1% लोगों ने देश को अपने चंगुल में जकड़ा हुआ है और 10% लोग उनके माया-जाल में जाने- अंजाने फंसे हुए हैं। उन्होंने साफ-साफ कहा कि इनकी “सिविल लाइंस” अलग बनाकर इन्हें उनके हिसाब से जीने दो, क्योंकि रूस की तरह हम इन्हें मार तो नहीं सकते। लेकिन 90% लोगों को लोकतांत्रिक ढंग से अपने हिसाब से जीने का प्रबंध सुनिश्चित कर दें।
भारतीय सांस्कृतिक विरासत के लुप्त सूत्रों को तलाश कर उन्हें संजोने और अगली पीढ़ियों को सौंपने के काम को जीवन का लक्ष्य बनाकर चलने वाले धर्मपाल जी, वास्तव में, भारतीय सांस्कृतिक पुनर्जागरण के पुरोधा थे। 19 फरवरी, 2021- 22 धर्मपाल जी का 100 वां वर्ष होगा। 24 अक्टूबर, 2006 को 84 वर्ष की आयु में उनका स्वर्गवास हुआ। उन्होंने अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया उस पवित्र लक्ष्य के लिए, जिसको गांधी जी ने अपने हिंद स्वराज के अंत में कहा था कि “स्वराज की धूनी में रमना पड़ेगा’’ और साथ ही ये भी कहा था कि मैं स्वयं को इस काम के लिए समर्पित करता हूँ।
वे एक ऐसे अध्येता और संधानकर्ता थे जिन्होंने देश के बाहर जाकर अंग्रेजी साम्राज्य के हजारों दस्तावेजों के लाखों पृष्ठों को उलट- पलटकर उनमें अंकित भारतीय श्रेष्ठता से सम्बंधित तथ्यों को खोज निकाला। ये कहना चाहिए कि धर्मपाल का ये काम उनको आनंद कुमारस्वामी और कुमारप्पा की श्रेणी में खड़ा कर देता है। ये केवल समझने के लिए कहा है, महान विभूतियों में सबका अपना विशिष्ट योगदान होता है।
वे कमाल के धुनी इंसान थे, तभी तो सरसंघचालक सुदर्शन जी सहित उनके इतना कायल थे। वो ही क्यों, न जाने कितने थे! उन दिनों जब प्रमुख पत्रिका IIIustrated Weekly of India के मुख्य आलेख के रूप में उनकी भेंट-वार्ता सामने आई तो पूरा देश चकित था। पंचायती राज हो या विज्ञान और प्रोद्योगिकी अथवा भारतीय शिक्षा व्यवस्था का अद्धुत दस्तावेज “The Beautiful Tree’’, एक से बढ़कर एक – पूरा बौद्धिक जगत नत्मस्तक था उनकी प्रतिभा के सामने।
लोहा-इस्पात की देशज तकनीकी
उनसे आई० आई० टी० दिल्ली में पहली भेंट के दौरान – “18वीं शताब्दी में भारत में विज्ञान और प्रोद्योगिकी” विषय पर चर्चा हुई। धर्मपाल जी ने लोहा और इस्पात बनाने की उस तकनीकी का विस्तार से विवरण दिया, जिसमें अपने घर के पिछवाड़े में लोहा भट्टी में हमारे जनजातीय लोग उच्च स्तर का लोहा और इस्पात बनाते थे। उन्होंने मिर्जापुर- पलामू के अगडिया जनजाति का उल्लेख किया। संयोगवश जल्दी ही झारखंड के क्षेत्र में कुछ अध्ययन के लिए घूमते हुए मुझे साप्ताहिक हाट बाजार में एक बूढ़ा आदमी मिल गया। पहली नजर में लगा कि खूब शराब पिये था। उसने बताया कि छोटी उम्र में अपने बाप के साथ लोहा भट्टी में काम करते हुए आंखें कुछ लाल हो गयी थीं। उस दिन पहली मुलाकात में नगु बाबा से इतनी जानकारी मिली।
इसके कुछ समय बाद मई, 1982 में हमारी कार्यशाला में ग्राम सर्वेक्षण की रिपोर्ट में पटना से आये हरेंद्र जी ने पुरानी भट्टी में काम करने वाले रिसा पाट के निवासी महतो असुर के बारे में बताया। इसके पहले, नगु बिरजिया हापुड़ पाट के थे। बिशुनपुर के दो दिशा में दो जगह से एक ही तरह की रिपोर्ट। फिर लगभग सौ किलोमीटर दूर जशपुर की भट्टियों की जानकारी मिली। वहाँ एक अन्य जाति के कारीगर लोहरा समाज अलग ढंग से लोहा बनाते थे।
मेरा ध्यान कृषि औज़ारों से लोहा-इस्पात की देशज तकनीक पर केंद्रित हो गया। सीमित संसाधनों से शोध थोड़ा आगे बढ़ा। National Metalurgy Laboratory NML Jamshedpur के निर्देशक प्रो० बनर्जी का बिशुनपुर में आये तो नगु बाबा की भट्टी देखकर उछल पड़े। वे पहले आई० आई० टी० मुंबई में प्रो० बल्लाल और प्रो० राव के साथ इस विषय का शोध कर रहे थे। बल्लाल दक्षिण भारत में ऐसी भट्टी को ढूंढ रहे थे। एक विशेष प्रोजेक्ट के रूप में एक साथ बिशुनपुर और चेन्नई से शायद प्रो० बनर्जी ने समन्वय किया। PPST में धर्मपाल जी की उपस्थिति में एक समन्वय बैठक हुई और दोनों प्रयासों का तालमेल हुआ।
ये प्रयास आगे बढ़ता गया, प्रो० बनर्जी की भागीदारी बढ़ी। इस बीच नया मोड़ आ गया कि नगु बाबा ने बिशुनपुर कार्यशाला की भट्टी में काम रोक दिया, साफ बोले कि ‘यहाँ नहीं होगा, यहाँ भूत है’। वे अपनी पहाड़ी पर लौट गये। कुछ माह बाद अचानक मेरे घर में प्रकट हुए और बहुत उल्लास में बोले— “मालिक ! बन गया !! हो गया !!’’ लगातार असफलता के बाद नगु बाबा अपने बाप- दादा की तकनीक को 60 साल के बाद फिर से दोहरा पाये थे। “Ureka!” वाला दृश्य था। 1988 में नगु बाबा की पहाड़ी के घर के एक कोने में दो भट्टियों को देखने राँची, जमशेदपुर, BHU और IIT मुबई के चोटी के वैज्ञानिक एकत्र हुए। जब 1997 में नागपुर में राष्ट्रीय कारीगर पंचायत के मंथन में नगु बाबा का प्रो० यशपाल ने स्वागत किया और गले लगाया तो वहाँ धर्मपाल उपस्थित थे। VNIT के प्रो० विजय डिडोलकर ने इस तकनीकी का प्रदर्शन भी रखा था, लेकिन भारी वर्षा के कारण ठीक से नहीं हुआ।
रोचक होने पर भी पूरी कथा लंबी है। यह प्रसंग भी इसलिए आया क्योंकि पहले कहा था कि मैंने धर्म पाल जी को जितना पढ़ा और सुना उससे अधिक गुना और अभ्यास किया है।
विदेशी मकड़जाल से बाहर आना होगा —
आई० आई० टी०में हुई चर्चा के बाद मैंने धर्म पाल जी को GPF में एक स्मृति व्याख्यान में सुना। ये बात शायद 1982 की है। अपने प्रिय विषय अंग्रेजी प्रभाव पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि भारत में 1% लोग अभी तक यूरोप के प्रभाव से मुक्त नहीं हुए हैं। करीब 10% लोग उनके प्रभाव में हैं। शेष 90% आम आदमी इस देश की मिट्टी और परंपरा से जुड़ा हुआ है। इन 1% लोगों ने देश को अपने चंगुल में जकड़ा हुआ है और 10% लोग उनके माया-जाल में जाने- अंजाने फंसे हुए हैं। उन्होंने साफ-साफ कहा कि इनकी “सिविल लाइंस” अलग बनाकर इन्हें उनके हिसाब से जीने दो, क्योंकि रूस की तरह हम इन्हें मार तो नहीं सकते। लेकिन 90% लोगों को लोकतांत्रिक ढंग से अपने हिसाब से जीने का प्रबंध सुनिश्चित कर दें। अपने देश का शासन चलाने दें तो ये 10% भी धीरे धीरे सुधर जायेंगे। ये सोच गांधी– लोहिया- दीनदयाल और जे पी की सोच से मेल खाती थी। ऐसा मुझे गहराई से महसूस हुआ। मैंने 1982 में ही दिल्ली छोड़ने और किसी जनजातीय क्षेत्र से जुड़ने का निर्णय लिया।
एक और उल्लेख प्रासंगिक है। वर्ष 1974 में नागपुर में बिहार आंदोलन की समीक्षा बैठक में संघ परिवार के दिग्गज विचारक दत्तोपंत ठेंगडी उपस्थित थे। विद्यार्थी परिषद के सभी वरिष्ठ थे, राम बहादुर राय और गोविंदाचार्य भी थे। गंभीर मुद्दा था कि जे पी के संपूर्ण क्रांति का नारा भारतीय सोच से कितना मेल खाता है? जनेऊ तोड़ो का नारा जे पी ने एक सभा में दिया था। तब उस चर्चा में राय साहेब ने साफ किया कि सांस्कृतिक मुद्दों पर अभी कोई सहमति नहीं बनी है, अभी तक चर्चा भी नहीं हुई है, बात इतनी जरूर है कि उत्पादन और खपत के मौजूदा संबंधों में आमूल बदलाव की जरूरत है । राय साहेब की ये बात मुझे समझ में आई।
इसी संदर्भ में, धर्म पाल जी की सोच का मेल बैठ गया था।
गोवंश पर रिपोर्ट में सद्भाव का नया संदेश
धर्म पाल जी ने पहली बार एक सरकारी संगठन केंद्र सरकार के पशु आयोग का अध्यक्ष बनना स्वीकार किया। ऐसा श्री गुरुमूर्ति के समन्वय से संभव हो सका। गोवंश संरक्षण की भावना से उत्प्रेरित इस आयोग की रिपोर्ट कई दृष्टि से ऐतिहासिक है। ये रिपोर्ट सांप्रदायिक सद्भाव की दृष्टि से बहुत बड़ा दस्तावेज है। ये धर्म पाल जी का अंतिम दस्तावेज है, इसके बाद वे अधिक समय हमारे बीच नहीं रहे।
इस आयोग का निष्कर्ष था कि —–
- भारत में गोमांस की नियमित आपूर्ति अंग्रेज सैनिकों की जरूरत थी। इसी अवधि में गायों की हत्या का बड़े पैमाने पर चलन हुआ, कत्लखाने बढ़ते गए।
- अंग्रेजों ने अपनी चाल से इसमें मुस्लिम व्यापारियों को प्रोत्साहित किया।
- अंग्रेजों के आने से पहले गोहत्या बहुत कम थी, क्योंकि मुस्लिम समाज के पास मांसाहार के अन्य विकल्प थे, बकरों का मांस प्रचलित था, अन्य पशुओं का भी इस्तेमाल होता था। अरब से आये लोगों में गोमांस का आम तौर पर प्रचलन नहीं था।
- भारत में शुरुआती हिंसा के बाद अधिकांश मुस्लिम शासकों ने अपने साम्राज्य की स्थिरता के लिए भाईचारा बढ़ाने पर जोर दिया। इसलिए गोवंश की हत्या रोकने पर जोर दिया था। धर्म पाल ने ऐसे कई आदेशों का विवरण भी दिया है।
सद्भाव बढ़ाने का ये काम धर्म पाल ही कर सकते थे क्योंकि अंग्रेजी राज के इतने दस्तावेज अन्य किसी के पास नहीं थे।
अयोध्या- भारतीय पुरुषार्थ और पराक्रम की ऐतिहासिक अभिव्यक्ति
चेन्नई में समाजनीति समीक्षा केंद्र (CPS- Centre for Policy Studies) में एक परिचर्चा की शुरुआत सुविख्यात पत्रकार अरुण शौरी ने 3 जनवरी, 1993 को की और 28 फरवरी को धर्मपाल ने समापन किया। वरिष्ठ सांसद और मुस्लिम लीग तमिलनाडु के अध्यक्ष अब्दुस समद, Casimir Gnanadickam, Archbishop of Madras-Mylapore, गोविंदाचार्य और एस गुरुमूर्ति ने भी इसे संबोधित किया। परिचर्चा के निष्कर्ष और धर्मपाल जी का संबोधन बहुत अर्थपूर्ण है। बेहतर होता कि हम उसे बिना अनुवाद किये रखते। संक्षेप में उन्होंने साफ तौर पर कहा था कि अयोध्या का ढांचा किसी षडयंत्र के तहत गिरा अथवा आम लोगों की पहल से, दोनों ही स्थितियों में लगता है कि यह सहज ही था। अब प्रश्न यह है कि क्या हमारा मूल एक सहज भारतीय का है। सच यह है कि रूस में येलत्सिन के परिदृश्य में आने के बहुत पहले ही वहां के लोगों ने लेनिन के प्रतीकों से मुक्ति पा ली थी। पूरी दुनिया में यही हो रहा है। हम क्या आज भी यूरोपीय समाज की तरह बनना चाहते हैं, ऐसा तो नहीं लगता। भारत के लोग थोपे गए दबावों से मुक्त होना चाहते हैं। यही हमारी ताकत है और हम दुनिया की दया पर नहीं रहना चाहते।
डॉ० जितेंद्र बजाज इस गंभीर विमर्श के निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए अंत में लिखते हैं कि ऐसे समय में हमें कुछ नहीं, सिर्फ भारतीय सभ्यता की निरंतरता और भारतीय जनता के तौर तरीकों की मजबूती में भरोसा रखना है। अयोध्या के श्रीराम संभवतः इस मुश्किल रास्ते में हमारे मददगार होंगे।
राम – राज्य की संकल्पना समूचे भारत वासियों और पूरी दुनिया में बसे हिंदू समाज के लिए गहरी आस्था का विषय है। इस अवधारणा में धर्माधिष्ठित समाज-केंद्रित राज्य व्यवस्था है। ये गांधी के पंचायती-राज, लोहिया के चौखंबा-राज, दीनदयाल उपाध्याय के पंचवलयी-शासन और जेपी के सामुदायिक–प्रबंधन से पूरा मेल खाती है। लेकिन भारत की मौजूद व्यवस्था विदेशी संकल्पना पर आधारित है। आज नहीं तो कल, देश को इस बेमेल ढांचे को भी ध्वस्त करना होगा। ये आसान नहीं, क्योंकि वर्तमान नेताओं और अमीरों का इसे ही जारी रखने में स्वार्थ है। डॉ० अंबेडकर के नाम पर कसमें खाने वालों को सम्भवतः ये मालूम नहीं है कि डॉ० अंबेडकर को जो ड्राफ्ट दिया गया था, उसको अंबेडकर ने नहीं बनाया था। वो ड्राफ्ट अंग्रेजों की देन था। डॉ० राजेंद्र प्रसाद ने स्वीकार किया है कि आई सी एस बी एन राव की सहमति के बिना कुछ नहीं होता था, उनको नेहरू का पूरा समर्थन प्राप्त था, वे वायसराय के प्रतिनिधि थे।
अब देश में नयी आशा जगी है। आत्म निर्भर भारत के संकल्प में सभी स्तरों पर स्वावलंबन की चर्चा शुरू हो गयी है। श्री राम मंदिर का निर्माण शुरू होते समय प्रधान मन्त्री और सरसंघचालक ने इस बात पर बहुत जोर दिया है। पूरी उम्मीद बनी है कि आज़ादी के 75 वर्ष और धर्मपाल के शताब्दी वर्ष में ये राष्ट्रीय संकल्प बनेगा और तदनुरूप ठोस कदम आगे बढ़ेंगे। यही सच्ची श्रद्धाजंलि होगी पुण्यात्मा धर्मपाल के प्रति जिन्होंने पूरा जीवन माँ भारती की सेवा में अर्पित कर दिया ।