युवा राजीव गांधीने प्रधानमंत्री बनने के बाद कहा था कि वे भारत को पश्चिमी देशों की नकल नहीं बनाना चाहते। अब तक के हर प्रधानमंत्री ने यह वादा दोहराया है इसके बावजूद भारत के पश्चिमीकरण की रफ्तार बढ़ती गई है। जब भी कोई नई राजनीतिक या आर्थिक संस्था बनाई या नई नीति तैयार की जाती है तो उस पर पश्चिम के औद्योगिक देशों की प्रेरणा और छाप साफ देखी जा सकती है। यह असर केवल संस्थाओं या नीतियों तक सीमित होता तो उसे हम अपने नेताओं की व्यक्तिगत असफलता मान लेते। लेकिन यह तो हमारे सोचने-समझने और तर्क करने में गहरे पैठा हुआ है।
पश्चिम की यह नकल क्या है जिससे हमारा हर प्रधानमंत्री बचाना चाहता है लेकिन देश उससे बच नहीं पाता ज्यादातर लोगों के लिए इसका मतलब अंधाधुंध औद्योगीकरण है। वे बतायेंगे कि लोगों के रोजगार की कीमत पर हमें अपने उत्पादन के ढांचे का मशीनीकरण नहीं करना चाहिए। पश्चिमी देशों में पर्यावरण को लेकर बढ़ती हुई चिंता ने इन आलोचनाओं को काफी प्रेरित किया है। वे चाहते हैं कि अपने उत्पादन के ढांचे में हमें पहले से ही ऐसे इंतजाम कर लेने चाहिए जिससे यह खामियाजा न उठाना पड़े। उन्हें आप अक्सर यह कहते सुनेंगे कि जो उपभोक्ता वस्तुओं पर नहीं जीवन की गुणवत्ता पर दिया जाना चाहिए।
लोगों के अधिकारों की फिक्र करने वाले लोगों को पश्चिम की नकल का मतलब सत्ता का अनावश्यक केंद्रीकरण भी दिखाई देता है। सारी ताकत किसी एक केंद्र में इकट्ठा करना बुरा है। राज्य जितना ज्यादा ताकतवर होगा लोगों के अधिकारों पर वह उतना ही ज्यादा अंकुश लगायेगा। राजा के इन आलोचकों को पश्चिम की इस अनिवार्य बुराई से छूटने का तरीका सत्ता के विकेंद्रीकरण में दिखाई देता है। जो लोग इस बहस को पूंजीवाद या समाजवाद के खांचे में बांट कर देखते हैं उन्हें केंद्रीकरण बुरा नहीं लगता। सत्ता का पूंजीवादी शक्तियों के हाथों में होना बुरा लगता है। अगर यही सत्ता साम्यवादी पार्टी के हाथ में चली जाये तो वे बर्दाश्त करने लायक मान लेंगे।
कुछ लोग इससे एक कदम और आगे जाकर शिक्षा, संस्कृति या सामाजिक रिश्तों में पश्चिमी नकल की आलोचना करते हुए मिल जाएंगे। ऐसे सब लोगों की मान्यता है कि पश्चिमी सभ्यता व्यक्तिवाद पर आधारित है और सामाजिक रिश्तों को रूखा और स्वार्थपरक बना चुकी है। इन बुराइयों से बचने के लिए जरूरी है कि हम अपने सामाजिक ढांचे और उनकी मान्यताओं को व्यक्तिवाद से चार हाथ दूर रखें। साम्यवादियों के लिए यह बुराई भी पश्चिमी सभ्यता की नहीं पूंजीवादी सभ्यता की देन है। उन्हें यूरोप के साम्यवादी देशों में यह बुराई नजर नहीं आती। न उन्हें मार्क्सवादी सिद्धांत व्यक्तिवादी मान्यताओं से ग्रसित लगते हैं।
बीमारी की यह पहचान सही हो तो उसका इलाज करने में हमें समर्थ होना चाहिए। लेकिन इन बुराइयों की तरफ इशारा करने वाले अधिकांश आलोचक इनके इलाज के लिए पश्चिमी देशों की तरफ ही ताकते दिखाई देंगे। वहीं से कोई नीम हकीम इलाज खोज लायेंगे और उसे अपने यहां लागू करने की मांग करते रहेंगे। पश्चिम का असर देश में नई खड़ी हो रही व्यवस्था के समर्थकों पर ही नहीं है, इस व्यवस्था के अधिकांश आलोचकों पर भी यह कमोबेश उसी मात्रा में दिखाई देता है। इस सभ्यता की मान्यताएं तो हम वहां से ले ही रहे हैं उसकी आलोचना में मुद्दे भी वहीं से सीखने की कोशिश कर रहे हैं और इसका इलाज भी ढूंढ़ रहे हैं।
नई व्यवस्था खड़ी करने में लगे लोगों ने मान लिया है कि पश्चिमी दुनिया जिस तरह बन रही है उसी तरह दुनिया भर को होना है। जब उन्हें इसकी मुश्किलें दिखाई पड़ती हैं तो वे कुछ सफाई देने के अंदाज में कहते हैं कि हमारे यहां की परिस्थितियां अलग हैं। इसलिए हमसे अपने देश में पश्चिमी औद्योगिक सभ्यता की एक अनुकृति की आशा नहीं की जानी चाहिए, फिर भी वे अपनी वही कोशिश नहीं छोड़ते। उसका सपना यही रहता है कि किसी तरह अपने यहां वे वैसी ही कोई दुनिया बना लें।
यह पश्चिमी सभ्यता आखिर है क्या? अगर वह मशीनों से पैदावार, केंद्रीकरण की तरफ बढ़ता हुआ राज्य का ढांचा, बाजार की शक्तियों से तय होने वाली जीवन शैली और व्यक्तिवाद पर आधारित सामाजिक संबंध ही हो तो इस सभ्यता का एक भारतीय संस्करण बनाना मुश्किल नहीं है। आप तकनीक में सुधार कर सकते हैं, राज्य और नागरिकों का संबंध तय करने वाले राजनैतिक ढांचे को उदार बना सकते हैं और सत्ता को विेकेंद्रित कर सकते हैं। इसी तरह बाजार पर सामाजिक नियंत्रण बढ़ा सकते हैं और ऐसे शैक्षणिक आंदोलन चला सकते हैं जिनसे व्यक्तिवादी मान्यताओं पर चोट होती हो। इस तरह की कोशिश प्रयोग के तौर पर पश्चिमी देशों में भी खूत हुई है और अक्सर हमारे यहां पर भी। ये सब विशेषताएं पश्चिमी सभ्यता का बाहरी स्वरूप हैं। सभ्यताएं अपने समय और समाज की जरूरतों के हिसाब से बनती बदलती रहती हैं। उनका बाहरी स्वरूप इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना उनका केंद्रीय विचार। यह केंद्रीय विचार ही सभ्यता को नई जरूरतों के हिसाब से ढालने में मदद देता है। सभ्यताएं अटकलपच्चू की तरह नहीं बदला करतीं। अपने हर परिवर्तन के लिए वे अपनी बुनियादी मान्यताओं से ही प्रेरणा लेती हैं। अगर वे अपनी धुरी से हट जायें तो उन्हें नष्ट होने में ज्यादा समय नहीं लगेगा।
हर सभ्यता की बुनियादी मान्यताएं उसकी संस्थाओं के ढांचे में ही नहीं जीवन और समाज के पूरे ताने-बाने में घुली-मिली रहती है। अक्सर इस ढांचे में या सोच की दिशाओं में बहुत बड़े परिवर्तन हो जाते हैं। ऐसा लगता है कि सभ्यता का स्वरूप ही बदल गया हो। लंबी ऐतिहासिक छानबीन के बाद समझ में आता है कि यह परिवर्तन जितने भी बड़े दिखाई देते रहे हों थे फौरी ही। यूरोप के मध्यकालीन आर्थिक और राजनीतिक ढांचे से उसके आज के राजनैतिक और आर्थिक ढांचे की सतही तुलना करें तो कोई समानता दिखाई नहीं देगी। यह फर्क सोचने, समझने के तरीके और विषय में तो और भी ज्यादा नजर आएगा। इसके बावजूद यूरोप की ऐतिहासिक दृष्टि में और आर्थिक राजनैतिक जीवन के ढांचे को बनाने वाले नियमों में शायद ही कोई परिवर्तन आया है।
पश्चिमी इतिहास के व्याख्याकारों ने यूनानी दृष्टि, ईसाई मान्यताओं और आधुनिक भौतिकवादी दर्शनों में फर्क किया है; और कल तक ईसाई मान्यताओं और भौतिकवादी दर्शनों को उत्तरी और दक्षिणी धु्रवों पर बताया जा रहा था। पर अब काफी लोग यह कहने लगे हैं कि आधुनिक औद्योगिक दर्शन की मूल प्रेरणाएं ईसाई ही हैं। ईसाई धर्म ने ही प्रगति के विचार की नींव डाली थी। जिसने कुछ सदियों पहले औद्योगिक शक्तियों की प्रेरक मान्यता का रोल निभाया था। ईसाई धर्म के सर्वसत्तावादी ढांचे से ही औद्योगिक केंद्रीकरण की प्रेरणा मिली। इसी केंद्रीकरण का एक चेहरा मार्क्सवादी देशों की नियंत्रित राज्यसत्ता है। लेकिन अभी ईसाई धर्म के ईश्वरवाद और माक्र्सवाद के कट्टर भौतिकवाद में कोई रिश्ता बैठाने की कोशिश नहीं हुुई। इसी तरह यूनानी बुद्धिवाद को यूरोप के परवर्ती दृष्टिकोण से भिन्न बताया जाता रहा है।
मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों को लगता था कि कार्ल मार्क्स के विचारों से दुनिया के बौद्धिक चिंतन में एक अभूतपूर्व क्रांति हो गयी है। दुनिया के इतिहास को अब मार्क्सवाद से पहले और मार्क्सवाद के बाद के युग में बांट कर रही देखा जाना चाहिए। अपनी इस क्रांतिकारिता पर तो अब खुद उनके विचारकों ने प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। लेकिन तब भी कम लोग मानेंगे कि यूनानी द्वैत, ईसाई ईश्वरवाद और मार्क्सवादी भौतिकवाद की आधारभूमि एक ही है।
भारतीय और पश्चिम दृष्टि में बुनियादी फर्क क्या है? करीब सौ बरस पहले महात्मा गांधी ने यह गुत्थी सुलझाने की कोशिश शुरू की थी। सबसे पहले उन्होंने भारत की सनातन मान्यताओं को समझा। और जब उन्हें ये मान्यताएं समझ में आईं तो उन्होंने देखा कि भारतीय और पश्चिमी दृष्टि में सिर्फ फर्क नहीं है, दोनों एक दसरे से उलट हैं। अपनी इस खोज के नतीजों को उन्होंने सबसे स्पष्ट शब्दों में करीब 50 वर्ष पहले केरल में दिए गए एक भाषण में बताया था। इस भाषण में उन्होंने कहा है कि हमारी सनातन मान्यताओं का निचोड़ ईशावास्योपनिषद के पहले श्लोक में आ जाता है।
यह श्लोक बताता है कि समूचा जगत एक ही ईश से व्याप्त है। उसके लिए इसका त्याग करते हुए अपने भाग का उपभोग करो। धन का लोभ मत करो क्योंकि वह किसी का नहीं है। महात्मा गांधी का यह दावा गलत नहीं है कि इस मंत्र में भारतीय मान्यताओं का सार बता दिया गया है। भारतीय मान्यता यही है कि समूची दृष्टि देवत्व से ओत-प्रोत है। त्याग की भावना रखते हुए ही उपभोग करना चाहिए। जीवन का उद्देश्य अनादि और अनश्वर चेतन तत्व से एकाकार होना है।
भारत में अनेकों संप्रदाय रहे हैं। उनमें और जो भी फर्क रहे हों एक बात में सब समान हैं। उनकी जिज्ञासा आध्यात्मिक है और लौकिक व्यवहार धर्म से नियमित हैं। उन्होंने व्यक्ति के जीवन, समाज और इस पूरी सृष्टि में देवत्व के तत्व ढूंढ़ने की कोशिश की है। समाज की व्यवस्था के नियम इसी में से पाए गए हैं। हमारे यहां नैतिक मान्यताएं तार्किक उपलब्धियां नहीं हैं। इसीलिए उसके बारे में ज्यादा विवाद नहीं रहा और वे भारतीय चित्त का अंग हो गईं।
यह पश्चिमी अर्थों में ईश्वरवादी दृष्टि नहीं है। इन मान्यताओं के लिए किसी नियंत्रक ईश्वर की जरूरत नहीं है। इन्हें बौद्धों ने मंजूर किया है और जैनों ने भी। दोनों में कोई ईश्वर को नहीं मानते। इन दोनों संप्रदायों ने जीवन के श्रेष्ठ नियमों को पहचानने और उन पर चलने के लिए ही प्रेरित किया है। कोई भी संप्रदाय यह दावा नहीं करता कि ये श्रेष्ठ नियम समाज में व्यवस्था पैदा करने के लिए उसने बनाये हैं। नियम अगर तार्किक उपलब्धियां हों तो उनसे आसानी से खिलवाड़ की जा सकती है।
इस मूल दृष्टि को ग्रहण करने के बाद भारतीयों ने उसी के आधार पर यम-नियम बनाए। सामाजिक संस्थाएं गढ़ीं। आचार-विचार की लंबी-चौड़ी संहिताएं तैयार कीं। प्रकृति के नियमों की खोज शुरू की। अनेक विद्याएं इसी खोज के दौरान विकसित हुईं। उत्पादन का एक ढांचा खड़ा हुआ, समाज चलाने के कायदे कानून बने, राज्य की शक्ति और मर्यादाएं तय हुईं। समाज के इसी आंतरिक और बाह्य ताने-बाने को आज की भाषा में सभ्यता कह सकते हैं।
भारत और पश्चिम के इतिहास और मान्यताओं की सतही तुलनाएं करने वाले लोग आश्चर्य जताते रहे हैं कि भारत में सभ्यता या संस्कृति जैसे विचार प्रचलित क्यों नहीं रहे। पश्चिम के भौतिकवादी दिमाग में कोरा शक्ति का आग्रह रहा है। दूसरों की लूट और नियंत्रण के आधार पर उसने सभ्यताएं खड़ी की हैं और अपने पराभव के दिनों में उसी का सपना देखा है। सभ्यता शब्द यूरोप में बहुत पुराना नहीं है। लेकिन इसका अहसास पुराना है। भारत में कोई कम वैभवशाली सभ्यताएं नहीं रहीं। इसके बावजूद वे हमारा इष्ट नहीं थीं। भारतीय समाज का इष्ट धर्म रहा है और उसी की चेतना उसमें सबसे ज्यादा रही है।
दोनों के ऐतिहासिक अनुभव में फर्क यही है कि भारत ने पहले धर्म पा लिया और उससे सभ्यता का स्वरूप निश्चित किया। पश्चिमी समाजों में अपनी सभ्यता के सपने में से नैतिक आदर्श प्राप्त किए गए। इसमें दोनों की व्यवस्थाओं के बुनियादी स्वरूप को प्रभावित किया है। पश्चिम की पूरी सभ्यता शक्ति के संग्रह पर आधारित है इसलिए उसमें वर्ग विभाजन और वर्ग वैषम्य इतना तीखा होकर उभरा। भारतीय सभ्यता त्याग की भावना से भोग करने पर केंद्रित हुई। इसलिए यज्ञ की परंपरा ही पल्लवित नहीं हुई; उन सब संस्थाओं में जहां शक्ति का संचय होता है उसके नियमित पुनर्वितरण के नियम बनाए गए। राजाओं और मंदिरों से लगाकर दूसरी सामाजिक संस्थाओं तक को अपनी संपत्ति के तीन या पांच वर्ष में पूरी तरह पुनर्वितरण की मान्यता बनी। निजी जीवन में यज्ञ और सामाजिक जीवन में साधनों के नियमित पुनर्वितरित करने के ही कारण हम इतने लंबे समय तक एक समताशील समाज बनाए रख सके। हमारी सभ्यता में कमजोरियां और बुराइयां न रही हों ऐसी बात नहीं है। वे हमारे समाज की व्यावहारिक असफलताएं हैं। लेकिन हमारी सनातन मान्यताएं इन बुराइयों का कारण नहीं हैं।
दोनों दृष्टियों की उथली छानबीन करने वाले लोगों ने अक्सर कहा है कि पश्चिमी चिंतन में व्यक्ति की स्वतत्रता पहले आती है और समाज के नियम कायदे बाद में। जबकि भारत में वर्ण व्यवस्था व्यक्ति को समाज के हित में उत्सर्ग करने के लिए प्रेरित करती रही है। इस अधकचरी समझ में यह मोटी बात नजअंदाज कर दी गई कि भारत में व्यक्ति या समाज द्वंद्वात्मक स्थिति में नहीं हैं। धर्म से ही व्यक्ति भी परिचालित होता है और समाज भी। यह धर्म सामाजिक संस्थाओं या राजनैतिक नियम कायदों से ऊपर है इसलिए वह दोनों में से किसी को वरीयता नहीं देता। वर्ण व्यवस्था का जिक्र बहुत किया जाता है मगर किसी ने यह बारीकी से जांच करने की कोशिश नहीं की कि इसकी मान्यताएं क्या थीं और समाज पर वे किस हद तक लागू थीं। वर्ण व्यवस्था का मूल उद्देश्य सत्य की साधना को शक्ति की साधना से ऊपर रखना रहा है। सामाजिक व्यवस्था में वैसे जातियों का महत्व ही ज्यादा रहा है और उन्होंने अपने दायरे के भीतर लोगों के राजनैतिक सामाजिक अधिकारों के संरक्षण में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हर हालत में भारत का सामाजिक-राजनैतिक ढांचा पश्चिमी ढांचे से कहीं उदार रहा है। और उसने राज्य को या दूसरी किसी शक्ति को व्यक्तिगत या सामाजिक जीवन में निरंकुश होकर उत्पीड़क हो जाने से रोका है।
सृष्टि की यह समझ पुरानी सभ्यताओं को बनाने में ही अपना रोल अदा नहीं करती थी। आज की सभ्यताएं भी कमोबेश इन्हीं की धुरी पर घूमती हैं। इन सभ्यताओं के व्यावहारिक नियम-कायदे या स्वरूप बदलता रहता है। उसकी आशा आकांक्षाएं बदलती रहती हैं। उसकी भौतिक उपलब्धियां और उनका आकलन बदलता रहता है। लेकिन समाज के चित्त को निर्धारित करने वाले मूल तत्व नहीं बदलते।
अगर हम भारतीय सभ्यता को पुनर्जीवित करना चाहते हैं तो हमें भी भारत की सनातन मान्यताओं की जरूरत पड़ेगी। पिछले दो सौ वर्ष में हमारे यहां राज्य शक्ति, शिक्षा और राजनैतिक-आर्थिक ढांचे के जरिये पश्चिम की भौतिकवादी मान्यताएं फैलाने की कोशिश हुई है। इसने पढ़े-लिखे लोगों के एक बड़े वर्ग को दुविधा में जरूर डाल दिया है। यह वर्ग दो स्तरों पर जीने लगा है। उसके संस्कार एक तरफ जाते हैं तो बौद्धिक मान्यताएं दूसरी तरफ। लेकिन विशाल भारतीय समाज की बुनियादी मान्यताएं आज भी परंपरागत ही हैं। यही वजह है कि भारत में पश्चिम की नकल का संसार बनाने की तीव्र इच्छा शक्ति पैदा नहीं हो पाती। दूसरी तरफ महात्मा गांधी ने भारत की पुरानी मान्यताओं और संस्थाओं को राष्ट्रीय आंदोलन का औजार बना दिया था। इसलिए वे देश की इतनी बड़ी शक्ति एकजुट कर पाए।
महात्मा गांधी ने नए धर्मशास्त्र की भूमिका भर लिखी है अपनी संनातन मान्यताओं के आधार पर पूरा शास्त्र हमें तैयार करना है। दुर्भाग्य से गांधीजी के समकालीन नेताओं ने उनके द्वारा उठाई गई बहस के मूल मुद्दों को बिना समझे ही उसे निपटा दिया। उनके जमाने में ही उनके विचारों पर सारा विवाद मशीन समर्थक या मशीन विरोधी धुरियां बनाकर समाप्त कर दिया गया। तकनीक सभ्यता की आंतरिक शक्ति नहीं होती उसका ऊपरी स्वरूप होती है। पहले बहस इस बात पर होनी चाहिए थी कि भारत की सनातन मान्यताएं एक बेहतर सभ्यता पैदा कर सकती है या पश्चिम की आज की भौतिकवादी दृष्टि। हुआ यह कि गांधीे ज्यादातर समर्थकों ने भी जाने-अनजाने अधिकांश भौतिकवादी मान्यताओं को ज्यों का त्यों मंजूर कर लिया और उसके बाद भारतीय सभ्यता के स्वरूप के बारे में गांधी के विचारों को परखना शुरू किया।
हमारे लिए सभ्यता के ऊपरी उत्पादन महत्वपूर्ण नहीं हैं। बहुत से मामलों में गांधीजी की ऐतिहासिक जानकारी भी पुख्ता नहीं थी। उन्हें हमारी सनातन मान्यताओं की गहरी समझ थी और अपने समय की सामाजिक स्मृति में जो जानकारियां हासिल की जा सकती थी वे उन्होंने ले ली थीं। इसके आधार पर उन्होंने एक आदर्श व्यवस्था का चित्र खींचने की कोशिश की। उनके समकालीनों को पश्चिमी औद्योगिक समाज की नकल पर खड़े हो रहे व्यावहारिक ढांचे में गांधी की आदर्श व्यवस्था को उतारना असंभव लगा। इसीलिए उन्होंने यह कोशिश ही छोड़ दी।
अपनी सभ्यता की भरी पूरी तस्वीर बनाने से पहले जरूरी है कि हम अपनी सनातन मान्यताओं के हिसाब से अपने राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक ढांचे के सिद्धांत तथा मोटे नियम तय करें। इनके आधार पर कौन सी संस्थाएं पैदा की जानी चाहिए यह सोचें। समाज के मोटे लक्ष्य और उन्हें पाने के रास्ते तय करें। इसके लिए हमें पश्चिम के मौजूदा शास्त्रों से छुट्टी पानी होगी। अगर हम अपना आर्थिक ढांचा बनाते हैं तो उसके लिए पश्चिमी अर्थशास्त्र काम में नहीं आ सकता न राजनैतिक ढांचे को खड़ा करने में पश्चिम के राजनीति शास्त्र मान्यताओं से ज्यादा मदद मिल सकती है। इसके लिए हमें नए धर्मशास्त्र बनाने ही पड़ेंगे।
अक्सर दुनिया की सभ्यताओं के बाहरी स्वरूप में इतना फर्क नहीं होता जितना सभ्यता को चलाने वाले नियमों में होता है। इससे पहले भी दुनिया भर की सभ्यताओं की ऊपर बनावट में ज्यादा फर्क नहीं रहा। पश्चिमी सभ्यता शहर केंद्रित रही होगी लेकिन पीछे की बात जाने दीजिए सत्रहवीं शताब्दी में ही दुनिया के सबसे बड़े और सबसे अधिक शहर भारत में ही थे। इस शताब्दी तक भारत विज्ञान और तकनीक के मामले में यूरोप से आगे ही था। खेती और दूसरी तरह की पैदावार का स्वरूप और ढांचा मोटे तौर एक जैसा था। सिर्फ उसके संगठन के नियमों में फर्क था।
यह मान लिया गया है कि दूसरी चीजों में फर्क हो सकता है लेकिन प्राकृतिक विज्ञान की खोजबीन का स्वरूप सार्वभौमिक है। इस मान्यता में जितनी सच्चाई है उससे कहीं ज्यादा मान ली गई है। प्रकृति को समझने के उद्देश्य उसके नियमों की व्याख्या को प्रभावित करते हैं। इसलिए विज्ञान की जानकारी और उसके आधार पर खोज के उद्देश्यों को थोड़ा सा भी बदल दें। पश्चिमी विज्ञान और प्रौद्योगिकी के अंध समर्थकों को यह मोटा फर्क दिखाई नहीं देता।
सबसे बड़ी झिझक इस गलतफहमी को लेकर होती है कि चारों तरफ फल-फूल रही इस दुनिया में हम अपनी कोई अलग दुनिया कैसे बना सकते हैं? इस झिझक को पाले बैठे लोगों को लगता है अगर हम भारतीय सभ्यता बनाने बैठे तो रेलगाड़ी या हवाई जहाज सबकी छुट्टी करनी पडेगी। यह सब गलतफहमियां सभ्यता और उसके मूलभूत विचारों के रिश्ते की समझ न होने की वजह से होती है। जो लोग सभ्यता के ऊपरी स्वरूप को ही सभ्यता मानकर चलते हैं उनकी यह उलझन दूर नहीं हो सकती।
(भारतीय सभ्यता के सूत्र) से साभार