कल तक जो अमेरिकी संस्थाएं और अखबार चीन का गुणगान करने में लगे हुए थे और उसे विश्व अर्थव्यवस्था का इंजन बता रहे थे, आज वे भारत का गुणगान करने में लग गए हैं। अमेरिकी संस्थाएं अब चीन को एक अनधिकृत प्रतिद्वंद्वी की तरह देख रही हैं। डोनाल्ड ट्रम्प को लगता है कि चीन ने उनसे उनके कारखाने छीन लिए हैं और उनकी उन्नत प्रोद्यौगिकी की नकल करके जो सामान बना रहा है, उससे वह अमेरिकी बाजारों को पाटे हुए है। वह अमेरिका से खरीदता कम है, उसे अपना सामान बेचता अधिक है। इससे वह तो अमेरिकी बाजार का फायदा उठा रहा है, लेकिन अमेरिका को अपने बाजार का फायदा नहीं उठाने दे रहा।
चीन को धमकाते हुए ट्रम्प कह चुके हैं कि वे उसके सामान पर सीमा शुल्क लगाने और बढ़ाने वाले है। उलटकर चीन भी अमेरिकी सामान पर उसी अनुपात में सीमा शुल्क लगाने की धमकी दे चुका है। ऊपरी तौर पर यह आर्थिक प्रतिद्वंद्विता दिखाई देती है। पर वह तेजी से राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता में बदलती जा रही है। चीन अमेरिका से जो सामान मंगाता है, उसमें से कुछ तरह के सामान के उसने विकल्प भी खोजने शुरू कर दिए हैं। इस सिलसिले में वह भारत की तरफ भी देख रहा है। भारत को भी चीन से यही शिकायत रही है कि वह भारतीय बाजार को अपने सामान से तो पाट रहा है, लेकिन भारतीय सामान के लिए अपने बाजार नहीं खोल रहा। सोयाबीन आदि के लिए अब चीन अपने बाजार के नियम कुछ ढीले कर रहा है, पर यह बहुत मामूली कदम है। उससे भारत और चीन का व्यापार असंतुलन कम नहीं होने वाला।
हमारे यहां मनुष्य की छवि एक उपभोक्ता के रूप में कभी नहीं रही। मनुष्य स्वभाव से उत्पादक है। वह अपनी शक्ति और कौशल के अनुरूप उत्पादन करता है। लेकिन उपभोग के मामले में उसका आदर्श संयम रहा है। अपनी भौतिक आवश्यकताओं को पूरा करो, लेकिन लोभपूर्वक नहीं, संयम पूर्वक।
चीन से अपनी प्रतिद्वंद्विता में अमेरिकी संस्थाएं और अखबार जिस तरह भारत की पीठ ठोकने में लगे हुए हैं, उससे काफी सावधान रहने की जरूरत है। भारत की विकास दर को लेकर अमेरिकी संस्थाओं और अखबारों द्वारा जो टिप्पणियां की जाती हैं, उन्हें पढ़कर हमारे शासक और विशेषज्ञ फूलकर कुप्पा हो जाते हैं। उदाहरण के लिए अभी अमेरिकी अखबारों में एक अध्ययन का हवाला दिया जा रहा है, जिसे ब्रूकिंग्स इंस्टीट्यूट ने करवाया है। उसके अनुसार भारत बहुत तेजी से अपने लोगों को गरीबी से निकाल रहा है। इस अध्ययन का मानना है कि भारत में हर मिनट 44 अत्यंत गरीब लोग उस स्थिति से उबरते जा रहे हैं। यह रफ्तार बनी रही तो 2022 तक भारत की जनसंख्या में अत्यंत गरीब लोगों का अनुपात केवल तीन प्रतिशत रह जाएगा। उसके बाद 2030 तक भारत अपनी समूची गरीब आबादी को उस अवस्था से पूरी तरह निकालने में सफल हो जाएगा। इस अध्ययन में अत्यंत गरीबी की व्याख्या व्यक्ति की खरीदने की क्षमता से की गई है। जिसके पास एक दिन में खर्च करने को 1.9 अमेरिकी डॉलर के बराबर धन है, वह गरीब नहीं है। जिसके पास खर्च करने के लिए इतना पैसा नहीं है, वह अत्यंत गरीब है। हमारे यहां इस तरह के अध्ययन सामने आते ही बहस शुरू हो जाती है। कुछ कहते हैं कि गरीबों का अनुमान कम करके लगाया गया है। कुछ दूसरे लोग कहते हैं कि अध्ययन भारत की आर्थिक नीतियों को सही साबित कर रहा है। भारत ठीक दिशा में आगे बढ़ रहा है। अब भारत कुछ दिन में संसार के समृद्ध देशों में गिना जाने लगेगा।
अपने देश को संसार के समृद्ध देशों में देखने की आकांक्षा अनुचित नहीं है। लेकिन हमें सबसे पहले तो यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि अमेरिकी संस्थाएं और अखबारों को इस बात में दिलचस्पी नहीं है कि भारत के लोग कितने खुशहाल हैं, कितने नहीं। अमेरिकी लोगों ने मनुष्य की एक छवि बना ली है। यह छवि उपभोक्ता की छवि है। मनुष्य की साथर्कता सिर्फ इस बात में है कि वह कितना बड़ा उपभोक्ता हो सकता है! हालांकि डोनाल्ड ट्रम्प खुद इस छवि से पैदा हुई समस्याएं देख रहे हैं। यह छवि मुख्यत: पूरी दुनिया को अमेरिकी सामान का बाजार बनाने के लिए उकेरी गई थी। फिर अमेरिकी खुद इस छवि के जाल में फंस गए। अमेरिका का आज हम जो चमचमाता हुआ स्वरूप देखते हैं, वह 1950 और 1970 के बीच बना है। असल में दो महायुद्धों के बीच विनाश यूरोप का हुआ। लेकिन उसका फायदा अमेरिका को मिला। उसने दोनों महायुद्धों के दौरान खूब युद्ध सामग्री बेची। जब युद्ध समाप्त हो गए तो अमेरिका के औद्योगिक तंत्र को अपना ध्यान युद्ध सामग्री की जगह नागरिक जरूरतों की चीजें बनाने की ओर मोड़ना पड़ा। आज हम अपने जीवन में जो औद्योगिक सामान देखते हैं, वह दरअसल युद्ध सामग्री बनाने वाले औद्योगिक तंत्र का शांतिकालीन उपयोग करने के दौरान विकसित हुआ है। 1970 तक अमेरिका ने अपने और यूरोप के नागरिकों को औद्योगिक सामान की लत लगा दी। इस व्यापार से अमेरिका का शासक वर्ग संसार का सबसे समृद्ध वर्ग हो गया। लेकिन उन्हीं दिनों औद्योगिक सामान बनाने की प्रक्रिया में जो प्रदूषण होता है, उसके विरुद्ध आवाज उठी। मजदूर यूनियनें भी नाक में दम करने लगी। इसलिए अमेरिका ने अपने प्रदूषण फैलाने वाले कल-कारखाने चीन और अन्य एशियाई देशों में स्थानांतरित करवा दिए। अब उन्हीं स्थानांतरित कारखानों का सामान अमेरिका की समस्या बन गया है।
अमेरिकी सोचते थे कि व्यापार से समृद्ध हुई बहुराष्ट्रीय कंपनियां उसके सभी लोगों की समृद्धि बनाए रखेंगी। क्योंकि अधिकांशत: यह कंपनियां ही अन्य देशों में सस्ते श्रम का इस्तेमाल करके सस्ता सामान बना रही थी। लेकिन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मुनाफे साधारण अमेरिकियों की जेब तक नहीं पहुंचे। 2008 में अचानक अमेरिकियों को अहसास हुआ कि कल-कारखाने बाहर भेजकर उन्होंने अपने लोगों के कामधंधे समाप्त कर दिए हैं। अब उनके पास खरीदने की पर्याप्त शक्ति नहीं है। तब यह कहा जाने लगा कि उपभोक्ता होने के लिए उत्पादक होना भी आवश्यक है। इसी से ट्रम्प ने यह राजनीतिक नारा लगाया कि अमेरिकी कल-कारखाने वापस अमेरिका में खड़े किए जाएंगे। यही अमेरिका और चीन के बीच चल रहे व्यापार युद्ध की जड़ है। लेकिन भारत जैसे देशों को अमेरिकी अभी भी अपने विकसित होते हुए बाजार के रूप में ही देखते हैं। भारत को विश्व अर्थव्यवस्था का नया इंजन बताने का अर्थ है कि उसे औद्योगिक देशों की वस्तुओं के और बड़े बाजार के रूप में विकसित होना है। गनीमत है कि हमने चीन जैसी गलती नहीं दोहराई और अपनी अर्थव्यवस्था विदेश व्यापार पर केंद्रित नहीं की। इससे हमारी समृद्धि कुछ देर में आएगी। पर वह हमारे अपने उद्योग-धंधों के भरोसे होगी। दूसरी बात यह है कि औद्योगिक वस्तुएं अपने आपमें उन्नत जीवन का पैमाना नहीं हैं। हमारे लिए उन्नत जीवन का अर्थ केवल आर्थिक समृद्धि नहीं है। हमारे जीवन का लक्ष्य आर्थिक के साथ-साथ सामाजिक और आध्यात्मिक भी होता है। ऐसी सर्वतोन्मुखी उन्नति ही हमारा लक्ष्य रहनी चाहिए।
हमारे यहां मनुष्य की छवि एक उपभोक्ता के रूप में कभी नहीं रही। मनुष्य स्वभाव से उत्पादक है। वह अपनी शक्ति और कौशल के अनुरूप उत्पादन करता है। लेकिन उपभोग के मामले में उसका आदर्श संयम रहा है। अपनी भौतिक आवश्यकताओं को पूरा करो, लेकिन लोभपूर्वक नहीं, संयम पूर्वक। इसलिए व्यक्तिगत जीवन में सादगी को ही हमारे यहां सम्मान दिया जाता रहा है, तड़क-भड़क को नहीं। मनुष्य अपने सहज स्वभाव में रहे तो संसार के सभी लोग ऐसा ही सोचेंगे। लेकिन स्वभाव पर विचार और शासक वर्ग की इच्छाएं आरोपित होती रहती है। हमारी सभ्यता में मूल आवश्यकताओं की पूर्ति इतनी सहज सुलभ रखी गई है कि कोई उनका अभाव अनुभव न करे। भोजन, वस्त्र और आवास सदा सबको उपलब्ध रहे, यही हमारी समृद्धि की पहली और अनुलंघनीय मर्यादा रही है।
भोजन को पोषणयुक्त बनाए रखने के लिए कितने विशद् प्रयोग किए गए हैं, इसे पूर्वी भारत में घर के लिए प्रचलित ‘बाड़ी’ शब्द से जाना जा सकता है। बाड़ी वृद्धि का समानार्थी शब्द है और जिस घर में भोजन को पोषक बनाए रखने वाले सभी शाक और पेड़ घर के दायरे में ही हों, वही बाड़ी है। वहां घर कोई नहीं कहता, सब घर को बाड़ी कहते हैं। राजा का महल भी राजबाड़ी है। माता का मंदिर माताबाड़ी है। ऐसा बाड़ी शब्द को प्रतिष्ठा देने के लिए हुआ है। स्वेच्छा से भिक्षा का निर्वाह करने वाले साधक हमारे यहां सबसे अधिक सम्मानित रहे हैं। घर के द्वार से किसी भिक्षु को खाली हाथ लौटाना महापाप समझा गया है। दरिद्र होने की मुख्य व्यंजना यह नहीं है कि वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पा रहा। बल्कि यह है कि वह दूसरों को देने के अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करता या कर पा रहा। भारत में आबादी का एक प्रतिशत साधु-संन्यासी रहे हैं। अमेरिकी गणना में वे अत्यंत गरीब बताए जाएंगे। लेकिन भारत में वे सबसे सम्मानित व्यक्ति हैं। कोई उन्हें निर्धन की कोटि में डालने की बेवकूफी नहीं कर सकता। अपनी सभ्यता की इन विशेषताओं को हमें बचाए रखना है। इसलिए उस समृद्धि से बचना चाहिए, जो अमेरिकी कल्पना पर आधारित है।