पिछले दिनों ऑल इडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) द्वारा ईशनिंदा कानून बनाने की मांग की गयी. बोर्ड का कहना था कि देश में पैगंबर मोहम्मद साहब और अन्य पवित्र धार्मिक प्रतीकों का अपमान करने वाली घटनाओं में बढ़ोतरी को देखते हुए ऐसा कानून लाना जरूरी है। दूसरी ओर उसी समय पाकिस्तान के सियालकोट की एक फ़ैक्ट्री में 2012 से कार्यरत श्रीलंकाई नागरिक प्रियांथा कुमारा को उन्मादी भीड़ ने ईशनिंदा के आरोप में पीट-पीटकर मार डाला और बाद में उनके शव को जला दिया. दो अलग मुल्कों में घटी इन घटनाओं में क्या समानता हो सकती है? स्पष्टया पाकिस्तान में जो हुआ है, भारत में उसकी पृष्ठभूमि तैयार की जा रही है.
ऐसे भारत की कल्पना कीजिये जहाँ ईशनिंदा कानून लागू हो जाए, आपको हर रोज उन्मादी धार्मिक नारे लगाती भीड़ किसी को सड़क पर जिंदा जला रहीं होंगी, कहीं किसी को चौराहे पर खड़ा कर पत्थरों से मारा जा रहा होगा तो कहीं हाथ- पाँव काटे जा रहे होंगे. आखिर ऐसे लोग मानव सभ्यता को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं ? ऐसे ही 2018 में ऑल इंडिया मुस्लिम लॉ बोर्ड (AIMPLB) की ओर से देश में हर जिले में शरिया अदालतें (दारुल कजा) खोलने की घोषणा की, मतलब देश अब संविधान से नहीं आसमानी किताब के विधान से चलेगा.
कहते हैं पृथ्वीचक्र परिवर्तनशील है और पृथ्वी गतिशील. लेकिन इस्लामिक लोग इसे गलत साबित करके रहेंगे. उन्हें परिवर्तन नहीं चाहिए, वो आज भी मध्ययुगीन बर्बर नियमों वाले समाज में जीना चाहते हैं. दुनिया प्रगति करना चाहती और मुसलमान मध्य युग में जीना चाहते हैं. ये उनकी अपनी निजी ख्वाहिश हो सकती है और किसी भी अन्य व्यक्ति, समुदाय या राष्ट्र कों एक पंथ के निजी मामलों में दखल नहीं देना चाहिए. किंतु समस्या ये है कि मुसलमान चाहते हैं कि उनके साथ साथ बाकि दुनिया भी उनकी सोच को अपनाकर मध्य युग में लौट जाए.
कल्पना कीजिये ऐसी मांग भाजपा, संघ या बजरंग दल जैसे संगठनों के नेता या किसी अदने से कार्यकर्ता ने कर दी होती कि हिंदू देवी- देवताओं के अपमान पर कठोर दंडात्मक कानून बने. फिर तो वामपंथी वर्ग की मिडिया समूहों और विभिन्न राजनीतिक दलों ने छाती पीटनी शुरू कर दी होती. देश में हिंदू तालिबानी, भगवा आतंकवाद जैसे नारे गूंज रहे होते. लेकिन यह मांग चुकी मुसलमानों की तरफ से आयी है. इसलिए ऐसा कोई दृश्य ही नहीं बन रहा.
मुसलमानों और उनके धर्म गुरुओं अर्थात् मुल्ला मौलवियों को अपने पंथ यानि इस्लाम पर कोई भी आक्षेप बर्दाश्त नहीं होता लेकिन यही मुसलमान दूसरे पंथो और धर्म के विषय में निम्नतम स्तर की बातें बड़े शान से करते हैं. सबसे पहले इन मौलानाओं को अपने सहपंथीयों को ऐसी हरकतों से रोकना होगा तब वो अपने पंथ के लिए सम्मान की मांग करें.
इन्हीं सबका परिणाम हैं कि ये रोग अब दूसरे पंथों को भी लग रहा है.साल 2018 में पंजाब विधानसभा में भारतीय दंड संहिता में एक नया क्लॉज जोड़ने का प्रस्ताव पारित किया गया था. जिसमें कहा गया था कि भगवत गीता, कुरान, बाइबल और गुरु ग्रंथ साहिब के अपमान नुकसान या नष्ट करने के आरोपी को उम्रकैद की सजा सुनाई जाएगी. हालांकि पंजाब विधानसभा में प्रस्ताव को पारित करने के पीछे वजह थी, साल 2015 में गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी का मामला. भारतीय दंड संहिता की धारा 295A में पहले से ही धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने पर दंड का प्रावधान है. भारतीय दंड संहिता 1860 की धारा 295A के अनुसार वे सभी कार्य अपराध माने जाएंगे जिसमें किसी भी वर्ग की धार्मिक भावनाओं को जानबूझकर आहत करने की दुर्भावनापूर्ण कोशिश हो. इस धारा के तहत आरोपी को 3 साल की कैद का प्रावधान है. लेकिन अब मांग है कि इसी कानून में बदलाव कर सजा को बढ़ाने के साथ और कठोर किया जाए. इधर किसान आंदोलन के दौरान बेअदबी के आरोप में युवक की हत्या के पश्चात् लगातार कपूरथला जैसे बेअदबी के मामलों में लिंचिंग हुई. यह संयोग नहीं प्रयोग सा लगता है. यह भारत को लगातार धार्मिक उन्मादी देश के रूप में चित्रित एवं सामाजिक रूप से अस्थिर करने का प्रयास लगता है.
तकलीफदेह स्थिति ये है कि अब सनातन धर्म भी कट्टरता और प्रतिहिंसा का रुख अपनाने लगा है. सनातन समाज विद्रोह करने वाले या असहमत होने वाले अपने पंथो को भी सम्मान के साथ स्वीकार करता है, चाहे वे बौद्ध, जैन, लिंगायत आदि कोई भी हो. सनातन समाज ने असहमतियों, विरोधों, नये विचारों को सदैव सम्मान दिया हैं इसलिए आज भी वह मानव सभ्यता के इतिहास का सबसे सहिष्णु समाज है. संभवतः वर्तमान में सनातन समाज में पैठ कर रहा धार्मिक उन्माद एवं धर्म के प्रति आग्रह इतिहास की नियति है. ये हिंदू जाति की सैकड़ों वर्षों से अपने धर्म एवं संस्कृति के अपमान से उपजी कुंठा प्रतीत हो रही है. दुनिया के सर्वाधिक सहिष्णु, नम्र, एवं कोमल स्वभाव के समाज को हिंसा की तरफ धकेलने की जिम्मेदारी इन कट्टरपंथी एवं धूर्त शामी पंथों को लेनी होगी जिनके शोषण से सनातन धर्म लगातार पीड़ित रहा है.
एक प्रश्न देश के वामपंथी, गाँधीवादी, समाजवादी और उन सभी तथाकथित पंथनिरपेक्षता के अलम्बदारों से हैं जो आये दिन सनातन समाज में बढ़ रहे धार्मिक आग्रह पर लंबी चौड़ी तक़रीरे दिया करते हैं. कम से कम एक जुलुस मौन ही सही, कोई कैंडल मार्च, कोई लेख और ये भी ना संभव हो तो एक बयान ही जारी कर ऐसी बर्बर मांग करने वालों की मुख़ालफत कर देते. लेकिन नहीं, इनकी नींद तो सिर्फ सनातन धर्म के विरुद्ध ही टूटती है. इन्हीं कारणों से इस तथाकथित पंथनिरपेक्ष वर्ग की विश्वसनियता एवं चरित्र वैसे ही रसातल में है. पिछले दिनों काशी में मंदिर के परकोटे से मस्जिद ढक जाने मात्र से एक मुसलमान युवक के आंसू बहाने को बड़ा प्रचारित किया गया. अच्छा है इस बहाने सनातन धर्म के उपासना स्थलों के ध्वँस पर चर्चा तो हुईं. सोमनाथ मंदिर के ध्वँस पर मीर तकी मीर तंज करते हैं,
‘तोड़कर बुतखाना मस्जिद तो बीना की तूने शेख,
पर हमन के दिल की भी कुछ फ़िक्र है तामीर की.’
लेकिन बड़ा सवाल ये है कि अनुच्छेद 19 अर्थात् अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के बिना संविधान का क्या अर्थ रह जाएगा और अगर किसी की जरा सी आलोचना से अगर कोई पंथ भष्ट होने लगे तो ऐसे पंथ के होने का क्या लाभ है. संविधान तो तर्क और अभिव्यक्ति का रक्षक है और इस्लाम इन्हें अपने लिए खतरा मानता हैं.
इस्लाम अपने सिद्धांतो में इतना रूढ़िबद्ध हैं कि वो कोई भी तर्क, विमर्श या परिवर्तन स्वीकार नहीं करता. इसी के बरअक्स एवं अन्य शामी पंथ ईसाईयत को देखिए. मानव शरीर को कष्ट देने वाले सर्वाधिक यंत्रो का अविष्कार ईसाईयों ने किये. सूर्य केंद्रित सिद्धांत का समर्थन करने के कारण चर्च ने ब्रुनों को जिंदा जलवा दिया. पादरियों के उकसाने पर ‘विंच हंट’ के नाम पर लाखों औरते मार डाली गयी. जीवन भर बुरे आचरण करने वाले अमीरों के लिए चर्च मुक्ति पत्र बेचा करते थे. ऐसे ही दागदार इतिहास के बावजूद आज वे सबसे प्रगतिशील माने जाते हैं क्योंकि बाद में उन्होंने तर्कों एवं असहमतियों को स्वीकार करना सीखा.
उदाहरणस्वरुप बाइबिल का मूल लेखक इसाइया को माना जाता है, जिनका काल 740 से 700 ई. पूर्व था. द्वितीय इसाइया का काल 450 ई. पूर्व था. तृतीय इसाइया का काल इसके बाद है. स्पष्ट है कि बाइबिल के तीन लेखक रहे हैं. राविल्सन ने (सन् 1846) बेबीलोनिया, पर्सिया एवं मिस्र की घटनाओं के आधार पर इन लेखकों का काल, बाइबिल के लिखने की वजह, लेखन स्थान और उसका समय, इन सभी प्रश्नों के यथासंभव उत्तर तलाशने का प्रयास किया था. स्वयं नीत्शे ईसाइयत का प्रखर आलोचक था. उसने व्यंग्य किया हैं कि ईसाई अपने दुश्मन से इसलिए प्रेम करता था कि वह चाहता था कि इसी आधार पर वह स्वर्ग जाए और दुश्मन को नरक की आग में जलता देखकर ख़ुश हो.
इसी प्रकार कई यूरोपीय लेखकों ने ईसा और ईसाईयत पर प्रश्न चिन्ह खड़े किये हैं, उन्होंने बाईबल को दैवी ग्रन्थ भी नहीं स्वीकार किया है. किंतु उनके समाज ने उन्हें धैर्य के साथ सुना ना की फतवे देकर उनकी गर्दनें कटवा दी. ईसाईयत के असहमतियों को सम्मान देने की इसी उदारता के बदौलत आज है वह दुनिया का सर्वाधिक प्रगतिशील धार्मिक पंथ है. इसी प्रगतिशीलता के कारण उन्होंने आधुनिकता हासिल की जिसके बूते एक समय पूरी दुनिया पर राज किया
वही मुस्लिम समाज आज तक मध्ययुगीन परंपराओं के साये में जीता आया है और ज़ब भी किसी ने इनमें सुधार का प्रयास किया हैं तो उसे प्रबल विरोध का सामना करना पड़ा है या अपनी जान गवांनी पड़ी है. डॉ. आंबेडकर अपनी किताब ‘पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन’ में लिखते हैं, “भारत के मुसलमानों में समाज -सुधार हेतु इन बुराइयों का सफलतापूर्वक उन्मूलन के लिए कोई संगठित आंदोलन नहीं उभरा…….. मुसलमान यह महसूस ही नहीं करते कि ये बुराइयाँ हैं. परिणामतः वे उनके निवारण हेतु सक्रियता भी नहीं दर्शाते. इसके विपरीत, अपनी मौजूदा प्रथाओं में किसी भी परिवर्तन का विरोध करते हैं.”
मुस्लिम समाज द्वारा ईशनिंदा क़ानून की मांग के कई निहितार्थ हैं. पाँच राज्यों में आसन्न विधानसभा चुनाव के लिए मुसलमानों के वोटो का ध्रुवीकरण करना और वैसे भी मुसलमानों के नये स्वयंभु मसीहा हैदराबाद के सांसद महोदय चुनावों के मद्देनज़र विभिन्न राज्यों में घूमकर अपने जहरीले सिद्धांत फैलाने में लगे हैं. दूसरे, जिस तरह शांतिपूर्ण ढंग से मुसलमानो द्वारा हिंदूओं की लिंचिंग की गयी, उस पर वामपंथी बुद्धिजीवियों एवं वामपंथी, कांग्रेसी, और अन्य क्षेत्रीय दलों की चुप्पी ने इन कट्टरपंथीयों का हौसला बढ़ाया है.इस कानून से अबहिन्दुओंकी हत्याओं के लिए मुसलमानो के समर्थन का एक धीमा तर्क तो मिल ही जाएगा.वैसे ही जैसे पाकिस्तान के रक्षामंत्री परवेज खट्टक श्रीलंकाई नागरिक की हत्या को जायज ठहरा रहा हैं.
संभवतः सबसे बड़ी वजह यह हो सकती है कि मुसलमान बहुसंख्यक समाज के साथ टकराव की तरफ भी बढ़ना चाहते है. आजादी के बाद जिस तरह विगत छः दशकों से तुष्टिकरण की नीति भारतीय राजनीति का आधार बिंदु रहीं हैं, उससे मुसलमानों में एक तरह अहंकार का भाव स्थायी रूप से घर कर गया है. उन्हें लगने लगा था कि वे इस देश में कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र है. वे कहीं भी नमाज़ पढ़ सकते हैं, कहीं भी – कभी भी दंगे- बलवे कर सकते हैं, दूसरे धर्म या पंथो के धार्मिक आयोजनों में खलल दल सकते हैं, गैर धर्मों की लड़कियों को लव जिहाद का निशाना बना सकतें हैं, इत्यादि. लेकिन 2014 में एनडीए सरकार के सत्ता में आते ही इनकी हरकतों पर लगाम लगी है. कहीं ना कहीं देश को नए अलगाव और विभाजन की तरफ ले जाते अघोषित एजेंडे को धक्का लगा हैं. ऊपर से जिस तरह सनातन समाज ने इन सबके विरुद्ध एकजुटता दिखाते हुए प्रतिकार किया है उससे इन कट्टरपंथीयों की बीच गुस्सा चरम पर है. बहुत संभव हैं कि अब ये खुलकर सामने आये और बहुसंख्यक समाज पर हावी होने का बड़ा प्रयास करे. परन्तु सनातन समाज भी अब अपने धर्म – संस्कृति की रक्षार्थ जागरूक हो रहा. देश की विभिन्न हिस्सों से मिल रहीं ख़बरें यही बता रहीं हैं.
फ्रेडरिक नीत्शे अपनी किताब ‘जरथुष्ट्र ने कहा’ में लिखते हैं, “यही वो लोग हैं, जो उनके सामने लटके तख़्ते पर पुरानी इबारत मिटाकर कुछ नया लिखतेवालों को सलीब पर लटका देते हैं. इस तरह वे हमेशा नए भविष्य को सूली पर चढ़ाते रहते हैं.” हमें नए भविष्य की ओर बढ़ने के लिए इन कट्टरपंथियों का प्रतिरोध करना ही होगा.