देश संकट में है. ये संकट धार्मिक टकराव का है जो तत्क्षण पैदा नहीं हुआ. यह एक लंबी विवादास्पद ऐतिहासिकता की उपज हैं. इस संघर्ष की प्रक्रिया में विवादित बयान, उकसाऊ जुमले, उन्मादी जुलुस, क्रूर हत्यायें, राजनीतिक हस्तक्षेप आदि इस प्रक्रिया के अंग बन चुके हैं. नूपुर शर्मा के बयान से उपजा विवाद अभी तक त्वरा के साथ देश के जनजीवन को दिक्कत में डाले हुए है. उधर दूसरी तरफ से भड़काऊ बयानबाजी का दौर प्रारम्भ हो गया. अजमेर दरगाह के खादिम सलमान चिश्ती ने नूपुर शर्मा को गोली मारने की धमकी देते हुए ऐसा करने वाले को इनाम में पैसे और मकान देने की घोषणा की. इसके अलावा राजस्थान के एक मौलाना मुफ़्ती नदीम अख्तर ने सार्वजनिक रूप एक जुलुस में नूपुर शर्मा मामले में कानून के खिलाफ भी जाने की धमकी दी. तो अजमेर के चिश्ती सरवर ने 800 साल इस्लामिक हुकूमत की याद दिलाते हुए फिर हुकूमत कायम करने के लिए धमकाया. दूसरी ओर उदयपुर और अमरावती की निर्मम हत्याओं के विरोध में हिन्दू संगठनों ने 9 जुलाई को दिल्ली में ‘हिन्दू संकल्प मार्च’ नामक विशाल रैली निकाली. ऐसी रैलियों का आयोजन जयपुर एवं अजमेर में भी किया गया.
अभी बदज़ुबानियों से उत्पन्न विवाद थमें नहीं थे कि इसी बीच लीना मणिमेकलई नामक एक अनाम निर्देशक ने अपनी ‘काली’ फ़िल्म का विवादित पोस्टर जारी किया गया.पोस्टर में माँ काली की भेषभूषा धारण किये एक महिला क़ो धूम्रपान करते हुए प्रदर्शित किया गया है. पार्श्व में LGBTQ समुदाय का झंडा दिखाया गया है. हिन्दू संगठन इसका विरोध करते हुए उक्त इधर इस विवाद में टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा भी कूद पड़ी और देवी काली पर अभद्र टिप्पणी की. इस विवाद को और बढ़ाते उन महिला ने एक दूसरा पोस्टर ट्वीट किया जिसमें शिव-पार्वती को सिगरेट पीते प्रदर्शित किया गया है.
विवाद बढ़ने पर उनका मानना था कि वे अपनी आवाज़ उठा रही हैं. हो सकता है. संविधान अपनी बात कहने का अधिकार देता है. लेकिन क्या यथार्थ इतना ही है. वर्तमान वास्तविकता यह है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एवं समीक्षा के अधिकार का प्रयोग सामाजिक-सांस्कृतिक उन्नति के बजाय विवाद पैदा करने में अधिक किया जाने लगा है. यह विवाद की कोशिश नहीं तो क्या है? जहां एक तरफ धार्मिक टकराव से जनतंत्र त्रस्त है वही इस विवाद के बीच यह विवादास्पद और भद्दा पोस्टर जारी करने का कोई औचित्य नहीं था. वही भाजपा नेता अरुण यादव को पैग में पैगम्बर नजर आ रहा है.
ऐसा लगता है कि इस देश को धार्मिक हिंसा की आग में झोंक देने की होड़ सी लग गई है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एवं स्वधर्म पालन के संविधान प्रदत्त मूल अधिकारों का प्रयोग देश को धार्मिक उन्माद पर धार्मिक संघर्षों की ओर धकेलने में किया जा रहा है एवं आश्चर्यजनक रूप से उन अधिकारों का हवाला भी दिया जा रहा है. प्रथमदृष्टया देखें तो ऐसा प्रतीत होता है कि हम मध्ययुग में लौट गये हैं जहां धर्म राष्ट्र के जीवन में एक अंग होने के बजाय धर्म ही राष्ट्र का पर्याय हो गया है. विचारणीय मसला यह है कि आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा यह राष्ट्र मौलिक अधिकारों और कर्तव्यों को किस दृष्टि से देखता है?
देश का संविधान कुछ बुनियादी मूल्यों की नींव पर प्रतिष्ठित है. संविधान में शामिल मूल अधिकार (भाग-3 में अनुच्छेद 12 से 35 तक) इस अवधारणा पर आधारित है कि किसी भी राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों में नागरिकों के कुछ अनिवार्य अधिकार अनुल्लंघनीय बने रहें. संविधान प्रदत्त मूल अधिकार अग्रलिखित हैं. समता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18), स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19-22), शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 22-24), धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 29-30), संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32). इन मूल अधिकारों का रक्षक भारत का सर्वोच्च न्यायालय है.
हालांकि मूल अधिकारों के बहुत से पहलू हैं जिनकी संविधान में व्याख्या नहीं की गई है लेकिन वे मानवीय गरिमा के लिए अनिवार्य हैं जैसे पुलिस कार्रवाई करने में विफलता, गैर-कानूनी तौर पर हिरासत में रखना, झूठे मामलों में फ़साना, मुक़दमे की त्वरित सुनवाई का अधिकार, हिरासत में हिंसा के विरुद्ध अधिकार, निजता का अधिकार आदि. समय-समय पर उच्चतम एवं विभिन्न उच्च न्यायालयों ने अपने निर्णयों में मौलिक एवं मानवाधिकारों की व्याख्या की हैं और उसके फलक को विस्तृत किया है. उदाहरणस्वरुप रणजीत सिंह ब्रह्मजीत सिंह शर्मा बनाम महाराष्ट्र सरकार मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि महिलाओं के साथ अन्याय, प्रदूषण, दलितों का सामाजिक बहिष्कार, मानव अधिकार के उल्लंघन के विविध स्वरूप है.
तात्पर्य यह है कि संविधान ना सिर्फ लोगों को अधिकार देता है बल्कि उसकी सुरक्षा भी करता हैं. हालांकि मूल अधिकारों के उपयोग में संयम की बड़ी आवश्यकता एवं समझ का होना जरुरी है. लिपमैन के शब्दों में, “आपके प्रत्येक अधिकार के साथ आपका एक दायित्व भी जुड़ा रहता है जिसे पूरा किया जाना जरूरी है.” संविधान सभा ने अधिकार तो दिए लेकिन कर्तव्यों की कोई सूची नहीं दी क्योंकि उसका ऐसा मानना था कि प्रत्येक नागरिक इन मूलभूत कर्तव्यों का स्वभाविक रुप से पालन करेगा इसलिए इनकी अलग से उल्लेखित करने की आवश्यकता नहीं महसूस की गई.
नवीन जिंदल बनाम भारत संघ मामले में सर्वोच्च न्यायालय का भी कहना था कि, “मूल कर्तव्य, मूल अधिकारों की अवधारणा में ही अंतर्निहित हैं और मूल अधिकारों के उपयोग में कुछ प्रतिबंध लगाते हैं.” वर्ष 1969 चंद्रभवन बोर्डिंग बनाम मैसूर राज्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी थी कि, “यह सूचना भ्रांति है कि संविधान के अंतर्गत केवल अधिकार दिए गए हैं, कर्तव्य नहीं.” लेकिन जनता इस दृष्टिकोण को ठीक से आत्मसात नहीं कर पाई. अतः संविधान में मूल कर्तव्यों की प्रतिष्ठा करनी पड़ी.
मूल कर्तव्य वह प्रणाली है जिनका उद्देश्य व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सामाजिक हितों के बीच संतुलन कायम करना है. इन कर्तव्यों से कोई सार्वजनिक दायित्व नहीं बढ़ते बल्कि यह व्यक्ति के रूप में नागरिकों पर लागू होते हैं. भारतीय समाज में राजनीतिक उदासीनता एवं बढ़ती विघटनकारी प्रवृतियों के शमन हेतु 42वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 के द्वारा भाग-4क के अंतर्गत अनुच्छेद 51क क़ो जोड़कर 10 मूल कर्तव्यों क़ो शामिल किया गया. जिसमें संविधान का पालन, राष्ट्रीय आंदोलन के आदर्शों का सम्मान, भारत की संप्रभुता और अखंडता की रक्षा, देश में समरसता और समानता की भावना का निर्माण, प्राकृतिक पर्यावरण एवं सार्वजनिक संपत्ति की सुरक्षा हिंसा से दूरी आदि शामिल हैं. 86वें संविधान अधिनियम 2002 के द्वारा 6 से 14 वर्ष के बच्चों की शिक्षा के अवसर उपलब्ध कराने के रूप में 11वां कर्तव्य जोड़ा गया.
स्वर्ण सिंह समिति (1976) की अनुशंसा के बाद 42वें संशोधन के जरिये संविधान में शामिल मौलिक कर्तव्य, सार्वभौम मानवाधिकार घोषणा के अनुच्छेद 29(1) के अनुरूप है. जिसके अनुसार, ” प्रत्येक व्यक्ति का समुदाय के प्रति कर्तव्य है, जिसमें व्यक्तित्व का उन्मुक्त और पूर्ण विकास संभव है.” लेकिन दो दशकों के बीतने के बावजूद यह देखा गया कि भारतीय समाज अधिकारों के प्रति जितना आग रही है उतना कर्तव्यों के प्रति नहीं.
इसी अंतराल को भरने के लिए 1999 में गठित वर्मा समिति ने मौलिक कर्तव्यों को और अधिक कारगर बनाने के तौर तरीके सुझाए थे. बाद में संविधान समीक्षा के लिए वर्ष 2000 में गठित राष्ट्रीय आयोग (वेंकेटचलैया आयोग) ने अपनी रिपोर्ट में मौलिक कर्तव्यों के महत्व एवं क्रियान्वयन पर बल दिया था. 20 साल पहले संविधान के कार्य करने के तरीके की समीक्षा के लिए गठित राष्ट्रीय आयोग ने जब न्यायमूर्ति वर्मा समिति के सुझाव पर विचार किया था तो उसके समक्ष जो सबसे महत्वपूर्ण सवाल था वह आज भी सबसे बड़ी चुनौती बना हुआ है पर यह सवाल था : क्या अनुच्छेद 51 क ने अपना उद्देश्य पूरा किया है, अगर नहीं तो इसके प्रावधान को बनाने वाले लोगों ने अपने नागरिक के रूप में अपने लोकतांत्रिक कर्तव्यों के निर्वहन में कहां पर चूक की और अपने साथ ही नागरिकों को निराश किया.
लास्की लिखते हैं, “अधिकार कार्यों से जुड़े हैं और केवल कर्तव्य पालन के बदले ही दिए जाते हैं.” अनुच्छेद 51 ए का अधिदेश अनिवार्य नहीं, बल्कि बाध्यकारी है. यह स्पष्ट करता है कि प्रत्येक नागरिक के कुछ कर्तव्य है जिसका उन्हें पालन करना है. एम्स विद्यार्थी संघ बनाम एम्स और अन्य (2001) मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा है, ” अनुच्छेद 51 ए के अनुसार मौलिक कर्त्तव्य, मौलिक अधिकारों की तरह किसी अदालती आदेश द्वारा बाध्यकारी नहीं बनाए गए हैं लेकिन इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.—– देश सभी नागरिकों का समुच्चय है और इसलिए, हालांकि अनुच्छेद 51 ए देश के लिए कोई मौलिक कर्त्तव्य अलग से निर्धारित नहीं करता लेकिन यह वास्तविकता बनी रहती है कि भारत के प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य देश का सामूहिक कर्त्तव्य है.”
उपरोक्त तथ्यों और वक्तव्य के आधार पर देश की वर्तमान परिस्थितियों पर नजर डालें तो प्रतीत होता है कि हम संविधान की मूल भावना से कब का मुंह फेर चुके हैं. देश में अधिकार एवं कर्तव्यों के बीच संघर्ष की अजीब सी स्थिति पैदा हो गई है. जहां लोगों कों अपने मूल अधिकारों की ठीक जानकारी तो नहीं ही है एवं कर्तव्यों के विषय में जानने की किसी को रूचि नहीं है.
अधिकार एवं कर्तव्यों के बीच के असंतुलन ने आज संविधानवाद की अवधारणा क़ो क्षीण किया है. मूल कर्तव्यों मात्र नागरिक ही नहीं बल्कि नैतिक भी होते हैं. इन कर्तव्यों का सम्बन्ध भारतीय परंपरा, धार्मिक मूल्यों एवं पद्धतियों से अनुप्रेरित हैं. मूल कर्तव्य इस सोच को पुष्ट करते हैं कि किसी राष्ट्र में नागरिक लोकतंत्र का केवल मूकदर्शक नहीं बल्कि राष्ट्र के उन्नयन में सहभागी है. आज अधिकारों के नाम पर लोग कुछ भी अनर्गल बोलकर विवाद पैदा करने और सस्ती लोकप्रियता पाने के प्रयास में है. रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य मामले (1950) में सर्वोच्च न्यायालय ने मुखरता से वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा की थी. किंतु एस. रंगराजन बनाम पी. जगजीवन राम मामले (1989) में उच्चतम न्यायालय ने अभिव्यक्ति और उसके कारण सार्वजनिक व्यवस्था भंग होने की संभावना क़ो ‘बारूद के ढ़ेर में चिंगारी’ के समान बताया.
आस्था है तो तर्क भी है. धार्मिक उन्माद एवं कट्टरता है तो समरसता एवं सर्वधर्म समभाव भी है. सियासत है तो समाज भी है. ऐसे ही अधिकार हैं तो कर्तव्य भी है. अब विचारात्मक प्रश्न ये है कि आज जो लोग विवादों को पैदा करते हुए इसे अपने मूल अधिकार का मसला बता रहे हैं उन्हें संभवत: किंचित मात्र भी अपने कर्तव्यों का भान नहीं या वे उसकी परवाह ही नहीं करते. ध्यातव्य है कि मूल अधिकार एवं मूल कर्तव्य एक दूसरे से आबद्ध हैं. इन्हें भिन्न परिपेक्ष्य एवं सुविधानुसार अपनाने के प्रयास से संदर्श बिगड़ जाएगा.
महात्मा गांधी कहते हैं, “अधिकारों का असली स्रोत कर्तव्य हैं. अगर हम सब अपने कर्तव्यों का पालन करें तो अधिकार हासिल करना मुश्किल नहीं होगा. अगर हम अपने कर्तव्यों को पूरा किए बगैर अधिकारों की और भागेंगे तो वे भी मृग मरीचिका की तरह हमसे दूर भाग जाएंगे.” समाज में वैमनस्यता प्रसार के इन नये उन्नायकों के लिए यह समझना नितांत आवश्यक है कि वे अधिकार एवं कर्तव्यों के एक दूसरे के प्रति पूरकता को समझें नाकि उन्हें एक दूसरे का प्रतिद्वन्दी बनाये. क्योंकि जिस दिन समाज उन्माद के भंवर में फसेगा तो उसकी तबाही इन नफरती नाखुदाओं तक भी जरूर पहुंचेगी.