बताया वह किसी के गले नहीं उतरता। पंडित दीनदयाल उपाध्याय के सहयोगी रहे नाना जी देशमुख ने उनकी हत्या के पांच साल बाद लिखा-‘आज हम दीनदयाल उपाध्याय की जयंती मना रहे हैं, परंतु हमारी आंखों में आंसू हैं। पंडितजी की न केवल हत्या की गई, अपितु उनके हत्यारों का पता भी न लगाया जा सका। न तो सी.बी.आई. और न चंद्रचूड़ जांच आयोग ही यह बता सके कि दीनदयाल जी की किसने हत्या की और क्यों? ऐसा लगता है कि इस डर से कि सरकार के लिए इसके राजनीतिक परिणाम अच्छे नहीं होंगे, वह चाहती ही नहीं थी कि हत्यारे तथा संरक्षक पकड़े जाएं।’
इस कथन में ही पूरी कहानी समायी हुई है। इसे समझने पर हर बात साफ हो जाती है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय को मानने वाले अनुभव करते हैं कि हत्या का राज छिपाया गया। उसे दुर्घटना का दुखद नतीजा साबित करने के लिए सरकार ने तीर और तुक्के बेतुके ढंग से जुड़वाए। हालांकि केंद्र की इंदिरा गांधी सरकार उसमें पूरी तरह सफल नहीं हुई। क्यों और कैसे? इससे पहले हत्या से जुड़ी घटनाओं को जानना जरूरी है। इस बारे में काफी कुछ लिखा गया है। यानी घटनाक्रम के दस्तावेज हैं। कुछ पुस्तकें भी हैं। कई पत्रिकाओं में लेख हैं। घटना के विवरण हैं। उन्हें ही यहां एक क्रम में बताने की कोशिश है।
बात 11 फरवरी, 1968 की है। मुगलसराय स्टेशन रेलवे का बड़ा जंकशन है। उसी के यार्ड में पंडित दीनदयाल उपाध्याय का मृतक शरीर मिला। हुआ यह कि रात करीब साढे तीन बजे रेलवे के एक कर्मचारी ने वह दृष्य देखा। वह ‘लीबरमेंन’ था। उसका नाम था, ईश्वर दयाल। उसने पाया कि रेलवे लाइन के पास लोहे और कंकड़ पत्थर पर एक निर्जीव शरीर पड़ा है। वह नहीं जानता था कि जिसे वह देख रहा है वह भारत का एक महापुरूश है। उसने अपना फर्ज निभाया। सहायक स्टेशन मास्टर को रेलवे के फोन से सूचना दी। उससे पहले शंटिंग पोर्टर दिग्पाल ने देख लिया था। गफूर ड्राइवर इंजन की शंटिंग कर रहा था। गनर किशोर मिश्र उसके साथ था। दिग्पाल ने किशोर मिश्र को कहा और उसने ईश्वर दयाल को बताया।
इस तरह मुगलसराय के सहायक स्टेशन मास्टर को खबर मिली। उसने बनी बनाई पद्धति अपनाई। रेलवे पुलिस को सूचना दी। रेलवे पुलिस ने अपने एक जवान को पहले भेजा और बाद में दो सिपाही फिर भेजे गए। उन्हें शव की वहां निगरानी करनी थी। वे करते रहे। थोड़ी देर बाद रेलवे पुलिस का दरोगा पहुंचा। उसका नाम था, फतेहबहादुर। हलचल शुरू हुई। ऐसे अवसर पर अगला काम होता है, डाक्टर को बुलाना। डाक्टर को पहुंचने में देर लगी। उसी के आस-पास फोटोग्राफर पहुंचा। अंधेरा होने के कारण सूर्योदय का उसने इंतजार किया। फिर फोटो खींचा।
फोटो बताता है कि शव पीठ के बल सीधा लेटा हुआ था। पैर पश्चित की दिशा में थे। कमर से मुंह तक का हिस्सा दुशाले से ढका हुआ था। घड़ी बांधे बाया हाथ दुशाले के ऊपर सीने पर था। दाया हाथ मुड़कर सिर की ओर चला गया था। मुटठी में पांच रूपए का नोट था। चेहरे की साफ तस्बीर लेने के लिए फोटोग्राफर ने सिर के नीचे ईट रख दी। फोटो के बाद शव की तलाशी ली गई। जिसमें रेलवे का पहले दर्जे का टिकट और आरक्षण की पर्ची मिली। घड़ी पर नानाजी देशमुख लिखा था। जेब में 26 रूपए मिले। ये सूचनाए पुलिस को सतर्क करने के लिए काफी थी। फिर भी वह काहिल बनी रही। उसने पंडित दीनदयाल उपाध्याय की पहचान करने का कष्ट नहीं उठाया। उनके शरीर को ‘अज्ञात’ व्यक्ति का माना। पोस्टर्माटम की तैयारी शुरू की। पुलिस ने इस तरह 6 घंटे लगाए। फिर शव को प्लेटफार्म पर रखा गया। पंडित दीनदयाल उपाध्याय जो धोती पहने हुए थे उससे ही उन्हें ढका गया था।
मुगलसराय स्टेशन हमेशा भीड़ से भरा रहता है। उसका यार्ड सबसे बड़ा माना जाता है। रोज उस बड़े यार्ड से चोरियों का पुराना सिलसिला चल रहा है। कह सकते हैं कि हत्या की साजिश रचने वालों ने सोच-समझकर मुगलसराय को चुना। ऐसे स्टेशन के प्लेटफार्म पर रखे एक शव ने हर देखने वालेे में उत्सुकता जगाई। बात फैली। लोग उस तरफ आने लगे। उनमें ही रेलवे का एक कर्मचारी था। वनमाली भट्टाचार्य। उसने ही पहचाना। इससे ‘अज्ञात’ व्यक्ति का शव अपनी पहचान में वापस आया। वे व्यक्ति थे, भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष पंडित दीनदयाल उपाध्याय। उस कर्मचारी ने जनसंघ के स्थानीय नेताओं को सूचना दी। फिर क्या था। अविलंब जनसंघ के कार्यकर्ता स्टेशन पहुंचे। तब तक रेलवे पुलिस ने टिकट नंबर के आधार पर लखनऊ से पुष्टि कर ली कि उस पर पंडित दीनदयाल उपाध्याय ही यात्रा कर रहे थे।
एक दिन पहले वे लखनऊ में थे। तारीख थी, 10 फरवरी, 1968। उसी दिन उनसे पटना आने के लिए आग्रह किया गया। कारण कि वहां बिहार प्रदेष जनसंघ की कार्यसमिति बैठ रही थी। आग्रह किया, अश्ननी कुमार ने। वे राज्य जनसंघ के संगठन मंत्री थे। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने एक शर्त पर उन्हें मंजूरी दी। वह यह कि उन्हें दिल्ली में रहने के लिए आग्रह न आ जाए। महामंत्री सुंदर सिंह भंडारी अगर दिल्ली में रहने के लिए कहते तो वे पटना नहीं जा सकते थे। दिल्ली में संसद का बजट अधिवेशन शुरू हो रहा था। उसके लिए संसदीय दल की बैठक 11 फरवरी को होने वाली थी। उनसे उसमें रहने के लिए आग्रह नहीं किया गया। इसलिए वे पटना की यात्रा पर निकले। पटनकोट-सियालदह एक्सप्रेस से चले। ट्रेन लखनऊ से शाम सात बजे चली।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय के पास थोड़े से सामान थे। जीवन उनका सादा और सरल था। उसी के अनुरूप था उनका सामान। एक बिस्तरा, एक अटैची, किताबों का झोला और रात का भोजन। उन्हें सर्दी ज्यादा लगती थी। इसी हिसाब से वे गरम कपड़े पहने हुए थे। कंधे पर ऊनी साल थी। उन्हें जो लोग विदा करने स्टेषन आए थे, उनमें उपमुख्यमंत्री रामप्रकाश गुप्त और विधान परिषद सदस्य पीताम्बर दास प्रमुख थे। वे जिस बोगी मेें यात्रा कर रहे थे उसका आधा हिस्सा तीसरी श्रेणी का था और आधा पहली श्रेणी का। रेलवे की भाषा में वह एफ.सी.टी. बोगी थी। पहली श्रेणी के हिस्से में तीन कूपे थे। ए,बी और सी। ए में चार, बी में दो और सी में चार बर्थ थी। पंडित दीनदयाल उपाध्याय की बर्थ ए में थी। जिसे उन्होंने बदलवाकर बी कूपे में करवा ली। वे उसमें अकेले यात्री थे। उन्होंने अपनी बर्थ विधान परिषद सदस्य गौरी शंकर राय से अदला-बदली की। ए कूपे में दूसरे यात्री एम.पी. सिंह थे। वे सरकारी अफसर थे। सी कूपे में मेजर एस.एल. शर्मा का आरक्षण था। लेकिन उन्होंने लखनऊ से गोमोह की यात्रा उस बोगी में न करके ट्रेन सर्विस कोच में की। क्यों? इसका खुलासा नहीं किया गया। एक यह भी रहस्य है जो आज भी बना हुआ है।
रात 12 बजे ट्रेन जौनपुर पहुंची। जनसंघ के नेता और जौनपुर के राजा यादवेंद्र दत्त दुबे का पत्र लेकर उनके सचिव कन्हैया आए। उस समय पंडित दीनदयाल उपाध्याय गहरी नींद में थे। दरवाजा खटखटाने पर थोड़ी देर बाद उठे। वे ट्रेन से उतरे। पत्र लिया। लेकिन चश्मा अंदर था इसलिए कन्हैया को अपने साथ बर्थ पर ले आए। पत्र पढ़ा और जल्दी ही जवाब देने का वादा किया। गाड़ी छूटने का समय हो रहा था। वे दरवाजे तक कन्हैया को पहुंचाने आए थे। वह ट्रेन पटना नहीं जाती थी। उसकी एक बोगी दिल्ली-हावड़ा में जुड़कर पटना पहुंचती थी। उस रात वह ट्रेन 2 बजकर 15 मिनट पर प्लेटफार्म नंबर एक पर पहुंची। उसकी वह बोगी दिल्ली-हावड़ा टेªन में जोड़ी गई और वह ट्रेन 2 बजकर 50 मिनट पर रवाना हुई।
बिहार जनसंघ के एक नेता कैलाश पति मिश्र पटना स्टेशन पर पंडित दीनदयाल उपाध्याय की आगवानी में सुबह पहुंचे थे। उन्होंने उस बोगी में खोजा। उन्हें पंडित जी नहीं मिले। सोचा कि हो सकता है न आए हों। समय का पहिया तेजी से धूम रहा था। ट्रेन मुकामा पहुंची। वहां पंडित दीनदयाल उपाध्याय की बर्थ के नीचे पड़ी अटैची देखी गई। उसे रेल अधिकारियों ने ट्रेन से उतरवाकर सुरक्षित रखा। इससे प्रकट हुआ कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय ट्रेन में सवार थे। कहां गए और क्या हुआ? यह तो बाद में पता चला।
विलक्षण महापुरूष थे, पंडित दीनदयाल उपाध्याय। इसे उनके जाने के बाद ही ज्यादा समझा और माना गया। उनकी महानता को अनुभव किया गया। जब वे गए तब उनके सामने भरापूरा भविष्य था। उम्र भी क्या थी? सिर्फ 51 साल। हमारे इतिहास में अनेक महापुरूष ऐसे हुए हैं जिनकी महानता कम उम्र में ही प्रकट हुई। पंडित दीनदयाल उपाध्याय उनमें से एक हैं।
यह सच है कि महानता का उम्र से कोई सीधा नाता नहीं होता। उसका नाता तो ज्ञान और गुण के वैभव से होता है। जो पंडित दीनदयाल उपाध्याय में था। उन्हें जो मानते हैं वे भी और जो नहीं मानते वे भी, यह तो सभी जानते हैं कि उनकी निर्मम हत्या हुई। जिसके वे कहीं से भी पात्र नहीं थे। लेकिन लठैत बने हत्यारे भला इसे कैसे जाने! वे तो हत्या का धंधा कर रहे थे। जो उन्हें इस्तेमाल कर रहे थे वे ही षड्यंत्रकारी थे। वे ही षड्यंत्र के सूत्रधार थे। उन्होंने भरसक कोशिश की कि उनके निधन को मामूली दुर्घटना साबित कर दिया जाए। इसमें वे सफल नहीं हुए। लेकिन षड्यंत्र पर पर्दा डालने में वे अवष्य सफल हो गए। यह जितना सच है उससे ज्यादा गहरा रहस्य आज भी बना हुआ है कि हत्या के षड्यंत्रकारी आखिरकार कौन थे? केंद्र में सरकारें आई और गई, लेकिन इस रहस्य को भेदा जाना शेष है। क्या यह भेदा जा सकेगा?
मुगलसराय प्लेटफार्म पर वनमाली भट्टाचार्य ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय के मृतक शरीर को पहचाना। इससे षड्यंत्रकारियों की मंशा धरी रह गई। वे उन्हें लावारिश बनाने के जुगाड़ में थे। जैसे ही पंडित दीनदयाल उपाध्याय का शव पहचाना गया, देशभर में सनसनी फैली। आकुलता बढ़ी। शोक की लहर व्याप्त हो गई। बात 11 फरवरी, 1968 की है। इसे भी याद कर लेना चाहिए कि वह समय राजनीतिक संक्रमण का था। कांग्रेस जा रही थी और गैरकांग्रेस की हवा बन रही थी। भारतीय जनसंघ उसका नेतृत्व कर रहा था। उस जनसंघ का नेतृत्व पंडित दीनदयाल उपाध्याय कर रहे थे। उनके जाने का अर्थ था कि जनसंघ अपने सबसे प्रखर बौद्धिक पुरूष को गवा बैठा। भारतीय जनसंघ में पूरा विकल्प दे पाने की संभावनाएं प्रकट हो रही थी। उसे ही समाप्त करने के लिए हत्या का षड़ंयत्र रचा गया। ऐसा ही मत ज्यादातर राजनीतिक नेताओं ने तब व्यक्त किए थे।
हत्या की स्तब्द्ध कर देने वाली सूचना दिल्ली पहुंची। उस समय अटल बिहारी वाजपेयी के निवास पर 10 बजे लखनऊ से फोन आया। लेकिन वे एक फिरोज शाह रोड पर जनसंघ संसदीय दल की कार्यकारिणी बैठक में थे। उन्हें वहां सूचना दी गई। जो स्वाभाविक था वही हुआ। बैठक स्थगित कर दी गई। जनसंघ के नेता उस सूचना से सदमे में आ गए। उस सूचना की पुष्टि के लिए फोन किए जाने लगे। जब पक्का हो गया कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय की हत्या कर दी गई है तब रेल राज्य मंत्री के निवास पर जाकर उसका विवरण प्राप्त करने का प्रयास हुआ। मुगलसराय स्टेशन पर संपर्क कर रेल राज्य मंत्री ने विवरण दिया। इसी तरह वाराणसी के जिलाधिकारी से संपर्क किया गया। उनसे भी समाचार की पुष्टि हुई। इन विवरणों के आधर पर जनसंघ के नेताओं ने तत्क्षण दो निर्णय किए। एक कि वाराणसी तुरंत पहुंचना है। दूसरा कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय का दाह संस्कार दिल्ली में होगा।
वाराणसी पहुंचने के लिए विशेष विमान की जरूरत थी। जनसंघ के नेताओं ने गृहमंत्री यशवंत राव चव्हाण और विमानन मंत्री डा. कर्ण सिंह से संपर्क साधा। थोड़ी देर बाद गृहमंत्री के यहां से सूचना आई कि विशेष विमान का प्रबंध कर दिया गया है। उस विमान से अटल बिहारी वाजपेयी, बलराज मधोक और जगदीश प्रसाद माथुर वाराणसी पहुंचे। वह विशेष विमान दोपहर बाद सवा चार बजे के आस-पास वाराणसी पहुंचा। जहां जनसंघ के कार्यकर्ता और वाराणसी के पुलिस अधीक्षक उनके पहुंचने की प्रतिक्षा कर रहे थे। उन्हें पोस्टमार्टम स्थल पर ले जाया गया।
मुगलसराय से पंडित दीनदयाल उपाध्याय का पार्थिव शरीर पुलिस एंबुलेंस में एक बेंच पर रखकर लाया गया था। लापरवाही की वह हद थी। जनसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष के लिए पुलिस ने स्ट्रेचर का प्रबंध करने की समझ भी नहीं दिखाई। क्या ऐसा हड़बड़ी के कारण हुआ? सवा पांच बजे के आस-पास दिल्ली से पहुंचे नेताओं को पोस्टमार्टम स्थल पर ले जाया गया। उसी समय लखनऊ से राज्य के उपमुख्यमंत्री राम प्रकाश गुप्त और दूसरे मंत्री गंगा भक्त सिंह भी वाराणसी पहुंचे। उन्हें थोड़ी देर बाद पोस्टमार्टम स्थल ले जाया गया। इन नेताओं के पहुंचने के बाद पोस्टमार्टम शुरू किया जा सकता था। लेकिन वह नहीं शुरू किया जा सका।
कारण कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक गुरूजी गोलवलकर (माधव सदाशिव गोलवलकर) उस समय प्रयाग में ही थे। यह एक संयोग ही था। वहां से वे चल पड़े थे। उनका और संघ के दूसरे प्रमुख व्यक्तियों की प्रतीक्षा हो रही थी। गुरूजी के साथ संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी, भाउराव देवरस, प्रो. राजेंद्र सिंह (रज्जू भैया), माधव राव देशमुख तथा आबा थट्टे आए। उनके पहुंचते ही सन्नाटा टूटा। हलचल मची। भावनाओं ने संयम का बांध तोड़ा। उपस्थित समूह अपने को रोने-विलखने से रोक नहीं सका। गुरूजी के साथ आए सभी प्रमुख व्यक्ति पोस्टमार्टम कक्ष में गए। उनके पीछे जनसंघ के नेता, मंत्री और सरकारी अफसर हो लिए। प्रभुदत्त ब्रह्मचारी ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय के पार्थिव शरीर के पास पहुंचकर मंत्रोचार किया।
गुरूजी ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय के शव को देखा। शोकाकुल तो वे थे ही। उनके श्रीमुख से वाक्य निकला- ‘अरे इसे क्या हो गया।’ इसे उन्होंने कई बार दोहराया। वे रूआसे हो गए थे। पर भावनाओं को जज्ब किया। इसके लिए उन्हें गहरी आंतरिक पीड़ा से गुजरना पड़ा। वह आघात असाधारण जो था। अगले दिन उन्होंने जौनपुर के शिविर में स्वयंसेवकों को संबोधित करते हुए कहा- ‘मैंने आंसू नहीं बहाए। मन पर नियंत्रण रखने के लिए बहुत परिश्रम करना पड़ा।’
उनके वहां से निकलने के बाद पोस्टमार्टम शुरू हुआ। बाहर प्रतीक्षा हो रही थी। एक-एक क्षण भारी पड़ रहा था। वहां और उसी तरह पूरे देश के मानस में एक ही प्रश्न बार-बार उभरता रहा। क्या यह दुघटना है या हत्या? पोस्टमार्टम शुरू होने पर बलराज मधोक और राम प्रकाश गुप्त दुर्घटना स्थल गए। वहां का मौका मुआयना किया। घंटेभर बाद पोस्टमार्टम समाप्त हुआ। शव जनसंघ के नेताओं को अफसरों ने सौंप दिया। पंडित दीनदयाल उपाध्याय का पार्थिव शरीर एक स्ट्रेचर पर लिटाया गया था।
स्ट्रेचर पर रखा उनका शरीर जैसे ही बाहर आया भारी भीड़ उनके दर्शन के लिए उमड़ पड़ी। माल्यार्पण हुआ। फूलों की वर्षा हुई। वातावरण शोक संतप्त था। स्ट्रेचर पर रखे उनके शरीर को एक ट्रक पर रखा गया। ट्रक पर जनसंघ के कई नेता थे। ट्रक हवाई अड्डे के लिए रवाना हुआ। उसे शोक संतप्त जनसमूह के बीच से रास्ते भर गुजरना पड़ा। हवाई अड्डे पहुंचकर ट्रक से स्ट्रेचर सावधानी पूर्वक उतारा गया। जिसे जहाज में रख दिया गया। स्टेªचर जहाज में इस तरह रखा गया कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय का सिर पायलट की ओर रहे और पैर दूसरी तरफ। जहाज में 18 सीटें थी। जिन्हें जहाज से जाना था वे वहां उपस्थित थे। जहाज उड़ने के लिए तैयार था। वह रूका रहा जब तक गुरूजी गोलवलकर और उनके साथ भाउराव देवरस वहां नहीं पहुंचे।
उनके पहुंचते ही लोग दो कतार में खड़े हो गए। उसमें से होकर वे दोनों सीढ़ियां चढ़कर जहाज में पहुंचे। पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी को श्रद्धांजलि दी। लेकिन भाउराव देवरस भावविह्वल हो गिर पड़े। उन्हें संभालना पड़ा। गुरूजी ने अपने शोक को मानो पी लिया। आध्यात्मिक पुरूष जो थे। उनके उतरते ही जहाज रात सवा नौ बजे दिल्ली के रवाना हुआ। उसमें अटल बिहारी वाजपेयी, बलराज मधोक, जगदीश प्रसाद माथुर सहित उत्तर प्रदेश और बिहार के अनेक मंत्री थे। कुल संख्या 12 थी।
उन दिनों राजेंद्र प्रसाद रोड की 30 नंबर की कोठी में अटल बिहारी वाजपेयी का निवास था। वहीं पंडित दीनदयाल उपाध्याय दिल्ली में आने पर ठहरते थे। उसी कोठी में उनके पार्थिव शरीर को लाकर दर्शानार्थ रखने का निर्णय पहले ही कर लिया गया था। उसके लिए व्यवस्थाएं हो गई थी। उन्हें लेकर जहाज रात सवा ग्यारह बजे पहुंचा। हवाई अड्डे पर जनसंघ के नेता और बड़ी संख्या में नागरिक प्रतीक्षा कर रहे थे। जहाज में पहुंचकर मुख्य कार्यकारी पार्षद विजय कुमार मलहोत्रा, महानगर परिषद के अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी और नगर निगम के उपाध्यक्ष बलराज खन्ना ने अपने दिवंगत नेता को पुष्पांजलि अर्पित की। थोड़ी देर बाद साथ आए नेतागण पंडित दीनदयाल उपाध्याय की अर्थी लिए जहाज से बाहर निकले। उनका बाहर निकलना था कि वहां उपस्थित समूह ने नारे लगाए। ‘अमर शहीद पंडित दीनदयाल उपाध्याय, अमर रहें।’ साथ-साथ रोने-बिलखने की आवाज भी तेज होने लगी।
हवाई अड्डे से बाहर एक एंबुलेंस खड़ी थी। उसमें स्ट्रेचर को रखा गया। एंबुलेंस में ड्राईवर के बगल की सीट पर अटल बिहारी वाजपेयी बैठे और पीछे वच्छराज व्यास, जगदीश प्रसाद माथुर, नाना जी देशमुख और प्रभुदयाल शुक्ल बैठे। वे पहले पड़ाव के लिए चल पड़े। आगे-आगे मोटर साईकिल, स्कूटर और उसके पीछे कारों की कतारें थी। जिसके पीछे एंबुलेंस चल रही थी। रात करीब एक बजे पंडित दीनदयाल उपाध्याय का पार्थिव शरीर 30 राजेंद्र प्रसाद रोड पहुंचा। वहां उन्हें उंचे मंच पर पूरी व्यवस्था से दर्शनार्थ रखा गया। गीता का सस्वर पाठ पहले से ही चल रहा था।
अगले दिन वहां सबसे पहले उपप्रधानमंत्री मोरारजी देसाई पहुंचे। श्रद्धांजलि दी। उसके बाद राष्ट्रपति डा. जाकिर हुसैन, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, लोकसभा अध्यक्ष नीलम रंजीव रेड्डी, उपराश्ट्रपति वी.वी गिरी, केंद्रीय मंत्री फखरूददीन अली अहमद के अलावा आचार्य जेबी कृपलानी, सुचेता कृपलानी, हुमायूं कबीर, जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री बख्शी गुलाम मोहम्मद, चैधरी चरण सिंह जयप्रकाश नारायण और उनकी पत्नी प्रभावती देवी, सरदार स्वर्ण सिंह आदि नेताओं ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय के पार्थिव शरीर पर फूलमालाएं चढ़ाई और श्रद्धांजलि दी। हजारों लोगों ने वहां लगी हुई लंबी कतार में प्रतीक्षा कर अपनी बारी का देर तक इंतजार किया और फिर वे दीनदयाल जी का अंतिम दर्षन कर सके। शोक खुद को वहां सार्थक कर था।————-
उसी शाम शवयात्रा प्रारंभ हुई। दो नारे गूंज रहे थे-‘अमर शहीद पंडित दीनदयाल उपाध्याय अमर रहे’ और ‘भारत माता की जय।’ हजारों लोग शोकाकुल मनोभाव में शव यात्रा के साथ रोते-बिलखते चल रहे थे। राजेंद्र प्रसाद रोड से जनपथ होते हुए कनाॅट प्लेस का चक्कर लगाकर मिंटो ब्रिज से अजमेरी गेट होते हुए चावड़ी बाजार, और नई सड़क से चांदनी चैक घंटाघर के रास्ते ऐतिहासिक शीशगंज गुरूद्वारा से निगम बोध घाट की उस शव यात्रा में पांच घंटे से ज्यादा लगे। जगह-जगह हजारों लोग खड़े थे। फूलमालाओं की वर्षा हो रही थी। बाजार बंद थे लेकिन लोग उमड़ पड़े थे। निगम बोध घाट पर जनसंघ और संघ के नेताओं के अलावा बड़ी संख्या में सांसद और अन्य दलों और राज्यों के नेता उपस्थित थे।
शाम करीब छह बजे पंडित दीनदयाल उपाध्याय का शव उतारकर चबूतरे पर बनाई गई चिता पर रखा गया। श्रद्धांजलि का क्रम प्रारंभ हुआ। सबसे पहले तत्कालीन सरकार्यवाह बाला साहब देवरस आए। उनके बाद उपस्थित खास-खास नेताओं को बुलाया गया। फिर चंदन की लकड़ी रखी गई। हवन सामग्री छिड़की गई। तब ममेरे भाई प्रभु दयाल शुक्ल ने मंत्रोच्चार के बीच मुखाग्नि दी। इस तरह अंतिम संस्कार संपन्न हुआ। उस दौरान अपने प्रिय नेता के असमय जाने की वेदना वहां विविध रूपों में प्रकट हो रही थी। एक हफ्ते बाद अस्थियां संगम में विसर्जित की गई अस्थि कलश लेकर अटल बिहारी वाजपेयी और सुंदर सिंह भंडारी सहित सैकड़ों नेता प्रयाग पहुंचे थे।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय की हत्या के दिन ही भारत सरकार ने जांच सीबीआई को सौंप दी। उस समय सीबीआई के निदेशक जान लोबो थे। उन्हें इमानदार अफसर माना जाता था। वे थे भी। जैसे ही जांच सीबीआई को सौंपी गई। वे अपनी टीम के साथ मुगलसराय पहुंचे। जांच में जुट गए। वे अपना काम पूरा कर पाते उससे पहले ही उन्हें वापस बुला लिया गया। पहली आशंका उसी समय व्यक्त की गई कि जांच की दिशा बदली जा रही है। वह फैसला राजनीतिक था।
केंद्र सरकार के उस रवैए से साफ हुआ कि वह राजनीतिक नफा-नुकसान को ध्यान में रखकर सीबीआई को निर्देश दे रही है। इंदिरा गांधी नहीं चाहती थी कि हत्या का रहस्य खुले और षड़यंत्रकारी बेनकाब हों। सीबीआई ने अपनी जांच रिपोर्ट में बहुत हैरानी की बात कही। उसने हत्या को साधारण अपराध बताया। रिपोर्ट दी कि दो चोर उचक्कों ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय की हत्या कर दी। इरादा उनका चोरी का था। इस पर किसी को विश्वास नहीं हुआ। विश्वास करने का कोई कारण भी नहीं था।
क्योंकि तथ्य दूसरी तरफ इशारा कर रहे थे। सीबीआई की जांच के आधार पर विशेष सत्र न्यायाधीश की अदालत में मुकदमा चला। अदालत ने अपना फैसला सुनाया। सजा दी। विशेष सत्र न्यायाधीश ने एक तरफ सीबीआई की रिपोर्ट पर बिना संदेह किए फैसला सुना दिया। दूसरी तरफ उसने यह कह कर सनसनी पैदा कर दी कि ‘असली सच को अभी खोजा जाना है।’ वह फैसला 9 जून, 1969 को आया। इससे कम से कम दो बातें साफ होती हैं। पहली यह कि अदालत को भी सीबीआई की रिपोर्ट पर भरोसा नहीं था। लेकिन उसके हाथ बंधे हुए थे। वह साक्ष्य कानून के अधीन ही सुनवायी कर सकते थे। दूसरी बात यह कि सीबीआई ने मामले की सतही जांच की। लोगों की आंखों में धूल झोंका। अपने राजनीतिक आकाओं को खुश रखा। सच खोजने की कोशिश ही नहीं की।
अदालत के फैसले में जो टिप्पणी थी उससे फिर एक बार गेंद इंदिरा गांधी की सरकार के पाले में आ गई। वे उस समय प्रधानमंत्री थीं। कम्युनिस्टों के समर्थन से सरकार चला रही थी। उनकी राजनीतिक मजबूरियां थी। लेकिन अदालत की टिप्पणी ऐसी थी कि सरकार को आखिरकार जांच आयोग बनाना पड़ा। उस पर जनदबाव भी जबर्दस्त था। रोज आवाज तेज होती जा रही थी कि सरकार जांच आयोग बनाए। उस मांग ने केंद्र को मजबूर किया। जांच आयोग की नियुक्ति 23 अक्टूबर, 1969 को हुई। अदालत के फैसले के पांच महीने बाद जांच आयोग गठित किया गया। वाई.वी. चंद्रचूड़ जांच आयोग ने सीबीआई की रिपोर्ट को ही आधार बनाया।
पहले यहां याद करना चाहिए कि अदालत ने अपना फैसला जो सुनाया वह क्या था? विशेष सत्र न्यायाधीश ने सीबीआई के इस कथन को फैसले का आधार बनाया। ‘जनसंघ, उसके सूत्रों और अन्य स्रोतों से प्राप्त उन सभी इशारों और वैकल्पिक संभावनाओं की जांच की गई है। लेकिन उन्हें या तो आधारहीन पाया गया है या फिर निरर्थक। इसी कोण से उस आरोप की भी बारीकी से जांच की गई कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय की हत्या में किसी चरम वामपंथी निर्देश की भूमिका रही होगी।’
‘इस संदर्भ में कई आरोपों की जांच की गई, उदाहरणार्थ, (क) कालीकट में जनसंघ के अधिवेशन के दौरान उसमें और वामपंथियों में कड़वाहट। (ख) हत्या से पहले लखनऊ और रांची में वामपंथियों की गुप्त बैठकें, जहां कथित रूप से हत्या की साजिश रची गई। (ग) हत्यारों की तथाकथित कम्युनिस्ट पृष्ठिभूमि और वामपंथ की ओर झुकाव। (घ) कई कथाकथित कम्युनिस्टों की उन दिनों में आवाजाही और हरकतों की भी जांच की गई।’
‘लेकिन उसमें से भी कुछ नहीं निकला। इनमें से प्रमुख थे मुगलसराय के पुलिस अफसर तलाल मेहता, वाराणसी के मुन्नीलाल गुप्त, एसएन तिवारी व आरएस यादव। टिकट चैकर रामदास, वैगन कार्यशाला में फिटर गंगा प्रसाद शर्मा और रूद्रपुर के राजेंद्र रस्तोगी। अमरोहा के डा. तनवीर के उन आरोपों की जांच भी की गई जिनमें उन्होंने दावा किया था कि उन्हें इस घृणित कृत्य के मुख्य पात्रों की जानकारी थी। उनका मानना था कि इसके पीछे कुछ सांप्रदायिक ताकतों का हाथ था। ये वो शक्तियां थीं जो जनवरी 1968 में मेरठ में शेख अब्दुल्ला के दौरे के बाद सक्रिय हो गई थीं। लेकिन ये सभी आरोप भी आधारहीन पाए गए।’
‘जनसंघ के आपसी विवादों की कहानियों के संदर्भ में सांसद भदोरिया और जौनपुर के राजा से भी पूछताछ की गई। लेकिन कोई नतीजा नहीं निकाला।’
इस खंड के परिशिष्ट 6,7 और 8 में क्रम से तीन दस्तावेज हैं। पहला टाइम्स आफ इंडिया का वह समाचार है जो जून 9 को 1969 में लिखा गया और अगले दिन अखबार में छपा। यही होता भी है। इस तरह खबर 10 जून को छपी। इसमें बताया गया है कि अभियुक्त भरत और रामअवध को हत्या के आरोप से बरी कर दिया गया। हालांकि भरत ने हत्या करने का अपना अपराध कबूल किया। लेकिन उस पर विश्वास नहीं किया गया। स्पष्ट है कि सीबीआई हत्या के प्रमाण नहीं दे सकी। क्या वह प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के मौखिक निर्देशों का पालन कर रही थी? यह सवाल अब तक अनुत्तरित है।
परिशिष्ट 7 में पोस्टमार्टम रिपोर्ट दी गई है। परिशिष्ट 8 में विषेश सत्र न्यायाधीश के आदेश का कार्यात्मक अंश दिया गया है। जिसमें विशेष सत्र न्यायाधीश ने रामअवध को बरी कर दिया। भरत को चोरी करने के आरोप में चार साल की सजा इसलिए सुनाई कि वह सुधर जाए। विशेष सत्र न्यायाधीश ने नानाजी देशमुख के संदेह पर ध्यान नहीं दिया। उन्होंने कहा था कि सीबीआई ने जांच को भटका दिया। पंडित दीनदयाल उपाध्याय की हत्या राजनीतिक षड़यंत्र थी। रामअवध और भरत पेशेवर चोर थे। वे मुगलसराय यार्ड में छोटी-मोटी चोरी करते रहते थे। इस जुर्म में कई बार जेल की सजा भी काट चुके थे। सीबीआई को अगर ईमानदारी से अपना काम करने दिया जाता तो वह उस षड़यंत्र को बेपर्दा कर सकती थी। यह कहने का एक ठोस आधार है।
जैसा कि उपर आप पढ़ चुके हैं। विशेष सत्र न्यायाधीश ने भरत को चार साल की सजा सुनाई। जिससे उसका सुधार हो सके। वह अपनी चोरी की आदत जेल में रहते हुए सोच-विचार कर छोड़ दे। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। उसकी सजा 1973 में समाप्त हो गई होगी। लेकिन इमरजेंसी के दौरान वे दोनों (भरत और रामअवध) वाराणसी के शिवपुर स्थित सेंट्रल जेल में किसी दूसरे अपराध में सजा काट रहे थे। शातिर अपराधियों के साथ उन्हें अपराधी बंदियों के बैरक में रखा गया था। जहां जाने पर हमें उनका पता चला।
उन दिनों हम 17 राजनीतिक बंदियों को उसी जेल में अलग एक बड़ी बैरक में जिला जेल से स्थानांतरित किया गया था। उन 17 लोगों में मेरे अलावा एक लालमुनी चैबे भी थे। जिन्होंने जेपी आंदोलन के एक चरण में बिहार विधान सभा की सदस्यता छोड़ी थी। हम लोग जिला जेल चौका घाट से एक शिकायत के आधार पर वहां कड़े पहरे में भेजे गए। वहां कुछ दिन गुजारने के बाद मैंने जेल अधीक्षक से कहा कि अगर हो सके तो पुस्तकालय में आने-जाने की सुविधा करा दें और वहीं कुछ बंदियों को पढ़ाना भी चाहता हूं। अधीक्षक ने अनिच्छा पूर्वक इसकी अनुमति दी। उसके लिए एक व्यवस्था बनाई। जिससे हमारा पुस्तकालय में आना-जाना शुरू हुआ। उसी सिलसिले में वे दोनों खोजे जा सके। फिर हमने उन दोनों से बातचीत शुरू की।
सीबीआई ने भी अपनी रिपोर्ट में बताया था कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय की हत्या से तीन दिन पहले भरत वाराणसी के जिला जेल से छूटा था। वहीं रामअवध उस समय के बिहार के आरा जिले की भबुवा जेल से दो दिन पहले ही छूटा था। भबुवा जेल में रहने के कारण लालमुनी चौबे के नाम से वह परिचित था। जहां चौबे जी को लोग बाबा कहकर बुलाते थे। बातचीत में वे दोनों भी उन्हें ‘बाबा’ कह कर ही आदरपूर्वक संबोधित करते थे। जब वे खुलने लगे तब एक दिन दोनों ने कहा-‘हमसे महापाप हो गया।’ घटना के बाद वे जान सके थे कि हत्या जिनकी उन सबने की वे एक महापुरूष थे। अपना कुकर्म कबूलते हुए पश्चाताप का भाव उनके चेहरे पर उतर आता था। हत्या को भरत ने अदालत में भी कबूला था। लेकिन उसके सबूत सीबीआई को जुटाना था, जो उसने नहीं किया।
क्या उन्हें कुछ दिन पहले इसी काम के लिए जेल से छुड़वाया गया था? अगर ऐसा था तो इसके सूत्रधार कौन थे? इसकी तह में जितना दूर तक जाने की जरूरत थी उतना न सीबीआई ने छानबीन की और न चंद्रचूड़ आयोग ने। जहां तक उन अपराधियों का सवाल है वे यह नहीं बोलते थे कि इस्तेमाल हो गए। पर उनका हाव-भाव यही बताता था। सीबीआई और जांच आयोग दोनों इस नतीजे पर अपनी रिपोर्ट में पहुंचते हैं कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय को मुगलसराय में चलती ट्रेन से बाहर धक्का दिया गया। वे खंबे से टकराए। उन्हें जो चोट लगी उससे मृत्यु हो गई।
इस निष्कर्ष को कहीं से भी तार्किक नहीं ठहराया जा सकता। अदालत और आयोग की सुनवाई के दौरान जनसंघ के वकील और अपराधिक मुकदमों के माहिर चरण दास सेठ ने जो सवाल उठाए वे आज भी जस के तस बने हुए हैं। पहला सवाल यही है कि खंबे से टकराने और भयानक चोट लगने के बावजूद मौके पर खून का एक भी कतरा क्यों नहीं पाया गया? पोस्टमार्टम रिपोर्ट में पाया गया कि उनके सिर पर इतनी चोट थी कि खोपड़ी टूट गई थी। सात पसलियां टूटी थी। इसी तरह टखनो के ऊपर दोनों पैर की हड्डियां टूट गई थी। ऐसी चोटें जिस शरीर में लगी हो उससे खून का एक कतरा भी न बहे, ऐसा कैसे हो सकता है?
इसलिए जनसंघ के वकील चरण दास सेठ का यह कहना सही लगता है कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय की हत्या एफसीटी बोगी के कूपे में की गई। उसके बाद उन्हें ट्रेक्षन खंबा नंबर 1276 के नजदीक रख दिया गया। जिस कूपे में पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने यात्रा की उसमें फिनायल का एक बोतल मिला। साधारण समझ से भी कोई छानबीन करे तो उसे तुरंत ख्याल में आएगा कि कूपे में लगे खून के छींटे को साफ करने के लिए उसका उपयोग किया गया होगा। इस आधार पर हत्या की कहानी बदल जाती है।
इसी तरह यह रहस्य भी बना ही रहा कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय की हत्या यात्रा के दौरान कहां पर की गई। भरत और रामअवध से इस कोण पर सीबीआई ने पूछताछ क्यों नहीं की। जेल में बातचीत जो हुई उससे हमारा मत यह बना कि वाराणसी और मुगलसराय के बीच में पंडित दीनदयाल उपाध्याय की हत्या की गई। चंद्रचूड़ आयोग ने इतना तो माना कि वाराणसी में कोई अजनबी उस बोगी में मौजूद था। आयोग की रिपोर्ट में है कि-‘अधिक से अधिक यही कहा जा सकता है कि ऐसा होने की संभावना अधिक है।’ इसकी भी चंद्रचूड़ ने पूरी जांच नहीं की। निष्कर्ष यह सुनाया कि ‘पंडित दीनदयाल उपाध्याय अंतिम बार केवल जौनपुर में ही जीवित देखे गए। वाराणसी में उनका जीवित रहना सिद्ध नहीं होता।’
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ आयोग की रिपोर्ट के एक अंश में यह तो माना गया कि हत्या बहुत रहस्यमय थी, लेकिन उसके निष्कर्ष उससे ज्यादा हैरत अंगेज बन गए। पहले रिपोर्ट के इस हिस्से को पढ़ें- ‘मुगलसराय पर जो कुछ हुआ वह अंशों में कहानी से भी ज्यादा अनोखी है। मुगलसराय स्टेशन पर अनेक व्यक्तियों ने संदेह उत्पन्न करने वाला आसामान्य बर्ताव किया। जो कुछ उन्होंने किया ऐसी तुलनात्मक परिस्थितियों में सामान्य मानवीय बर्ताव की आशा के विपरीत था। इसी प्रकार, मुगलसराय की कुछ घटनाएं असामान्य संरचना में बुनी हुई हैं। जब मानव और घटनाओं के बारे में सामान्य आशाएं झुठलाई जाती हैं, संदेह उठ खड़े होते हैं।’ ‘इस मामले में ऐसे संदेहास्पद हालात का अंत नहीं है। इन सब से एक ऐसे घटाटोप का निर्माण हो रहा है जो वास्तविक मसले को ढक लेना चाहता है।’ इसे आयोग ने इन शब्दों में संतुलित करने और अपने को आक्षेप से बचाने की कोशिश की। ‘सावधानीपूर्वक जांच-पड़ताल करने से दृष्टि को स्पष्ट करना तथा पूर्व में जो धुंधली तस्वीर दिखाई देती थी उसकी तर्कसंगत व्याख्या संभव हो गयी है।’
इससे यह उम्मीद बनी कि आयोग सही निष्कर्ष पर पहुंचाएगा। पर वैसा हुआ नहीं। जांच-पड़ताल के दौरान न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने स्वयं जिन रहस्यों को उजागर किया उसे भी एक तार्किक परिणति तक उसने नहीं पहुंचाई। इसका एक उदाहरण ही काफी है। आयोग ने गौर किया कि मुगलसराय पर दुर्भाग्यवश एफसीटी बोगी का गलत ढंग से जोड़ा जाना। उन्होंने कहा, ‘अगर एफसीटी बोगी उचित रूप से सिआलदाह एक्सप्रेस के सबसे अंत में जोड़ी जाती तो उस ट्रेन से इसको अलग करने और तूफान एक्सप्रेस से जोड़ने के लिए मात्र 8 परिचालन करने पड़ते। परंतु गलत ढंग से जोड़ दिए जाने के कारण 6 परिचालन और आवश्यक हो गए। इन 6 परिचालनों में 10 मिनट और लग गए। इस तरह शंटिंग में सामान्य से 10 मिनट और अधिक लगे। पथन परिचालन में कुल समय 30 से 35 मिनट लगा जबकि समान्यतः 20 अथवा 25 मिनट लगने चाहिए थे।’
आयोग ने शंटिंग को काफी महत्व दिया। उसे विलंब में कोई साजिश दिखी। इसलिए इन शब्दों में शंटिंग की प्रक्रिया के बारे में लिखा-‘मुझे शंटिंग जैसी फालतू प्रक्रिया पर उतना व्यापक विवरण प्रस्तुत करने से बचना चाहिए था। परंतु यह संभव न हो सका। मृत शरीर, शंटिंग परिचालन के दौरान ही पाया गया था और शंटिंग दल के सदस्यों ने इस बारे में कि उन्होंने मृत शरीर को कब देखा परस्पर विरोधी बयान दिए थे। शंटिग विधि के प्रकाश में शंटिग दल का सर्वोत्तम परीक्षण हो सकता है।’ क्या वे अपने निष्कर्ष के लिए इसे आधार बना रहे थे? तभी तो उन्होंने यह हिस्सा भी लिखा-‘एक लिहाज से, जनसंघ के उस आरोप की जांच कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय की हत्या एफसीटी बोगी में ही की गई और बाद में उनकी लाश ट्रेक्षन खंबे के पास रख दी गई, पायलट और उसके दल की गतिविधियों के परिदृष्य में ही की जा सकती है।’
आयोग की रिपोर्ट का यह हिस्सा ध्यान से पढ़ने लायक है-‘समस्त घटनाक्रम का तानाबाना प्रथम दृश्टया जेम्स बांड की किसी दिल दहला देने वाली फिल्म से कम नहीं है। मेजर एस.एम. शर्मा का नाम एक बार नहीं दो बार अशुद्ध लिखा गया, यहां तक कि उसका टिकट नंबर भी गलत लिखा गया। यद्यपि उसका विवाह कुछ ही दिन पूर्व हुआ था। फिर भी उसने अपनी यात्रा की तिथि को पहले सरका लिया, एम.पी. सिंह के साथी यात्रियों तथा कंडक्टर बी.डी. कमल द्वारा परस्पर विरोधी बयान देना, मृत शरीर की स्थिति का बदला जाना, मृतक के पाकेट में एक वैध टिकट का मिलना, जिससे कि उसकी पहचान आसानी से की जा सकती थी, इन तथ्यों के बावजूद उनके शरीर का तुरत-फुरत निपटारा करने का प्रयास करना, कम्पार्टमेंट से फिनायल की बोतल का मिलना, चोटों का अजीब-सा होना तथा ऐसे ही अनेक प्रश्न प्रत्येक मुहाने पर आसामान्यता को प्रदर्षित करते हैं। दिलचस्प बात यह है कि हर कदम पर किसी न किसी रेलवे कर्मचारी का शामिल होना पाया जाता है।’
आयोग की रिपोर्ट के इन अंशों से एक आशा पैदा होती है। लेकिन तुरंत वह गहरे निराशा में बदल जाती है। क्योंकि आयोग ने अपने ही उठाए सवालों को जस का तस छोड़ दिया। उसने साजिश के ताने-बाने की जांच ही नहीं की। अगर आयोग कोशिश करता तो भरत और रामअवध को कठपुतली की तरह जिन ताकतों ने नचाया वहां वह पहुंच सकता था। उस दिशा में आयोग की जांच बढ़ी ही नहीं। हर जांच आयोग एक लाइन पर काम करता है। कई बार शुरू में वह विरोधाभासी लाइन लेता है उससे आयोग को एक स्पश्ट दिशा अपनाने के आधार मिल जाते हैं। जिन आयोगों ने बढ़ियां काम किया है वे इसी तरह की जांच के लिए जाने जाते हैं। चंद्रचूड़ आयोग ने अपनी ऊर्जा इस पर ही खर्च कर दी कि ट्रेन की बोगी से धकेले जाने के कारण पंडित दीनदयाल उपाध्याय का दुर्घटनावश निधन हो गया। इसी लक्ष्य के लिए आयोग ने जनसंघ की सूचनाओं को महत्व नहीं दिया। बल्कि उसके खंडन में ही अपना वक्त गंवाया। याद करना चाहिए कि जनसंघ के अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी ने आयोग की जांच में मदद के लिए नानाजी देशमुख की एक समिति गठित की थी।
जब आयोग गठित हुआ था तब चंद्रचूड़ ने स्वयं एक बात कही थी। कहा था- ‘विद्वान सत्र न्यायाधीश के हाथ बंधे हुए थे। साक्ष्य अधिनियम के प्रावधानों के ही अधीन वे काम कर रहे थे। इस कारण वे उन तथ्यों तक नहीं पहुंच सकते थे जो सच को उजागर करने के लिए जरूरी थे। मैं इन पाबंदियों से नहीं बंधा हूं क्योंकि साक्ष्य के नियम उतनी कठोरता से आयोग पर लागू नहीं होते।’ इस धूप-छांव के खेल को आषा-निराशा के उतार-चढ़ाव में आयोग की अपनी गतिविधियों से समझा जा सकता है। उसने दिखावे बहुत किए। आयोग मौके पर भी गया जहां मृत शरीर पड़ा हुआ देखा गया था। आयोग ने जो सवाल उठाए उसकी छानबीन ही नहीं की। सबसे महत्वपूर्ण सवाल तो पंडित दीनदयाल उपाध्याय के शरीर पर लगे चोटों से जुड़ा हुआ था। वह यह कि क्या बहुत धीमी रफ्तार में पहुंची ट्रेन से धकेले जाने पर खंबे से टकराने के कारण वैसी चोट लग सकती थी जैसी लगी थी? इसका अगर आयोग उत्तर खोज लेता तो रहस्य सामने आ जाता।
इस बारे में चंद्रचूड़ ने जो सफाई दी वह उनके विचार और जांच की दिशा को स्पष्ट करने के लिए काफी है। उनका कथन था-‘अगर पंडित दीनदयाल उपाध्याय की हत्या में राजनीतिक षड्यंत्र है तो मुझे शंड्यंत्रकारियों के नाम पहचानने की जरूरत नहीं है। मैं अपनी जांच-पड़ताल की सीमा जानता हूं। मैं यह खोजबीन नहीं कर सकता कि हत्या किसने की।’ इस लक्ष्मण रेखा में चंद्रचूड़ बने रहे। उन्होंने दूसरे विकल्प खुलने ही नहीं दिए। अगर ऐसा करते तो भरत और रामअवध से तथ्य निकलवा पाते। फिर उसके आगे जाने का रास्ता खुलता और पता लग सकता था कि उनके पीछे कौन लोग थे। स्पष्ट है कि अदालत की भांति आयोग ने भी निर्णय सुनाने में रूचि ली, न्याय में नहीं।