मिर्जा गालिब का भी था पसंदीदा ठिकाना –कूचा ए बीवी गौहर
#कुछ निशानियां, कुछ फसाने
# गुलजार महफिलों की दास्तान
चावड़ी बाजार से कई बार गुजरना हुआ, लेकिन कभी ध्यान से न देखने का मौका मिला और न जानने- बूझने का। घुमक्कड़ मिजाजी के साथ आज इन्ही तंग गलियों में ही कुछ गड़े हुए फसानों को तलाशने के लिए निकले हैं। अब इन फसानों को सुन कर पता नहीं अच्छा महसूस होना चाहिए या खराब यह आप पर छोड़ती हूं। तो यह फसाना है चावड़ी बाजार के उन रक्कासाओं की जिनसे यह बाजार गुलजार थीं, या यूं कहिए उनके नाम का सिक्का चला करता था। लोगों की जुबान पर तो कुछ फसाने हैं हीं लेकिन इस बाजार में मौजूद कुछ पुरानी हवेलियों की लाकौरी ईंटों और बनावट में भी दशकों पुराने फसाने करीने से गढ़े हुए हैं।
जर्र जर्र हो चुकी हवेलियों के छज्जे दशकों पुराने दिन और रातों की रंगनियत की कैफियत को कैद किए हुए है। उन्नीसवी-बीसवीं सदी के दिनों में चावड़ी बाजार की पहचान रक्कासाओं से थी यह यहां के पुराने लोग बखूबी जानते हैं। पर कौन कौन सी रक्कासा यहां थी उसकी जानकारी भी जुटाने की इच्छा हुई। यह भी जानने की लालसा हुई कि कैसे यहां दिन में सन्नाटा पसरता होगा और कैसी रंगीन शामें हुआ करती होंगी क्योंकि तब तो आज की तरह रंगीन चमचमाती लाइटें होगी नहीं और न ही बड़े बड़े स्पीकर होंगे। तो चच्चा मसूद खान बताते हैं कि उन दिनों की बात ही कुछ और थी, सुरीले गीत संगीत की महफिलें लोगों को खींच ही लाती थी यहां। कुछ महफिलें तो खास थी जैसे बेगम फिरदौस, नरगिस और बीबी गौहर की महफिलें। शायद चावड़ी बाजार में करीब सौ- डेढ सौ तवायफों की महफिलें हर रोज सजा करती थीं। गलियां बदनाम थी लेकिन इनकी अहमियत और शानोशौकत की तस्दीक इनकी हवेलियों की बनावट ही करती हैं। तवायफ बीवी गौहर का तो कूचा ही था जो आज भी चावड़ी बाजार से बल्लीमारन वाली सड़क पर मौजूद है।
इनकी कहानियां यहां के कई बुजुर्गों आज भी कर लेते हैं। कार्ड की दुकान चलाने वाले रौशन सेठ बताते हैं कि मौजूदा समय से तकरीबन 60 साल पहले तक यहां बीबी गौहर के कूचे की बहुत चर्चे हुआ करते थे। उस जमाने के मशहूर शायर मिर्जा गालिब का भी यह पसंदीदा ठिकाना रहा था। जब उनके पास पैसे नहीं भी रहते थे तो भी कुछ रक्कासाओं के कोठे पर वे मुफ्त में भी जाया करते थे। बदले में गालिब इन तबायफों के लिए कुछ शेर लिख दिया करते थे जिन्हें वे अपनी महफिलों में गुनगुनाया करती थीं। वे बेगम फिरदौस की खूबसूरती के कायल थे। कुछ शेरों में तो बेगम फिरदौस का जिक्र भी है। यकीनन बेगम फिरदौस काफी सुंदर रहीं होंगी और अच्छी फनकार भी। उनके गीतों की मिठास इस कदर थी कि लोग उन्हें सुनने दूर दूर से आया करते थे।
चावड़ी बाजार की सड़क के दोनों ओर बनीं हवेलियों की अटरियां, झरोखे, सुंदर नक्काशी वाले छत्ते दशकों पुरानी इतिहास की गवाही देते हैं। अब हवेलियां दुकानों में तब्दील हो चुकी है लेकिन इनके कुछ दरवाजे, दरीचों के नीचे बैठे बुजुर्ग आज भी पुरानी कहानियां सुना देते हैं। बकौल चचा मसूद कूचा ए बीवी गौहर—एक ऐसा कूचा रहा था जिसका वजूद समय की सीलन में समा गया है लेकिन फिरदौस बेगम की खूबसूरती के चर्चे लोगों के जुबान पर आज भी हैं। वे तबायफों में काफी रईस हुआ करती थी, इसलिए अपने नाम का कूचा ही बसा लिया। बल्लीमारन में भी अकसर मिर्जा गालिब इनकी खूबसूरती का जिक्र करते पाए जाते थे और ये किस्से कुछ 60 दशक तक हकीकत बन कर इन गलियों में रहें भी। देश की आजादी के बाद भी यहां रहने वाली हुस्न की मल्लिकाओं का राज था। कहा तो ये भी जाता है कि आजादी के लड़ाई में भी कई तबायफों ने अपना योगदान दिया था। यहां एक रंडी की मस्जिद भी है जिसे अब सिर्फ मस्जिद के नाम से ही पुकारा जाता है। मौजूदा समय से अगर 100 साल भी पीछे फ्लैश बैक में जाए तो इस गली की रंगत और रुतबे का अंदाजा लग सकता है। चावड़ी बाजार के दोनों ओर बनीं आलिशान हवेलियों के अटरियां में मुगलियां नक्काशी का काम आज भी देखा जा सकता है। सागवान की लकड़ियों पर बनीं बेल बूटों में ओर मशाल से रौशन इस सड़क पर बनी आलिशान हवेलियों और उनकी अटरियों पर बने कलाकृतियों से ही पता लग जाता है। मौसिकी और शेरो शायरी की महफिलें तो 70-80 के दशकों तक भी सजती रहीं है। चावड़ी मतलब एक सार्वजनिक अड्डा जहां गीत संगीत का बाजार था… अब यहां हार्डवेयर का बाजार है, शोर-शराबा, भीड़भाड़, चिलपो और बस कुछ नहीं।