भारत के दूरांचल में समुद्र तटीय क्षेत्र विकास की दृष्टि से पीछे रहें हैं। उन तटीय क्षेत्रों पर भी हमने ध्यान नहीं दिया, जो देश के लिए नई आर्थिक और चीन जैसे परंपरागत देश से मिलने वाली चुनौती के लिए सामरिक दृष्टि से अहम् हो सकते हैं। विकास के दृष्टिकोण से महान निकोबार अर्थात अंडमान-निकोबार द्वीप समूह अछूता है। इस परिप्रेक्ष्य में हम इस क्षेत्र को एक तो प्रसिद्ध सेल्यूलर जेल के नाम से जानते हैं, जो अब राष्ट्रीय स्मारक है। दूसरे, उन जनजातियों के लिए जानते हैं, जो आज भी भारत की मुख्यधारा का हिस्सा नहीं बन पाई हैं। नतीजतन अपनी परंपरागत प्राकृतिक आवस्था में रहकर प्रकृति से ही गुजर-बसर कर रही हैं। किंतु अब इस उपेक्षित क्षेत्र की तस्वीर बदलने जा रही है। सिंगापुर की तर्ज पर निकोबार के तट का विकास केंद्र सरकार बड़ी मात्रा में धन का निवेष करके ‘महान निकोबार द्वीप परियोजना‘ (जीएनआई) के अंतर्गत कर रही है। 75 हजार करोड़ की इस बृहद परियोजना के तहत कई परियोजनाओं को अंजाम तक पहुंचाने की तैयारी है। हालांकि परियोजना के अमल से बड़ी मात्रा में पर्यावरण को नुकसान भी होगा। परंतु पूरी दुनिया में पर्यावरण के विनाश की बुनियाद पर ही आधुनिक विकास परिणाम तक पहुंचा है, यह भी एक सत्य है।
निकोबार द्वीप समूह 10 हजार 44 वर्ग किमी क्षेत्र में फैला है। बंगाल की खाड़ी में पोत परिवहन को नया आयाम देते हुए 10 हजार करोड़ रुपए की लागत से एक पोतांतरण बंदरगाह (ट्रांसशीपमेंट पोर्ट) का निर्माण करने की योजना प्रस्तावित है। यह बंदरगाह विकास से जुड़ी गतिविधियों के बड़े केंद्र के रूप में विकसित होगा। विकास के इसी क्रम में चेन्नई से अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह तक तेज इंटरनेट सुविधा उपलब्ध कराने वाली देष की पहली समुद्री आप्टिकल फाइबर परियोजना का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 9 अगस्त 2022 को कर चुके हैं। देश की मुख्य भूमि से 2312 किमी दूर तक तार को समुद्री जल के भीतर बिछाया गया है। इस कठिन और चुनौतीपूर्ण कार्य में 1224 करोड़ रुपए खर्च हुए हैं। इससे इस द्वीप समूह को बेहतर और सस्ती ब्राॅडबैंड संपर्क सुविधा हासिल होगी। इस बंदरगाह को समुद्री जल मार्ग की प्रमुख गतिविधियों के केंद्र के रूप में विकसित किया जा रहा है। वैसे भी यह क्षेत्र दुनिया के कई पोतांतरण बंदरगाहों की तुलना में काफी प्रतिस्पर्धा दूरी पर स्थित हैै। बदलती जरूरतों के परिप्रेक्ष्य में पूरी दुनिया यह मानकर चल रही है कि जिस देश में हवाई अड्ढों और बंदरगाहों का नेटवर्क और कनेक्टिविटी जितनी बेहतर होगी, इक्कीसवीं सदी के व्यापार में वही देश अग्रणी रहेंगे। ऐसे में इस दूरांचल में ढांचागत सुविधाएं बढ़ेंगी तो अंचल का विकास तो होगा ही, अन्य भारतीयों से समरसता भी बढेगी। भारत सरकार को उम्मीद है कि आने वाले चार-पांच साल में इस बंदरगाह का पहला चरण पूरा हो जाएगा।
एक बार जब यह बंदरगाह बन जाएगा तो यहां बड़े-बड़े देशी-विदेशी जहाज भी रुकने लगेंगे. इससे समुद्री व्यापार में भारत की हिस्सेदारी बढ़ेगी और युवाओं के लिए नए रोजगार पैदा होंगे। अकुशल मजदूरों को भी काम-धंधा मिलेगा। इस द्वीप पर विकसित किए जा रहे माल-परिवहन के दो रणनीतिक कंटेनर पोतांतरण टर्मिनल के दो भौगोलिक फायदे होंगे। पहला, यह व्यस्त पूर्वी-पश्चिमी अंतर्राष्ट्रीय जहाजरानी मार्ग के निकट है। अतएव शुरू होने के बाद यह पोतांतरण की बेहतर सुविधा देगा, नतीजतन व्यापारिक गतिविधियां बढ़ेंगी। दूसरे, इस क्षेत्र में आधुनिक ढंग से निर्मित जहाजों से माल उतारने-चढ़ाने की सुविधाएं बंदरगाह पर उपलब्ध होंगी, इस कारण बड़े जहाजों की आवाजाही बढ़ेगी। फिलहाल भारत के ज्यादातर बंदरगाहों पर बड़े जहाज बंदरगाह के प्लेटफाॅर्म तक नहीं पहुंच पाते हैं। ये जलपोत गहरे समुद्री जल में ही चल पाते हैं, इसलिए उथले या कम गहराई वाले बंदरगाहों के प्लेटफाॅर्म तक नहीं जा पाते। नतीजतन इन जहाजों को गहरे जल में ही खड़ा रखना पड़ता है। अतएव छोटे जहाजों में माल उतार व लादकर गंतव्य तक पहुंचने का अतिरिक्त श्रम करना होता है। इस प्रक्रिया में माल का खर्च बढ़ जाता है। एक देश से दूसरे देश जाने वाले मालवाहक पोत बहुत बढ़े होते हैं। इनकी ऊंचाई का एक बड़ा हिस्सा जो 50 से 100 फीट होता है, जल में ही समाया रहता है। इसलिए ये कम गहराई वाले बंदरगाहों के एकदम निकट नहीं पहुंच पाते।
अंडमान-निकोबार का ढांचागत विकास हो जाने पर यहां मछलीपालन, एक्वाकल्चर और सीवीड फाॅर्मिंग का कारोबार बढ़ेगा। भारत के व्यापारी ही नहीं दुनिया के कई देश इस परिप्रेक्ष्य में व्यापार की बड़ी संभावनाएं देख रहे हैं। इस दृष्टि से पोर्टब्लेयर में एक पायलट परियोजना शुरू की गई थी, जिसके परिणाम उत्साहजनक रहे हैं। गुजरात के भावनगर स्थित ‘केंद्रीय नमक व समुद्री रसायन अनुसंधान संस्थान‘ पिछले कई वर्षों से काम कर रहा है। भारत में लगभग 8,118 किमी समुद्र तटीय क्षेत्र है। इस पूरे क्षेत्र में मछलियों और समुद्री शैवाल व एल्गी का बड़ी मात्रा में प्राकृतिक रूप से उत्पादन होता है। प्रधानमंत्री ‘मत्स्य संपदा योजना‘ के अंतर्गत 640 करोड़ रुपए इस संपदा को सुगम खाद्य पदार्थ में बदलने के लिए जा रहे हैं। अंडमान-निकोबार से लेकर समुद्र तटीय मछुआरों की हालत भी मैदानी क्षेत्रों में फैले गरीब व पराश्रित किसानों जैसी ही है। इन तटवर्ती क्षेत्रों में मछली पकड़कर आजीविका चलाने वाले मछुआरों की संख्या करीब आठ करोड़ है। बड़ी नदियों से मछली पकड़कर गुजारा करने वाले भी करीब तीन करोड़ मछुआरे हैं। गोया, तय है अंडमान-निकोबार क्षेत्र में तटवर्ती मछुआरों को इस क्षेत्र के विकास का सीधा लाभ मिलेगा। मछली और सीवीड का कारोबार बढ़ेगा, जिससे इस समुदाय की समृद्धि बढ़ेगी।
महान अंडमान-निकोबार द्वीप समूह का निकोबार क्षेत्र आरक्षित जैवमंडल (बायोस्फीयर) क्षेत्र में आता है। इसे 2013 में विशेष जैवमंडल का दर्जा दिया गया था। भारत में कुल 18 जैवमंडल क्षेत्र हैं, उनमें से एक निकोबार जनजातीय (आदिवासी) आरक्षित वन-भूमि की श्रेणी में है। इस समुद्री क्षेत्र में विषेश प्रजाति के लैदरबैक कछुए, खारे पानी में रहने वाले मगरमच्छ, निकोबारी केकड़े खाने वाले मकाक और प्रवासी पक्षी षामिल हैं। जिनका इस बहुआयामी विकास परियोजना से प्रभावित होना तय है। निर्माणाधीन पोतांतरण टर्मिनल, ऊर्जा संयंत्र, हवाई अड्ढा और आवासीय भवन भी बनाए जा रहे हैं। उत्तरी और मध्य अंडमान के बीच सड़क सुविधा को बेहतर बनाने के लिए दो बड़े पुल निर्माणाधीन हैं और यहां के राष्ट्रीय राजमार्ग का चौड़ीकरण किया जा रहा है। इस सभी परियोजनाओं के लिए जो भूमियां अधिसूचित की गई हैं, उन पर खड़े 8,52,000 पेड़ों को भी काटा जाना है।
इस कारण पर्यावरणविद यह आशंका जता रहे हैं कि इससे यहां के प्राचीन वर्षा-वनों को भारी क्षति होगी। इन्हें हानि होगी तो कई दुर्लभ प्राणी व वनस्पतियों की प्रजातियां और इस भू-भाग का मानसून भी प्रभावित होगा। यही नहीं निकोबार द्वीप समूह में गिनती के रह गए जो जनजातीय समूह आदिम अवस्था में रहते हैं, उनका नैसर्गिक जीवन भी प्रभावित होने की षंका जताई जा रही है। इनमें शोम्पेन और निकोबारी वनवासी जनजातियां शामिल हैं। इनकी संख्या करीब 1761 है। निकोबार में एक विशेष प्रजाति का नहीं उड़ सकने वाला पक्षी मेगापाॅड का भी घर है। इनके कुल 51 घोंसले हैं, जिनमें से 30 पूरी तरह नष्टकर दिये जाएंगे। दरअसल यह विकास गैलेथिया खाड़ी और कैम्पबेल खाड़ी राष्ट्रीय उद्यानों की दस किमी परिधि में होना है, जो पर्यावरणीय दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील क्षेत्र माना जाता है। हालांकि भारतीय प्राणी सर्वेक्षण और अंडमान-निकोबार प्रशासन के वन एवं पर्यावरण विभाग ने दावा किया है कि परियोजना से वन और प्राणियों को नुकसान नहीं होने दिया जाएगा। मैग्रोव वृक्षों के संरक्षण और दस हेक्टेयर में फैली मूंगा चट्टानों की 20,668 बस्तियों में से 16,150 बस्तियों की सुरक्षा मूलस्थान से खिसकाकर की जा रही है।
यदि कुछ पर्यावरणीय हानि उठानी भी पड़ती है तो इसे इसलिए स्वीकारा जाना चाहिए, क्योंकि यह बृहद परियोजना राष्ट्रीय सुरक्षा और नागरिक उद्देश्यों की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जा रही है। इसके तहत सैन्य-नागरिक उपयोग के लिए आवागमन के श्रेष्ठ उपाय किए जा रहे हैं। यहां के अधिकतर विकास कार्य भी नौसेना के नियंत्रण में होने हैं। महान निकोबार द्वीप देश के सुदूर और दुर्गम क्षेत्र का दक्षिणी भाग है। यहां से बंगाल की खाड़ी, दक्षिण और दक्षिण-पूर्वी एशियाई सागर क्षेत्र में भारत को सामरिक और व्यापारिक दृष्टि से महत्वपूर्ण व उपयोगी नियंत्रण की सुविधा इस क्षेत्र के संपूर्ण विकास के बाद हासिल हो जाने की उम्मीद है। दरअसल इसी दक्षिण सागर में चीन का जबरदस्त हस्तक्षेप है। चीन का प्रमुख व्यापार और साम्राज्यवादी दबदबा इसी मलक्का जलडमरू मध्य में सबसे ज्यादा है। लंका तो यहां से निकट है ही, इंडोनेशिया का सुमात्रा द्वीप भी बमुश्किल 90 किमी की दूरी पर है। यह स्थल मलक्का जलडमरू मध्य के पश्चिमी प्रवेश द्वार के करीब है। खाड़ी से तेल ले जाने वाले और पश्चिमी में वस्तुओं का निर्यात करने वाले चीनी जहाज मलक्का जलडमरू मध्य से ही गुजरते हैं। अतएव निकोबार द्वीप पर सैन्य सामग्री व युद्धपोतों को रखने एवं बनाने के लिए डाॅकयार्ड भी यहां बनाए जा सकते हैं। साफ है, जब युद्धपोत यहां खड़े किए जाएंगे तो मिसाइलें भी स्थापित करने के उपाय किए जाएंगे।
इस परियोजना के माध्यम से यह उपाय भारत की सामरिक रणनीति का हिस्सा है। इसके संपन्न हो जाने के बाद भारत चीन को न केवल कड़ा संदेश दे सकेगा l इस परिप्रेक्ष्य में चीन यदि लद्दाख, अरुणाचल प्रदेष और सिक्किम की सीमा पर उत्पात मचाता है तो भारत मलक्का जलडमरू मध्य क्षेत्र में ईंट का जवाब पत्थर से देते हुए चीन की आर्थिक जीवन रेखा का अवरुद्ध करने की शक्ति प्राप्त कर लेगा। हाल ही में भारत ने वियतमान और आस्ट्रेलिया जैसे देशों के साथ जिस ‘लाॅजिस्टिक सपोर्ट एग्रीमेंट‘ को ठोस स्वरुप दिया है, वह रणनीतिक व सामरिक सहयोग और क्षेत्रीय सुरक्षा के परिप्रेक्ष्य में ही हैं। यह समझौता सैन्य, रसद और पेट्रोलियम सुविधाओं के आदान-प्रदान से संबंधित है। अतएव यह चीन के सैन्य विस्तार और आर्थिक प्रभाव को देखते हुए बहुत महत्वपूर्ण है। सिंगापुर, हांगकांग और दुबई ने पहले ही दिखा दिया है कि किस तरह द्वीपों और समुद्री तटों को विकसित करके सामरिक और व्यापारिक महत्ता को एक साथ बढ़ाया जा सकता है। भारत निकोबार में यही कर रहा है।
[लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार है। उपरोक्त उनके निजी विचार हैं]